कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! साधना करते समय सबसे पहले साधु को चक्षु ( आँख ) इन्द्रिय को साधना चाहिये । यानी आँखों पर नियंत्रण रखे । वह किसी विषय पर इधर उधर न भटके । उसे भली प्रकार नियंत्रण में करे । और गुरु के बताये ग्यान मार्ग पर चलता हुआ सदैव उनके द्वारा दिया हुआ नाम भाव पूर्ण होकर सुमरन करे ।
5 तत्वों से बने इस शरीर में ग्यान इन्द्रिय आँख का संबंध अग्नि तत्व से है । आँख का विषय रूप है । उससे ही हम संसार को विभिन्न रूपों में देखते हैं । जैसा रूप आँख को दिखायी देता है । वैसा ही भाव मन में उत्पन्न होता है । आँख द्वारा अच्छा बुरा दोनों देखने से राग द्वेष भाव उत्पन्न होते हैं । इस मायारचित संसार में अनेकानेक विषय पदार्थ हैं । जिन्हें देखते ही उन्हें प्राप्त करने की तीवृ इच्छा से तन और मन व्याकुल हो जाते हैं । और जीव ये नहीं जानता कि ये विषय पदार्थ उसका पतन करने वाले हैं । इसलिये एक सच्चे साधु को आँख पर नियंत्रण करना होता है ।
सुन्दर रूप आँखों को देखने में अच्छा लगता है । इसी कारण सुन्दर रूप को आँख की पूजा कहा गया है । और जो दूसरा रूप कुरूप है । वह देखने में अच्छा नहीं लगता । इसलिये उसे कोई नहीं देखना चाहता । असली साधु को चाहिये कि वह इस नाशवान शरीर के रूप कुरूप को एक ही करके माने । और स्थूल देह के प्रति ऐसे भाव से उठकर इसी शरीर के अन्दर जो शाश्वत अविनाशी चेतन आत्मा है । उसके दर्शन को ही सुख माने । जो ग्यान द्वारा विदेह स्थिति में प्राप्त होता है ।
हे धर्मदास ! कान इन्द्रिय का संबंध आकाश तत्व से है । और इसका विषय शव्द सुनना है । कान सदा ही अपने अनुकूल मधुर शुभ शब्द को ही सुनना चाहते हैं । कानों द्वारा कठोर अप्रिय शब्द सुनने पर चित्त क्रोध की आग में जलने लगता है । जिससे बहुत अशांति होकर बैचैनी होती है । सच्चे साधु को चाहिये कि वह बोल कुबोल ( अच्छे - खराब वचन ) दोनों को समान रूप से सहन करे । सदगुरु के उपदेश को ध्यान में रखते हुये ह्रदय को शीतल और शांत ही रखे ।
हे धर्मदास ! अब नासिका यानी नाक के वशीकरण के बारे में भी सुनो । नाक का विषय गंध होता है । इसका संबंध प्रथ्वी तत्व से है । अतः नाक को हमेशा सुगंध की चाह रहती है । दुर्गंध इसे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती । लेकिन किसी भी स्थिर भाव साधक साधु को चाहिये कि वह तत्व विचार करता हुआ इसे वश में रखे । यानी सुगंध दुर्गंध में सम भाव रहे ।
हे धर्मदास ! अब जिभ्या यानी जीभ इन्द्रिय के बारे में जानो । जीभ का संबंध जल तत्व से है । और इसका विषय रस है । यह सदा विभिन्न प्रकार के अच्छे अच्छे स्वाद वाले व्यंजनों को पाना चाहती हैं । इस संसार में 6 रस मीठा कङवा खट्टा नमकीन चरपरा कसैला हैं । जीभ सदा ऐसे मधुर स्वाद की तलाश में रहती है । साधु को चाहिये कि वह स्वाद के प्रति भी सम भाव रहे । और मधुर अमधुर स्वाद की आसक्ति में न पङे । रूखे सूखे भोजन को भी आनन्द से गृहण करे ।
जो कोई पंचामृत ( दूध दही शहद घी और मिश्री से बना पदार्थ ) को भी खाने को लेकर आये । तो उसे देखकर मन में प्रसन्नता आदि का विशेष अनुभव न करे । और रूखे सूखे भोजन के प्रति भी अरुचि न दिखाये ।
हे धर्मदास ! विभिन्न प्रकार की स्वाद लोलुपता भी व्यक्ति के पतन का कारण बनती है । जीभ के स्वाद के फ़ेर में पङा हुआ व्यक्ति सही रूप से भक्ति नहीं कर पाता । और अपना कल्याण नहीं कर पाता ।
हे धर्मदास ! जब तक जीभ स्वाद रूपी कुँए में लटकी है । और तीक्ष्ण विष रूपी विषयों का पान कर रही है । तब तक ह्रदय में राग द्वेष मोह आदि बना ही रहेगा । और जीव सत्यनाम का ग्यान प्राप्त नहीं कर पायेगा ।
हे धर्मदास ! अब में पाँचवी काम इन्द्रिय यानी जननेन्द्रिय के बारे में समझाता हूँ । इसका संबंध जल तत्व से है । जिसका कार्य मूत्र वीर्य का त्याग और मैथुन करना होता है । यह मैथुन रूपी कुटिल विषय भोग के पाप कर्म में लगाने वाली महान अपराधी इन्द्री है । जो अक्सर इंसान को घोर नरकों में डलवाती है । इस इन्द्री के द्वारा जिस दुष्ट काम की उत्पत्ति होती है । उस दुष्ट प्रबल कामदेव को कोई बिरला साधु ही वश में कर पाता है ।
काम वासना में प्रवृत करने वाली कामिनी का मोहिनी रूप भयंकर काल की खानि है । जिसका गृस्त जीव ऐसे ही मर जाता है । और कोई मोक्ष साधन नहीं कर पाता । अतः गुरु के उपदेश से काम भावना का दमन करने के बजाय भक्ति उपचार से शमन करना चाहिये ।
स्पष्टीकरण - यहाँ बात सिर्फ़ औरत की न होकर स्त्री पुरुष में एक दूसरे के प्रति होने वाली काम भावना के लिये है । क्योंकि मोक्ष और उद्धार का अधिकार स्त्री पुरुष दोनों को ही समान रूप से है । अतः जहाँ कामिनी स्त्री पुरुष के कल्याण में बाधक है । वहीं कामी पुरुष भी स्त्री के मोक्ष में बाधा समान ही है । काम विषय बहुत ही कठिन विकार है । और संसार के सभी स्त्री पुरुष कहीं न कहीं काम भावना से गृसित रहते हैं । काम अग्नि देह में उत्पन्न होने पर शरीर का रोम रोम जलने लगता है । काम भावना उत्पन्न होते ही व्यक्ति की मन बुद्धि से नियंत्रण समाप्त हो जाता है । जिसके कारण व्यक्ति का शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक पतन होता है ।
हे धर्मदास ! कामी क्रोधी लालची व्यक्ति कभी भक्ति नहीं कर पाते । सच्ची भक्ति तो कोई शूरवीर संत ही करता है । जो जाति वर्ण और कुल की मर्यादा को भी छोङ देता है ।
कामी क्रोधी लालची इनसे भक्ति न होय । भक्ति करे कोई सूरमा जाति वर्ण कुल खोय ।
अतः काम जीवन के वास्तविक लक्ष्य मोक्ष के मार्ग में सबसे बङा शत्रु है । अतः इसे वश में करना बहुत आवश्यक ही है ।
हे धर्मदास ! इस कराल विकराल काम को वश में करने का अब उपाय भी सुनो । जब काम शरीर में उमङता हो । या कामभावना बेहद प्रबल हो जाये । तो उस समय बहुत साबधानी से अपने आपको बचाना चाहिये । इसके लिए स्वयँ के विदेह रूप को या आत्मस्वरूप को विचारते हुये सुरति ( एकाग्रता ) वहाँ लगायें । और सोचें कि मैं ये शरीर नहीं हूँ । बल्कि मैं शुद्ध चैतन्य आत्मस्वरूप हूँ । और सत्यनाम तथा सदगुरु ( यदि हों ) का ध्यान करते हुये विषैले काम रस को त्यागकर सत्यनाम के अमृतरस का पान करते हुये इसके आनन्ददायी अनुभव को प्राप्त करे ।
हे धर्मदास ! काम शरीर में ही उत्पन्न होता है । और मनुष्य अग्यानवश स्वयँ को शरीर और मन जानता हुआ ही इस भोग विलास में प्रवृत होता है । जब वह जान लेगा कि वह 5 तत्वों की बनी ये नाशवान जङ देह नहीं है । बल्कि विदेह अविनाशी शाश्वत चैतन्य आत्मा है । तब ऐसा जानते ही वह इस काम शत्रु से पूरी तरह से मुक्त ही हो जायेगा ।
मनुष्य शरीर में उमङने वाला ये काम विषय अत्यन्त बलबान और बहुत भयंकर कालरूप महाकठोर और निर्दयी है । इसने देवता मनुष्य राक्षस ऋषि मुनि यक्ष गंधर्व आदि सभी को सताया हुआ है । और करोंङो जन्मों से उनको लूटकर घोर पतन में डाला है । और कठोर नरक की यातनाओं में धकेला है । इसने किसी को नहीं छोङा । सबको लूटा है ।
लेकिन जो संत साधक अपने ह्रदय रूपी भवन में ग्यान रूपी दीपक का पुण्य प्रकाश किये रहता हो । और सदगुरु के सार शब्द उपदेश का मनन करते हुये सदा उसमें मगन रहता हो । उससे डरकर ये कामदेव रूपी चोर भाग जाता है ।
जो विषया संतन तजी मूढ ताहे लपटात । नर ज्यों डारे वमन कर श्वान स्वाद सो खात ।
कबीर साहब ने ये दोहा नीच काम के लिये ही बोला है । इस काम रूपी विष को जिसे संतों ने एकदम त्यागा है । मूरख मनुष्य इस काम से उसी तरह लिपटे रहते हैं । जैसे मनुष्यों द्वारा किये गये वमन यानी उल्टी या पल्टी को कुत्ता प्रेम से खाता है ।
Do you believe that forks are evolved from spoons ?
5 तत्वों से बने इस शरीर में ग्यान इन्द्रिय आँख का संबंध अग्नि तत्व से है । आँख का विषय रूप है । उससे ही हम संसार को विभिन्न रूपों में देखते हैं । जैसा रूप आँख को दिखायी देता है । वैसा ही भाव मन में उत्पन्न होता है । आँख द्वारा अच्छा बुरा दोनों देखने से राग द्वेष भाव उत्पन्न होते हैं । इस मायारचित संसार में अनेकानेक विषय पदार्थ हैं । जिन्हें देखते ही उन्हें प्राप्त करने की तीवृ इच्छा से तन और मन व्याकुल हो जाते हैं । और जीव ये नहीं जानता कि ये विषय पदार्थ उसका पतन करने वाले हैं । इसलिये एक सच्चे साधु को आँख पर नियंत्रण करना होता है ।
सुन्दर रूप आँखों को देखने में अच्छा लगता है । इसी कारण सुन्दर रूप को आँख की पूजा कहा गया है । और जो दूसरा रूप कुरूप है । वह देखने में अच्छा नहीं लगता । इसलिये उसे कोई नहीं देखना चाहता । असली साधु को चाहिये कि वह इस नाशवान शरीर के रूप कुरूप को एक ही करके माने । और स्थूल देह के प्रति ऐसे भाव से उठकर इसी शरीर के अन्दर जो शाश्वत अविनाशी चेतन आत्मा है । उसके दर्शन को ही सुख माने । जो ग्यान द्वारा विदेह स्थिति में प्राप्त होता है ।
हे धर्मदास ! कान इन्द्रिय का संबंध आकाश तत्व से है । और इसका विषय शव्द सुनना है । कान सदा ही अपने अनुकूल मधुर शुभ शब्द को ही सुनना चाहते हैं । कानों द्वारा कठोर अप्रिय शब्द सुनने पर चित्त क्रोध की आग में जलने लगता है । जिससे बहुत अशांति होकर बैचैनी होती है । सच्चे साधु को चाहिये कि वह बोल कुबोल ( अच्छे - खराब वचन ) दोनों को समान रूप से सहन करे । सदगुरु के उपदेश को ध्यान में रखते हुये ह्रदय को शीतल और शांत ही रखे ।
हे धर्मदास ! अब नासिका यानी नाक के वशीकरण के बारे में भी सुनो । नाक का विषय गंध होता है । इसका संबंध प्रथ्वी तत्व से है । अतः नाक को हमेशा सुगंध की चाह रहती है । दुर्गंध इसे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती । लेकिन किसी भी स्थिर भाव साधक साधु को चाहिये कि वह तत्व विचार करता हुआ इसे वश में रखे । यानी सुगंध दुर्गंध में सम भाव रहे ।
हे धर्मदास ! अब जिभ्या यानी जीभ इन्द्रिय के बारे में जानो । जीभ का संबंध जल तत्व से है । और इसका विषय रस है । यह सदा विभिन्न प्रकार के अच्छे अच्छे स्वाद वाले व्यंजनों को पाना चाहती हैं । इस संसार में 6 रस मीठा कङवा खट्टा नमकीन चरपरा कसैला हैं । जीभ सदा ऐसे मधुर स्वाद की तलाश में रहती है । साधु को चाहिये कि वह स्वाद के प्रति भी सम भाव रहे । और मधुर अमधुर स्वाद की आसक्ति में न पङे । रूखे सूखे भोजन को भी आनन्द से गृहण करे ।
जो कोई पंचामृत ( दूध दही शहद घी और मिश्री से बना पदार्थ ) को भी खाने को लेकर आये । तो उसे देखकर मन में प्रसन्नता आदि का विशेष अनुभव न करे । और रूखे सूखे भोजन के प्रति भी अरुचि न दिखाये ।
हे धर्मदास ! विभिन्न प्रकार की स्वाद लोलुपता भी व्यक्ति के पतन का कारण बनती है । जीभ के स्वाद के फ़ेर में पङा हुआ व्यक्ति सही रूप से भक्ति नहीं कर पाता । और अपना कल्याण नहीं कर पाता ।
हे धर्मदास ! जब तक जीभ स्वाद रूपी कुँए में लटकी है । और तीक्ष्ण विष रूपी विषयों का पान कर रही है । तब तक ह्रदय में राग द्वेष मोह आदि बना ही रहेगा । और जीव सत्यनाम का ग्यान प्राप्त नहीं कर पायेगा ।
हे धर्मदास ! अब में पाँचवी काम इन्द्रिय यानी जननेन्द्रिय के बारे में समझाता हूँ । इसका संबंध जल तत्व से है । जिसका कार्य मूत्र वीर्य का त्याग और मैथुन करना होता है । यह मैथुन रूपी कुटिल विषय भोग के पाप कर्म में लगाने वाली महान अपराधी इन्द्री है । जो अक्सर इंसान को घोर नरकों में डलवाती है । इस इन्द्री के द्वारा जिस दुष्ट काम की उत्पत्ति होती है । उस दुष्ट प्रबल कामदेव को कोई बिरला साधु ही वश में कर पाता है ।
काम वासना में प्रवृत करने वाली कामिनी का मोहिनी रूप भयंकर काल की खानि है । जिसका गृस्त जीव ऐसे ही मर जाता है । और कोई मोक्ष साधन नहीं कर पाता । अतः गुरु के उपदेश से काम भावना का दमन करने के बजाय भक्ति उपचार से शमन करना चाहिये ।
स्पष्टीकरण - यहाँ बात सिर्फ़ औरत की न होकर स्त्री पुरुष में एक दूसरे के प्रति होने वाली काम भावना के लिये है । क्योंकि मोक्ष और उद्धार का अधिकार स्त्री पुरुष दोनों को ही समान रूप से है । अतः जहाँ कामिनी स्त्री पुरुष के कल्याण में बाधक है । वहीं कामी पुरुष भी स्त्री के मोक्ष में बाधा समान ही है । काम विषय बहुत ही कठिन विकार है । और संसार के सभी स्त्री पुरुष कहीं न कहीं काम भावना से गृसित रहते हैं । काम अग्नि देह में उत्पन्न होने पर शरीर का रोम रोम जलने लगता है । काम भावना उत्पन्न होते ही व्यक्ति की मन बुद्धि से नियंत्रण समाप्त हो जाता है । जिसके कारण व्यक्ति का शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक पतन होता है ।
हे धर्मदास ! कामी क्रोधी लालची व्यक्ति कभी भक्ति नहीं कर पाते । सच्ची भक्ति तो कोई शूरवीर संत ही करता है । जो जाति वर्ण और कुल की मर्यादा को भी छोङ देता है ।
कामी क्रोधी लालची इनसे भक्ति न होय । भक्ति करे कोई सूरमा जाति वर्ण कुल खोय ।
अतः काम जीवन के वास्तविक लक्ष्य मोक्ष के मार्ग में सबसे बङा शत्रु है । अतः इसे वश में करना बहुत आवश्यक ही है ।
हे धर्मदास ! इस कराल विकराल काम को वश में करने का अब उपाय भी सुनो । जब काम शरीर में उमङता हो । या कामभावना बेहद प्रबल हो जाये । तो उस समय बहुत साबधानी से अपने आपको बचाना चाहिये । इसके लिए स्वयँ के विदेह रूप को या आत्मस्वरूप को विचारते हुये सुरति ( एकाग्रता ) वहाँ लगायें । और सोचें कि मैं ये शरीर नहीं हूँ । बल्कि मैं शुद्ध चैतन्य आत्मस्वरूप हूँ । और सत्यनाम तथा सदगुरु ( यदि हों ) का ध्यान करते हुये विषैले काम रस को त्यागकर सत्यनाम के अमृतरस का पान करते हुये इसके आनन्ददायी अनुभव को प्राप्त करे ।
हे धर्मदास ! काम शरीर में ही उत्पन्न होता है । और मनुष्य अग्यानवश स्वयँ को शरीर और मन जानता हुआ ही इस भोग विलास में प्रवृत होता है । जब वह जान लेगा कि वह 5 तत्वों की बनी ये नाशवान जङ देह नहीं है । बल्कि विदेह अविनाशी शाश्वत चैतन्य आत्मा है । तब ऐसा जानते ही वह इस काम शत्रु से पूरी तरह से मुक्त ही हो जायेगा ।
मनुष्य शरीर में उमङने वाला ये काम विषय अत्यन्त बलबान और बहुत भयंकर कालरूप महाकठोर और निर्दयी है । इसने देवता मनुष्य राक्षस ऋषि मुनि यक्ष गंधर्व आदि सभी को सताया हुआ है । और करोंङो जन्मों से उनको लूटकर घोर पतन में डाला है । और कठोर नरक की यातनाओं में धकेला है । इसने किसी को नहीं छोङा । सबको लूटा है ।
लेकिन जो संत साधक अपने ह्रदय रूपी भवन में ग्यान रूपी दीपक का पुण्य प्रकाश किये रहता हो । और सदगुरु के सार शब्द उपदेश का मनन करते हुये सदा उसमें मगन रहता हो । उससे डरकर ये कामदेव रूपी चोर भाग जाता है ।
जो विषया संतन तजी मूढ ताहे लपटात । नर ज्यों डारे वमन कर श्वान स्वाद सो खात ।
कबीर साहब ने ये दोहा नीच काम के लिये ही बोला है । इस काम रूपी विष को जिसे संतों ने एकदम त्यागा है । मूरख मनुष्य इस काम से उसी तरह लिपटे रहते हैं । जैसे मनुष्यों द्वारा किये गये वमन यानी उल्टी या पल्टी को कुत्ता प्रेम से खाता है ।
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