जहाँ पर पोंगापंथी विचार होते हैं । वहां ज्ञान का क्या काम ? जहाँ पर अंधी आस्था होती है । वहां पर तर्क का क्या काम ? जब दिमाग में लबालब कबाड़ भरा हो । तब नया कुछ जानने और समझने की गुंजाईश ही कहाँ बचती है ? काहे का विमर्श ? आपने लिखा है - " दो महीने मेरे नेट पर अनुपस्थित रहने पर बहुत लोगों को बैचेनी रही । "
आपने देखा होगा । देश के सारे आश्रम । मंदिर और बाबा हाउसफुल हैं । दरअसल यह भी एक तरह का नशा होता है । मेरे मोहल्ले में एक त्रिपाठी जी हैं । महापाजी । धूर्त । कपटी । हद दर्जे के चरित्रहीन । रोज ही किसी न किसी प्रवचन में जाते हैं । शहर में कब कौन से संत आ रहे हैं । कहाँ किसका प्रवचन है । त्रिपाठी जी को सब पता रहता है । कई वर्षों से उनका यही रूटीन है । अच्छी खासी पेंशन मिल रही है । इसलिए कोई चिंता नहीं । शायद ही आज तक किसी के दुःख में उन्होंने मदद की हो । अब बताईये इतने प्रवचन सुनने और संतों की संगत का क्या असर पड़ा उन पर ? यह सिर्फ एक ख़ास तरह का नशा है बस ।
जिन चीजों की आप विस्तृत व्याख्या करते हैं । उसे कोई भी जरा सा तर्कवान व्यक्ति जो मनोविज्ञान को समझता हो । असलियत समझ आ जायेगी । लेकिन आप जैसे महाप्रभु । बृह्मा के डायरेक्ट एजेंट धन्य हैं । ये सब न करें तो स्वमहिमा कैसे बयान की जाए ।..मून्दहूँ आँख कितहू कछु नाहीं । बेनामी । पोस्ट दुनियाँ होशियार । मैं पागल । पर ।
मेरी बात..वास्तव में मैं इन सज्जन से काफ़ी हद तक सहमत हूँ । कहा जाता है कि एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है । लेकिन जब ऐसी मछलियाँ बहुत सारी हों । तब स्थिति वाकई चिंताजनक हो जाती है । और सत्य को लेकर तो ये स्थिति अक्सर बनी ही रहती है । और तब अच्छे लोग भी इसके दायरे में आ जाते हैं । जो हमेशा ही बेहद गिने चुने ही रहे । कबीर आदि के समय में तो यह स्थिति बेहद विकट थी ।
बहुत पुराने समय से ही विद्वानों का ये मानना रहा है कि आपका समर्थन करने वाले जहाँ आपका हौसला बङाते है । वहीं मीन मेख निकालने वाले चिंतन को नयी दिशा देते हैं । नये आयाम बनबाने में सहायक की भूमिका अदा करते हैं । इसीलिये वास्तव में ईमानदारी की बात कही जाय । तो जीवन में दोस्त से अधिक सहायक दुश्मन होता है । क्योंकि वो आपको हर पल । हर स्तर पर मजबूती रखने की प्रेरणा सी देता है ।
पर यहाँ एक बात ग्यात अग्यात की भी तो महत्वपूर्ण है । आप है कौन ? अपना परिचय क्यों नहीं देते । आपको एतराज है । तो किस बात पर ? इस तरह का कोई उल्लेख न होने पर पूरी आलोचना ही व्यर्थ और महत्वहीन हो जाती है । यह ठीक है कि धार्मिक भावनाओं का अधिक फ़ैलाव होने से तार्किक ग्यान की जगह अंधश्रद्धा अंधविश्वास का बोलबाला ही अधिक दिखता है । लेकिन अध्यात्म सम्पदा के नाम पर भारत विश्व में हमेशा ही सर्वश्रेष्ठ रहा है । तब सबके दिमाग में लबालब कबाङ ही भरा है । ये कहना कितना उचित है ? आपके कथन से अस्पष्ट ही सही इस बात की टोन निकल रही है कि ये अध्यात्म आदि सब बेकार ही है । तब हमारा पूरा धार्मिक इतिहास ही चौपट हो जाता है । अब तक के इतिहास की सभी महान हस्तियाँ ही नगण्य हो जाती हैं । किसी एक त्रिपाठी जी से समस्त समाज कलंकित की श्रेणी में नहीं आ सकता ।..जिसको जो आता है । वो अपने माध्यम के द्वारा समाज से शेयर ही करता है । फ़िर आप किसी शिक्षक के लिये भी कहोगे कि वो ग्यान बघारता हुआ । अपनी महिमा बखान करता है । यहाँ जितने भी ब्लाग हैं । साइटस हैं । वो अपने विचार ही तो रख रहें हैं । मगर आप सिर्फ़ किसी को गलत तो बता रहे हो । मगर वो क्या गलत कर रहा है ? और आपके विचार में सही क्या होना चाहिये ? इस विषय में आपका अनुसंधान क्या है ? ( जब आपको इसका गलत पक्ष पता है । तो सही क्या है । ये भी पता होगा । ) बस इतना कह देने से कि ये गलत है । कोई बात हल नहीं हो जाती है ।..दूसरी बात । महिमा बखान करने से किसी को क्या हासिल हो सकता है ? आपके जिक्र पर मैं ये बात कह रहा हूँ । हमारे पास विदाउट इंटरनेट भी लोग आते हैं । और इस ब्लाग के माध्यम से भी लोग आते हैं । 100 किमी दूरी से भी आया हुआ इंसान रुकता है । ( जबकि 500 और 700 किमी वाला तो हर हाल में रुकेगा । तब उसके रुकने । खानपान की व्यवस्था करनी होती है । और तमाम लोग ऐसे होते हैं । जो 100 या 51 रुपये चलते समय किसी संत को दे जाते हैं । यानी ये प्राफ़िटेविल बिजनेस ही नहीं है । सोचिये दो तीन दिन रुके मेहमान के लिये समय और उसकी अन्य व्यवस्थायें कितनी मुश्किल होती हैं । अब इसी ब्लाग से । आपको मालूम होगा कि इससे कोई आमदनी तो होती नही । उल्टे समय और इंटरनेट का खर्चा अलग से होता है । यहाँ मैं ये भी स्पष्ट कर दूँ कि ब्लाग की बजाय जब हम मौखिक रूप से सतसंग करते हैं । तो धन । जय जयकार । पाँय लागन । कई गुना होता है । पर किसी भी सच्चे संत को इन चीजों से लेना देना नहीं होता । उसका उद्देश्य अधिक से अधिक लोगो को चेताना । ग्यान बाँटना होता है । अब जैसा देश । वैसा भेस । जैसा पानी । वैसी वानी । की तर्ज पर ।
आज इंटरनेट अपनी बात पहुँचाने का सशक्त माध्यम है । आपको बता दूँ कि 16 की आयु से लेकर । 80 की आयु वाले तक मेरा ब्लाग पढते हैं । आफ़िस में बैठे लोग । मोबाइल यूजर । हाउस वाइफ़ । प्राइवेट कम्पनी आफ़िस वाले लोग आदि सभी । और इसका एक ही कारण है । आत्मा और भगवान के बारे में कोई कुछ जानता हो । या न जानता हो । यह सबका विषय है । सबसे जुङा हुआ विषय है । किसी को कहानी । कविता । लेख । अपने अपने स्तर पर पसन्द नापसन्द हो सकते हैं । पर इसमें सबकी जिग्यासा अधिकतर होती ही है । एक नास्तिक जब पूरे जोर से यह बात कहता है कि भगवान नहीं है । तब क्यों नहीं है । इसकी एक ही ठोस वजह उसके पास होती है । जब है । तो दिखता क्यों नहीं है ? जबकि दिखता तो आस्तिक को भी नहीं हैं । पर उसका पूरा विश्वास पूरी श्रद्धा होती है । नास्तिक के पास । दिखता नही..इस बात के अलावा अपनी बात साबित करने का कोई चारा नहीं । जबकि आस्तिक के पास करोंङो साल पुरानी परम्परा है । बहुमत है । भले ही उसे इस विषय में अधिक जानकारी नहीं है । चलो ये बात मान लेते हैं कि देश के सभी मन्दिर आश्रम बाबा हाउसफ़ुल हैं । लेकिन क्या आपने विचार किया है । कि TV इंटरनेट की तरह इनमें भी आदमी का बहुत सा समय गुजर जाने से कितनी बीमारियाँ शान्त रहती हैं । वरना खाली होने पर करोङों की ये जनसंख्या क्या उत्पात खङा कर सकती है । इसका कोई अन्दाजा है । क्योंकि खाली दिमाग शैतान का घर होता है । तो कहीं न कहीं । कोई सहारा लेकर इंसान टिका तो है ।
अब आपके कथन में..मून्दहूँ आँख कितहू कछु नाहीं । मुझे यही सबसे इम्पोर्टेंट लगा । जिसकी वजह से प्रत्युत्तर में ये लेख लिखा । महान संत सहजो बाई ने कहा है ।.. तीनों बन्द लगाय कर । अनहद सुनो टंकोर । सहजो सुन्न समाधि में । नहिं सांझ नहिं भोर ।..शायद आप इसका अर्थ न समझ पाँय । इसलिये बता रहा हूँ । तीनों बन्द । यानी । कान । आँख । मुँह को उंगलियों से योग की एक मुद्रा द्वारा बन्द करना । अनहद ध्वनि । मतलब लगातार अखन्ड होने वाली ध्वनि । ररंकार । जो घट ( शरीर ) आकाश में गूंज रही है । इसको दस मिनट एकाग्रता से सुनने पर सहज समाधि ( चेतन समाधि ) लग जाती है । और व्यक्ति आनन्द ही आनन्द में पहुँच जाता है । नहिं सांझ नहिं भोर..यानी इसके लिये कोई समय । कोई नियम नहीं है । जब मौज आये समाधि का आनन्द कभी भी कहीं भी ले सकते हैं । यानी आप जो.. मून्दहूँ आँख कितहू कछु नाहीं.. । कह रहे हैं । संतों का मामला बिलकुल उलट है । इसमें संसार की ओर से आँख मूंदने पर ही सच्चाई पता चलती है । और बृह्म सत्य । जगत मिथ्या । शास्त्र सूत्र सिद्ध हो जाता है । यानी अंतर्दृष्टि खुलती है । अब अंत में..आप यही कह सकते हो । इन बातों का प्रमाण क्या ? कैसे साबित हो ? शीघ्र और सरल तरीके से जानने हेतु मेरे पास आना होगा । अपने अहम के कारण न भी आना चाहो । तो क्रिया में बता रहा हूँ । खुद करके देखना ।
अंगूठे के पास वाली दोनों उंगली । दोनों कानों में इस तरह टाइट घुसाना । कि बाहरी आवाजें सुनाई देना बन्द हो जायें । अब अंगूठे से दो नम्बर वाली उंगली । आंखों की पलकों पर टाईट । मगर सहनीय रखकर दबाते हुये आंखे मूंद लेना । शेष बची दोंनों उँगलियाँ मुँह बन्द कर । उस पर रखते हुये । आरामदायक अवस्था में बैठकर ।अन्दर जो भी आवाज सुनाई दे । उसको सुनना । पहले घङघङाहट की आवाज सुनाई देगी । मानों रथ दौङ रहा हो । फ़िर कुछ अभ्यास के बाद । बहुत सी चिङियों की चहचहाहट सुनाई देगी । फ़िर ये सूक्ष्म होती जायेगी । और ररंकार ध्वनि शुरू होने लगेगी । जो असली राम का नाम है । और जिसको जानने से । इंसानी समझ के बजाय । संतो वाली रमझ जाग्रत हो जाती है । बस इससे ज्यादा । मेरे पास कहने को कुछ नहीं है । क्योंकि हाथ कंगन को आरसी क्या । पढे लिखे को फ़ारसी क्या । अब तो आप स्वयं प्रयोग करके देख सकते हैं । और ये मैं आपको निशुल्क ही दे रहा हूँ ।
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