कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! रानी इन्द्रमती के हँस जीव को सत्यलोक पहुँचाकर उसे सत्यपुरुष के दर्शन कराने के बाद मैंने कहा - हे हँस ! अब अपनी बात बताओ । तुम्हारी जैसी दशा है । सो कहो । तुम्हारा सब दुख द्वंद । जन्म मरण का आवागमन सब मिट गया । और तुम्हारा तेज 16 सूर्य के बराबर हो गया । और तुम्हारे सब कलेश मिटकर तुम्हारा कल्याण हुआ ।
तब इन्द्रमती दोनों हाथ जोङकर बोली - हे साहिब ! मेरी एक विनती है । बङे भाग्य से मैंने आपके श्रीचरणों में स्थान पाया है । मेरे इस हँस शरीर का रूप बहुत सुन्दर है । परन्तु मेरे मन में एक संशय है । जिससे मुझे राजा ( अपने पति चन्द्रविजय ) के प्रति मोह हुआ है । क्योंकि वह राजा मेरा पति रहा है । हे करुणामय स्वामी ! आप उसे भी सत्यलोक ले आईये । नहीं तो मेरा राजा काल के मुख में जायेगा ।
कबीर साहब बोले - तब मैंने कहा । हे बुद्धिमान हँस सुन । राजा ने नाम उपदेश नहीं लिया । उसने सत्यपुरुष की भक्ति नहीं पायी । और भक्तिहीन होकर तत्वग्यान के बिना वह इस असार संसार में
84 लाख योनियों में ही भटकेगा ।
तब इन्द्रमती बोली - हे प्रभु ! मैं जब संसार में रहती थी । और अनेक प्रकार से आपकी भक्ति किया करती थी । तब सज्जन राजा ने मेरी भक्ति को समझा । और कभी भी भक्ति से नहीं रोका ।
संसार का स्वभाव बहुत कठोर है । यदि अपने पति को छोङकर उसकी स्त्री कहीं अलग रहे । तो सारा संसार उसे गाली देता है । और सुनते ही पति भी उसे मार डालता है ।
हे साहिब ! राज काज में तो मान । प्रसंशा । नास्तिकता । क्रोध । चतुराई होती ही है । परन्तु इन सबसे अलग मैं साधु संतो की सेवा ही करती थी । और राजा से भी नहीं डरती थी । तो जब मैं साधु सन्तों की सेवा करती थी । यह सुनकर राजा प्रसन्न ही होता था ।
हे साहिब ! इसके विपरीत राजा ऐसा करने के लिये मुझे रोकता । दुख देता । तो मैं किस तरह साधु सन्तों की सेवा कर पाती । और तब मेरी मुक्ति कैसे होती । अतः सेवा भक्ति को जानने वाला वह राजा धन्य है । उसके हँस ( जीवात्मा ) को भी ले आइये ।
हे हँसपति सदगुरु ! आप तो दया के सागर है । दया कीजिये । और राजा को सांसारिक बँधनों से छुङाईये ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! मैं उस हँस इन्द्रमती की ऐसी बातें सुनकर बहुत हँसा । और इन्द्रमती की इच्छा अनुसार उसके राज्य गिरनार गढ में प्रकट हो गया । उस समय राजा चन्द्रविजय की आयु पूरी होने के करीब ही आ गयी थी ।
राजा चन्द्रविजय के प्राण निकालने के लिये यमराज उन्हें घेरकर बहुत कष्ट दे रहा था । और संकट में पङा हुआ राजा भय से थरथर कांप रहा था । तब मैंने यमराज से उसे छोङने को कहा । यमराज उसे छोङता नहीं था ।
हे धर्मदास ! दुर्लभ मनुष्य शरीर में सत्यनाम भक्ति न करने की चूक का यही परिणाम होता है । सत्यपुरुष की भक्ति को भूलकर जो जीव संसार के मायाजाल में पङे रहते हैं । आयु पूरी होने पर यमराज उन्हें भयंकर दुख देता ही है ।
तब मैंने राजा चन्द्रविजय का हाथ पकङ लिया । और उसी समय सत्यलोक ले आया । रानी इन्द्रमती यह देखकर बहुत प्रसन्न हुयी । और बोली - हे राजा ! सुनो । मुझे पहचानो । मैं तुम्हारी पत्नी हूँ ।
राजा उससे बोला - हे ग्यानवान हँस ! तुम्हारा दिव्य रूप रंग तो 16 सूर्य जैसा दमक रहा है । तुम्हारे अंग अंग में विशेष अलौकिक चमक है । तब तुमको अपनी पत्नी कैसे कहूँ ?
हे श्रेष्ठ नारी ! यह तुमने बहुत अच्छी भक्ति की । जिससे अपना और मेरा दोनों का ही उद्धार किया । तुम्हारी भक्ति से ही मैंने अपना निज घर सत्यलोक पाया । मैंने करोंङो जन्मों तक धर्म पुण्य किया । तब ऐसी सतकर्म करने वाली भक्ति करने वाली स्त्री पायी । मैं तो राज काज ही करता हुआ भक्ति से विमुख रहा ।
हे रानी ! यदि तुम न होती । तो मैं निश्चय ही कठोर नरक में जाता । ऐसा मैंने मृत्युपूर्व ही अनुभव किया ।
अतः संसार में तुम्हारे समान पत्नी सबको मिले ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! तब मैंने राजा से ऐसा कहा - जो जीव सत्यपुरुष के सतनाम का ध्यान करता है । वह दोबारा कष्टमय संसार में नहीं जाता ।
हे धर्मदास ! इसके बाद मैं फ़िर से संसार में आया । और काशी नगरी में गया । जहाँ भक्त सुदर्शन श्वपच रहता था । वह शब्द विवेकी ग्यान को समझने वाला उत्तम सन्त था । उसने मेरे बताये आत्मग्यान को शीघ्र ही समझा । और उसे अपनाया । उसका पक्का विश्वास देखकर मैंने उसे भव बँधन से मुक्त कर दिया । और विधिपूर्वक नाम उपदेश किया ।
हे धर्मदास ! सत्यपुरुष की ऐसी प्रत्यक्ष महिमा देखते हुये भी जो जीव उसको नहीं समझते । वे काल निरंजन के फ़ँदे में पङे हुये हैं । जैसे कुत्ता अपवित्र वस्तु को भी खा लेता है । वैसे ही संसारी लोग भी अमृत छोङकर विष खाते हैं । अर्थात सत्यपुरुष रूपी अमृत को छोङकर विषरूपी कालनिरंजन की ही भक्ति करते हैं ।
हे धर्मदास ! द्वापर युग में युधिष्ठर नाम का एक राजा हुआ । महाभारत युद्ध में अपने ही बन्धु बान्धवों को मारकर उनसे बहुत पाप हुआ था । अतः युद्ध के बाद बहुत हाहाकार मच गया । चारों ओर घोर अशान्ति और शोक दुख का माहौल था । खुद युधिष्ठर को बुरे स्वपन और अपशकुन होते थे । तब श्रीकृष्ण की सलाह पर उन्होंने इस पाप निवारण हेतु एक यग्य किया ।
इस यग्य की सभी विधिवत तैयारी आदि करके जब यग्य होने लगा । तब श्रीकृष्ण ने कहा - इस यग्य के सफ़लता पूर्वक होने की पहचान है कि आकाश में बजता हुआ घंटा स्वतः सुनायी देगा ( आजकल लोग खुद बजा बजाकर सुन लेते हैं । और हो गया यग्य । ये लो प्रसाद )
उस यग्य में संयासी । योगी । ऋषि । मुनि । वैरागी । ब्राह्मण । बृह्मचारी आदि सभी आये । सभी को प्रेम से भोजन आदि कराया । पर घंटा नहीं बजा । ( बल्कि घंटी बजने की हल्की टुन्न भी नहीं हुयी )
तब युधिष्ठर बहुत लज्जित हुये । और श्रीकृष्ण के पास इसका कारण पूछने गये ।
श्रीकृष्ण बोले - जितने भी लोगों ने भोजन किया । इनमें एक भी सच्चा सन्त नहीं था । वे दिखावे के लिये साधु । सन्यासी । योगी । वैरागी । ब्राह्मण । बृह्मचारी अवश्य लग रहे हों । पर वे मन से अभिमानी ही थे । इसलिये घंटा नहीं बजा ।
युधिष्ठर को बङा आश्चर्य हुआ । इतने विशाल यग्य में करोङों साधुओं ने भोजन किया । और उनमें कोई सच्चा ही नहीं था ( देख लो । भाई लोगो । ये द्वापर की बात है । जब कृष्ण धरती पर मौजूद थे । तब यह हाल था - राजीव ) तब हम ऐसा सच्चा सन्त कहाँ से लायें ।
तब श्रीकृष्ण ने कहा - काशी नगरी से सुदर्शन श्वपच को लेकर आओ । वे ही सर्वोत्तम साधु हैं । उन जैसा साधु अभी कोई नहीं है । तब यग्य सफ़ल होगा ।
ऐसा ही किया गया । और घन्टा बजने लगा । श्वपच सुदर्शन के ग्रास उठाते ही घंटा सात बार बजा । यग्य सफ़ल हो गया ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! तब भी जो अग्यानी जीव सदगुरु की वाणी का रहस्य नहीं पहचानते । ऐसे लोगों की बुद्धि नष्ट होकर यम के हाथों बिक गयी है ।
अपने ही भक्त जीव को ये काल दुख देता है । नरक में डालता है । काल के लिये अब क्या कहूँ । ये भक्त अभक्त सभी को दुख देता है । सबको मार खाता है । गौर से समझो । इस काल के द्वारा ही महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण ने पांडवों को युद्ध के लिय्र प्रेरित किया । और हत्या का पाप करवाया । फ़िर उन्हीं श्रीकृष्ण ने पांडवों को दोष लगाया कि तुमसे हत्या का पाप हुआ । अतः यग्य करो । और तब ( गीता देखें ) कहा था कि तुम्हें इसके बदले स्वर्ग मिलेगा । तुम्हारा यश होगा ।
हे धर्मदास ! इसके बाद भी पांडवों को ( श्रीकृष्ण ने ) और अधिक दुख दिया । और जीवन के अंतिम समय में हिमालय यात्रा में भेजकर बर्फ़ में गलवा दिया । द्रोपदी और चारों पांडव भीम अर्जुन नकुल सहदेव हिमालय की बर्फ़ में गल गये । केवल सत्य को धारण करने वाले युधिष्ठर ही बचे ।
जब श्रीकृष्ण को अर्जुन बहुत प्रिय था । तो उसकी ये गति क्यों हुयी ?
राजा बलि । हरिश्चन्द्र । कर्ण बहुत बङे दानी थे । फ़िर भी काल ने उन्हें बहुत प्रकार से दुख दिया । अपमान कराया ।
अतः इस जीव को अग्यानवश सत्य असत्य उचित अनुचित का ग्यान नहीं है । इसलिये वह सदा हितैषी सत्यपुरुष को छोङकर इस कपटी धूर्त काल निरंजन की पूजा करते हुये मोहवश उसी की ओर भागता है ।
काल निरंजन जीव को अनेक कला दिखाकर भृमित करता है । जीव इससे मुक्ति की आशा लगाकर और उसी आशा की फ़ाँस में बँधकर काल के मुख में जाता है ।
इन दोनों काल निरंजन और माया ने सत्यपुरुष के समान ही बनाबटी नकली और वाणी के अनेक नाम मुक्ति के नाम पर संसार में फ़ैला दिये हैं । और जीव को भयंकर धोखे में डाल दिया है ।
तब इन्द्रमती दोनों हाथ जोङकर बोली - हे साहिब ! मेरी एक विनती है । बङे भाग्य से मैंने आपके श्रीचरणों में स्थान पाया है । मेरे इस हँस शरीर का रूप बहुत सुन्दर है । परन्तु मेरे मन में एक संशय है । जिससे मुझे राजा ( अपने पति चन्द्रविजय ) के प्रति मोह हुआ है । क्योंकि वह राजा मेरा पति रहा है । हे करुणामय स्वामी ! आप उसे भी सत्यलोक ले आईये । नहीं तो मेरा राजा काल के मुख में जायेगा ।
कबीर साहब बोले - तब मैंने कहा । हे बुद्धिमान हँस सुन । राजा ने नाम उपदेश नहीं लिया । उसने सत्यपुरुष की भक्ति नहीं पायी । और भक्तिहीन होकर तत्वग्यान के बिना वह इस असार संसार में
84 लाख योनियों में ही भटकेगा ।
तब इन्द्रमती बोली - हे प्रभु ! मैं जब संसार में रहती थी । और अनेक प्रकार से आपकी भक्ति किया करती थी । तब सज्जन राजा ने मेरी भक्ति को समझा । और कभी भी भक्ति से नहीं रोका ।
संसार का स्वभाव बहुत कठोर है । यदि अपने पति को छोङकर उसकी स्त्री कहीं अलग रहे । तो सारा संसार उसे गाली देता है । और सुनते ही पति भी उसे मार डालता है ।
हे साहिब ! राज काज में तो मान । प्रसंशा । नास्तिकता । क्रोध । चतुराई होती ही है । परन्तु इन सबसे अलग मैं साधु संतो की सेवा ही करती थी । और राजा से भी नहीं डरती थी । तो जब मैं साधु सन्तों की सेवा करती थी । यह सुनकर राजा प्रसन्न ही होता था ।
हे साहिब ! इसके विपरीत राजा ऐसा करने के लिये मुझे रोकता । दुख देता । तो मैं किस तरह साधु सन्तों की सेवा कर पाती । और तब मेरी मुक्ति कैसे होती । अतः सेवा भक्ति को जानने वाला वह राजा धन्य है । उसके हँस ( जीवात्मा ) को भी ले आइये ।
हे हँसपति सदगुरु ! आप तो दया के सागर है । दया कीजिये । और राजा को सांसारिक बँधनों से छुङाईये ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! मैं उस हँस इन्द्रमती की ऐसी बातें सुनकर बहुत हँसा । और इन्द्रमती की इच्छा अनुसार उसके राज्य गिरनार गढ में प्रकट हो गया । उस समय राजा चन्द्रविजय की आयु पूरी होने के करीब ही आ गयी थी ।
राजा चन्द्रविजय के प्राण निकालने के लिये यमराज उन्हें घेरकर बहुत कष्ट दे रहा था । और संकट में पङा हुआ राजा भय से थरथर कांप रहा था । तब मैंने यमराज से उसे छोङने को कहा । यमराज उसे छोङता नहीं था ।
हे धर्मदास ! दुर्लभ मनुष्य शरीर में सत्यनाम भक्ति न करने की चूक का यही परिणाम होता है । सत्यपुरुष की भक्ति को भूलकर जो जीव संसार के मायाजाल में पङे रहते हैं । आयु पूरी होने पर यमराज उन्हें भयंकर दुख देता ही है ।
तब मैंने राजा चन्द्रविजय का हाथ पकङ लिया । और उसी समय सत्यलोक ले आया । रानी इन्द्रमती यह देखकर बहुत प्रसन्न हुयी । और बोली - हे राजा ! सुनो । मुझे पहचानो । मैं तुम्हारी पत्नी हूँ ।
राजा उससे बोला - हे ग्यानवान हँस ! तुम्हारा दिव्य रूप रंग तो 16 सूर्य जैसा दमक रहा है । तुम्हारे अंग अंग में विशेष अलौकिक चमक है । तब तुमको अपनी पत्नी कैसे कहूँ ?
हे श्रेष्ठ नारी ! यह तुमने बहुत अच्छी भक्ति की । जिससे अपना और मेरा दोनों का ही उद्धार किया । तुम्हारी भक्ति से ही मैंने अपना निज घर सत्यलोक पाया । मैंने करोंङो जन्मों तक धर्म पुण्य किया । तब ऐसी सतकर्म करने वाली भक्ति करने वाली स्त्री पायी । मैं तो राज काज ही करता हुआ भक्ति से विमुख रहा ।
हे रानी ! यदि तुम न होती । तो मैं निश्चय ही कठोर नरक में जाता । ऐसा मैंने मृत्युपूर्व ही अनुभव किया ।
अतः संसार में तुम्हारे समान पत्नी सबको मिले ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! तब मैंने राजा से ऐसा कहा - जो जीव सत्यपुरुष के सतनाम का ध्यान करता है । वह दोबारा कष्टमय संसार में नहीं जाता ।
हे धर्मदास ! इसके बाद मैं फ़िर से संसार में आया । और काशी नगरी में गया । जहाँ भक्त सुदर्शन श्वपच रहता था । वह शब्द विवेकी ग्यान को समझने वाला उत्तम सन्त था । उसने मेरे बताये आत्मग्यान को शीघ्र ही समझा । और उसे अपनाया । उसका पक्का विश्वास देखकर मैंने उसे भव बँधन से मुक्त कर दिया । और विधिपूर्वक नाम उपदेश किया ।
हे धर्मदास ! सत्यपुरुष की ऐसी प्रत्यक्ष महिमा देखते हुये भी जो जीव उसको नहीं समझते । वे काल निरंजन के फ़ँदे में पङे हुये हैं । जैसे कुत्ता अपवित्र वस्तु को भी खा लेता है । वैसे ही संसारी लोग भी अमृत छोङकर विष खाते हैं । अर्थात सत्यपुरुष रूपी अमृत को छोङकर विषरूपी कालनिरंजन की ही भक्ति करते हैं ।
हे धर्मदास ! द्वापर युग में युधिष्ठर नाम का एक राजा हुआ । महाभारत युद्ध में अपने ही बन्धु बान्धवों को मारकर उनसे बहुत पाप हुआ था । अतः युद्ध के बाद बहुत हाहाकार मच गया । चारों ओर घोर अशान्ति और शोक दुख का माहौल था । खुद युधिष्ठर को बुरे स्वपन और अपशकुन होते थे । तब श्रीकृष्ण की सलाह पर उन्होंने इस पाप निवारण हेतु एक यग्य किया ।
इस यग्य की सभी विधिवत तैयारी आदि करके जब यग्य होने लगा । तब श्रीकृष्ण ने कहा - इस यग्य के सफ़लता पूर्वक होने की पहचान है कि आकाश में बजता हुआ घंटा स्वतः सुनायी देगा ( आजकल लोग खुद बजा बजाकर सुन लेते हैं । और हो गया यग्य । ये लो प्रसाद )
उस यग्य में संयासी । योगी । ऋषि । मुनि । वैरागी । ब्राह्मण । बृह्मचारी आदि सभी आये । सभी को प्रेम से भोजन आदि कराया । पर घंटा नहीं बजा । ( बल्कि घंटी बजने की हल्की टुन्न भी नहीं हुयी )
तब युधिष्ठर बहुत लज्जित हुये । और श्रीकृष्ण के पास इसका कारण पूछने गये ।
श्रीकृष्ण बोले - जितने भी लोगों ने भोजन किया । इनमें एक भी सच्चा सन्त नहीं था । वे दिखावे के लिये साधु । सन्यासी । योगी । वैरागी । ब्राह्मण । बृह्मचारी अवश्य लग रहे हों । पर वे मन से अभिमानी ही थे । इसलिये घंटा नहीं बजा ।
युधिष्ठर को बङा आश्चर्य हुआ । इतने विशाल यग्य में करोङों साधुओं ने भोजन किया । और उनमें कोई सच्चा ही नहीं था ( देख लो । भाई लोगो । ये द्वापर की बात है । जब कृष्ण धरती पर मौजूद थे । तब यह हाल था - राजीव ) तब हम ऐसा सच्चा सन्त कहाँ से लायें ।
तब श्रीकृष्ण ने कहा - काशी नगरी से सुदर्शन श्वपच को लेकर आओ । वे ही सर्वोत्तम साधु हैं । उन जैसा साधु अभी कोई नहीं है । तब यग्य सफ़ल होगा ।
ऐसा ही किया गया । और घन्टा बजने लगा । श्वपच सुदर्शन के ग्रास उठाते ही घंटा सात बार बजा । यग्य सफ़ल हो गया ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! तब भी जो अग्यानी जीव सदगुरु की वाणी का रहस्य नहीं पहचानते । ऐसे लोगों की बुद्धि नष्ट होकर यम के हाथों बिक गयी है ।
अपने ही भक्त जीव को ये काल दुख देता है । नरक में डालता है । काल के लिये अब क्या कहूँ । ये भक्त अभक्त सभी को दुख देता है । सबको मार खाता है । गौर से समझो । इस काल के द्वारा ही महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण ने पांडवों को युद्ध के लिय्र प्रेरित किया । और हत्या का पाप करवाया । फ़िर उन्हीं श्रीकृष्ण ने पांडवों को दोष लगाया कि तुमसे हत्या का पाप हुआ । अतः यग्य करो । और तब ( गीता देखें ) कहा था कि तुम्हें इसके बदले स्वर्ग मिलेगा । तुम्हारा यश होगा ।
हे धर्मदास ! इसके बाद भी पांडवों को ( श्रीकृष्ण ने ) और अधिक दुख दिया । और जीवन के अंतिम समय में हिमालय यात्रा में भेजकर बर्फ़ में गलवा दिया । द्रोपदी और चारों पांडव भीम अर्जुन नकुल सहदेव हिमालय की बर्फ़ में गल गये । केवल सत्य को धारण करने वाले युधिष्ठर ही बचे ।
जब श्रीकृष्ण को अर्जुन बहुत प्रिय था । तो उसकी ये गति क्यों हुयी ?
राजा बलि । हरिश्चन्द्र । कर्ण बहुत बङे दानी थे । फ़िर भी काल ने उन्हें बहुत प्रकार से दुख दिया । अपमान कराया ।
अतः इस जीव को अग्यानवश सत्य असत्य उचित अनुचित का ग्यान नहीं है । इसलिये वह सदा हितैषी सत्यपुरुष को छोङकर इस कपटी धूर्त काल निरंजन की पूजा करते हुये मोहवश उसी की ओर भागता है ।
काल निरंजन जीव को अनेक कला दिखाकर भृमित करता है । जीव इससे मुक्ति की आशा लगाकर और उसी आशा की फ़ाँस में बँधकर काल के मुख में जाता है ।
इन दोनों काल निरंजन और माया ने सत्यपुरुष के समान ही बनाबटी नकली और वाणी के अनेक नाम मुक्ति के नाम पर संसार में फ़ैला दिये हैं । और जीव को भयंकर धोखे में डाल दिया है ।
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