गुरुमुखि होवे सु ततु बिलोबै । रसना हरि रस ताहा हे ।
अगर कोई गुरुमुख होकर इस निर्वाणी नाम का जाप करे । और तत्वों को देखे । अंतर के रहस्यों को जाने । तो ये आनन्द ही आनन्द में जीते जी मुक्ति को प्राप्त हो जाये ।
लेकिन कोई शिष्य असली गुरुमुख कब बनता है ? जब वह 9 दरबाजे ( का शरीर - 2 कान 2 आँख 2 नाक छिद्र 1 मुँह 1 लिंग या योनि द्वार 1 गुदा द्वार ) बन्द करके ( यानी ध्यान में शरीर को भुलाकर ) तुरीयापद अर्थात सहस्रदल कमल में पहुँचता है । फ़िर सहस्रदल कमल से बृह्म में । और बृह्म से पारबृह्म में पहुँचता है । वहाँ अमृतसर ( अमृत का तालाब ) है ।
तब उसमें नहाकर ये स्वयँ कहता है कि - मैं एक आत्मा हूँ ।
और तब इसे अपनी असली पहचान होती है । और जब तक अपनी ही ( आत्मा की ) पहचान नहीं होती । तब तक
परमात्मा की पहचान कैसे हो सकती है ? इसलिये ये गुरुमुख होकर अंतर आकाशों पर मंजिलों पर जाये । तो इसका आना जाना ही सफ़ल हो जाये ।
घरि बथु छोङहि बाहरि धावहि । मनमुख अँधे साधु न पावहि ।
दुनियाँ के तमाम लोग घर गृहस्थी बाल बच्चों को छोङकर साधु हो जाते हैं । कोई दुनियाँ के रंग ढंग से ऊबकर साधु हो गया । किसी का मन धर्मगृंथों को पढकर वैराग्य से भर गया । पर जब तक कोई नाम अभ्यासी सच्चा महात्मा नहीं मिला । तब तक ऐसे झूठे वैराग्य से कुछ होने वाला नहीं ।
अपनी औरत का बना हुआ भोजन खाना छोङ दिया । अब बाहर की हजार औरतों का बना खाता है । अपना घर छोङ दिया । और संसार के घरों में घूमता है । ये सब बनाबटी साधुओं के काम हुये ।
लेकिन जो भजन अभ्यासी सच्चा साधु है । वह अपना हित भी बनाता है । और जिसके यहाँ भोजन करता है । उसे भी लाभ पहुँचाता है ।
पर मुश्किल ये होती है कि दुनियाँ के लोग बहुत चालाक बनते हैं । औरतें इस पुण्य को अपने बेटे बेटियों के सिर पर वार कर देती हैं । और उनकी यह भावना रहती है कि हमारी सब बलायें ये साधु महाराज ले जायें । कई दानदाता भावना कर लेते हैं कि हमें इस दान का फ़ल आगे मिल जायेगा । इस तरह लेन देन करने के स्वभाव से मजबूर वह नाम अभ्यासी साधु की अहैतुकी कृपा से वंचित रह जाते हैं ।
गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है - जो साधु किसी का खाकर उसके लिये भजन नहीं करता । वह मरकर या तो ऊँट बनता है । या कुत्ता । या फ़िर सुअर बनता है ।
इसलिये सबसे अच्छा है । साधु बनने के बजाये गृहस्थ रहकर ही भजन करो । भले ही गृहस्थी में भजन अभ्यास में थोङी रुकावटें आती हैं । सुमिरन ध्यान थोङा थोङा करके ही हो पाता है । मगर जो कुछ सुमिरन होता है । अपना तो रहता है । किसी बाहर वाले को तो नहीं देना ।
अनरस राती रसना फ़ीकी बोले । हरि रस मूल न ताहा हे ।
वह इस्मे आजम यानी वास्तविक नाम इस मनुष्य के अन्दर ही है । मगर यह नादान उसको बाहर खोजता फ़िरता
है । सदियों से खोज रहा है । इसलिये आंतरिक ग्यान के बिना ये मनुष्य ग्यानी होकर आध्यात्म की जितनी भी मीठी मीठी बातें करता हैं । वह फ़ीकी और बेस्वाद ही हैं ।
अगर सारा दिन मिठाई मिठाई चिल्लाते रहो । तो न तो मुँह ही मीठा होता है । न ही उससे पेट भरता है । लेकिन अगर मिठाई प्राप्त करके खा लो । तो पेट भी भरेगा । और मुँह को मीठा स्वाद भी आयेगा । इसलिये जो वास्तविक आवे हयात यानी हरि रस है । वह आपके अन्दर ही है । बाहर कहीं नहीं । जहाँ तुम खोज रहे हो ।
मनमुख देही भरमु भतारो । दुरमति मरै नित होइ खुआरो ।
जिन अभागो को मनुष्य जन्म पाकर भी गुरु नहीं मिला । निर्वाणी नाम नहीं मिला । उनका दीन ईमान क्या है ? उनका दीन ईमान बस ये कुटिल पापी मन ही है । मन की इच्छा से खाया पिया । मन की इच्छा से तमाम झूठ फ़रेव किये ।
ऐसे मनमुख इंसान मन का कहा मानकर खोटी खोटी 84 लाख योनियों में ही जाते हैं । और खोटे ही नीच जन्म
भी पाते हैं । उनका यही बुरा हाल रहता है । जनमें और मरे । फ़िर जनमे और फ़िर मरे । 84 लाख योनियों का बङा लम्बा चक्कर घनचक्कर है । अगर एक एक योनि का एक एक साल ही जोङा जाये । तो 84 लाख साल होते हैं । अगर वृक्ष और पहाङों की भी बात करें । जो हजारों साल जीते हैं । तो फ़िर करोंङो साल की बात हो जाती है । इसलिये सोचकर ही रूह थरथर काँपने लगती है । लेकिन फ़िर भी मनमुख 84 लाख योनियों के चक्कर में आ ही जाते हैं । और बारबार आते जाते हुये उस दुखदायी स्थिति को भोगते हैं ।
अगर कोई गुरुमुख होकर इस निर्वाणी नाम का जाप करे । और तत्वों को देखे । अंतर के रहस्यों को जाने । तो ये आनन्द ही आनन्द में जीते जी मुक्ति को प्राप्त हो जाये ।
लेकिन कोई शिष्य असली गुरुमुख कब बनता है ? जब वह 9 दरबाजे ( का शरीर - 2 कान 2 आँख 2 नाक छिद्र 1 मुँह 1 लिंग या योनि द्वार 1 गुदा द्वार ) बन्द करके ( यानी ध्यान में शरीर को भुलाकर ) तुरीयापद अर्थात सहस्रदल कमल में पहुँचता है । फ़िर सहस्रदल कमल से बृह्म में । और बृह्म से पारबृह्म में पहुँचता है । वहाँ अमृतसर ( अमृत का तालाब ) है ।
तब उसमें नहाकर ये स्वयँ कहता है कि - मैं एक आत्मा हूँ ।
और तब इसे अपनी असली पहचान होती है । और जब तक अपनी ही ( आत्मा की ) पहचान नहीं होती । तब तक
परमात्मा की पहचान कैसे हो सकती है ? इसलिये ये गुरुमुख होकर अंतर आकाशों पर मंजिलों पर जाये । तो इसका आना जाना ही सफ़ल हो जाये ।
घरि बथु छोङहि बाहरि धावहि । मनमुख अँधे साधु न पावहि ।
दुनियाँ के तमाम लोग घर गृहस्थी बाल बच्चों को छोङकर साधु हो जाते हैं । कोई दुनियाँ के रंग ढंग से ऊबकर साधु हो गया । किसी का मन धर्मगृंथों को पढकर वैराग्य से भर गया । पर जब तक कोई नाम अभ्यासी सच्चा महात्मा नहीं मिला । तब तक ऐसे झूठे वैराग्य से कुछ होने वाला नहीं ।
अपनी औरत का बना हुआ भोजन खाना छोङ दिया । अब बाहर की हजार औरतों का बना खाता है । अपना घर छोङ दिया । और संसार के घरों में घूमता है । ये सब बनाबटी साधुओं के काम हुये ।
लेकिन जो भजन अभ्यासी सच्चा साधु है । वह अपना हित भी बनाता है । और जिसके यहाँ भोजन करता है । उसे भी लाभ पहुँचाता है ।
पर मुश्किल ये होती है कि दुनियाँ के लोग बहुत चालाक बनते हैं । औरतें इस पुण्य को अपने बेटे बेटियों के सिर पर वार कर देती हैं । और उनकी यह भावना रहती है कि हमारी सब बलायें ये साधु महाराज ले जायें । कई दानदाता भावना कर लेते हैं कि हमें इस दान का फ़ल आगे मिल जायेगा । इस तरह लेन देन करने के स्वभाव से मजबूर वह नाम अभ्यासी साधु की अहैतुकी कृपा से वंचित रह जाते हैं ।
गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है - जो साधु किसी का खाकर उसके लिये भजन नहीं करता । वह मरकर या तो ऊँट बनता है । या कुत्ता । या फ़िर सुअर बनता है ।
इसलिये सबसे अच्छा है । साधु बनने के बजाये गृहस्थ रहकर ही भजन करो । भले ही गृहस्थी में भजन अभ्यास में थोङी रुकावटें आती हैं । सुमिरन ध्यान थोङा थोङा करके ही हो पाता है । मगर जो कुछ सुमिरन होता है । अपना तो रहता है । किसी बाहर वाले को तो नहीं देना ।
अनरस राती रसना फ़ीकी बोले । हरि रस मूल न ताहा हे ।
वह इस्मे आजम यानी वास्तविक नाम इस मनुष्य के अन्दर ही है । मगर यह नादान उसको बाहर खोजता फ़िरता
है । सदियों से खोज रहा है । इसलिये आंतरिक ग्यान के बिना ये मनुष्य ग्यानी होकर आध्यात्म की जितनी भी मीठी मीठी बातें करता हैं । वह फ़ीकी और बेस्वाद ही हैं ।
अगर सारा दिन मिठाई मिठाई चिल्लाते रहो । तो न तो मुँह ही मीठा होता है । न ही उससे पेट भरता है । लेकिन अगर मिठाई प्राप्त करके खा लो । तो पेट भी भरेगा । और मुँह को मीठा स्वाद भी आयेगा । इसलिये जो वास्तविक आवे हयात यानी हरि रस है । वह आपके अन्दर ही है । बाहर कहीं नहीं । जहाँ तुम खोज रहे हो ।
मनमुख देही भरमु भतारो । दुरमति मरै नित होइ खुआरो ।
जिन अभागो को मनुष्य जन्म पाकर भी गुरु नहीं मिला । निर्वाणी नाम नहीं मिला । उनका दीन ईमान क्या है ? उनका दीन ईमान बस ये कुटिल पापी मन ही है । मन की इच्छा से खाया पिया । मन की इच्छा से तमाम झूठ फ़रेव किये ।
ऐसे मनमुख इंसान मन का कहा मानकर खोटी खोटी 84 लाख योनियों में ही जाते हैं । और खोटे ही नीच जन्म
भी पाते हैं । उनका यही बुरा हाल रहता है । जनमें और मरे । फ़िर जनमे और फ़िर मरे । 84 लाख योनियों का बङा लम्बा चक्कर घनचक्कर है । अगर एक एक योनि का एक एक साल ही जोङा जाये । तो 84 लाख साल होते हैं । अगर वृक्ष और पहाङों की भी बात करें । जो हजारों साल जीते हैं । तो फ़िर करोंङो साल की बात हो जाती है । इसलिये सोचकर ही रूह थरथर काँपने लगती है । लेकिन फ़िर भी मनमुख 84 लाख योनियों के चक्कर में आ ही जाते हैं । और बारबार आते जाते हुये उस दुखदायी स्थिति को भोगते हैं ।
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