तब कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! जिस प्रकार कोई नट बंदर को नाच नचाता है । और उसे बंधन में रखता हुआ अनेक दुख देता है । इसी प्रकार ये मन रूपी काल निरंजन जीव को नचाता है । और उसे बहुत दुख देता है । यह मन जीव को भृमित कर पाप कर्मों में प्रवृत करता है । तथा सांसारिक बंधन में मजबूती से बाँधता है । मुक्ति उपदेश की तरफ़ जाते हुये किसी जीव को देखकर मन उसे रोक देता है ।
इसी प्रकार मनुष्य की कल्याणकारी कार्यों की इच्छा होने पर भी यह मन रोक देता है । मन की इस चाल को कोई बिरला पुरुष ही जान पाता है ।
यदि कहीं सत्यपुरुष का ग्यान हो रहा हो । तो ये मन जलने लगता है । और जीव को अपनी तरफ़ मोङकर विपरीत बहा ले जाता है । इस शरीर के भीतर और कोई नहीं है । केवल मन और जीव ये दो ही रहते हैं । पाँच तत्व और पाँच तत्वों की पच्चीस प्रकृतियाँ । सत रज तम ये तीन गुण और दस इन्द्रियाँ ये सब मन निरंजन के ही चेले हैं ।
सत्यपुरुष का अंश जीव आकर शरीर में समाया है । और शरीर में आकर जीव अपने घर की पहचान भूल गया है । पाँच तत्व । पच्चीस प्रकृति तीन गुण और मन इन्द्रियों ने मिलकर जीव को घेर लिया है । जीव को इन सबका ग्यान नहीं है । और अपना ये भी पता नहीं कि मैं कौन हूँ ? इस प्रकार से बिना परिचय के अविनाशी जीव काल निरंजन का दास बना हुआ है ।
जीव अग्यानवश खुद को और इस बंधन को नहीं जानता । जैसे तोता लकङी के नलनी यंत्र में फ़ँसकर कैद हो जाता है । यही स्थिति मनुष्य की है ।
जैसे शेर ने अपनी परछाईं कुँए के जल में देखी । और अपनी छाया को दूसरा शेर जानकर कूद पङा । और मर गया । ठीक ऐसे ही जीव काल माया का धोखा समझ नहीं पाता । और बंधन में फ़ँसा रहता है । जैसे काँच के महल के पास गया कुत्ता दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखकर भौंकता है । और अपनी ही आवाज और प्रतिबिम्ब से धोखा खाकर दूसरा कुत्ता समझकर उसकी तरफ़ भागता है । ऐसे ही काल निरंजन ने जीव को फ़ँसाने के लिये माया मोह का जाल बना रखा है ।
काल निरंजन और उसकी शाखाओं ( कर्मचारी देवताओं आदि ने ) ने जो नाम रखे हैं । वे बनाबटी हैं । जो देखने सुनने में शुद्ध माया रहित और महान लगते हैं । परबृह्म पराशक्ति आदि आदि । परन्तु सच्चा और मोक्षदायी केवल आदि पुरुष का आदिनाम ही है ।
अतः हे धर्मदास ! जीव इस काल की बनायी भूल भूलैया में पङकर सत्यपुरुष से बेगाना हो गये । और अपना भला बुरा भी नहीं विचार सकते । जितना भी पाप कर्म और मिथ्या विषय आचरण है । ये इसी मन निरंजन का ही है । यदि जीव इस दुष्ट मन निरंजन को पहचान कर इससे अलग हो जाये । तो निश्चित ही जीव का कल्याण हो जाय ।
यह मैंने मन और जीव की भिन्नता तुम्हें समझाई । जो जीव सावधान सचेत होकर ग्यान दृष्टि से मन को देखेगा । समझेगा । तो वह इस काल निरंजन के धोखे में नहीं आयेगा । जैसे जब तक घर का मालिक सोता रहता है । तब तक चोर उसके घर में सेंध लगाकर चोरी करने की कोशिश करते रहते हैं । और उसका धन लूट ले जाते हैं ।
ऐसे ही जब तक शरीर रूपी घर का स्वामी ये जीव अग्यानवश मन की चालों के प्रति सावधान नहीं रहता । तब तक मन रूपी चोर उसका भक्ति और ग्यान रूपी धन चुराता रहता है । और जीव को नीच कर्मों की ओर प्रेरित करता रहता है । परन्तु जब जीव इसकी चाल को समझकर सावधान हो जाता है । तब इसकी नहीं चलती ।
जो जीव मन को जानने लगता है । उसकी जागृत कला ( योग स्थिति ) अनुपम होती है । जीव के लिये अग्यान अँधकार बहुत भयंकर अँधकूप के समान है । इसलिये ये मन ही भयंकर काल है । जो जीव को बेहाल करता है ।
स्त्री पुरुष मन द्वारा ही एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं । और मन उमङने से ही शरीर में कामदेव जीव को बहुत सताता है । इस प्रकार स्त्री पुरुष विषय भोग में आसक्त हो जाते है । इस विषय भोग का आनन्द रस काम इन्द्री और मन ने लिया । और उसका पाप जीव के ऊपर लगा दिया । इस प्रकार पाप कर्म और सब अनाचार कराने वाला ये मन होता है । और उसके फ़लस्वरूप अनेक नरक आदि कठोर दंड जीव भोगता है ।
दूसरों की निंदा करना । दूसरों का धन हङपना । यह सब मन की फ़ाँसी है । सन्तों से वैर मानना । गुरु की निन्दा करना यह सब मन बुद्धि का कर्म काल जाल है । जिसमें भोला जीव फ़ँस जाता है ।
पर स्त्री पुरुष से कभी व्यभिचार न करे । अपने मन पर सयंम रखे । यह मन तो अँधा है । विषय विष रूपी कर्मों को बोता है । और प्रत्येक इन्द्री को उसके विषय में प्रवृत करता है । मन जीव को उमंग देकर मनुष्य से तरह तरह की जीव हत्या कराता है । और फ़िर जीव से नरक भुगतवाता है ।
यह मन जीव को अनेकानेक कामनाओं की पूर्ति का लालच देकर तीर्थ वृत तुच्छ देवी देवताओं की जङ मूर्तियों की सेवा पूजा में लगाकर धोखे में डालता है । लोगों को द्वारिकापुरी में यह मन दाग ( छाप ) लगवाता है । मुक्ति आदि की झूठी आशा देकर मन ही जीव को दाग देकर बिगाङता है ।
अपने पुण्य कर्म से यदि किसी का राजा का जन्म होता है । तो पुण्य फ़ल भोग लेने पर वही नरक भुगतता है । और राजा जीवन में विषय विकारी होने से नरक भुगतने के बाद फ़िर उसका सांड का जन्म होता है । और वह बहुत गायों का पति होता है ।
पाप और पुण्य दो अलग अलग प्रकार के कर्म होते हैं । उनमें पाप से नरक और पुण्य से स्वर्ग प्राप्त होता है । पुण्य कर्म क्षीण हो जाने से फ़िर नरक भुगतना होता है । ऐसा विधान है । अतः कामना वश किये गये यह पुण्य का यह कर्म योग भी मन का जाल है । निष्काम भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है । जिससे जीव का सब दुख द्वंद मिट जाता है ।
हे धर्मदास ! इस मन की कपट करामात कहाँ तक कहूँ । बृह्मा विष्णु महेश तीनों प्रधान देवता शेषनाग तथा तैतीस करोङ देवता सब इसके फ़ँदे में फ़ँसे और हार कर रहे । मन को वश में न कर सके । सदगुरु के बिना कोई मन को वश में नहीं कर पाता । सभी मन माया के बनाबटी जाल में फ़ँसे पङे हैं ।
इसी प्रकार मनुष्य की कल्याणकारी कार्यों की इच्छा होने पर भी यह मन रोक देता है । मन की इस चाल को कोई बिरला पुरुष ही जान पाता है ।
यदि कहीं सत्यपुरुष का ग्यान हो रहा हो । तो ये मन जलने लगता है । और जीव को अपनी तरफ़ मोङकर विपरीत बहा ले जाता है । इस शरीर के भीतर और कोई नहीं है । केवल मन और जीव ये दो ही रहते हैं । पाँच तत्व और पाँच तत्वों की पच्चीस प्रकृतियाँ । सत रज तम ये तीन गुण और दस इन्द्रियाँ ये सब मन निरंजन के ही चेले हैं ।
सत्यपुरुष का अंश जीव आकर शरीर में समाया है । और शरीर में आकर जीव अपने घर की पहचान भूल गया है । पाँच तत्व । पच्चीस प्रकृति तीन गुण और मन इन्द्रियों ने मिलकर जीव को घेर लिया है । जीव को इन सबका ग्यान नहीं है । और अपना ये भी पता नहीं कि मैं कौन हूँ ? इस प्रकार से बिना परिचय के अविनाशी जीव काल निरंजन का दास बना हुआ है ।
जीव अग्यानवश खुद को और इस बंधन को नहीं जानता । जैसे तोता लकङी के नलनी यंत्र में फ़ँसकर कैद हो जाता है । यही स्थिति मनुष्य की है ।
जैसे शेर ने अपनी परछाईं कुँए के जल में देखी । और अपनी छाया को दूसरा शेर जानकर कूद पङा । और मर गया । ठीक ऐसे ही जीव काल माया का धोखा समझ नहीं पाता । और बंधन में फ़ँसा रहता है । जैसे काँच के महल के पास गया कुत्ता दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखकर भौंकता है । और अपनी ही आवाज और प्रतिबिम्ब से धोखा खाकर दूसरा कुत्ता समझकर उसकी तरफ़ भागता है । ऐसे ही काल निरंजन ने जीव को फ़ँसाने के लिये माया मोह का जाल बना रखा है ।
काल निरंजन और उसकी शाखाओं ( कर्मचारी देवताओं आदि ने ) ने जो नाम रखे हैं । वे बनाबटी हैं । जो देखने सुनने में शुद्ध माया रहित और महान लगते हैं । परबृह्म पराशक्ति आदि आदि । परन्तु सच्चा और मोक्षदायी केवल आदि पुरुष का आदिनाम ही है ।
अतः हे धर्मदास ! जीव इस काल की बनायी भूल भूलैया में पङकर सत्यपुरुष से बेगाना हो गये । और अपना भला बुरा भी नहीं विचार सकते । जितना भी पाप कर्म और मिथ्या विषय आचरण है । ये इसी मन निरंजन का ही है । यदि जीव इस दुष्ट मन निरंजन को पहचान कर इससे अलग हो जाये । तो निश्चित ही जीव का कल्याण हो जाय ।
यह मैंने मन और जीव की भिन्नता तुम्हें समझाई । जो जीव सावधान सचेत होकर ग्यान दृष्टि से मन को देखेगा । समझेगा । तो वह इस काल निरंजन के धोखे में नहीं आयेगा । जैसे जब तक घर का मालिक सोता रहता है । तब तक चोर उसके घर में सेंध लगाकर चोरी करने की कोशिश करते रहते हैं । और उसका धन लूट ले जाते हैं ।
ऐसे ही जब तक शरीर रूपी घर का स्वामी ये जीव अग्यानवश मन की चालों के प्रति सावधान नहीं रहता । तब तक मन रूपी चोर उसका भक्ति और ग्यान रूपी धन चुराता रहता है । और जीव को नीच कर्मों की ओर प्रेरित करता रहता है । परन्तु जब जीव इसकी चाल को समझकर सावधान हो जाता है । तब इसकी नहीं चलती ।
जो जीव मन को जानने लगता है । उसकी जागृत कला ( योग स्थिति ) अनुपम होती है । जीव के लिये अग्यान अँधकार बहुत भयंकर अँधकूप के समान है । इसलिये ये मन ही भयंकर काल है । जो जीव को बेहाल करता है ।
स्त्री पुरुष मन द्वारा ही एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं । और मन उमङने से ही शरीर में कामदेव जीव को बहुत सताता है । इस प्रकार स्त्री पुरुष विषय भोग में आसक्त हो जाते है । इस विषय भोग का आनन्द रस काम इन्द्री और मन ने लिया । और उसका पाप जीव के ऊपर लगा दिया । इस प्रकार पाप कर्म और सब अनाचार कराने वाला ये मन होता है । और उसके फ़लस्वरूप अनेक नरक आदि कठोर दंड जीव भोगता है ।
दूसरों की निंदा करना । दूसरों का धन हङपना । यह सब मन की फ़ाँसी है । सन्तों से वैर मानना । गुरु की निन्दा करना यह सब मन बुद्धि का कर्म काल जाल है । जिसमें भोला जीव फ़ँस जाता है ।
पर स्त्री पुरुष से कभी व्यभिचार न करे । अपने मन पर सयंम रखे । यह मन तो अँधा है । विषय विष रूपी कर्मों को बोता है । और प्रत्येक इन्द्री को उसके विषय में प्रवृत करता है । मन जीव को उमंग देकर मनुष्य से तरह तरह की जीव हत्या कराता है । और फ़िर जीव से नरक भुगतवाता है ।
यह मन जीव को अनेकानेक कामनाओं की पूर्ति का लालच देकर तीर्थ वृत तुच्छ देवी देवताओं की जङ मूर्तियों की सेवा पूजा में लगाकर धोखे में डालता है । लोगों को द्वारिकापुरी में यह मन दाग ( छाप ) लगवाता है । मुक्ति आदि की झूठी आशा देकर मन ही जीव को दाग देकर बिगाङता है ।
अपने पुण्य कर्म से यदि किसी का राजा का जन्म होता है । तो पुण्य फ़ल भोग लेने पर वही नरक भुगतता है । और राजा जीवन में विषय विकारी होने से नरक भुगतने के बाद फ़िर उसका सांड का जन्म होता है । और वह बहुत गायों का पति होता है ।
पाप और पुण्य दो अलग अलग प्रकार के कर्म होते हैं । उनमें पाप से नरक और पुण्य से स्वर्ग प्राप्त होता है । पुण्य कर्म क्षीण हो जाने से फ़िर नरक भुगतना होता है । ऐसा विधान है । अतः कामना वश किये गये यह पुण्य का यह कर्म योग भी मन का जाल है । निष्काम भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है । जिससे जीव का सब दुख द्वंद मिट जाता है ।
हे धर्मदास ! इस मन की कपट करामात कहाँ तक कहूँ । बृह्मा विष्णु महेश तीनों प्रधान देवता शेषनाग तथा तैतीस करोङ देवता सब इसके फ़ँदे में फ़ँसे और हार कर रहे । मन को वश में न कर सके । सदगुरु के बिना कोई मन को वश में नहीं कर पाता । सभी मन माया के बनाबटी जाल में फ़ँसे पङे हैं ।
1 टिप्पणी:
बहुत सुन्दर प्रेरणादायक लेख| धन्यवाद|
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