राजीव जी ! मेरे मन में कुछ और सवाल आये हैं । प्लीज उनका भी हल करें ।
परमात्मा को लोग भाषा के हिसाब से या अपनी अपनी समझ अनुसार या प्रेमवश अलग अलग नामों से पुकारते हैं । लेकिन मैं यहाँ बाकी नामों को छोडकर ये जानना चाहती हूँ कि परमात्मा को - अनन्त.. असीम या बेअन्त.. क्युँ बोला जाता है । इसको स्पष्ट करे ।
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अनंत - जिसका कोई अंत न हो । असीम - जिसकी कोई सीमा न हो । बेअंत - जिसका कोई अंत न हो । जाहिर है । ये उसकी खोज करने वालों ने कहा है । पर जानने वालों ने उसको जाना भी है । जिसमें हाल के लोगों ( शिष्यों ) में मीरा जी और विवेकानन्द जी का नाम प्रमाणित है । मेरे कहने का अर्थ है । ये महिमा जानी जा सकती है । पर इसको जानने वाला कोई बिरला ही होता है । जो कुछ है । वही है । और जो कुछ है । उसी से है । अन्य कोई नहीं है । इससे भी ऐसा कहा गया है ।
मैंने 1 बार पढा था कि - ग्यान तो असीम है । अनन्त है । ये कौन सा और कैसा ग्यान है ? ये इशारा किस ग्यान की तरफ़ है ? जिसको असीम और अनन्त कहा गया ।
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वैसे 14 कोटि ( करोङ ) ग्यान कहा गया है । पर असीम अनन्त अपनी सामर्थ्य अनुसार खोजियों ने कहा है । जब हर चीज एक नियम आदेश में बँधी है । एक सख्त आर्डर के तहत पूरी व्यवस्था स्वचालित ढंग से कार्य कर रही है । तो जाहिर है । इसके संचालक भी हैं । अब आप परमात्मा को संचालक मानों । तो ये बेहद गलत है । वह तो
सिर्फ़ साहिब है । उसे किसी से कुछ भी लेना देना नहीं हैं । जबकि सब कुछ उसी से है ।
परमात्मा को परम प्रकाश भी बोला जाता है । यहाँ न तो परमात्मा को रोशनी बोला गया । और न ही प्रकाश । बल्कि उसे परम प्रकाश बोला गया । इसके बारे में भी कुछ समझाये ।
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सिर्फ़ कुंडलिनी या सहज योग द्वारा ज्यों ज्यों जीवात्मा दिव्यता की ऊँचाई पर बढती है । तब आत्मा का प्रकाश स्थिति के अनुसार अलग अलग होता है । परमात्मा स्थिति पर परम प्रकाश देखा जाता है । परम का सही अर्थ सबसे परे है ।
ये महाजीवन या परमजीवन क्या होता है ?
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महाजीवन यानी बृह्मांड के वे क्षेत्र जहाँ आयु लाख वर्षों में है । अलग अलग प्रकार की महा आत्माओं का निवास स्थान । ऐसे क्षेत्र एक दो नहीं । बहुत से हैं । परम जीवन शब्द हो सकता है । किसी ने अग्यान से । या किसी ने भाव से जोङ दिया हो । लेकिन परम में जीवन नहीं होता । वह तो आनन्द की अमर स्थिति है । सदा ही है । इसलिये उसके लिये " जीवन " शब्द का प्रयोग करना ग्यान दृष्टि से उचित नहीं है ।
मैं आपसे कुछ पंक्तियों की भी व्याख्या जानना चाहती हूँ । मैंने 1 जगह पढा था कि - 1 नूर से सब जग उपजा । या शायद लिखा था कि 1 बिन्द से सब जग उपजा । इसका अर्थ भी समझायें ।
ये सभी सृष्टि नूर यानी प्रकाश से बनी है । इसलिये ऐसा कहा है । इसी विषय के नाद बिंद ग्यान पर एक बङा लेख कुछ समय बाद पढने हेतु थोङा इंतजार करिये ।
1 और पंक्ति मैंने पढी थी कि - तू जोत स्वरूप है । अपना मूल पहचान । प्लीज इसका अर्थ भी समझायें ।
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ये वैसे काल ग्यान है । अक्षर यानी ज्योति पर ही सब योनियों के शरीर बनते हैं । पर यह ही अंतिम सत्य नहीं है ।
ज्योति को जानने वालों को मुक्त वियोगी कहा गया है । अतः ये बात स्थिति के अनुसार ही कही गयी है । पर अक्षर को आंतरिक रूप से योग द्वारा जान लेना भी बहुत बङी बात है । लेकिन सन्त मत में इसका कोई महत्व नहीं है । इससे आत्मा काल के दायरे में ही रहती है ।
मैं आपसे कबीर जी कि इन पंक्तियों का भी अर्थ जानना चाहती हूँ - जिस मरने से जग डरे । मुझको मिले आनन्द । मरने ही से पाईये । पूर्ण परमानन्द । इन पंक्तियों में कबीर जी का इशारा क्या है ? क्युँ कि अक्सर लोग तो मरने से डरते हैं । मौत ही संसार का सबसे बडा दुख माना जाता है । अक्सर समाज । दुनियाँ और लोगों के अनुसार मौत के साथ जिन्दगी समाप्त यानि सब समाप्त समझा जाता है । लेकिन कबीर कह रहे है कि - उन्हें तो मौत के बाद ही असली आनन्द की प्राप्ति होगी । इस बात को जरूर समझायें ।
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कबीर शरीर की मौत के बाद के लिये नहीं कह रहे । दरअसल ध्यान या समाधि की क्रिया और मनुष्य की मौत की क्रिया बिलकुल एक समान है । दोनों में ही चेतना सभी पिंडी स्थानों से सिमटकर किसी स्थान के लिये गमन करती है । पर साधारण इंसान के लिये जहाँ ये परवशता की स्थिति है । क्योंकि वो तो मरने के बाद दुर्दशा को प्राप्त होता है । जबकि संत खंड बृह्मांड आदि में घूम घाम कर वापस शरीर में आ जाता है । वह अपनी मर्जी का मालिक होता है । जीव के लिये जीवन में एक ही बार होने वाली ये अत्यन्त कष्टदायक स्थिति है । पर किसी सच्चे संत के लिये ये रोज रोज होने वाली अति आनन्द की स्थिति । इसी लिये कबीर साहब ने ऐसा कहा है । सिर्फ़ दो महीने पुराने हमारे चंडीगढ के साधक कुलदीप जी अत्यन्त व्यस्त जीवन के बाद सहज ही ये स्थिति अनुभव कर रहे हैं ।
राजीव जी ! गीता में कृष्ण जी अर्जुन से कह रहे थे कि - आत्मा की यात्रा तो अनन्त है । और इसकी यात्रा के केवल 1 बिन्दु पर शरीर पीछे छूट जाता है । यहाँ पर आप कृष्ण जी की कही इस बात को अपने शब्दों में मेरे को समझायें । साथ में ये भी बतायें कि - आत्मा को भी अनन्त ही बोला जाता है । क्या हर आत्मा अनन्त है ?
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वैसे आप सीता गीता की बात दिमाग से निकाल ही दो । तो ज्यादा अच्छा है । श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा था । तू युद्ध कर । तुझे स्वर्ग प्राप्त होगा । पुण्य होगा । तेरी कीर्ति होगी । धरती का ऐश्वर्य पूर्ण राज्य भोगेगा । ऐसा
कहकर उससे बेचारे से युद्ध करवा लिया । बाद में कहा - युद्ध की हत्याओं से तुम्हें पाप लगा है । अतः यग्य करो । स्वर्ग तो क्या प्राप्त होता । अंतिम समय दाह संस्कार वाले भी नसीव नहीं हुये । खुद को तीरंदाज समझता था । भीलों ने घेर घेर कर मारा । और श्रीकृष्ण के खानदान की बची स्त्रियों को छीन ले गये । श्रीकृष्ण जो उस समय बहेलिये के तीर से मरणासन्न अवस्था में थे । ऐसी हालत होने पर वहाँ गुस्से में सब भाई पहुँचे ।
तब श्रीकृष्ण ने कहा - भाई ! अंत समय झूठ नहीं बोलूँगा । वो मैं नहीं था । उसको कराने वाला ( काल निरंजन ) कोई और ही था । इसलिये ये सीता गीता का डबल रोल में टाइम वेस्ट न करो । वही अच्छा है ।
वैसे श्रीकृष्ण से ये पूछो - आत्मा अचल है । फ़िर यात्रा कैसे हो सकती है ?
कृष्ण जी ने ये भी अर्जुन से कहा था कि - ऐसा समय कभी नहीं था । जब तुम नहीं थे । या मैं नहीं था । या ये सब लोग नहीं थे । और न ही ऐसा समय कभी होगा । जब तुम नहीं होगे । या मैं नहीं होऊँगा । या ये सब लोग नहीं होगे । हम थे भी । हैं भी । और होंगे भी । उन्होंने ये भी कहा था कि - आत्मा काल के दोनों तटों पर भी है । और काल के परे भी ।
ऐसी ही चटपटी बातें कर करके तो श्रीकृष्ण फ़ोकट का मक्खन खाते थे । लेकिन यहाँ सही बात कही है । ये बात आत्मा के लिये है । जीवन के लिये नहीं । मैं अपने सभी सिख भाईयों से निवेदन करूँगा कि श्री गुरु ग्रुँथ साहिब के रूप में आपके पास सबसे सर्वश्रेष्ठ और अनमोल ग्यान हैं । अतः आप सीता गीता रामायण महाभारत के चक्कर में न आयें । गृंथ साहिब में भी आप यदि सभी वाणियों के चक्कर में न पङकर कबीर और नानक साहब की वाणी ही सही रूप में समझ लें । तो इतने से ही आपका कल्याण हो जायेगा । जहाँ समझ ना आये । और प्रक्टीकल की बात हो । वहाँ ये आल इन वन राजीव बाबा है ही ।
राजीव जी ! क्या वाकई आत्मा यानि हमारा असली स्वरूप हमेशा अमर है । जिसका कभी नाश नहीं हो सकता । आत्मा ( यानि हमारा ) मुख्य निवास स्थान इस स्थूल शरीर में कहाँ पर होता है । क्या दोनों भौहों के बिल्कुल बीच अन्दर की तरफ़ ?
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अरे वाकई नवरूप जी ! आत्मा अमर ही है । आप जब चाहो । इसको देख सकती हो । ठीक उसी तरह । जैसे दर्पण
में खुद को देखते हैं । और इसको मजाक न मानकर सीरियस ही मानना । लेकिन अभी आपको इससे ज्यादा बताना ठीक नहीं है । आपकी नयी नयी शादी हुयी है । आप कहीं ज्यादा ग्यान से साधु सन्त बन गयीं । तो आपके देव पति मुझे गाली और देंगे ।
क्या आत्मा की चेतना ही पूरे शरीर ( पैरों के तलवों तक ) में फ़ैली होती है । जिस कारण हमारे शरीर में हलचल होती है । क्युँ कि देखा जाये तो अगर किसी जिन्दा शरीर ( जिसमें आत्मा है ) को चुटकी भी काटो । तो उसे पीडा महसूस होती है । लेकिन अगर किसी मुर्दा शरीर ( जिसमें आत्मा नहीं है ) काट भी दो । उसे पता ही नहीं चलता । वो तो किसी जड पदार्थ की तरह पडा रहता है । प्लीज इसको भी समझायें ।
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शरीर में क्या आपको जहाँ भी चेतना नजर आती है । वह आत्मा की चेतना ही होती है । क्योंकि चेतन गुण सिर्फ़ आत्मा में ही है ।
राजीव जी ! मैंने 1 बार किसी आत्म ग्यानी सन्त की वाणी में पढा था कि - मुझे होश ही नहीं था अपना । जब मैं जागा होश आया । अपनी असलियत को जब जाना । तब पाया कि मैं बादशाह होते हुये भी सपने में 1 भिखारी की जिन्दगी जी रहा था । इस बात को ठीक से अब आप ही सरल शब्दो में समझा सकते हैं ।
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ये जीव आत्मा अग्यान निद्रा में बेहोशी की स्थिति में जगत रूपी सपने को देख रहा है । मनुष्य शरीर में यदि यह अपना आत्मा रूपी पहचान ग्यान प्राप्त कर ले । तो बादशाह हो सकता है । जबकि अभी ये तुलनात्मक रूप से तुच्छ शक्तियों के अधीन होकर दुर्दशा को प्राप्त हुआ है । लेख बङा हो गया । आगे याद दिलाने पर इस सुन्दर सूत्र पर विस्त्रत रूप से लिखूँगा ।
राजीव जी ! 1 तो सच और झूठ होता है । लेकिन ये तो संसारी होता है । शायद वास्तव में दोनों को गहराई से देखा जाये । तो असत्य ही है । लेकिन आप मुझे बतायें कि - सत्य । महासत्य और परमसत्य क्या है ?
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सत्य - राजीव बाबा । महासत्य - महा राजीव बाबा । परम सत्य - परम राजीव बाबा ।
शाश्वत सत्य यानी परम सत्य - परमात्मा । इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता । महासत्य - बृह्म और बृह्मांडी स्थितियाँ और लोक या स्थान । क्योंकि महा यानी एक बङे समय बाद इनकी प्रत्येक चीज में चेंज हो जाता है । और सत्य - ये कि तुम हमेशा रहते हो ।
मैंने आपके ब्लाग में पढा है । और लोगों से भी सुना है कि - हम सब 1 परमात्मा की संतान हैं । यहाँ पर संतान का इशारा किसकी तरफ़ है । शरीर की तरफ़ । या आत्मा । या जीवात्मा की तरफ़ ?
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ये इशारा आत्मा की तरफ़ है । जब उसमें जीव भाव जुङ जाता है । तब वह जीवात्मा हो जाता है ।
राजीव जी ! अब अन्त में मैं आपसे " श्री गुरुनानक देव जी " की वाणी की कुछ पंक्तियों के अर्थ जानना चाहती हूँ । वो पंक्तियाँ ये हैं - नानक नाम जहाज है । चढे सो उतरे पार । जो चढदा चढदा रह गया । उसका भी बेडा पार ।
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इन पंक्तियों के अर्थ से पहले मैं आपको 5 वें गुरु अर्जुन देव जी के बारे में बता दूँ । इनका एक बहुत बूढा और लगभग अँधा मगर पूर्ण समर्पित शिष्य था । गुरु जी ने इस बेहद गरीब इंसान का झोंपङा और यहाँ तक लङकी और पत्नी को ( बिकबा दिया ) गुलामी में लगवा दिया था । और इसे सतसंग या ग्यान आदि सुनने के लिये कभी ढंग से बैठने भी नहीं दिया ।
इसके लिये आदेश था कि गुरुजी के लिये सुबह स्नान हेतु गंगा से पानी लाये । तब यह उल्टा चलता हुआ ( लगभग 3 किमी एक तरफ़ से सुना है ) गंगा से पानी लाता था । क्योंकि यदि जाते समय सीधा चलता । तो गुरु की तरफ़ पीठ हो जाती । ऐसे ही एक दिन अँधेरे में ठोकर खाकर यह धोबी की नाँद में गिर पङा ।
तब अचानक सतसंग करते अर्जुन देव जी उठकर भागे गये । और इसे उठाकर सीने से लगाते हुये कहा - आज तेरी गुरु भक्ति पूरी हुयी । तू जीवों का नाम जहाज ( उसको उपाधि दी गयी ) होगा । इसे कहते हैं गुरु भक्ति । ये प्रेरक घटना बहुत रोचक और शिक्षाप्रद है । आपको कहीं मिले । तो अवश्य पढें ।
वास्तव में इंसान की स्वांस चेतनधारा में नाम स्वतः गूँज रहा है । सच्चे संत इसको जागृत कर देते हैं । तब इसी नाम जहाज में बैठने ( रमण करने से ) से साधक शिष्य विभिन्न यात्रायें अनुभव आदि करता है । ये नाम रूपी ध्वनि जीव भाव जीते जीते स्थूल हो गयी है । ध्यान से ये सूक्ष्म हो जाती है । जो साधक स्वयँ को जितना सूक्ष्म कर लेता है । उसकी गति का विस्तार और तमाम लोकों में पहुँच उसी सूक्ष्मता के अनुपात से बढती है ।
लेकिन जो नाम कमाई द्वारा एक जीवन में ऐसा नहीं कर पाते । नियमानुसार गुरु उससे अगले जन्मों में उसे पार करा देते हैं । क्योंकि सच्चे अधिकारी गुरु और सच्चा नाम मिलने पर मनुष्य जीवन ही मिलता है ।
इसलिये - जो चढदा चढदा रह गया । उसका भी बेडा पार ।
राजीव जी ! मैं सच्ची बडी खुशी और उम्मीद से आपके पास ये सब प्रश्न लेकर आयी हूँ । आप अपने उचित समय अनुसार जब भी हो सके । मेरे इन सभी प्रश्नों को एक साथ किसी अच्छे से लेख में उत्तर दे दें ।
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बस हो सके । तो अगली बार मेरी एक बात का जबाब अवश्य देना । रूप कौर जी की कितनी बहनें और हैं ? ओ माय गाड ! व्हेयर आर यू ।
मजाक में कह रहा हूँ । सच मत मान लेना । सत श्री अकाल । सतनाम वाहिगुरु ।
परमात्मा को लोग भाषा के हिसाब से या अपनी अपनी समझ अनुसार या प्रेमवश अलग अलग नामों से पुकारते हैं । लेकिन मैं यहाँ बाकी नामों को छोडकर ये जानना चाहती हूँ कि परमात्मा को - अनन्त.. असीम या बेअन्त.. क्युँ बोला जाता है । इसको स्पष्ट करे ।
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अनंत - जिसका कोई अंत न हो । असीम - जिसकी कोई सीमा न हो । बेअंत - जिसका कोई अंत न हो । जाहिर है । ये उसकी खोज करने वालों ने कहा है । पर जानने वालों ने उसको जाना भी है । जिसमें हाल के लोगों ( शिष्यों ) में मीरा जी और विवेकानन्द जी का नाम प्रमाणित है । मेरे कहने का अर्थ है । ये महिमा जानी जा सकती है । पर इसको जानने वाला कोई बिरला ही होता है । जो कुछ है । वही है । और जो कुछ है । उसी से है । अन्य कोई नहीं है । इससे भी ऐसा कहा गया है ।
मैंने 1 बार पढा था कि - ग्यान तो असीम है । अनन्त है । ये कौन सा और कैसा ग्यान है ? ये इशारा किस ग्यान की तरफ़ है ? जिसको असीम और अनन्त कहा गया ।
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वैसे 14 कोटि ( करोङ ) ग्यान कहा गया है । पर असीम अनन्त अपनी सामर्थ्य अनुसार खोजियों ने कहा है । जब हर चीज एक नियम आदेश में बँधी है । एक सख्त आर्डर के तहत पूरी व्यवस्था स्वचालित ढंग से कार्य कर रही है । तो जाहिर है । इसके संचालक भी हैं । अब आप परमात्मा को संचालक मानों । तो ये बेहद गलत है । वह तो
सिर्फ़ साहिब है । उसे किसी से कुछ भी लेना देना नहीं हैं । जबकि सब कुछ उसी से है ।
परमात्मा को परम प्रकाश भी बोला जाता है । यहाँ न तो परमात्मा को रोशनी बोला गया । और न ही प्रकाश । बल्कि उसे परम प्रकाश बोला गया । इसके बारे में भी कुछ समझाये ।
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सिर्फ़ कुंडलिनी या सहज योग द्वारा ज्यों ज्यों जीवात्मा दिव्यता की ऊँचाई पर बढती है । तब आत्मा का प्रकाश स्थिति के अनुसार अलग अलग होता है । परमात्मा स्थिति पर परम प्रकाश देखा जाता है । परम का सही अर्थ सबसे परे है ।
ये महाजीवन या परमजीवन क्या होता है ?
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महाजीवन यानी बृह्मांड के वे क्षेत्र जहाँ आयु लाख वर्षों में है । अलग अलग प्रकार की महा आत्माओं का निवास स्थान । ऐसे क्षेत्र एक दो नहीं । बहुत से हैं । परम जीवन शब्द हो सकता है । किसी ने अग्यान से । या किसी ने भाव से जोङ दिया हो । लेकिन परम में जीवन नहीं होता । वह तो आनन्द की अमर स्थिति है । सदा ही है । इसलिये उसके लिये " जीवन " शब्द का प्रयोग करना ग्यान दृष्टि से उचित नहीं है ।
मैं आपसे कुछ पंक्तियों की भी व्याख्या जानना चाहती हूँ । मैंने 1 जगह पढा था कि - 1 नूर से सब जग उपजा । या शायद लिखा था कि 1 बिन्द से सब जग उपजा । इसका अर्थ भी समझायें ।
ये सभी सृष्टि नूर यानी प्रकाश से बनी है । इसलिये ऐसा कहा है । इसी विषय के नाद बिंद ग्यान पर एक बङा लेख कुछ समय बाद पढने हेतु थोङा इंतजार करिये ।
1 और पंक्ति मैंने पढी थी कि - तू जोत स्वरूप है । अपना मूल पहचान । प्लीज इसका अर्थ भी समझायें ।
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ये वैसे काल ग्यान है । अक्षर यानी ज्योति पर ही सब योनियों के शरीर बनते हैं । पर यह ही अंतिम सत्य नहीं है ।
ज्योति को जानने वालों को मुक्त वियोगी कहा गया है । अतः ये बात स्थिति के अनुसार ही कही गयी है । पर अक्षर को आंतरिक रूप से योग द्वारा जान लेना भी बहुत बङी बात है । लेकिन सन्त मत में इसका कोई महत्व नहीं है । इससे आत्मा काल के दायरे में ही रहती है ।
मैं आपसे कबीर जी कि इन पंक्तियों का भी अर्थ जानना चाहती हूँ - जिस मरने से जग डरे । मुझको मिले आनन्द । मरने ही से पाईये । पूर्ण परमानन्द । इन पंक्तियों में कबीर जी का इशारा क्या है ? क्युँ कि अक्सर लोग तो मरने से डरते हैं । मौत ही संसार का सबसे बडा दुख माना जाता है । अक्सर समाज । दुनियाँ और लोगों के अनुसार मौत के साथ जिन्दगी समाप्त यानि सब समाप्त समझा जाता है । लेकिन कबीर कह रहे है कि - उन्हें तो मौत के बाद ही असली आनन्द की प्राप्ति होगी । इस बात को जरूर समझायें ।
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कबीर शरीर की मौत के बाद के लिये नहीं कह रहे । दरअसल ध्यान या समाधि की क्रिया और मनुष्य की मौत की क्रिया बिलकुल एक समान है । दोनों में ही चेतना सभी पिंडी स्थानों से सिमटकर किसी स्थान के लिये गमन करती है । पर साधारण इंसान के लिये जहाँ ये परवशता की स्थिति है । क्योंकि वो तो मरने के बाद दुर्दशा को प्राप्त होता है । जबकि संत खंड बृह्मांड आदि में घूम घाम कर वापस शरीर में आ जाता है । वह अपनी मर्जी का मालिक होता है । जीव के लिये जीवन में एक ही बार होने वाली ये अत्यन्त कष्टदायक स्थिति है । पर किसी सच्चे संत के लिये ये रोज रोज होने वाली अति आनन्द की स्थिति । इसी लिये कबीर साहब ने ऐसा कहा है । सिर्फ़ दो महीने पुराने हमारे चंडीगढ के साधक कुलदीप जी अत्यन्त व्यस्त जीवन के बाद सहज ही ये स्थिति अनुभव कर रहे हैं ।
राजीव जी ! गीता में कृष्ण जी अर्जुन से कह रहे थे कि - आत्मा की यात्रा तो अनन्त है । और इसकी यात्रा के केवल 1 बिन्दु पर शरीर पीछे छूट जाता है । यहाँ पर आप कृष्ण जी की कही इस बात को अपने शब्दों में मेरे को समझायें । साथ में ये भी बतायें कि - आत्मा को भी अनन्त ही बोला जाता है । क्या हर आत्मा अनन्त है ?
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वैसे आप सीता गीता की बात दिमाग से निकाल ही दो । तो ज्यादा अच्छा है । श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा था । तू युद्ध कर । तुझे स्वर्ग प्राप्त होगा । पुण्य होगा । तेरी कीर्ति होगी । धरती का ऐश्वर्य पूर्ण राज्य भोगेगा । ऐसा
कहकर उससे बेचारे से युद्ध करवा लिया । बाद में कहा - युद्ध की हत्याओं से तुम्हें पाप लगा है । अतः यग्य करो । स्वर्ग तो क्या प्राप्त होता । अंतिम समय दाह संस्कार वाले भी नसीव नहीं हुये । खुद को तीरंदाज समझता था । भीलों ने घेर घेर कर मारा । और श्रीकृष्ण के खानदान की बची स्त्रियों को छीन ले गये । श्रीकृष्ण जो उस समय बहेलिये के तीर से मरणासन्न अवस्था में थे । ऐसी हालत होने पर वहाँ गुस्से में सब भाई पहुँचे ।
तब श्रीकृष्ण ने कहा - भाई ! अंत समय झूठ नहीं बोलूँगा । वो मैं नहीं था । उसको कराने वाला ( काल निरंजन ) कोई और ही था । इसलिये ये सीता गीता का डबल रोल में टाइम वेस्ट न करो । वही अच्छा है ।
वैसे श्रीकृष्ण से ये पूछो - आत्मा अचल है । फ़िर यात्रा कैसे हो सकती है ?
कृष्ण जी ने ये भी अर्जुन से कहा था कि - ऐसा समय कभी नहीं था । जब तुम नहीं थे । या मैं नहीं था । या ये सब लोग नहीं थे । और न ही ऐसा समय कभी होगा । जब तुम नहीं होगे । या मैं नहीं होऊँगा । या ये सब लोग नहीं होगे । हम थे भी । हैं भी । और होंगे भी । उन्होंने ये भी कहा था कि - आत्मा काल के दोनों तटों पर भी है । और काल के परे भी ।
ऐसी ही चटपटी बातें कर करके तो श्रीकृष्ण फ़ोकट का मक्खन खाते थे । लेकिन यहाँ सही बात कही है । ये बात आत्मा के लिये है । जीवन के लिये नहीं । मैं अपने सभी सिख भाईयों से निवेदन करूँगा कि श्री गुरु ग्रुँथ साहिब के रूप में आपके पास सबसे सर्वश्रेष्ठ और अनमोल ग्यान हैं । अतः आप सीता गीता रामायण महाभारत के चक्कर में न आयें । गृंथ साहिब में भी आप यदि सभी वाणियों के चक्कर में न पङकर कबीर और नानक साहब की वाणी ही सही रूप में समझ लें । तो इतने से ही आपका कल्याण हो जायेगा । जहाँ समझ ना आये । और प्रक्टीकल की बात हो । वहाँ ये आल इन वन राजीव बाबा है ही ।
राजीव जी ! क्या वाकई आत्मा यानि हमारा असली स्वरूप हमेशा अमर है । जिसका कभी नाश नहीं हो सकता । आत्मा ( यानि हमारा ) मुख्य निवास स्थान इस स्थूल शरीर में कहाँ पर होता है । क्या दोनों भौहों के बिल्कुल बीच अन्दर की तरफ़ ?
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अरे वाकई नवरूप जी ! आत्मा अमर ही है । आप जब चाहो । इसको देख सकती हो । ठीक उसी तरह । जैसे दर्पण
में खुद को देखते हैं । और इसको मजाक न मानकर सीरियस ही मानना । लेकिन अभी आपको इससे ज्यादा बताना ठीक नहीं है । आपकी नयी नयी शादी हुयी है । आप कहीं ज्यादा ग्यान से साधु सन्त बन गयीं । तो आपके देव पति मुझे गाली और देंगे ।
क्या आत्मा की चेतना ही पूरे शरीर ( पैरों के तलवों तक ) में फ़ैली होती है । जिस कारण हमारे शरीर में हलचल होती है । क्युँ कि देखा जाये तो अगर किसी जिन्दा शरीर ( जिसमें आत्मा है ) को चुटकी भी काटो । तो उसे पीडा महसूस होती है । लेकिन अगर किसी मुर्दा शरीर ( जिसमें आत्मा नहीं है ) काट भी दो । उसे पता ही नहीं चलता । वो तो किसी जड पदार्थ की तरह पडा रहता है । प्लीज इसको भी समझायें ।
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शरीर में क्या आपको जहाँ भी चेतना नजर आती है । वह आत्मा की चेतना ही होती है । क्योंकि चेतन गुण सिर्फ़ आत्मा में ही है ।
राजीव जी ! मैंने 1 बार किसी आत्म ग्यानी सन्त की वाणी में पढा था कि - मुझे होश ही नहीं था अपना । जब मैं जागा होश आया । अपनी असलियत को जब जाना । तब पाया कि मैं बादशाह होते हुये भी सपने में 1 भिखारी की जिन्दगी जी रहा था । इस बात को ठीक से अब आप ही सरल शब्दो में समझा सकते हैं ।
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ये जीव आत्मा अग्यान निद्रा में बेहोशी की स्थिति में जगत रूपी सपने को देख रहा है । मनुष्य शरीर में यदि यह अपना आत्मा रूपी पहचान ग्यान प्राप्त कर ले । तो बादशाह हो सकता है । जबकि अभी ये तुलनात्मक रूप से तुच्छ शक्तियों के अधीन होकर दुर्दशा को प्राप्त हुआ है । लेख बङा हो गया । आगे याद दिलाने पर इस सुन्दर सूत्र पर विस्त्रत रूप से लिखूँगा ।
राजीव जी ! 1 तो सच और झूठ होता है । लेकिन ये तो संसारी होता है । शायद वास्तव में दोनों को गहराई से देखा जाये । तो असत्य ही है । लेकिन आप मुझे बतायें कि - सत्य । महासत्य और परमसत्य क्या है ?
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सत्य - राजीव बाबा । महासत्य - महा राजीव बाबा । परम सत्य - परम राजीव बाबा ।
शाश्वत सत्य यानी परम सत्य - परमात्मा । इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता । महासत्य - बृह्म और बृह्मांडी स्थितियाँ और लोक या स्थान । क्योंकि महा यानी एक बङे समय बाद इनकी प्रत्येक चीज में चेंज हो जाता है । और सत्य - ये कि तुम हमेशा रहते हो ।
मैंने आपके ब्लाग में पढा है । और लोगों से भी सुना है कि - हम सब 1 परमात्मा की संतान हैं । यहाँ पर संतान का इशारा किसकी तरफ़ है । शरीर की तरफ़ । या आत्मा । या जीवात्मा की तरफ़ ?
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ये इशारा आत्मा की तरफ़ है । जब उसमें जीव भाव जुङ जाता है । तब वह जीवात्मा हो जाता है ।
राजीव जी ! अब अन्त में मैं आपसे " श्री गुरुनानक देव जी " की वाणी की कुछ पंक्तियों के अर्थ जानना चाहती हूँ । वो पंक्तियाँ ये हैं - नानक नाम जहाज है । चढे सो उतरे पार । जो चढदा चढदा रह गया । उसका भी बेडा पार ।
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इन पंक्तियों के अर्थ से पहले मैं आपको 5 वें गुरु अर्जुन देव जी के बारे में बता दूँ । इनका एक बहुत बूढा और लगभग अँधा मगर पूर्ण समर्पित शिष्य था । गुरु जी ने इस बेहद गरीब इंसान का झोंपङा और यहाँ तक लङकी और पत्नी को ( बिकबा दिया ) गुलामी में लगवा दिया था । और इसे सतसंग या ग्यान आदि सुनने के लिये कभी ढंग से बैठने भी नहीं दिया ।
इसके लिये आदेश था कि गुरुजी के लिये सुबह स्नान हेतु गंगा से पानी लाये । तब यह उल्टा चलता हुआ ( लगभग 3 किमी एक तरफ़ से सुना है ) गंगा से पानी लाता था । क्योंकि यदि जाते समय सीधा चलता । तो गुरु की तरफ़ पीठ हो जाती । ऐसे ही एक दिन अँधेरे में ठोकर खाकर यह धोबी की नाँद में गिर पङा ।
तब अचानक सतसंग करते अर्जुन देव जी उठकर भागे गये । और इसे उठाकर सीने से लगाते हुये कहा - आज तेरी गुरु भक्ति पूरी हुयी । तू जीवों का नाम जहाज ( उसको उपाधि दी गयी ) होगा । इसे कहते हैं गुरु भक्ति । ये प्रेरक घटना बहुत रोचक और शिक्षाप्रद है । आपको कहीं मिले । तो अवश्य पढें ।
वास्तव में इंसान की स्वांस चेतनधारा में नाम स्वतः गूँज रहा है । सच्चे संत इसको जागृत कर देते हैं । तब इसी नाम जहाज में बैठने ( रमण करने से ) से साधक शिष्य विभिन्न यात्रायें अनुभव आदि करता है । ये नाम रूपी ध्वनि जीव भाव जीते जीते स्थूल हो गयी है । ध्यान से ये सूक्ष्म हो जाती है । जो साधक स्वयँ को जितना सूक्ष्म कर लेता है । उसकी गति का विस्तार और तमाम लोकों में पहुँच उसी सूक्ष्मता के अनुपात से बढती है ।
लेकिन जो नाम कमाई द्वारा एक जीवन में ऐसा नहीं कर पाते । नियमानुसार गुरु उससे अगले जन्मों में उसे पार करा देते हैं । क्योंकि सच्चे अधिकारी गुरु और सच्चा नाम मिलने पर मनुष्य जीवन ही मिलता है ।
इसलिये - जो चढदा चढदा रह गया । उसका भी बेडा पार ।
राजीव जी ! मैं सच्ची बडी खुशी और उम्मीद से आपके पास ये सब प्रश्न लेकर आयी हूँ । आप अपने उचित समय अनुसार जब भी हो सके । मेरे इन सभी प्रश्नों को एक साथ किसी अच्छे से लेख में उत्तर दे दें ।
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बस हो सके । तो अगली बार मेरी एक बात का जबाब अवश्य देना । रूप कौर जी की कितनी बहनें और हैं ? ओ माय गाड ! व्हेयर आर यू ।
मजाक में कह रहा हूँ । सच मत मान लेना । सत श्री अकाल । सतनाम वाहिगुरु ।
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