कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! सुनो । मैंने तुम्हारे सामने सत्य का भेद प्रकाशित किया है । और तुम्हारे सभी काल जाल को मिटा दिया है । अब रहनी गहनी की बात सुनो । जिसको जाने बिना मनुष्य यूँ ही भूलकर सदा भटकता रहता है । सदा मन लगाकर भक्ति साधना करो । और मान प्रसंशा को त्यागकर सच्चे सन्तों की सेवा करो । पहले जाति वर्ण और कुल की मर्यादा नष्ट करो । ( अभिमान मत करो । और ये मत मानों कि " मैं " ये हूँ । या वो हूँ । ये 84 में फ़ँसने का सबसे बङा कारण होता है ।
तथा दूसरे अन्य मत पत्थर ( मूर्ति ) पानी ( गंगा यमुना कुम्भ आदि ) देवी देवता की पूजा छोङकर निष्काम गुरु की भक्ति करो ।
जो जीव गुरु से कपट चतुराई करता है । वह जीव संसार में भटकता भरमता है । इसलिये गुरु से कभी कपट परदा नहीं रखना चाहिये । गुरु से कपट मित्र की चोरी । के होय अँधा के होय कोङी । जो गुरु से भेद कपट रखता है । उसका उद्धार नहीं होता । वह 84 में ही रहता है ।
हे धर्मदास ! सुनो । केवल 1 सत्यपुरुष के सत्यनाम की आशा और विश्वास करो । इस संसार का बहुत बङा जंजाल है । इसी में छिपा हुआ काल निरंजन अपनी फ़ाँस ( फ़ँदा ) लगाये हुये है । जिससे कि जीव उसमें फ़ँसते रहें । परिवार के सब नर नारी मिलकर यदि सत्यनाम का सुमरन करें । तो भयंकर काल कुछ नहीं बिगाङ सकता ।
हे धर्मदास ! तुम्हारे घर जितने जीव हैं । उन सबको बुलाओ । सब ( हँस ) नाम दीक्षा लें । फ़िर तुम अन्यायी और क्रूर काल निरंजन से सदा सुरक्षित रहोगे ।
तब धर्मदास बोले - हे प्रभु ! आप जीवों के मूल ( आधार ) हो । आपने मेरा समस्त अग्यान मिटा दिया । मेरा एक पुत्र नारायण दास है । आप उसे भी उपदेश करें ।
यह सुनकर कबीर साहब मुस्करा दिये । पर अपने अन्दर के भावों को प्रकट नहीं किया । और बोले - हे धर्मदास ! जिसको तुम शुद्ध अंतकरण वाला समझते हो । उनको तुरन्त बुलाओ ।
तब धर्मदास ने सबको बुलाया । और बोले - हे भाई ! ये समर्थ सदगुरुदेव स्वामी हैं । इनके श्रीचरणों में गिरकर समर्पित हो जाओ । जिससे कि 84 से मुक्त होओ । और संसार में फ़िर से न जन्मों ।
इतना सुनते ही सभी जीव आये । और कबीर साहब के चरणों में दंडवत प्रणाम कर समर्पित हो गये । परन्तु नारायण दास नहीं आया ।
तब धर्मदास सोचने लगे कि नारायण दास तो बहुत चतुर है । फ़िर वह क्यों नहीं आया ?
धर्मदास ने अपने सेवक से कहा - मेरे उस पुत्र ने गुरु रूपदास पर विश्वास किया है । और उसकी शिक्षा अनुसार वह जिस स्थान पर श्रीमदभगवद गीता पढता रहता है । वहाँ जाकर उससे कहो । तुम्हारे पिता ने समर्थ गुरु पाया है ।
तब सेवक धर्मदास के पास जाकर बोला - हे नारायण दास ! तुम शीघ्र चलो । आपके पिता के पास समर्थ गुरु कबीर साहब आये हैं । उनसे उपदेश लो ।
यह सुनकर नारायण दास बोला - मैं पिता के पास नहीं जाऊँगा । वे बूढे हो गये हैं । और उनकी बुद्धि का नाश हो गया है । विष्णु के समान और कौन है ? हम जिसको जपें । मेरे पिता बूढे हो गये हैं । और उनको जुलाहा गुरु भा गया है । मेरे मन को तो विठ्ठलेश्वर गुरु ही पाया है । अब और क्या कहूँ । मेरे पिता तो बस पागल ही हो गये हैं ।
उस संदेशी ने यह सब बात धर्मदास को आकर बतायी । तब धर्मदास स्वयँ अपने पुत्र नारायण दास के पास पहुँचे । और बोले - हे पुत्र नारायण दास ! अपने घर चलो । वहाँ सदगुरु कबीर साहब आये हुये हैं । उनके श्री चरणों में माथा टेको । और अपने सब कर्म बँधनो को कटाओ । जल्दी करो । ऐसा अवसर फ़िर नहीं मिलेगा । हठ छोङो । बन्दीछोङ गुरु बारबार नहीं मिलते ।
तब नारायण दास बोला- हे पिताजी ! लगता है । आप पगला गये हो । इसलिये तीसरेपन की अवस्था में जिंदा गुरु पाया है ।
अरे ! जिसका नाम राम है । उसके समान और कोई देवता नहीं है । जिसकी ऋषि मुनि आदि सभी पूजा करते हैं । आपने गुरु विठ्ठलेश्वर का प्रेम छोङकर अब बुढापे में वह जिन्दा गुरु किया है ।
तब धर्मदास ने नारायण को बाँह पकङकर उठा लिया । और कबीर साहब के सामने ले आये । और बोले - इनके चरण पकङो । ये यम के फ़ँदे से छुङाने वाले हैं ।
तब नारायण दास मुँह फ़ेरकर कटु शब्दों में बोला - यह कहाँ हमारे घर में मलेच्छ ने प्रवेश किया है । कहाँ से यह जिन्दा ठग आया । जिसने मेरे पिता को पागल कर दिया । वेद शास्त्र को इसने उठाकर रख दिया । और अपनी महिमा बनाकर कहता है । यदि यह जिन्दा आपके पास रहेगा । तो मैंने आपके घर आने की आशा छोङ दी है ।
नारायण दास की यह बात सुनते ही धर्मदास परेशान हो गये । और बोले - मेरा यह पुत्र जाने क्या मत ठाने हुये है । फ़िर माता आमिन ने भी नारायण को बहुत समझाया । परन्तु नारायण दास के मन में उनकी एक भी बात सही न लगी । ( और वह बाहर चला गया )
तब धर्मदास कबीर साहब से विनती करते हुये बोले - हे साहिब ! मुझे वह कारण बताओ । जिससे मेरा पुत्र इस प्रकार आपको कटु वचन कहता है । और दुर्बुद्धि को प्राप्त होकर भटका हुआ है ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! मैंने तो तुम्हें नारायण दास के बारे में पहले ही बता दिया था । पर तुम उसे भूल गये हो । अतः फ़िर से सुनो । जब मैं सत्यपुरुष की आग्या से जीवों को चेताने मृत्युलोक की तरफ़ आया । तब काल निरंजन ने मुझे देखकर विकराल रूप बनाया ।
और बोला - सत्यपुरुष की सेवा के बदले मैंने यह झांझरी दीप प्राप्त किया है । हे ग्यानी ! तुम भवसागर में कैसे ( क्यों ) आये । मैं तुमसे सत्य कहता हूँ । मैं तुम्हें मार दूँगा । तुम मेरा यह रहस्य नहीं जानते ।
तब कबीर साहब ने कहा - हे अन्यायी निरंजन सुन । मैं तुझसे नहीं डरता । जो तुम अहंकार की वाणी बोलते हो । मैं इसी क्षण तुम्हें मार डालूँगा ।
तब काल निरंजन सहम गया । और विनती करता हुआ बोला - हे ग्यानी जी ! आप संसार में जाओगे । बहुत से जीवों का उद्धार कर मुक्त करोगे । तो मेरी भूख कैसे मिटेगी ? जब जीव नहीं होंगे । तब मैं क्या खाऊँगा । मैंने 1 लाख जीव रात दिन खाये । और सवा लाख उत्पन्न किये । मेरी सेवा से सत्यपुरुष ने मुझको तीन लोक का राज्य दिया । आप संसार में जाकर जीवों को चेताओगे । उसके लिये मैंने ऐसा इंतजाम किया है । मैं धर्म कर्म का ऐसा मायाजाल फ़ैलाऊँगा कि आपका सत्य उपदेश कोई नहीं मानेगा ।
मैं घर घर में अग्यान भृम का भूत उत्पन्न करूँगा । तथा धोखा दे देकर जीवों को भृम में डालूँगा । तब सभी मनुष्य शराब पीयेंगे । माँस खायेंगे । इसलिये कोई आपकी बात नहीं मानेगा । और आपका संसार में जाना बेकार है ।
तब मैंने कहा - काल निरंजन मैं तेरा छल बल सब जानता हूँ । मैं सत्यनाम से तेरे द्वारा फ़ैलाये गये सब भृम मिटा दूँगा । और तेरा धोखा सबको बताऊँगा ।
तब काल निरंजन घबरा गया । और बोला - मैं जीवों को अधिक से अधिक भरमाने के लिये 12 पँथ चलाऊँगा । और आपका नाम लेकर अपना धोखे का पँथ चलाऊँगा । मृतु अँधा मेरा अंश है । वह धर्मदास के घर जन्म लेगा । पहले मेरा कालदूत धर्मदास के घर जन्म लेगा । पीछे से आपका अंश जन्म लेगा । हे भाई ! मेरी इतनी विनती तो मान ही लो ।
हे धर्मदास ! तब मैंने निरंजन को कहा । सुनो निरंजन । तुमने इस प्रकार कहकर जीवों के उद्धार कार्य में विघ्न डाल दिया है । फ़िर भी मैंने तुमको वचन दिया ।
इसलिये हे धर्मदास ! अब वह मृतु अँधा नाम का कालदूत तुम्हारा पुत्र बनकर आया है । और अपना नाम नारायण दास रखवाया है । यह नारायण तो काल निरंजन का अंश है । जो जीवों के उद्धार में विघ्न का कार्य करेगा । यह मेरा नाम लेकर पँथ को प्रकट करेगा । और जीव को धोखे में डालेगा । और नरक में डलवायेगा । जैसे शिकारी नाद को बजाकर हिरन को अपने वश में कर लेता है । और पकङकर उसे मार डालता है । वैसे ही शिकारी की भांति यम काल अपना जाल लगाता है । और इस चाल को हँस जीव ही समझ पायेगा ।
तब कालदूत नारायण दास की चाल समझ में आते ही धर्मदास ने उसे त्याग दिया । और कबीर के चरणों में गिर पङे ।
तथा दूसरे अन्य मत पत्थर ( मूर्ति ) पानी ( गंगा यमुना कुम्भ आदि ) देवी देवता की पूजा छोङकर निष्काम गुरु की भक्ति करो ।
जो जीव गुरु से कपट चतुराई करता है । वह जीव संसार में भटकता भरमता है । इसलिये गुरु से कभी कपट परदा नहीं रखना चाहिये । गुरु से कपट मित्र की चोरी । के होय अँधा के होय कोङी । जो गुरु से भेद कपट रखता है । उसका उद्धार नहीं होता । वह 84 में ही रहता है ।
हे धर्मदास ! सुनो । केवल 1 सत्यपुरुष के सत्यनाम की आशा और विश्वास करो । इस संसार का बहुत बङा जंजाल है । इसी में छिपा हुआ काल निरंजन अपनी फ़ाँस ( फ़ँदा ) लगाये हुये है । जिससे कि जीव उसमें फ़ँसते रहें । परिवार के सब नर नारी मिलकर यदि सत्यनाम का सुमरन करें । तो भयंकर काल कुछ नहीं बिगाङ सकता ।
हे धर्मदास ! तुम्हारे घर जितने जीव हैं । उन सबको बुलाओ । सब ( हँस ) नाम दीक्षा लें । फ़िर तुम अन्यायी और क्रूर काल निरंजन से सदा सुरक्षित रहोगे ।
तब धर्मदास बोले - हे प्रभु ! आप जीवों के मूल ( आधार ) हो । आपने मेरा समस्त अग्यान मिटा दिया । मेरा एक पुत्र नारायण दास है । आप उसे भी उपदेश करें ।
यह सुनकर कबीर साहब मुस्करा दिये । पर अपने अन्दर के भावों को प्रकट नहीं किया । और बोले - हे धर्मदास ! जिसको तुम शुद्ध अंतकरण वाला समझते हो । उनको तुरन्त बुलाओ ।
तब धर्मदास ने सबको बुलाया । और बोले - हे भाई ! ये समर्थ सदगुरुदेव स्वामी हैं । इनके श्रीचरणों में गिरकर समर्पित हो जाओ । जिससे कि 84 से मुक्त होओ । और संसार में फ़िर से न जन्मों ।
इतना सुनते ही सभी जीव आये । और कबीर साहब के चरणों में दंडवत प्रणाम कर समर्पित हो गये । परन्तु नारायण दास नहीं आया ।
तब धर्मदास सोचने लगे कि नारायण दास तो बहुत चतुर है । फ़िर वह क्यों नहीं आया ?
धर्मदास ने अपने सेवक से कहा - मेरे उस पुत्र ने गुरु रूपदास पर विश्वास किया है । और उसकी शिक्षा अनुसार वह जिस स्थान पर श्रीमदभगवद गीता पढता रहता है । वहाँ जाकर उससे कहो । तुम्हारे पिता ने समर्थ गुरु पाया है ।
तब सेवक धर्मदास के पास जाकर बोला - हे नारायण दास ! तुम शीघ्र चलो । आपके पिता के पास समर्थ गुरु कबीर साहब आये हैं । उनसे उपदेश लो ।
यह सुनकर नारायण दास बोला - मैं पिता के पास नहीं जाऊँगा । वे बूढे हो गये हैं । और उनकी बुद्धि का नाश हो गया है । विष्णु के समान और कौन है ? हम जिसको जपें । मेरे पिता बूढे हो गये हैं । और उनको जुलाहा गुरु भा गया है । मेरे मन को तो विठ्ठलेश्वर गुरु ही पाया है । अब और क्या कहूँ । मेरे पिता तो बस पागल ही हो गये हैं ।
उस संदेशी ने यह सब बात धर्मदास को आकर बतायी । तब धर्मदास स्वयँ अपने पुत्र नारायण दास के पास पहुँचे । और बोले - हे पुत्र नारायण दास ! अपने घर चलो । वहाँ सदगुरु कबीर साहब आये हुये हैं । उनके श्री चरणों में माथा टेको । और अपने सब कर्म बँधनो को कटाओ । जल्दी करो । ऐसा अवसर फ़िर नहीं मिलेगा । हठ छोङो । बन्दीछोङ गुरु बारबार नहीं मिलते ।
तब नारायण दास बोला- हे पिताजी ! लगता है । आप पगला गये हो । इसलिये तीसरेपन की अवस्था में जिंदा गुरु पाया है ।
अरे ! जिसका नाम राम है । उसके समान और कोई देवता नहीं है । जिसकी ऋषि मुनि आदि सभी पूजा करते हैं । आपने गुरु विठ्ठलेश्वर का प्रेम छोङकर अब बुढापे में वह जिन्दा गुरु किया है ।
तब धर्मदास ने नारायण को बाँह पकङकर उठा लिया । और कबीर साहब के सामने ले आये । और बोले - इनके चरण पकङो । ये यम के फ़ँदे से छुङाने वाले हैं ।
तब नारायण दास मुँह फ़ेरकर कटु शब्दों में बोला - यह कहाँ हमारे घर में मलेच्छ ने प्रवेश किया है । कहाँ से यह जिन्दा ठग आया । जिसने मेरे पिता को पागल कर दिया । वेद शास्त्र को इसने उठाकर रख दिया । और अपनी महिमा बनाकर कहता है । यदि यह जिन्दा आपके पास रहेगा । तो मैंने आपके घर आने की आशा छोङ दी है ।
नारायण दास की यह बात सुनते ही धर्मदास परेशान हो गये । और बोले - मेरा यह पुत्र जाने क्या मत ठाने हुये है । फ़िर माता आमिन ने भी नारायण को बहुत समझाया । परन्तु नारायण दास के मन में उनकी एक भी बात सही न लगी । ( और वह बाहर चला गया )
तब धर्मदास कबीर साहब से विनती करते हुये बोले - हे साहिब ! मुझे वह कारण बताओ । जिससे मेरा पुत्र इस प्रकार आपको कटु वचन कहता है । और दुर्बुद्धि को प्राप्त होकर भटका हुआ है ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! मैंने तो तुम्हें नारायण दास के बारे में पहले ही बता दिया था । पर तुम उसे भूल गये हो । अतः फ़िर से सुनो । जब मैं सत्यपुरुष की आग्या से जीवों को चेताने मृत्युलोक की तरफ़ आया । तब काल निरंजन ने मुझे देखकर विकराल रूप बनाया ।
और बोला - सत्यपुरुष की सेवा के बदले मैंने यह झांझरी दीप प्राप्त किया है । हे ग्यानी ! तुम भवसागर में कैसे ( क्यों ) आये । मैं तुमसे सत्य कहता हूँ । मैं तुम्हें मार दूँगा । तुम मेरा यह रहस्य नहीं जानते ।
तब कबीर साहब ने कहा - हे अन्यायी निरंजन सुन । मैं तुझसे नहीं डरता । जो तुम अहंकार की वाणी बोलते हो । मैं इसी क्षण तुम्हें मार डालूँगा ।
तब काल निरंजन सहम गया । और विनती करता हुआ बोला - हे ग्यानी जी ! आप संसार में जाओगे । बहुत से जीवों का उद्धार कर मुक्त करोगे । तो मेरी भूख कैसे मिटेगी ? जब जीव नहीं होंगे । तब मैं क्या खाऊँगा । मैंने 1 लाख जीव रात दिन खाये । और सवा लाख उत्पन्न किये । मेरी सेवा से सत्यपुरुष ने मुझको तीन लोक का राज्य दिया । आप संसार में जाकर जीवों को चेताओगे । उसके लिये मैंने ऐसा इंतजाम किया है । मैं धर्म कर्म का ऐसा मायाजाल फ़ैलाऊँगा कि आपका सत्य उपदेश कोई नहीं मानेगा ।
मैं घर घर में अग्यान भृम का भूत उत्पन्न करूँगा । तथा धोखा दे देकर जीवों को भृम में डालूँगा । तब सभी मनुष्य शराब पीयेंगे । माँस खायेंगे । इसलिये कोई आपकी बात नहीं मानेगा । और आपका संसार में जाना बेकार है ।
तब मैंने कहा - काल निरंजन मैं तेरा छल बल सब जानता हूँ । मैं सत्यनाम से तेरे द्वारा फ़ैलाये गये सब भृम मिटा दूँगा । और तेरा धोखा सबको बताऊँगा ।
तब काल निरंजन घबरा गया । और बोला - मैं जीवों को अधिक से अधिक भरमाने के लिये 12 पँथ चलाऊँगा । और आपका नाम लेकर अपना धोखे का पँथ चलाऊँगा । मृतु अँधा मेरा अंश है । वह धर्मदास के घर जन्म लेगा । पहले मेरा कालदूत धर्मदास के घर जन्म लेगा । पीछे से आपका अंश जन्म लेगा । हे भाई ! मेरी इतनी विनती तो मान ही लो ।
हे धर्मदास ! तब मैंने निरंजन को कहा । सुनो निरंजन । तुमने इस प्रकार कहकर जीवों के उद्धार कार्य में विघ्न डाल दिया है । फ़िर भी मैंने तुमको वचन दिया ।
इसलिये हे धर्मदास ! अब वह मृतु अँधा नाम का कालदूत तुम्हारा पुत्र बनकर आया है । और अपना नाम नारायण दास रखवाया है । यह नारायण तो काल निरंजन का अंश है । जो जीवों के उद्धार में विघ्न का कार्य करेगा । यह मेरा नाम लेकर पँथ को प्रकट करेगा । और जीव को धोखे में डालेगा । और नरक में डलवायेगा । जैसे शिकारी नाद को बजाकर हिरन को अपने वश में कर लेता है । और पकङकर उसे मार डालता है । वैसे ही शिकारी की भांति यम काल अपना जाल लगाता है । और इस चाल को हँस जीव ही समझ पायेगा ।
तब कालदूत नारायण दास की चाल समझ में आते ही धर्मदास ने उसे त्याग दिया । और कबीर के चरणों में गिर पङे ।
1 टिप्पणी:
यह केवल भ्रमित करने वाली कहानियां है
सत्य यही है कि परमात्मा अजर अमर अविनाशी है
हम इस नाशवान शरीर को चलाने वाले अजर अमर अविनाशी आत्माओं को पतित से पावन बनाने के निमित्त परमपिता परमात्मा है
परमात्मा के लिए लिखा गया कालों का काल महाकाल
इसका अर्थ समझ लिया गया कि परमात्मा सब को मारने वाला है सृष्टि का विनाश करने वाला है आगे संतो ने समझा परमात्मा ऐसा क्यों करेगा तो उन्होंने परमात्मा से अलग किसी और को करने वाला बता दिया वास्तव में सच्चाई यह है कि काल समय है समय कुछ खाता पीता नहीं समय किसी को मारता नहीं और मृत्यु को ना जाने के कारण समय पर दोष लगा दिया है हर कर्म का समय निश्चित है कोई भी कारण एक सेकंड पहले या पीछे नहीं हो सकता आत्मा को शरीर छोड़ना है तो वह भी एक सेकंड पहले या लेट नहीं हो सकता आत्मा का शरीर धारण करना आत्मा का शरीर छोड़ना निश्चित समय पर होता है समीना आत्मा को खाता है समय न शरीर को खाता है परंतु अज्ञानी आत्माएं सत्य को ना जाने के कारण क्या-क्या कहानियां कर देती हैं जिससे समाज को भ्रमित करते हैं अब ध्यान देने वाली बात तो यह है कि कोई मुझे कितना भी भ्रमित करें परंतु सत्य का ज्ञान मुझे होना चाहिए ताकि मैं अपने आप को भ्रम से मुक्त रख सकूं
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