तब धर्मदास बोले - हे साहिब ! यह रहस्य तो मैंने जान लिया । अब आगे का रहस्य बताओ । आगे क्या हुआ ?
कबीर साहब बोले - अष्टांगी ने विष्णु को प्यार किया । और कहा । मेरे बङे पुत्र बृह्मा ने तो व्यभिचार और झूठ से अपनी मान मर्यादा खो दी । हे पुत्र विष्णु ! अब सब देवताओं में तुम्ही ईश्वर होगे । सब देवता तुम्ही को श्रेष्ठ मानेंगे । और तुम्हारी पूजा करेंगे । जिसकी इच्छा तुम मन में करोगे । वह कार्य मैं पूरा करूँगी ।
फ़िर अष्टांगी शंकर के पास गयीं । और बोली - हे शिव ! तुम मुझसे अपने मन की बात कहो । तुम जो चाहते हो वह मुझसे मांगो । अपने दोनों पुत्रों को तो मैंने उनके कर्मानुसार दे दिया है ।
तब शंकर जी ने हाथ जोङकर कहा - हे माता ! जैसा तुमने कहा । वह मुझे दीजिये । मेरा यह शरीर कभी नष्ट न हो । ऐसा वर दीजिये ।
अष्टांगी ने कहा - ऐसा नहीं हो सकता । क्योंकि आदि पुरुष के अलावा कोई दूसरा अमर नहीं हुआ । तुम प्रेमपूर्वक प्राण पवन का योग संयम करके योग तप करो । तो चार युग तक तुम्हारी देह बनी रहेगी । तब जहाँ तक प्रथ्वी आकाश होगा । तुम्हारी देह कभी नष्ट नहीं होगी ।
विष्णु और महेश ऐसा वर पाकर बहुत प्रसन्न हुये । पर बृह्मा बहुत उदास हुये । तब वह विष्णु के पास पहुँचे । और बोले - हे भाई ! माता के वरदान से तुम देवताओं में प्रमुख और श्रेष्ठ हो । माता तुम पर दयालु हुयी । पर मैं उदास हूँ । अब मैं माता को क्या दोष दूँ । यह सब मेरी ही करनी का फ़ल है । तुम कोई ऐसा उपाय करो । जिससे मेरा वंश भी चले । और माता का शाप भी भंग न हो ।
तब विष्णु बोले - हे भाई बृह्मा ! तुम मन का भय और दुख त्याग दो कि माता ने मुझे श्रेष्ठ पद दिया है । मैं सदा तुम्हारे साथ तुम्हारी सेवा करूँगा । तुम बङे हो । और मैं छोटा हूँ । अतः तुम्हारा मान सम्मान बराबर करूँगा । जो कोई मेरा भक्त होगा । वह तुम्हारे भी वंश की सेवा करेगा ।
हे भाई ! मैं संसार में ऐसा मत विश्वास बना दूँगा कि जो कोई पुण्य फ़ल की आशा करता हो । और उसके लिये वह जो भी यग्य धर्म पूजा वृत आदि जो भी कार्य करता हो । वह बिना ब्राह्मण के नहीं होंगे । जो ब्राह्मणों की सेवा करेगा । उस पर महापुण्य का प्रभाव होगा । वह जीव मुझे बहुत प्यारा होगा । और मैं उसे अपने समान बैकुंठ में रखूँगा ।
यह सुनकर बृह्मा बहुत प्रसन्न हुये । विष्णु ने उनके मन की चिंता मिटा दी । बृह्मा ने कहा । मेरी भी यही चाह थी कि मेरा वंश सुखी हो ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! काल निरंजन के फ़ैलाये जाल का विस्तार देखो । उसने खानी वाणी के मोह से मोहित कर सारे संसार को ठग लिया । और सब इसके चक्कर में पङकर अपने आप ही इसके बंधन में बँध गये । तथा परमात्मा को । स्वयँ को । अपने कल्याण को भूल ही गये । यह काल निरंजन विभिन्न सुख भोग आदि तथा स्वर्ग आदि का लालच देकर सब जीवों को भरमाता है । और उनसे भांति भांति के कर्म करवाता है । फ़िर उन्हें जन्म मरण के झूले में झुलाता हुआ बहु भांति कष्ट देता है ।
** खानी और वाणी बँधन क्या है - स्त्री । पति । पुत्र । पुत्री । परिवार । धन संपत्ति आदि को ही सब कुछ मानना खानी बँधन है । तथा भूत । प्रेत । स्वर्ग । नरक । मान । अपमान आदि कल्पनायें करते हुये विभिन्न चिंतन करना वाणी का बंधन है । क्योंकि मन इन दोनों जगह ही जीव को अटकाये रखता है ।
सन्तमत में खानी बंधन को मोटी माया और वाणी बंधन को झीनी माया कहते हैं । बिना ग्यान के इन बंधनों से छूट पाना जीव के लिये बेहद कठिन होता है ।
खानी बंधन के अंतर्गत मोटी माया को त्याग करते तो बहुत लोग देखे गये हैं । आज भी करते हैं । परन्तु झीनी माया का त्याग विरले ही कर पाते हैं ।
- मोटी माया सब तजें । झीनी तजी न जाय । मान बङाई ईर्ष्या । फ़िर लख चौरासी 84 लाये ।
कामना वासना रूपी झीनी माया का बंधन बहुत ही जटिल है । इसने सभी को भृम में फ़ँसा रखा है । इसके जाल में फ़ँसा कभी स्थिर नहीं हो पाता । अतः यह काल निरंजन सब जीवों को अपने जाल में फ़ँसाकर बहुत सताता है ।
राजा बलि । हरिश्चन्द्र । वेणु । विरोचन । कर्ण । युधिष्ठर आदि और भी प्रथ्वी के प्राणियों का हित चिंतन करने वाले कितने त्यागी और दानी राजा हुये । इनको काल निरंजन ने किस देश में ले जाकर रखा ?? यानी ये सब भी काल के गाल में ही समा गये । काल निरंजन ने इन सभी राजाओं की जो दुर्दशा की । वह सारा संसार ही जानता है कि ये सब वेवश होकर काल के अधीन थे ।
संसार जानता है कि काल निरंजन से अलग न हो पाने के कारण उनके ह्रदय की शुद्धि नहीं हुयी । काल निरंजन बहुत प्रबल है । उसने सबकी बुद्धि हर ली है । ये काल निरंजन अभिमानी मन हुआ जीवों की देह के भीतर ही रहता है । उसके प्रभाव में आकर जीव मन की तरंग में विषय वासना में भूला रहता है । जिससे वह अपने कल्याण के साधन नहीं कर पाता । तब ये अग्यानी भृमित जीव अपने घर अमरलोक की तरफ़ पलटकर भी नहीं देखता । और सत्य से सदा अंजान ही रहता है ।
धर्मदास बोले - हे साहिब ! आपकी कृपा से मैंने यम यानी काल निरंजन का धोखा तो पहचान लिया है । अब आप बताओ कि गायत्री के शाप का आगे क्या हुआ ?
कबीर साहब बोले - हे प्रिय धर्मदास सुनो । मैं तुम्हारे सामने अगम ( जहाँ पहुँचना या जानना असंभव जैसा हो ) ग्यान कहता हूँ । गायत्री ने अष्टांगी द्वारा दिया हुआ शाप स्वीकार तो कर लिया । पर उसने भी पलटकर अष्टांगी माता को शाप दिया कि हे माता ! मनुष्य जन्म में जब मैं पाँच पुरुषों की पत्नी बनूँ । तो उन पुरुषों की माता तुम बनो ।
उस समय तुम बिना पुरुष के ही पुत्र उत्पन्न करोगी । और इस बात को संसार जानेगा । आगे द्वापर युग आने पर दोनों ने गायत्री ने द्रोपदी और अष्टांगी ने कुन्ती के रूप में देह धारण की । और एक दूसरे के शाप का फ़ल भुगता ।
जब यह शाप और उसका झगङा समाप्त हो गया । तब फ़िर से जगत की रचना हुयी । बृह्मा विष्णु महेश और अष्टांगी इन चारों ने अण्डज पिण्डज ऊष्मज और स्थावर इन चार खानियों को उत्पन्न किया । फ़िर 4 खानियों के अंतर्गत भिन्न भिन्न स्वभाव की 84 लाख योनियाँ उत्पन्न की ।
सबसे पहले अष्टांगी ने अण्डज - यानी अंडे से उत्पन्न होने वाले जीव खानि की रचना की । बृह्मा ने पिण्डज - यानी शरीर के अन्दर गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीव खानि की रचना की । विष्णु ने ऊष्मज - यानी मैल । पसीना । पानी आदि से उत्पन्न होने वाले जीव खानि की रचना की । शंकर ने स्थावर - यानी वृक्ष । जङ । पहाङ । घास । बेल आदि जीव खानि की रचना की । इस तरह से चारों खानियों को इन चारों ने रच दिया । और उसमें जीव को बँधन में डाल दिया ।
फ़िर प्रथ्वी पर खेती आदि होने लगी । तथा समयानुसार लोग कारण करण और कर्ता को समझने लगे । इस प्रकार चार खानों की चौरासी का विस्तार हो गया । इन चार खानियों को बोलने के लिये चार प्रकार की वाणी दी गयी । बृह्मा विष्णु महेश और अष्टांगी द्वारा सृष्टि रचना होने के कारण जीव उन्हीं को सब कुछ समझने लगे । और सत्यपुरुष की तरफ़ से भूले रहे ।
कबीर साहब बोले - अष्टांगी ने विष्णु को प्यार किया । और कहा । मेरे बङे पुत्र बृह्मा ने तो व्यभिचार और झूठ से अपनी मान मर्यादा खो दी । हे पुत्र विष्णु ! अब सब देवताओं में तुम्ही ईश्वर होगे । सब देवता तुम्ही को श्रेष्ठ मानेंगे । और तुम्हारी पूजा करेंगे । जिसकी इच्छा तुम मन में करोगे । वह कार्य मैं पूरा करूँगी ।
फ़िर अष्टांगी शंकर के पास गयीं । और बोली - हे शिव ! तुम मुझसे अपने मन की बात कहो । तुम जो चाहते हो वह मुझसे मांगो । अपने दोनों पुत्रों को तो मैंने उनके कर्मानुसार दे दिया है ।
तब शंकर जी ने हाथ जोङकर कहा - हे माता ! जैसा तुमने कहा । वह मुझे दीजिये । मेरा यह शरीर कभी नष्ट न हो । ऐसा वर दीजिये ।
अष्टांगी ने कहा - ऐसा नहीं हो सकता । क्योंकि आदि पुरुष के अलावा कोई दूसरा अमर नहीं हुआ । तुम प्रेमपूर्वक प्राण पवन का योग संयम करके योग तप करो । तो चार युग तक तुम्हारी देह बनी रहेगी । तब जहाँ तक प्रथ्वी आकाश होगा । तुम्हारी देह कभी नष्ट नहीं होगी ।
विष्णु और महेश ऐसा वर पाकर बहुत प्रसन्न हुये । पर बृह्मा बहुत उदास हुये । तब वह विष्णु के पास पहुँचे । और बोले - हे भाई ! माता के वरदान से तुम देवताओं में प्रमुख और श्रेष्ठ हो । माता तुम पर दयालु हुयी । पर मैं उदास हूँ । अब मैं माता को क्या दोष दूँ । यह सब मेरी ही करनी का फ़ल है । तुम कोई ऐसा उपाय करो । जिससे मेरा वंश भी चले । और माता का शाप भी भंग न हो ।
तब विष्णु बोले - हे भाई बृह्मा ! तुम मन का भय और दुख त्याग दो कि माता ने मुझे श्रेष्ठ पद दिया है । मैं सदा तुम्हारे साथ तुम्हारी सेवा करूँगा । तुम बङे हो । और मैं छोटा हूँ । अतः तुम्हारा मान सम्मान बराबर करूँगा । जो कोई मेरा भक्त होगा । वह तुम्हारे भी वंश की सेवा करेगा ।
हे भाई ! मैं संसार में ऐसा मत विश्वास बना दूँगा कि जो कोई पुण्य फ़ल की आशा करता हो । और उसके लिये वह जो भी यग्य धर्म पूजा वृत आदि जो भी कार्य करता हो । वह बिना ब्राह्मण के नहीं होंगे । जो ब्राह्मणों की सेवा करेगा । उस पर महापुण्य का प्रभाव होगा । वह जीव मुझे बहुत प्यारा होगा । और मैं उसे अपने समान बैकुंठ में रखूँगा ।
यह सुनकर बृह्मा बहुत प्रसन्न हुये । विष्णु ने उनके मन की चिंता मिटा दी । बृह्मा ने कहा । मेरी भी यही चाह थी कि मेरा वंश सुखी हो ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! काल निरंजन के फ़ैलाये जाल का विस्तार देखो । उसने खानी वाणी के मोह से मोहित कर सारे संसार को ठग लिया । और सब इसके चक्कर में पङकर अपने आप ही इसके बंधन में बँध गये । तथा परमात्मा को । स्वयँ को । अपने कल्याण को भूल ही गये । यह काल निरंजन विभिन्न सुख भोग आदि तथा स्वर्ग आदि का लालच देकर सब जीवों को भरमाता है । और उनसे भांति भांति के कर्म करवाता है । फ़िर उन्हें जन्म मरण के झूले में झुलाता हुआ बहु भांति कष्ट देता है ।
** खानी और वाणी बँधन क्या है - स्त्री । पति । पुत्र । पुत्री । परिवार । धन संपत्ति आदि को ही सब कुछ मानना खानी बँधन है । तथा भूत । प्रेत । स्वर्ग । नरक । मान । अपमान आदि कल्पनायें करते हुये विभिन्न चिंतन करना वाणी का बंधन है । क्योंकि मन इन दोनों जगह ही जीव को अटकाये रखता है ।
सन्तमत में खानी बंधन को मोटी माया और वाणी बंधन को झीनी माया कहते हैं । बिना ग्यान के इन बंधनों से छूट पाना जीव के लिये बेहद कठिन होता है ।
खानी बंधन के अंतर्गत मोटी माया को त्याग करते तो बहुत लोग देखे गये हैं । आज भी करते हैं । परन्तु झीनी माया का त्याग विरले ही कर पाते हैं ।
- मोटी माया सब तजें । झीनी तजी न जाय । मान बङाई ईर्ष्या । फ़िर लख चौरासी 84 लाये ।
कामना वासना रूपी झीनी माया का बंधन बहुत ही जटिल है । इसने सभी को भृम में फ़ँसा रखा है । इसके जाल में फ़ँसा कभी स्थिर नहीं हो पाता । अतः यह काल निरंजन सब जीवों को अपने जाल में फ़ँसाकर बहुत सताता है ।
राजा बलि । हरिश्चन्द्र । वेणु । विरोचन । कर्ण । युधिष्ठर आदि और भी प्रथ्वी के प्राणियों का हित चिंतन करने वाले कितने त्यागी और दानी राजा हुये । इनको काल निरंजन ने किस देश में ले जाकर रखा ?? यानी ये सब भी काल के गाल में ही समा गये । काल निरंजन ने इन सभी राजाओं की जो दुर्दशा की । वह सारा संसार ही जानता है कि ये सब वेवश होकर काल के अधीन थे ।
संसार जानता है कि काल निरंजन से अलग न हो पाने के कारण उनके ह्रदय की शुद्धि नहीं हुयी । काल निरंजन बहुत प्रबल है । उसने सबकी बुद्धि हर ली है । ये काल निरंजन अभिमानी मन हुआ जीवों की देह के भीतर ही रहता है । उसके प्रभाव में आकर जीव मन की तरंग में विषय वासना में भूला रहता है । जिससे वह अपने कल्याण के साधन नहीं कर पाता । तब ये अग्यानी भृमित जीव अपने घर अमरलोक की तरफ़ पलटकर भी नहीं देखता । और सत्य से सदा अंजान ही रहता है ।
धर्मदास बोले - हे साहिब ! आपकी कृपा से मैंने यम यानी काल निरंजन का धोखा तो पहचान लिया है । अब आप बताओ कि गायत्री के शाप का आगे क्या हुआ ?
कबीर साहब बोले - हे प्रिय धर्मदास सुनो । मैं तुम्हारे सामने अगम ( जहाँ पहुँचना या जानना असंभव जैसा हो ) ग्यान कहता हूँ । गायत्री ने अष्टांगी द्वारा दिया हुआ शाप स्वीकार तो कर लिया । पर उसने भी पलटकर अष्टांगी माता को शाप दिया कि हे माता ! मनुष्य जन्म में जब मैं पाँच पुरुषों की पत्नी बनूँ । तो उन पुरुषों की माता तुम बनो ।
उस समय तुम बिना पुरुष के ही पुत्र उत्पन्न करोगी । और इस बात को संसार जानेगा । आगे द्वापर युग आने पर दोनों ने गायत्री ने द्रोपदी और अष्टांगी ने कुन्ती के रूप में देह धारण की । और एक दूसरे के शाप का फ़ल भुगता ।
जब यह शाप और उसका झगङा समाप्त हो गया । तब फ़िर से जगत की रचना हुयी । बृह्मा विष्णु महेश और अष्टांगी इन चारों ने अण्डज पिण्डज ऊष्मज और स्थावर इन चार खानियों को उत्पन्न किया । फ़िर 4 खानियों के अंतर्गत भिन्न भिन्न स्वभाव की 84 लाख योनियाँ उत्पन्न की ।
सबसे पहले अष्टांगी ने अण्डज - यानी अंडे से उत्पन्न होने वाले जीव खानि की रचना की । बृह्मा ने पिण्डज - यानी शरीर के अन्दर गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीव खानि की रचना की । विष्णु ने ऊष्मज - यानी मैल । पसीना । पानी आदि से उत्पन्न होने वाले जीव खानि की रचना की । शंकर ने स्थावर - यानी वृक्ष । जङ । पहाङ । घास । बेल आदि जीव खानि की रचना की । इस तरह से चारों खानियों को इन चारों ने रच दिया । और उसमें जीव को बँधन में डाल दिया ।
फ़िर प्रथ्वी पर खेती आदि होने लगी । तथा समयानुसार लोग कारण करण और कर्ता को समझने लगे । इस प्रकार चार खानों की चौरासी का विस्तार हो गया । इन चार खानियों को बोलने के लिये चार प्रकार की वाणी दी गयी । बृह्मा विष्णु महेश और अष्टांगी द्वारा सृष्टि रचना होने के कारण जीव उन्हीं को सब कुछ समझने लगे । और सत्यपुरुष की तरफ़ से भूले रहे ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें