राजीव जी । आपने मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दिया । बहुत बहुत मेहरबानी । लेकिन मुझे माफ़ करें । आपने जो उत्तर दिये । उनसे मेरे मन में ४ प्रश्न और उत्पन्न हो गये । अब जो प्रश्न आपके उत्तरों से उत्पन्न हुए हैं । किरपा करके उनका भी समाधान अवश्य करें । मेरा पहला प्रश्न है कि निरंकार या ररंकार क्या ये सतपुरूष के नाम हैं ? क्या निरंकार और ररंकार का मतलब १ ही है ? गुरुवाणी में आता है कि " सचखन्ड वसे निरंकार " क्या ये वो ही सचखन्ड है । जिसको आप लोग सतलोक या अमरलोक बोलते हो । आपकी बतायी ॐकार की बात तो समझ आ गयी । अब इस ररंकार पर भी रोशनी डालिये । मेरा दूसरा प्रश्न आपने जिस अँधेरे की बात की थी कि यहाँ पर आकर साधक डर जाता है । या घबरा जाता है । क्या आपका ये इशारा उस भँवर गुफ़ा की तरफ़ तो नही । जिसका उल्लेख आपके १ पुराने लेख में आ चुका है । जिसमें आपने लिखा था । " उस गहर अन्धकार का वर्णन करना सम्भव नही " । अब मेरा तीसरा प्रश्न आप कहते हैं कि सबके अन्दर वो १ परमात्मा ही है । तो इसका मतलब गधे । कुत्ते । बन्दर । उल्लू । कीडे । मकोडे सबके अन्दर वो परमात्मा ही है । आप लोग कहते हो कि मन कालपुरुष का रूप है । यानी मन ही कालपुरुष है । इसका मतलब कालपुरुष और परमात्मा दोनों एक साथ १ ही शरीर में वास करते हैं । और जब सब कुछ परमात्मा ही है । कभी तो वो नरक भोगता है । तो कभी अनामी लोक में होता है । कभी ८४ लाख योनी भोगता है । कभी प्रेत बनकर भटकता है ( क्योंकि सबके अन्दर सिर्फ़ वो १ परमात्मा ही है ) ये परमात्मा कभी प्रकृति के अधीन हो जाता है । कभी कुछ । तो फ़िर कालपुरुष ताकतवर हुआ या परमात्मा ? शायद आपका ये कहना उचित होता कि सबमें आत्मा ही है । और वो १ सर्वशक्तिमान परमात्मा का अंश है । किरपा करके आप इस प्रश्न का सही उत्तर पेश करें । वैसे आप बेहतर जानते होंगे क्योंकि आप तो बाबा हैं । और मैं केवल १ कालेज सटूडेट । तो इस तीसरे प्रश्न का निचोड क्या है ? ये हमारा स्थूल शरीर तो स्थूल प्रकृति का हिस्सा है । ये मन । बु्द्धि । चित्त । अहम आदि सू्क्ष्म प्रकृति का हिस्सा है । तो हमारा असली स्वरूप क्या है ? क्या हमारा असली स्वरूप आत्मा है ? जो १ परमात्मा का अंश है । और अग्यानता वश इस सन्सार मे भट्क रहा है । इसके साथ ये भी बता दीजिये कि अगर आत्मा परमात्मा का ही अंश है । तो उनके प्रमुख गुण भी सामान्य ही होंगे । जैसे अगर परमात्मा नित्य, शाश्वत और अबिनाशी है । तो आत्मा के भी ये ही प्रमुख गुण होंगे । वो अलग बात है कि आत्मा और परमात्मा की ताकत मे अति अधिक अन्तर हो । अगर आप को पोइन्ट समझ आ गया हो । तो इस तीसरे प्रशन का स्पश्ट उत्तर दे । ( किरपा करके औरों की तरह मुझे टालने की कोशिश न करें ) अब अन्तिम प्रशन जैसे सतगुरु का भी महत्व शरीर रहने तक है । तो अगर हम किसी से दीक्षा ले लें । और कुछ समय बाद ( कुछ महीने या कुछ साल ) वो सतगुरु रूपी बाबाजी मर जायें । ( क्यु कि ये स्थूल शरीर तो १ दिन छूट जाता है । चाहे किसी का भी हो ) तो उस साधक की क्या गति होती है ? जरा ये भी बता दें । और १ बात और जैसे आपने कहा कि अब ओशो ( पुराने वाले ) को याद करने से कोई प्रैक्टिक्ल लाभ नहीं । तो क्या फ़िर कबीर जी को भी याद करने का आज के समय मे कोई अर्थ नही रखता ? मैने गुस्ताखी से ४ जरूरी प्रशन एक साथ पुछ लिये । इसके लिये मुझे माफ़ करे । लेकिन मैं तीवृ जिग्यासावश अपने आपको रोक नही पाया । आशा है कि आप मेरी बात का बुरा नही मानेंगे । और मुझे टालने की भी कोशिश नही करेंगे । आपके द्वारा सही उत्तरों का इंतजार रहेगा - इस बार सिर्फ़ सुभाष राजपुरा से ।
*** अब जो प्रश्न आपके उत्तरों से उत्पन्न हुए हैं । किरपा करके उनका भी समाधान अवश्य करें । मेरा पहला प्रश्न है कि निरंकार या ररंकार क्या ये सतपुरूष के नाम हैं ? क्या निरंकार और ररंकार का मतलब १ ही है
ANS - नहीं निरंकार ररंकार साधना की दो स्थितियाँ हैं । निरंकार ( आकाश तत्व ) ररंकार ( रमता स्थिति में - चेतन तत्व )
? गुरुवाणी में आता है कि " सचखन्ड वसे निरंकार " क्या ये वो ही सचखन्ड है । जिसको आप लोग सतलोक या अमरलोक बोलते हो ।
ANS - जी हाँ । सचखन्ड । सतलोक । अमरलोक एक ही बात है । निरंकार ( पाँचवें तत्व की स्थिति । आकाश तत्व को निरंकार कहते हैं । ) आकाश स्थिति को पाकर साधु सचखन्ड की ओर जाता है । इसलिये ऐसा कहा है ।
मेरा दूसरा प्रश्न आपने जिस अँधेरे की बात की थी कि यहाँ पर आकर साधक डर जाता है । या घबरा जाता है । क्या आपका ये इशारा उस भँवर गुफ़ा की तरफ़ तो नही । जिसका उल्लेख आपके १ पुराने लेख में आ चुका है । जिसमें आपने लिखा था । " उस गहर अन्धकार का वर्णन करना सम्भव नही " ।
ANS - साइंस में इसको डार्क मैटर कहा गया है । ऐसे स्थान एक नहीं कई जगह पर आते हैं । आपका इशारा ओशो वाले प्रसंग के लिये हैं । वो स्थान सबसे अंत में है । भँवर गुफ़ा काफ़ी पहले ही नीचे आ जाती है । इस रास्ते में अंधेरे विशाल मैदान कई बार आते हैं ।
अब मेरा तीसरा प्रश्न आप कहते हैं कि सबके अन्दर वो १ परमात्मा ही है । तो इसका मतलब गधे । कुत्ते । बन्दर । उल्लू । कीडे । मकोडे सबके अन्दर वो परमात्मा ही है ।
ANS - जी हाँ । सबके अन्दर वहीं परमात्मा ( लेकिन चेतन तत्व के रूप में ) है । क्योंकि चेतनता सिर्फ़ परमात्मा में ही है । लेकिन ये जीव परमात्मा नहीं हैं । एक इंसान..नौकर है । एक इंसान मालिक है । एक इंसान कुछ और है । तो क्या एक मजदूर ( बेलदार ) से प्रधानमन्त्री कह सकते हैं ? जबकि इंसान रूप में दोनों एक से हैं । यही परमात्मा । आत्मा । जीवात्मा और अनेक तरह के आत्मा में फ़र्क हो जाता है । आत्मा सबमें कामन है ।.. जो सब बातों से परे है । अपने शुद्ध शाश्वत रूप में है । वह परमात्मा है । ऐसा आसानी से समझाने के लिये कहा है । बात तो और भी जटिल है ।
आप लोग कहते हो कि मन कालपुरुष का रूप है । यानी मन ही कालपुरुष है । इसका मतलब कालपुरुष और परमात्मा दोनों एक साथ १ ही शरीर में वास करते हैं ।
ANS - मनुष्य शरीर की रचना और इस बृह्माण्ड की रचना एकदम समान है । इसलिये इसी शरीर में सब कुछ विधमान है । आपने सुना होगा कि गो में 33 करोङ देवता वास करते हैं । यहाँ गो का मतलब गाय नहीं गो का मतलब इन्द्रियाँ है । हमारा यह शरीर बृह्मान्ड का नक्शा है । जो किसी टीवी आदि के सर्किट बोर्ड के समान इन सभी से कनेक्टिड है । लेकिन वो टीवी या कम्प्यूटर ( यहाँ मतलब इंसान ) किस प्रकार की खासियत वाला है । उसी हिसाब से वो अपने इन रहस्यों को जान पाता है । जैसे योगी । सिद्ध । सन्त । विद्वान । अनपढ । गँवार । दयालु । क्रूर आदि । यह बात थोङी जटिल है । इसलिये गहराई से इसको बारबार समझने की कोशिश करें ।
और जब सब कुछ परमात्मा ही है । कभी तो वो नरक भोगता है । तो कभी अनामी लोक में होता है । कभी ८४ लाख योनी भोगता है । कभी प्रेत बनकर भटकता है ( क्योंकि सबके अन्दर सिर्फ़ वो १ परमात्मा ही है ) ये परमात्मा कभी प्रकृति के अधीन हो जाता है । कभी कुछ ।
ANS - इसका उत्तर मैंने ऊपर ही दे दिया । ये सब परमात्मा नहीं । बल्कि अनेक भाव उपाधियों से जुङा आत्मा । जैसे जीव भाव से जुङा तो जीवात्मा । प्रेत भाव से जुङा तो प्रेतात्मा । देव भाव से जुङा तो देवात्मा आदि । जैसे किसी एक पदार्थ को ले लें । उदाहरण - लकङी । अब लकङी से बने दरबाजे । खिङकियाँ । कुर्सी । मेज । पलंग आदि आदि सबको अलग अलग नाम से क्यों पुकारते हैं । है तो सब लकङी ही । लकङी के कमजोर मजबूत कितने प्रकार हो जाते हैं । उससे बनी चीजों में इतने गुण हो जाते हैं । वही लाठी किसी कमजोर या असमर्थ वृद्ध को चलने में सहारा देती है । वही किसी का सर भी फ़ोङ देती है । तो केवल लकङी कहकर सारी बात बन सकती है क्या । जब एक लकङी में इतने कमाल हैं । तो सोचो । परमात्मा की लीला तो अपरम्पार है ।
तो फ़िर कालपुरुष ताकतवर हुआ या परमात्मा ? शायद आपका ये कहना उचित होता कि सबमें आत्मा ही है । और वो १ सर्वशक्तिमान परमात्मा का अंश है । किरपा करके आप इस प्रश्न का सही उत्तर पेश करें ।
ANS - कालपुरुष जैसे परमात्मा के कितने कर्मचारी हैं । ये गिनती भी मुश्किल है । ये सिर्फ़ विषय वासना के लालच में फ़ँसे जीवों और देवताओं के लिये ताकतवर है । परमात्मा के एक मामूली कार्यकर्ता से भी ये भयभीत रहता है । आत्मग्यान के सन्तों से तो ये और महामाया बहुत घबराते हैं । क्योंकि वे करोङों जन्मों से इसके जाल में फ़ँसे जीव को सरलता से मुक्त करवा देते हैं ।
तो इस तीसरे प्रश्न का निचोड क्या है ? ये हमारा स्थूल शरीर तो स्थूल प्रकृति का हिस्सा है । ये मन । बु्द्धि । चित्त । अहम आदि सू्क्ष्म प्रकृति का हिस्सा है । तो हमारा असली स्वरूप क्या है ? क्या हमारा असली स्वरूप आत्मा है ? जो १ परमात्मा का अंश है । और अग्यानता वश इस सन्सार मे भट्क रहा है ।
ANS - जी हाँ । हमारा असली स्वरूप और पहचान शुद्ध चैतन्य आत्मा है । जिसमें किसी प्रकार का भाव न जुङा हो । ये अपनी पहचान भूलकर ही दुर्दशा को प्राप्त हुआ । वरना ये बहुत शक्तिशाली और धनी है ।
इसके साथ ये भी बता दीजिये कि अगर आत्मा परमात्मा का ही अंश है । तो उनके प्रमुख गुण भी समान ही होंगे । जैसे अगर परमात्मा नित्य, शाश्वत और अबिनाशी है । तो आत्मा के भी ये ही प्रमुख गुण होंगे । वो अलग बात है कि आत्मा और परमात्मा की ताकत में अति अधिक अन्तर हो ।
ANS - आपका कहना बिल्कुल सही है । दोनों समान होते हैं । कैसे उदाहरण - समुद्र से एक बूंद ( आत्मा ) एक लोटा ( महा आत्मा ) एक झील के बराबर ( महानतम आत्मा स्थिति ) पानी निकालो । रासायनिक टेस्ट में प्रमुख गुण सभी में एक जैसे होंगे । लेकिन उनकी जगह की स्थिति और पानी की मात्रा से । उनकी ताकत और कुछ अतिरिक्त गुणों में बदलाव हो जायेगा ।
अब अन्तिम प्रशन जैसे सतगुरु का भी महत्व शरीर रहने तक है । तो अगर हम किसी से दीक्षा ले लें । और कुछ समय बाद ( कुछ महीने या कुछ साल ) वो सतगुरु रूपी बाबाजी मर जायें । ( क्यु कि ये स्थूल शरीर तो १ दिन छूट जाता है । चाहे किसी का भी हो ) तो उस साधक की क्या गति होती है ?
ANS - वह जितनी पढाई कर चुका होता है । उसका लाभ उसे मिलता है । अगर वह दूसरा गुरु बनाना चाहे । तो भी कोई हर्ज नहीं । किसी के दुनियाँ छोङ देने से कभी दुनियाँ के काम नहीं रुकते । आखिर शरीर में मौजूद गुरु ही ग्यान दे पायेगा । बाकी कुछ लोग समझते हैं कि उनके दिवंगत गुरु अभी भी ग्यान दे रहे हैं । वे भृम में हैं । हाँ । जब कोई शिष्य काफ़ी ऊँची स्थिति को प्राप्त कर लेता है । वो अशरीर हो चुके गुरु से भी जुङा रह सकता है । पर ऐसा लाखों में एकाध के साथ होता है । अतः सभी सामान्य लोगों पर यह बात लागू नहीं होती ।
और १ बात और जैसे आपने कहा कि अब ओशो ( पुराने वाले ) को याद करने से कोई प्रैक्टिक्ल लाभ नहीं । तो क्या फ़िर कबीर जी को भी याद करने का आज के समय मे कोई अर्थ नही रखता ?
ANS - जी हाँ । ओशो कबीर या कोई और हो । उनके उपदेशों से ही लाभ प्राप्त कर सकते हैं । प्रक्टीकल लाभ के लिये शरीर गुरु या समय के गुरु या सतगुरु की निश्चय ही आवश्यकता होती है । नहीं तो संसार में बहुत से नाम रूप गुरु नहीं होते । एक ही गुरु से सबका काम चल रहा होता । हाँ लेकिन आंतरिक गुरु सबका एक ही है । शरीर गुरु या समय के गुरु उसी गुरु से आपको मिला देते हैं ।
*** अब जो प्रश्न आपके उत्तरों से उत्पन्न हुए हैं । किरपा करके उनका भी समाधान अवश्य करें । मेरा पहला प्रश्न है कि निरंकार या ररंकार क्या ये सतपुरूष के नाम हैं ? क्या निरंकार और ररंकार का मतलब १ ही है
ANS - नहीं निरंकार ररंकार साधना की दो स्थितियाँ हैं । निरंकार ( आकाश तत्व ) ररंकार ( रमता स्थिति में - चेतन तत्व )
? गुरुवाणी में आता है कि " सचखन्ड वसे निरंकार " क्या ये वो ही सचखन्ड है । जिसको आप लोग सतलोक या अमरलोक बोलते हो ।
ANS - जी हाँ । सचखन्ड । सतलोक । अमरलोक एक ही बात है । निरंकार ( पाँचवें तत्व की स्थिति । आकाश तत्व को निरंकार कहते हैं । ) आकाश स्थिति को पाकर साधु सचखन्ड की ओर जाता है । इसलिये ऐसा कहा है ।
मेरा दूसरा प्रश्न आपने जिस अँधेरे की बात की थी कि यहाँ पर आकर साधक डर जाता है । या घबरा जाता है । क्या आपका ये इशारा उस भँवर गुफ़ा की तरफ़ तो नही । जिसका उल्लेख आपके १ पुराने लेख में आ चुका है । जिसमें आपने लिखा था । " उस गहर अन्धकार का वर्णन करना सम्भव नही " ।
ANS - साइंस में इसको डार्क मैटर कहा गया है । ऐसे स्थान एक नहीं कई जगह पर आते हैं । आपका इशारा ओशो वाले प्रसंग के लिये हैं । वो स्थान सबसे अंत में है । भँवर गुफ़ा काफ़ी पहले ही नीचे आ जाती है । इस रास्ते में अंधेरे विशाल मैदान कई बार आते हैं ।
अब मेरा तीसरा प्रश्न आप कहते हैं कि सबके अन्दर वो १ परमात्मा ही है । तो इसका मतलब गधे । कुत्ते । बन्दर । उल्लू । कीडे । मकोडे सबके अन्दर वो परमात्मा ही है ।
ANS - जी हाँ । सबके अन्दर वहीं परमात्मा ( लेकिन चेतन तत्व के रूप में ) है । क्योंकि चेतनता सिर्फ़ परमात्मा में ही है । लेकिन ये जीव परमात्मा नहीं हैं । एक इंसान..नौकर है । एक इंसान मालिक है । एक इंसान कुछ और है । तो क्या एक मजदूर ( बेलदार ) से प्रधानमन्त्री कह सकते हैं ? जबकि इंसान रूप में दोनों एक से हैं । यही परमात्मा । आत्मा । जीवात्मा और अनेक तरह के आत्मा में फ़र्क हो जाता है । आत्मा सबमें कामन है ।.. जो सब बातों से परे है । अपने शुद्ध शाश्वत रूप में है । वह परमात्मा है । ऐसा आसानी से समझाने के लिये कहा है । बात तो और भी जटिल है ।
आप लोग कहते हो कि मन कालपुरुष का रूप है । यानी मन ही कालपुरुष है । इसका मतलब कालपुरुष और परमात्मा दोनों एक साथ १ ही शरीर में वास करते हैं ।
ANS - मनुष्य शरीर की रचना और इस बृह्माण्ड की रचना एकदम समान है । इसलिये इसी शरीर में सब कुछ विधमान है । आपने सुना होगा कि गो में 33 करोङ देवता वास करते हैं । यहाँ गो का मतलब गाय नहीं गो का मतलब इन्द्रियाँ है । हमारा यह शरीर बृह्मान्ड का नक्शा है । जो किसी टीवी आदि के सर्किट बोर्ड के समान इन सभी से कनेक्टिड है । लेकिन वो टीवी या कम्प्यूटर ( यहाँ मतलब इंसान ) किस प्रकार की खासियत वाला है । उसी हिसाब से वो अपने इन रहस्यों को जान पाता है । जैसे योगी । सिद्ध । सन्त । विद्वान । अनपढ । गँवार । दयालु । क्रूर आदि । यह बात थोङी जटिल है । इसलिये गहराई से इसको बारबार समझने की कोशिश करें ।
और जब सब कुछ परमात्मा ही है । कभी तो वो नरक भोगता है । तो कभी अनामी लोक में होता है । कभी ८४ लाख योनी भोगता है । कभी प्रेत बनकर भटकता है ( क्योंकि सबके अन्दर सिर्फ़ वो १ परमात्मा ही है ) ये परमात्मा कभी प्रकृति के अधीन हो जाता है । कभी कुछ ।
ANS - इसका उत्तर मैंने ऊपर ही दे दिया । ये सब परमात्मा नहीं । बल्कि अनेक भाव उपाधियों से जुङा आत्मा । जैसे जीव भाव से जुङा तो जीवात्मा । प्रेत भाव से जुङा तो प्रेतात्मा । देव भाव से जुङा तो देवात्मा आदि । जैसे किसी एक पदार्थ को ले लें । उदाहरण - लकङी । अब लकङी से बने दरबाजे । खिङकियाँ । कुर्सी । मेज । पलंग आदि आदि सबको अलग अलग नाम से क्यों पुकारते हैं । है तो सब लकङी ही । लकङी के कमजोर मजबूत कितने प्रकार हो जाते हैं । उससे बनी चीजों में इतने गुण हो जाते हैं । वही लाठी किसी कमजोर या असमर्थ वृद्ध को चलने में सहारा देती है । वही किसी का सर भी फ़ोङ देती है । तो केवल लकङी कहकर सारी बात बन सकती है क्या । जब एक लकङी में इतने कमाल हैं । तो सोचो । परमात्मा की लीला तो अपरम्पार है ।
तो फ़िर कालपुरुष ताकतवर हुआ या परमात्मा ? शायद आपका ये कहना उचित होता कि सबमें आत्मा ही है । और वो १ सर्वशक्तिमान परमात्मा का अंश है । किरपा करके आप इस प्रश्न का सही उत्तर पेश करें ।
ANS - कालपुरुष जैसे परमात्मा के कितने कर्मचारी हैं । ये गिनती भी मुश्किल है । ये सिर्फ़ विषय वासना के लालच में फ़ँसे जीवों और देवताओं के लिये ताकतवर है । परमात्मा के एक मामूली कार्यकर्ता से भी ये भयभीत रहता है । आत्मग्यान के सन्तों से तो ये और महामाया बहुत घबराते हैं । क्योंकि वे करोङों जन्मों से इसके जाल में फ़ँसे जीव को सरलता से मुक्त करवा देते हैं ।
तो इस तीसरे प्रश्न का निचोड क्या है ? ये हमारा स्थूल शरीर तो स्थूल प्रकृति का हिस्सा है । ये मन । बु्द्धि । चित्त । अहम आदि सू्क्ष्म प्रकृति का हिस्सा है । तो हमारा असली स्वरूप क्या है ? क्या हमारा असली स्वरूप आत्मा है ? जो १ परमात्मा का अंश है । और अग्यानता वश इस सन्सार मे भट्क रहा है ।
ANS - जी हाँ । हमारा असली स्वरूप और पहचान शुद्ध चैतन्य आत्मा है । जिसमें किसी प्रकार का भाव न जुङा हो । ये अपनी पहचान भूलकर ही दुर्दशा को प्राप्त हुआ । वरना ये बहुत शक्तिशाली और धनी है ।
इसके साथ ये भी बता दीजिये कि अगर आत्मा परमात्मा का ही अंश है । तो उनके प्रमुख गुण भी समान ही होंगे । जैसे अगर परमात्मा नित्य, शाश्वत और अबिनाशी है । तो आत्मा के भी ये ही प्रमुख गुण होंगे । वो अलग बात है कि आत्मा और परमात्मा की ताकत में अति अधिक अन्तर हो ।
ANS - आपका कहना बिल्कुल सही है । दोनों समान होते हैं । कैसे उदाहरण - समुद्र से एक बूंद ( आत्मा ) एक लोटा ( महा आत्मा ) एक झील के बराबर ( महानतम आत्मा स्थिति ) पानी निकालो । रासायनिक टेस्ट में प्रमुख गुण सभी में एक जैसे होंगे । लेकिन उनकी जगह की स्थिति और पानी की मात्रा से । उनकी ताकत और कुछ अतिरिक्त गुणों में बदलाव हो जायेगा ।
अब अन्तिम प्रशन जैसे सतगुरु का भी महत्व शरीर रहने तक है । तो अगर हम किसी से दीक्षा ले लें । और कुछ समय बाद ( कुछ महीने या कुछ साल ) वो सतगुरु रूपी बाबाजी मर जायें । ( क्यु कि ये स्थूल शरीर तो १ दिन छूट जाता है । चाहे किसी का भी हो ) तो उस साधक की क्या गति होती है ?
ANS - वह जितनी पढाई कर चुका होता है । उसका लाभ उसे मिलता है । अगर वह दूसरा गुरु बनाना चाहे । तो भी कोई हर्ज नहीं । किसी के दुनियाँ छोङ देने से कभी दुनियाँ के काम नहीं रुकते । आखिर शरीर में मौजूद गुरु ही ग्यान दे पायेगा । बाकी कुछ लोग समझते हैं कि उनके दिवंगत गुरु अभी भी ग्यान दे रहे हैं । वे भृम में हैं । हाँ । जब कोई शिष्य काफ़ी ऊँची स्थिति को प्राप्त कर लेता है । वो अशरीर हो चुके गुरु से भी जुङा रह सकता है । पर ऐसा लाखों में एकाध के साथ होता है । अतः सभी सामान्य लोगों पर यह बात लागू नहीं होती ।
और १ बात और जैसे आपने कहा कि अब ओशो ( पुराने वाले ) को याद करने से कोई प्रैक्टिक्ल लाभ नहीं । तो क्या फ़िर कबीर जी को भी याद करने का आज के समय मे कोई अर्थ नही रखता ?
ANS - जी हाँ । ओशो कबीर या कोई और हो । उनके उपदेशों से ही लाभ प्राप्त कर सकते हैं । प्रक्टीकल लाभ के लिये शरीर गुरु या समय के गुरु या सतगुरु की निश्चय ही आवश्यकता होती है । नहीं तो संसार में बहुत से नाम रूप गुरु नहीं होते । एक ही गुरु से सबका काम चल रहा होता । हाँ लेकिन आंतरिक गुरु सबका एक ही है । शरीर गुरु या समय के गुरु उसी गुरु से आपको मिला देते हैं ।
3 टिप्पणियां:
Great, Excellent, Best of the Best, very very very good RAJEEV ji keep it up.
जी क्या ररंकार भी ओहगं सोहगं की तरह कोई मंत्र हैं ? अगर मंत्र हैं फिर किसका ? कृपया इसका विस्तार से खुलासा करें । धन्यवाद ।
हम भी जाना चाहते हैं कि सोहंम की तरह क्या ररंकार कोई मंत्र है एवं उसका स्वामी कौन है?
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