तब धर्मदास बोले - हे साहिब ! आप गुरु हो । मैं आपका दास हूँ । अब आप मुझे गुरु और शिष्य की रहनी समझाकर कहो ।
कबीर साहब बोले - गुरु का वृत धारण करने वाले शिष्य को समझना चाहिये कि निर्गुण और सगुण के बीच गुरु ही आधार होता है । गुरु के बिना आचार । अन्दर बाहर की पवित्रता नहीं होती । और गुरु के बिना कोई भवसागर से पार नहीं होता । शिष्य को सीप के समान और गुरु को स्वाति की बूँद के समान समझना चाहिये । गुरु के सम्पर्क से तुच्छ जीव ( सीप ) मोती के समान अनमोल हो जाता है । गुरु पारस के और शिष्य लोहे के समान है । जैसे पारस लोहे को सोना बना देता है । गुरु मलयागिरि चंदन के समान है । तो शिष्य विषैले सर्प की तरह होता है । इस प्रकार वह गुरु की कृपा से शीतल होता है ।
गुरु समुद्र है । तो शिष्य उसमें उठने वाली तरंग है । गुरु दीपक है । तो शिष्य उसमें समर्पित हुआ पतंगा है । गुरु चन्द्रमा है । तो शिष्य चकोर है । गुरु सूर्य हैं । जो कमल रूपी शिष्य को विकसित करते हैं ।
इस प्रकार गुरु प्रेम को शिष्य विश्वास पूर्वक प्राप्त करे । गुरु के चरणों का स्पर्श और दर्शन प्राप्त करे । जब इस तरह कोई शिष्य गुरु का विशेष ध्यान करता है । तब वह भी गुरु के समान होता है ।
हे धर्मदास ! गुरु एवं गुरुओं में भी भेद है । यूँ तो सभी संसार ही गुरु गुरु कहता है । परन्तु वास्तव में गुरु वही है । जो सत्य शब्द या सार शब्द का ग्यान कराने वाला है । उसका जगाने वाला या दिखाने वाला है । और सत्य ग्यान के अनुसार आवागमन से मुक्ति दिलाकर आत्मा को उसके निज घर सत्यलोक पहुँचाये । गुरु जो मृत्यु से हमेशा के लिये छुङाकर अमृत शब्द ( सार शब्द ) दिखाते हैं । जिसकी शक्ति से हँस जीव अपने घर सत्यलोक को जाता है । उस गुरु में कुछ छल भेद नहीं है । अर्थात वह सच्चा ही है । ऐसे गुरु तथा उनके शिष्य का मत एक ही होता है । जबकि दूसरे गुरु शिष्यं में मतभेद होता है ।
संसार के लोगों के मन में अनेक प्रकार के कर्म करने की भावना है । यह सारा संसार उसी से लिपटा पङा है । काल निरंजन ने जीव को भृम जाल में डाल दिया है । जिससे उबर कर वह अपने ही इस सत्य को नहीं जान पाता कि वह नित्य अविनाशी और चैतन्य ग्यान स्वरूप है ।
इस संसार में गुरु बहुत हैं । परन्तु वे सभी झूठी मान्यताओं और अँधविश्वास के बनाबटी जाल में फ़ँसे हुये हैं । और दूसरे जीवों को भी फ़ँसाते है । लेकिन समर्थ सदगुरु के बिना जीव का भृम कभी नहीं मिटेगा । क्योंकि काल निरंजन भी बहुत बलबान और भयंकर है । अतः ऐसी झूठी मान्यताओं अँधविश्वासों एवं परम्पराओं के फ़ंदे से छुङाने वाले सदगुरु की बलिहारी है । जो सत्यग्यान का अजर अमर संदेश बताते हैं ।
अतः रात दिन शिष्य अपनी सुरति सदगुरु से लगाये । और पवित्र सेवा भावना से सच्चे साधु सन्तों के ह्रदय में स्थान बनाये । जिन सेवक भक्त शिष्यों पर सदगुरु दया करते हैं । उनके सब अशुभ कर्म बंधन आदि जलकर भस्म हो जाते हैं । शिष्य गुरु की सेवा के बदले किसी फ़ल की मन में आशा न रखे । तो सदगुरु उसके सब दुख बंधन काट देते हैं ।
जो सदगुरु के श्री चरणों में ध्यान लगाता है । वह जीव अमरलोक जाता है ।
कोई योगी योग साधना करता है । जिसमें खेचरी भूचरी चाचरी अगोचरी नाद चक्र भेदन आदि बहुत सी क्रियायें हैं । तब इन्हीं में उलझा हुआ वह योगी भी सत्य ग्यान को नहीं जान पाता । और बिना सदगुरु के वह भी भवसागर से नहीं तरता ।
हे धर्मदास ! सच्चे गुरु को ही मानना चाहिये । ऐसे साधु और गुरु में अंतर नहीं होता । परन्तु जो संसारी किस्म के गुरु हैं । वह अपने ही स्वार्थ में लगे रहते हैं । न तो वह गुरु है । न शिष्य । न साधु । और न ही आचार मानने वाला ।
खुद को गुरु कहने वाले ऐसे स्वार्थी जीव को तुम काल का फ़ँदा समझो । और काल निरंजन का दूत ही जानो । उससे जीव की हानि होती है । यह स्वार्थ भावना काल निरंजन की ही पहचान है ।
जो गुरु शाश्वत प्रेम के आत्मिक प्रेम के भेद को जानता है । और सार शब्द की पहचान मार्ग जानता है । और परम पुरुष की स्थिर भक्ति कराता है । तथा सुरति को शब्द में लीन कराने की क्रिया समझाता है । ऐसे सदगुरु से मन लगाकर प्रेम करे । और दुष्ट बुद्धि एवं कपट चालाकी छोङ दे । तब ही वह निज घर को प्राप्त होता है । और इस भवसागर से तर के फ़िर लौटकर नहीं आता ।
तीनों काल के बंधन से मुक्त सदा अविनाशी सत्यपुरुष का नाम अमृत है । अनमोल है । स्थिर है । शाश्वत सत्य से मिलाने वाला है । अतः मनुष्य को चाहिये कि वह अपनी वर्तमान कौवे की चाल छोङकर हँस स्वभाव अपनाये । और बहुत सारे पँथ जो कुमार्ग की ओर ले जाते हैं । उनमें बिलकुल भी मन न लगाये । और बहुत सारे कर्म भृम के जंजाल को त्याग कर सत्य को जाने । तथा अपने शरीर को मिट्टी ही जाने । और सदगुरु के वचनों पर पूर्ण विश्वास करे ।
कबीर साहब के ऐसे वचन सुनकर धर्मदास बहुत प्रसन्न हुये । और दौङकर कबीर के चरणों से लिपट गये । वे प्रेम में गदगद हो गये । और उनके खुशी से आँसू बहने लगे ।
फ़िर वह बोले - हे साहिब ! आप मुझे ग्यान पाने के अधिकारी और अनाधिकारी जीवों के लक्षण भी कहें ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! जिसको तुम विनमृ देखो । जिस पुरुष में ग्यान की ललक । परमार्थ और सेवा भावना हो । तथा जो मुक्ति के लिये बहुत अधीर हो । जिसके मन में दया शील क्षमा आदि सदगुण हों । हे धर्मदास ! उसको नाम ( हँसदीक्षा ) और सत्यग्यान का उपदेश करो ।
और हे धर्मदास ! जो दयाहीन हो । सार शब्द का उपदेश न माने । और काल का पक्ष लेकर व्यर्थ वाद विवाद तर्क वितर्क करे । और जिसकी दृष्टि चंचल हो । उसको ग्यान प्राप्त नहीं हो सकता । होठों के बाहर जिसके दाँत दिखाई पङें । उसको जानो कि कालदूत वेश धरकर आया है । जिसकी आँख के मध्य तिल हो । वह काल का ही रूप है । जिसका सिर छोटा हो । परन्तु शरीर विशाल हो । उनके ह्रदय में अक्सर कपट होता है । उसको भी सार शब्द ग्यान मत दो । क्योंकि वह सत्य पंथ की हानि ही करेगा ।
तब धर्मदास ने कबीर साहब को श्रद्धा से दंडवत प्रणाम किया
कबीर साहब बोले - गुरु का वृत धारण करने वाले शिष्य को समझना चाहिये कि निर्गुण और सगुण के बीच गुरु ही आधार होता है । गुरु के बिना आचार । अन्दर बाहर की पवित्रता नहीं होती । और गुरु के बिना कोई भवसागर से पार नहीं होता । शिष्य को सीप के समान और गुरु को स्वाति की बूँद के समान समझना चाहिये । गुरु के सम्पर्क से तुच्छ जीव ( सीप ) मोती के समान अनमोल हो जाता है । गुरु पारस के और शिष्य लोहे के समान है । जैसे पारस लोहे को सोना बना देता है । गुरु मलयागिरि चंदन के समान है । तो शिष्य विषैले सर्प की तरह होता है । इस प्रकार वह गुरु की कृपा से शीतल होता है ।
गुरु समुद्र है । तो शिष्य उसमें उठने वाली तरंग है । गुरु दीपक है । तो शिष्य उसमें समर्पित हुआ पतंगा है । गुरु चन्द्रमा है । तो शिष्य चकोर है । गुरु सूर्य हैं । जो कमल रूपी शिष्य को विकसित करते हैं ।
इस प्रकार गुरु प्रेम को शिष्य विश्वास पूर्वक प्राप्त करे । गुरु के चरणों का स्पर्श और दर्शन प्राप्त करे । जब इस तरह कोई शिष्य गुरु का विशेष ध्यान करता है । तब वह भी गुरु के समान होता है ।
हे धर्मदास ! गुरु एवं गुरुओं में भी भेद है । यूँ तो सभी संसार ही गुरु गुरु कहता है । परन्तु वास्तव में गुरु वही है । जो सत्य शब्द या सार शब्द का ग्यान कराने वाला है । उसका जगाने वाला या दिखाने वाला है । और सत्य ग्यान के अनुसार आवागमन से मुक्ति दिलाकर आत्मा को उसके निज घर सत्यलोक पहुँचाये । गुरु जो मृत्यु से हमेशा के लिये छुङाकर अमृत शब्द ( सार शब्द ) दिखाते हैं । जिसकी शक्ति से हँस जीव अपने घर सत्यलोक को जाता है । उस गुरु में कुछ छल भेद नहीं है । अर्थात वह सच्चा ही है । ऐसे गुरु तथा उनके शिष्य का मत एक ही होता है । जबकि दूसरे गुरु शिष्यं में मतभेद होता है ।
संसार के लोगों के मन में अनेक प्रकार के कर्म करने की भावना है । यह सारा संसार उसी से लिपटा पङा है । काल निरंजन ने जीव को भृम जाल में डाल दिया है । जिससे उबर कर वह अपने ही इस सत्य को नहीं जान पाता कि वह नित्य अविनाशी और चैतन्य ग्यान स्वरूप है ।
इस संसार में गुरु बहुत हैं । परन्तु वे सभी झूठी मान्यताओं और अँधविश्वास के बनाबटी जाल में फ़ँसे हुये हैं । और दूसरे जीवों को भी फ़ँसाते है । लेकिन समर्थ सदगुरु के बिना जीव का भृम कभी नहीं मिटेगा । क्योंकि काल निरंजन भी बहुत बलबान और भयंकर है । अतः ऐसी झूठी मान्यताओं अँधविश्वासों एवं परम्पराओं के फ़ंदे से छुङाने वाले सदगुरु की बलिहारी है । जो सत्यग्यान का अजर अमर संदेश बताते हैं ।
अतः रात दिन शिष्य अपनी सुरति सदगुरु से लगाये । और पवित्र सेवा भावना से सच्चे साधु सन्तों के ह्रदय में स्थान बनाये । जिन सेवक भक्त शिष्यों पर सदगुरु दया करते हैं । उनके सब अशुभ कर्म बंधन आदि जलकर भस्म हो जाते हैं । शिष्य गुरु की सेवा के बदले किसी फ़ल की मन में आशा न रखे । तो सदगुरु उसके सब दुख बंधन काट देते हैं ।
जो सदगुरु के श्री चरणों में ध्यान लगाता है । वह जीव अमरलोक जाता है ।
कोई योगी योग साधना करता है । जिसमें खेचरी भूचरी चाचरी अगोचरी नाद चक्र भेदन आदि बहुत सी क्रियायें हैं । तब इन्हीं में उलझा हुआ वह योगी भी सत्य ग्यान को नहीं जान पाता । और बिना सदगुरु के वह भी भवसागर से नहीं तरता ।
हे धर्मदास ! सच्चे गुरु को ही मानना चाहिये । ऐसे साधु और गुरु में अंतर नहीं होता । परन्तु जो संसारी किस्म के गुरु हैं । वह अपने ही स्वार्थ में लगे रहते हैं । न तो वह गुरु है । न शिष्य । न साधु । और न ही आचार मानने वाला ।
खुद को गुरु कहने वाले ऐसे स्वार्थी जीव को तुम काल का फ़ँदा समझो । और काल निरंजन का दूत ही जानो । उससे जीव की हानि होती है । यह स्वार्थ भावना काल निरंजन की ही पहचान है ।
जो गुरु शाश्वत प्रेम के आत्मिक प्रेम के भेद को जानता है । और सार शब्द की पहचान मार्ग जानता है । और परम पुरुष की स्थिर भक्ति कराता है । तथा सुरति को शब्द में लीन कराने की क्रिया समझाता है । ऐसे सदगुरु से मन लगाकर प्रेम करे । और दुष्ट बुद्धि एवं कपट चालाकी छोङ दे । तब ही वह निज घर को प्राप्त होता है । और इस भवसागर से तर के फ़िर लौटकर नहीं आता ।
तीनों काल के बंधन से मुक्त सदा अविनाशी सत्यपुरुष का नाम अमृत है । अनमोल है । स्थिर है । शाश्वत सत्य से मिलाने वाला है । अतः मनुष्य को चाहिये कि वह अपनी वर्तमान कौवे की चाल छोङकर हँस स्वभाव अपनाये । और बहुत सारे पँथ जो कुमार्ग की ओर ले जाते हैं । उनमें बिलकुल भी मन न लगाये । और बहुत सारे कर्म भृम के जंजाल को त्याग कर सत्य को जाने । तथा अपने शरीर को मिट्टी ही जाने । और सदगुरु के वचनों पर पूर्ण विश्वास करे ।
कबीर साहब के ऐसे वचन सुनकर धर्मदास बहुत प्रसन्न हुये । और दौङकर कबीर के चरणों से लिपट गये । वे प्रेम में गदगद हो गये । और उनके खुशी से आँसू बहने लगे ।
फ़िर वह बोले - हे साहिब ! आप मुझे ग्यान पाने के अधिकारी और अनाधिकारी जीवों के लक्षण भी कहें ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! जिसको तुम विनमृ देखो । जिस पुरुष में ग्यान की ललक । परमार्थ और सेवा भावना हो । तथा जो मुक्ति के लिये बहुत अधीर हो । जिसके मन में दया शील क्षमा आदि सदगुण हों । हे धर्मदास ! उसको नाम ( हँसदीक्षा ) और सत्यग्यान का उपदेश करो ।
और हे धर्मदास ! जो दयाहीन हो । सार शब्द का उपदेश न माने । और काल का पक्ष लेकर व्यर्थ वाद विवाद तर्क वितर्क करे । और जिसकी दृष्टि चंचल हो । उसको ग्यान प्राप्त नहीं हो सकता । होठों के बाहर जिसके दाँत दिखाई पङें । उसको जानो कि कालदूत वेश धरकर आया है । जिसकी आँख के मध्य तिल हो । वह काल का ही रूप है । जिसका सिर छोटा हो । परन्तु शरीर विशाल हो । उनके ह्रदय में अक्सर कपट होता है । उसको भी सार शब्द ग्यान मत दो । क्योंकि वह सत्य पंथ की हानि ही करेगा ।
तब धर्मदास ने कबीर साहब को श्रद्धा से दंडवत प्रणाम किया
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