2 - रवींद्रनाथ ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि जब गीताजलि, उनकी प्रसिद्ध कृति, प्रकाशित हुई । जिसमें उन्होंने ठीक वैसे अमृत वचन लिखे हैं । जैसे उपनिषदों के वचन हैं । तो 1 पड़ोस का व्यक्ति 1 बूढ़ा आदमी सुबह सुबह घूमते उन्हें पकड़ लिया । दोनों कंधे हिलाकर बोला - ईश्वर को देखा है ? उसकी आखें बड़ी पैनी थीं कि भेद जाएं भीतर तक । और जिस ढंग से उसने पूछा । और जिस बेवक्त पकड़कर पूछा । रवींद्रनाथ न कह सके कि - देखा है । चुप खड़े रह गए । वह आदमी खिलखिलाकर हंसने लगा । उसकी खिलखिलाहट छाती में छुरी की तरह चुभ गयी । और फिर वह आदमी जब भी मिलता । और अक्सर मिल जाता । पड़ोस में ही था । कहीं भी आते जाते मिल जाता । तो वह छोड़ता नहीं था मौका । पकड़ लेता - ईश्वर को देखा है ? ईमान से बोलो । ईश्वर को देखा है ? रवींद्रनाथ ने 1 दिन उससे कहा - भई, यह प्रश्न मुझसे बारबार क्यों पूछते हो ? उसने कहा - गीताजलि क्या लिखी ? अगर ईश्वर को देखा नहीं है । तो क्यों ये गीत लिखे ? कैसे ये गीत लिखे ? ये सब गीत झूठे हैं । रवींद्रनाथ बचते थे । अगर उनको निकलना भी होता । तो चक्कर मारकर जाते । उसके घर के आसपास से न निकलते । तो वह आदमी उनके घर आने लगा । दरवाजा खटखटाने लगा । सुबह से ही आकर बैठ जाता । जब तक मिल न ले । तब तक जाता नहीं । और मिलता । तो वही सवाल । वही तीखी आखें । जिनके सामने झूठ न बोला जा सके ।
लेकिन 1 सुबह रवींद्रनाथ सागर तट पर गए थे । वहां उन्होंने सूरज को सागर पर चमकते देखा । सुबह होती थी । और सूरज निकलता था । और सूरज की लालिमा आकाश में भी फैल गयी थी । और सागर में भी । रात वर्षा हुई थी । रास्ते के किनारे गड्डों में जल भर गया था । जब झलक रहा था । विराट सागर में । और रास्ते के किनारे गंदे डबरों में भी चमक रहा था । उतना ही सुंदर । कुछ भेद न था डबरों में । और सागर में । सूरज के लिए कोई भला न था । डबरे भी वैसे ही थे । जैसे सागर । गंदे थे डबरे । और सागर स्वच्छ था । लेकिन सूरज का जो प्रतिबिंब बन रहा था । यह न तो गंदा होता है । और न स्वच्छ होता है । गंदगी प्रतिबिंब को कैसे छुएगी ? प्रतिबिंब तो अछूता रहता है । प्रतिबिंबों संन्यासी है । उसे कुछ भी नहीं छूता ।
यह भाव बोध । और जैसे 1 द्वार खुल गया । अब तक जो मन में ख्याल था । बुरे आदमी और अच्छे आदमियों का । सज्जन का । दुर्जन का । साधु का । असाधु का । गिर गया । 1 क्षण में गिर गया । और आज पहली बार उस आदमी पर क्रोध नहीं आया । उल्टा रवींद्रनाथ आगे बढ़े । और उस आदमी को गले लगा लिया । और वह आदमी हंसने लगा । तो उसने कहा कि - फिर, दर्शन हुआ । तो लगता है । दर्शन हुआ । तो लगता है । झलक मिली । अब बात ठीक हुई । अब तुम गीताजलि के गीत गाने योग्य हुए । क्या हो गया उस दिन ? बुरे भले का भेद मिट गया । पदार्थ परमात्मा का भेद मिट गया । संसार संन्यास का भेद मिट गया । भेद मिट गया । जिस दिन तुम्हारे भीतर अहंकार गिर जायेगा । उस दिन तुम्हारे भीतर से सारे भेद मिट जायेंगे । क्योंकि सारे भेदों का निर्माता अहंकार है । जिस दिन अहंकार गया । तुलना गयी । फिर तुम तौलोगे नहीं - कौन अच्छा । कौन बुरा । कौन ऊपर । कौन नीचे ।
अवल गरीबी अंग बसै । सीतल सदा सुभाव ।
पावस बूढ़ा परेम रा । जी सूं सींचो जाव ।
3 - ऐसा हुआ । बुद्ध की मृत्यु हुई । तो जब तक बुद्ध जीवित थे । किसी ने फिक्र भी न की थी कि उनके वचनों का संग्रह हो जाए । बुद्ध जीवित थे । किसी को याद भी न आया । फिर अचानक होश हुआ । जैसे 1 सपना टूटा । इतने बहुमूल्य वचन खो जाएंगे ऐसे ही । तो संग्रह ही करो । तो जो जाग चुके थे । बुद्ध के समय में । बुद्ध के बहुत शिष्य । जो बुद्धत्व को पा चुके थे । उनसे प्रार्थना की गई । उन्होंने कहा - हमने कुछ सुना ही नहीं कि बुद्ध ने क्या कहा । यह बकवास बंद करो । बुद्ध कभी बोले ही नहीं । इनका तो उनके मौन से संबंध जुड़ गया था । तो उन्होंने कहा - हमने तो सुना ही नहीं । तुम भी क्या बात कर रहे हो ? बुद्ध और बोले ? कभी नहीं । बुद्धत्व के बाद 40 साल चुप रहे । हमने तो चुप्पी सुनी । बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई । जिन पर भरोसा किया जा सकता था । जो जाग गए थे । जिनकी वाणी का मूल्य होता । जिनकी रिपोर्ट सही होने की संभावना थी । वे कहते हैं - हमने सुना ही नहीं । कहां की बात कर रहे हो ? सपने में हो ? उनमें जो परम ज्ञानी था 1 - महाकाश्यप । उसने तो कहा - बुद्ध कभी हुए ही नहीं । किसकी बात उठाते हो ? कोई सपना देखा होगा । यह तो द्वार बंद हो गया । जो सर्वाधिक कीमती व्यक्ति था - महाकाश्यप । जिसको बुद्ध ने कहा था - जो मैं शब्द से दे सकता हूं । वह मैंने दूसरों को दे दिया महाकाश्यप । और जो शब्द से नहीं दिया जा सकता । वह मैं तुझे देता हूं । उस आदमी ने तो कह दिया । बुद्ध कभी हुए ही नहीं । कौन बोला ? किसने सुना ? कहां की बातें करते हो ?
तब आनंद का सहारा लेना पड़ा । आनंद बुद्ध के समय में ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ । वह अज्ञानी ही रहा । वह अंधेरे में ही रहा । उसने शून्य को नहीं सुना । उसने शब्द को सुना । लेकिन उसके पास पूरा संग्रह था । उसकी स्मृति ने सब सम्हालकर रखा था । उसने सब बोल दिया । सब संगृहीत कर लिया गया । अब सवाल यह है कि अगर आनंद भी ज्ञान को उपलब्ध हो गया होता बुद्ध के जीते । तो बुद्ध के संबंध में तुम्हें कुछ पता भी नहीं हो सकता था । रेखा भी न छूट जाती । क्योंकि महाकाश्यप तो यह भी मानने को राजी नहीं कि यह आदमी कभी हुआ । अज्ञानी आनंद की ही अनुकंपा है कि बुद्ध के वचन संगृहीत हैं ।
तो मेरे मौन को जो समझ सकते हैं । वे तो 1 दिन कह देंगे कि यह आदमी कभी हुआ ? कहां की बात कर रहे हो ? यह कुर्सी सदा से खाली थी । सपना देखा है । लेकिन जो नहीं मेरे मौन को समझ पा रहे हैं । मेरे शब्द को ही समझ सकते हैं । उनका भी उपयोग है । शायद वे ही उस शब्द की नौका को दूसरों तक पहुंचा देंगे । शब्द की नौका का प्रयोजन तो शून्य के तट पर लगना है । लक्ष्य तो शून्य है । लेकिन लक्ष्य तो मिलेगा । तब मिलेगा । आज तो नौका भी मिल जाए । तो काफी है । ओशो
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