अष्टांगी को ये जानकर बेहद आश्चर्य हुआ कि बृह्मा ने निरंजन के दर्शन पा लिये हैं । जबकि अलख निरंजन ने तो ऐसी प्रतिग्या कर रखी है कि उसे कोई आँखों से देख नहीं पायेगा । फ़िर ये तीनों लबारी झूटे कपटी कैसे कहते हैं कि उन्होंने निरंजन को देखा है । तब उसी क्षण अष्टांगी ने ध्यान किया ।
इस पर निरंजन उसके ध्यान में बोला - मुझे सत्य बताओ ।
फ़िर निरंजन ने कहा - बृह्मा ने मेरा दर्शन नहीं पाया । उसने तुम्हारे पास आकर झूठी गवाही दिलवायी । उन तीनों ने झूठ बनाकर सब कहा है । वह सब मत मानों । वह झूठ है ।
अष्टांगी को यह सुनकर बहुत क्रोध आया । और उन्होंने बृह्मा को शाप दिया - हे बृह्मा ! तुमने मुझसे आकर झूठ बोला । अतः कोई तुम्हारी पूजा नहीं करेगा । एक तो तुम झूठ बोले । और दूसरे तुमने न करने योग्य कर्म यानी दुष्कर्म करके बहुत बङा पाप अपने सिर ले लिया है ।
आगे जो भी तुम्हारी शाखा संतति होगी । वह बहुत झूठ और पाप करेगी । तुम्हारी संतति ( बृह्मा के वंश अथवा बृह्मा के नाम से पुकारे जाने वाले ब्राह्मण ) प्रकट में तो बहुत नियम धर्म वृत उपवास पूजा शुचि आदि करेंगे । परन्तु उनके मन में भीतर पाप मैल का विस्तार रहेगा । वे तुम्हारी संतान विष्णु भक्तों से अहंकार करेंगी । इसलिये नरक को प्राप्त होंगी । तुम्हारे वंश वाले पुराणों की धर्म कथाओं को लोगों को समझायेंगे । परन्तु स्वयँ उसका आचरण न करके दुख पायेंगे । उनसे जो और लोग ग्यान की बात सुनेंगे । उसके अनुसार वे भक्ति कर सत्य को बतायेंगे । ब्राह्मण परमात्मा का ग्यान और भक्ति को छोङकर दूसरे देवताओं को ईश्वर का अंश बताकर उनकी भक्ति पूजा करायेंगे । औरों की निंदा करके विकराल काल के मुँह में जायेंगे ।
अनेक देवी देवताओं की बहुत प्रकार से पूजा करके यजमानों से दक्षिणा लेंगे । और दक्षिणा के कारण पशु बलि में पशुओं का गला कटवायेंगे । या दक्षिणा के लालच में यजमानों को बेबकूफ़ बनायेंगे । फ़िर वे जिसको शिष्य बनायेंगे । उसे भी परमार्थ या कल्याण का रास्ता नहीं दिखायेंगे । परमार्थ के तो वे पास भी नहीं जायेंगे । परन्तु स्वार्थ के लिये वे सबको अपनी बात समझायेंगे । वे आप स्वार्थी होकर सबको अपनी स्वार्थ सिद्ध का ग्यान सुनायेंगे । और संसार में अपनी सेवा पूजा मजबूत करेंगे । अपने आपको ऊँचा और औरों को छोटा कहेंगे । इस प्रकार हे बृह्मा ! तेरे वंशज तेरे ही जैसे झूठे और कपटी होंगे ।
अष्टांगी का ऐसा शाप सुनकर बृह्मा मूर्छित होकर गिर पङे ।
फ़िर अष्टांगी ने गायत्री को शाप दिया - हे गायत्री ! बृह्मा के साथ कामभावना से हो जाने से मनुष्य जन्म में तेरे पाँच पति होंगे । हे गायत्री ! तेरे गाय रूपी शरीर में वैल पति होंगे । और वे सात पाँच से भी अधिक होंगे । पशु योनि में तू गाय बनकर जन्म लेगी । और न खाने योग्य पदार्थ खायेगी । तुमने अपने स्वार्थ के लिये मुझसे झूठ बोला । और झूठे वचन कहे । क्या सोचकर तुमने झूठी गवाही दी ?
गायत्री ने अपनी गलती मानकर शाप को स्वीकार कर लिया । इसके बाद अष्टांगी ने सावित्री की ओर देखा । और बोली - तुमने अपना नाम तो सुन्दर पुहुपावती रखवा लिया । परन्तु झूठ बोलकर तुमने अपने जन्म का नाश कर लिया । हे पुहुपावती ! सुन । तुम्हारे विश्वास पर । तुमसे कोई आशा रखकर कोई तुम्हें नहीं पूजेगा । अब दुर्गंध के स्थान पर तुम्हारा वास होगा । काम विषय की आशा लेकर अब नरक की यातना भोगो । जान बूझकर जो तुम्हें सींचकर लगायेगा । उसके वंश की हानि होगी । अब तुम जाओ । और वृक्ष बनकर जन्मों । तुम्हारा नाम केवङा केतकी होगा ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! माता अष्टांगी के शाप के कारण तीनों बृह्मा गायत्री और सावित्री बहुत दुखी हो गये । अपने पापकर्म से वे बुद्धिहीन और दुर्बल हो गये । काम विषय में प्रवृत कराने वाली कामिनी स्त्री काल रूप काम ( वासना की इच्छा ) की अति तीवृ कला है । इसने सबको अपने शरीर के सुन्दर चर्म से डसा है । शंकर बृह्मा सनकादि और नारद जैसे कोई भी इससे बच नहीं पाये ।
हे धर्मदास ! इससे कोई बिरला ही सन्त साधक बच पाता है । जो सदगुरु के सत्य शब्दों को भली प्रकार अपनाता है । सदगुरु के शब्द प्रताप से ये काल कला मनुष्य को नहीं व्यापती । अर्थात कोई हानि नहीं करती । जो कल्याण की इच्छा रखने वाला भक्त मन वचन कर्म से सतगुरु के श्री चरणों की शरण गृहण करता है । पाप उसके पास नहीं आता ।
कबीर साहब आगे बोले - हे धर्मदास ! बृह्मा विष्णु महेश तीनों को शाप देने के बाद अष्टांगी माता मन में पछताने लगी । उसने सोचा । शाप देते समय मुझे बिलकुल दया नहीं आयी । अब न जाने निरंजन मेरे साथ कैसा व्यवहार करेगा ?
उसी समय आकाशवाणी हुयी - हे भवानी ! तुमने यह क्या किया ? मैंने तो तुम्हें सृष्टि की रचना के लिये भेजा था । परन्तु तुमने शाप देकर यह कैसा चरित्र किया ? हे भवानी ! ऊँचा और बलबान ही निर्बल को सताता है । और यह निश्चित है कि वह इसके बदले दुख पाता है । इसलिये जब द्वापर युग आयेगा । तब तुम्हारे भी पाँच पति होंगे ।
जब भवानी ने अपने शाप के बदले निरंजन का शाप सुना । तो मन में सोच विचार किया । पर मुँह से कुछ न बोली । वह सोचने लगी - मैंने बदले में शाप पाया । हे निरंजन राव ! मैं तो तेरे वश में हूँ । जैसा चाहो । व्यवहार करो ।
फ़िर अष्टांगी ने विष्णु को दुलारते हुये कहा - हे पुत्र ! तुम मेरी बात सुनो । सच सच बताओ । जब तुम पिता के चरण स्पर्श करने गये । तब क्या हुआ ? पहले तो तुम्हारा शरीर गोरा था । तुम श्याम रंग कैसे हो गये ?
विष्णु ने कहा - हे माता ! पिता के दर्शन हेतु जब मैं पाताललोक पहुँचा । तो शेषनाग के पास पहुँच गया । वहां उसके विष के तेज से मैं सुस्त ( अचेत सा ) हो गया । मेरे शरीर में उसके विष का तेज समा गया । जिससे वह श्याम हो गया ।
तब एक आवाज हुयी - हे विष्णु ! तुम माता के पास लौट जाओ । यह मेरा सत्य वचन है कि जैसे ही सतयुग त्रेतायुग बीत जायेंगे । तब द्वापर में तुम्हारा कृष्ण अवतार होगा । उस समय तुम शेषनाग से अपना बदला लोगे । तब तुम यमुना नदी पर जाकर नाग का मान मर्दन करोगे । यह मेरा नियम है कि जो भी ऊँचा नीचे वाले को सताता है । उसका बदला वह मुझसे पाता है । जो जीव दूसरे को दुख देता है । उसे मैं दुख देता हूँ । हे माता ! उस आवाज को सुनकर मैं तुम्हारे पास आ गया । यही सत्य है । मुझे पिता के श्री चरण नहीं मिले ।
भवानी यह सुनकर प्रसन्न हो गयी । और बोली - हे पुत्र सुनो ! मैं तुम्हें तुम्हारे पिता से मिलाती हूँ । और तुम्हारे मन का भृम मिटाती हूँ । पहले तुम बाहर की स्थूल दृष्टि ( शरीर की आँखें ) छोङकर । भीतर की ग्यान दृष्टि ( अन्तर की आँख । तीसरी आँख ) से देखो । और अपने ह्रदय में मेरा वचन परखो ।
स्थूल देह के भीतर सूक्ष्म मन के स्वरूप को ही कर्ता समझो । मन के अलावा दूसरा और किसी को कर्ता न मानों ।
यह मन बहुत ही चंचल और गतिशील है । यह क्षण भर में स्वर्ग पाताल की दौङ लगाता है । और स्वछन्द होकर सब ओर विचरता है । मन एक क्षण में अनन्त कला दिखाता है । और इस मन को कोई नहीं देख पाता । मन को ही निराकार कहो । मन के ही सहारे दिन रात रहो ।
हे विष्णु ! बाहरी दुनियाँ से ध्यान हटाकर अंतर्मुखी हो जाओ । और अपनी सुरति और दृष्टि को पलटकर भृकुटि के मध्य ( भोहों के बीच आग्या चक्र ) पर या ह्रदय के शून्य में ज्योति को देखो । जहाँ ज्योति झिलमिल झालर सी प्रकाशित होती है ।
तब विष्णु ने अपनी स्वांस को घुमाकर भीतर आकाश की ओर दौङाया । और ( अंतर ) आकाश मार्ग में ध्यान लगाया । विष्णु ने ह्रदय गुफ़ा में प्रवेश कर ध्यान लगाया । ध्यान प्रकिया में विष्णु ने पहले स्वांस का संयम प्राणायाम से किया । कुम्भक में जब उन्होंने स्वांस को रोका । तो प्राण ऊपर उठकर ध्यान के केन्द्र शून्य 0 में आया । वहाँ विष्णु को अनहद नाद की गर्जना सुनाई दी । यह अनहद बाजा सुनते हुये विष्णु प्रसन्न हो गये । तब मन ने उन्हें सफ़ेद लाल काला पीला आदि रंगीन प्रकाश दिखाया ।
हे धर्मदास ! इसके बाद विष्णु को ..मन ने अपने आपको दिखाया । और ज्योति प्रकाश किया । जिसे देखकर वह प्रसन्न हो गये । और बोले - हे माता ! आपकी कृपा से आज मैंने ईश्वर को देखा ।
तब धर्मदास चौंककर बोले - हे सदगुरु कबीर साहब ! यह सुनकर मेरे भीतर एक भृम उत्पन्न हुआ है । अष्टांगी कन्या ने जो मन का ध्यान ? बताया । इससे तो समस्त जीव भरमा गये हैं ? यानी भृम में पङ गये हैं ?? ( इस बात पर विशेष गौर करें )
तब कबीर साहिब बोले - हे धर्मदास ! यह काल निरंजन का स्वभाव ही है कि इसके चक्कर में पङने से विष्णु सत्यपुरुष का भेद नहीं जान पाये । ( निरंजन ने अष्टांगी को पहले ही सचेत कर आदेश दे दिया था कि सत्यपुरुष का कोई भेद जानने न पाये । ऐसी माया फ़ैलाना ) अब उस कामिनी अष्टांगी की यह चाल देखो कि उसने अमृतस्वरूप सत्यपुरुष को छुपाकर विष रूप काल निरंजन को दिखाया ।
जिस ज्योति का ध्यान अष्टांगी ने बताया । उस ज्योति से काल निरंजन को दूसरा न समझो । हे धर्मदास ! अब तुम यह विलक्षण गूढ सत्य सुनो । ज्योति का जैसा प्रकट रूप होता है । वैसा ही गुप्त रूप भी है । जो ह्रदय के भीतर है । वह ही बाहर देखने में भी आता है ।
जब कोई मनुष्य दीपक जलाता है । तो उस ज्योति के भाव स्वभाव को देखो । और निर्णय करो । उस ज्योति को देखकर पतंगा बहुत खुश होता है । और प्रेमवश अपना भला जानकर उसके पास आता है । लेकिन ज्योति को स्पर्श करते ही पतंगा भस्म हो जाता है । इस प्रकार अग्यानता में मतबाला हुआ वह पतंगा उसमें जल मरता है । ज्योति स्वरूप काल निरंजन भी ऐसा ही है । जो भी जीवात्मा उसके चक्कर में आ जाता है । क्रूर काल उसे छोङता नहीं ।
इस काल ने करोंङो विष्णु अवतारों को खाया । और अनेकों बृह्मा शंकर को खाया । तथा अपने इशारे पर नचाया । काल द्वारा दिये जाने वाले जीवों के कौन कौन से दुख को कहूँ ? वह लाखों जीव नित्य ही खाता है । ऐसा वह भयंकर काल निर्दयी है ।
तब धर्मदास बोले - हे साहिब ! मेरे मन में एक संशय है । अष्टांगी को सत्यपुरुष ने उत्पन्न किया था । और जिस प्रकार उत्पन्न किया । वह सब कथा मैंने जानी । काल निरंजन ने उसे भी खा लिया । फ़िर वह सत्यपुरुष के प्रताप से बाहर आयी ।
फ़िर उस अष्टांगी ने ऐसा धोखा क्यों किया कि काल निरंजन को तो प्रकट किया । और सत्यपुरुष का भेद गुप्त रखा ? यहाँ तक कि सत्यपुरुष का भेद उसने अपने पुत्रों बृह्मा विष्णु महेश को भी नहीं बताया । और उनसे भी काल निरंजन का ध्यान कराया । यह अष्टांगी ने कैसा चरित्र किया कि सत्यपुरुष को छोङकर काल निरंजन की साथी हो गयी । अर्थात जिन सत्यपुरुष का वह अंश थी । उसका ध्यान क्यों नहीं कराया ?
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास सुनो । नारी का स्वभाव जैसा होता है । वह अब तुम्हें बताता हूँ । जिसके घर में पुत्री होती है । वह अनेक जतन करके उसे पालता पोसता है । वह उसे पहनने को वस्त्र । खाने को भोजन । सोने को शैय्या । रहने को घर आदि सब सुख देता है । और घर बाहर सब जगह उस पर विश्वास करता है । उसके माता पिता उसके हित में यग्य आदि करा के विवाह करते हुये विधिपूर्वक उसे विदा करते हैं । माता पिता के घर से विदा होकर जब वह अपने पति के घर आ जाती है । तो उसके साथ सब गुणों में होकर प्रेम में इतनी मगन हो जाती है कि अपने माता पिता सबको भुला देती है ।
हे धर्मदास ! नारी का यही स्वभाव है । इसलिये नारी स्वभाववश अष्टांगी भी पराये स्वभाव वाली ही हो गयी । वह काल निरंजन के साथ होकर उसी की होकर रह गयी । और उसी के रंग में रंग गयी । इसीलिये उसने सत्यपुरुष का भेद प्रकट नहीं किया । और अपने पुत्र विष्णु को काल निरंजन का ही रूप दिखाया ।
इस पर निरंजन उसके ध्यान में बोला - मुझे सत्य बताओ ।
फ़िर निरंजन ने कहा - बृह्मा ने मेरा दर्शन नहीं पाया । उसने तुम्हारे पास आकर झूठी गवाही दिलवायी । उन तीनों ने झूठ बनाकर सब कहा है । वह सब मत मानों । वह झूठ है ।
अष्टांगी को यह सुनकर बहुत क्रोध आया । और उन्होंने बृह्मा को शाप दिया - हे बृह्मा ! तुमने मुझसे आकर झूठ बोला । अतः कोई तुम्हारी पूजा नहीं करेगा । एक तो तुम झूठ बोले । और दूसरे तुमने न करने योग्य कर्म यानी दुष्कर्म करके बहुत बङा पाप अपने सिर ले लिया है ।
आगे जो भी तुम्हारी शाखा संतति होगी । वह बहुत झूठ और पाप करेगी । तुम्हारी संतति ( बृह्मा के वंश अथवा बृह्मा के नाम से पुकारे जाने वाले ब्राह्मण ) प्रकट में तो बहुत नियम धर्म वृत उपवास पूजा शुचि आदि करेंगे । परन्तु उनके मन में भीतर पाप मैल का विस्तार रहेगा । वे तुम्हारी संतान विष्णु भक्तों से अहंकार करेंगी । इसलिये नरक को प्राप्त होंगी । तुम्हारे वंश वाले पुराणों की धर्म कथाओं को लोगों को समझायेंगे । परन्तु स्वयँ उसका आचरण न करके दुख पायेंगे । उनसे जो और लोग ग्यान की बात सुनेंगे । उसके अनुसार वे भक्ति कर सत्य को बतायेंगे । ब्राह्मण परमात्मा का ग्यान और भक्ति को छोङकर दूसरे देवताओं को ईश्वर का अंश बताकर उनकी भक्ति पूजा करायेंगे । औरों की निंदा करके विकराल काल के मुँह में जायेंगे ।
अनेक देवी देवताओं की बहुत प्रकार से पूजा करके यजमानों से दक्षिणा लेंगे । और दक्षिणा के कारण पशु बलि में पशुओं का गला कटवायेंगे । या दक्षिणा के लालच में यजमानों को बेबकूफ़ बनायेंगे । फ़िर वे जिसको शिष्य बनायेंगे । उसे भी परमार्थ या कल्याण का रास्ता नहीं दिखायेंगे । परमार्थ के तो वे पास भी नहीं जायेंगे । परन्तु स्वार्थ के लिये वे सबको अपनी बात समझायेंगे । वे आप स्वार्थी होकर सबको अपनी स्वार्थ सिद्ध का ग्यान सुनायेंगे । और संसार में अपनी सेवा पूजा मजबूत करेंगे । अपने आपको ऊँचा और औरों को छोटा कहेंगे । इस प्रकार हे बृह्मा ! तेरे वंशज तेरे ही जैसे झूठे और कपटी होंगे ।
अष्टांगी का ऐसा शाप सुनकर बृह्मा मूर्छित होकर गिर पङे ।
फ़िर अष्टांगी ने गायत्री को शाप दिया - हे गायत्री ! बृह्मा के साथ कामभावना से हो जाने से मनुष्य जन्म में तेरे पाँच पति होंगे । हे गायत्री ! तेरे गाय रूपी शरीर में वैल पति होंगे । और वे सात पाँच से भी अधिक होंगे । पशु योनि में तू गाय बनकर जन्म लेगी । और न खाने योग्य पदार्थ खायेगी । तुमने अपने स्वार्थ के लिये मुझसे झूठ बोला । और झूठे वचन कहे । क्या सोचकर तुमने झूठी गवाही दी ?
गायत्री ने अपनी गलती मानकर शाप को स्वीकार कर लिया । इसके बाद अष्टांगी ने सावित्री की ओर देखा । और बोली - तुमने अपना नाम तो सुन्दर पुहुपावती रखवा लिया । परन्तु झूठ बोलकर तुमने अपने जन्म का नाश कर लिया । हे पुहुपावती ! सुन । तुम्हारे विश्वास पर । तुमसे कोई आशा रखकर कोई तुम्हें नहीं पूजेगा । अब दुर्गंध के स्थान पर तुम्हारा वास होगा । काम विषय की आशा लेकर अब नरक की यातना भोगो । जान बूझकर जो तुम्हें सींचकर लगायेगा । उसके वंश की हानि होगी । अब तुम जाओ । और वृक्ष बनकर जन्मों । तुम्हारा नाम केवङा केतकी होगा ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! माता अष्टांगी के शाप के कारण तीनों बृह्मा गायत्री और सावित्री बहुत दुखी हो गये । अपने पापकर्म से वे बुद्धिहीन और दुर्बल हो गये । काम विषय में प्रवृत कराने वाली कामिनी स्त्री काल रूप काम ( वासना की इच्छा ) की अति तीवृ कला है । इसने सबको अपने शरीर के सुन्दर चर्म से डसा है । शंकर बृह्मा सनकादि और नारद जैसे कोई भी इससे बच नहीं पाये ।
हे धर्मदास ! इससे कोई बिरला ही सन्त साधक बच पाता है । जो सदगुरु के सत्य शब्दों को भली प्रकार अपनाता है । सदगुरु के शब्द प्रताप से ये काल कला मनुष्य को नहीं व्यापती । अर्थात कोई हानि नहीं करती । जो कल्याण की इच्छा रखने वाला भक्त मन वचन कर्म से सतगुरु के श्री चरणों की शरण गृहण करता है । पाप उसके पास नहीं आता ।
कबीर साहब आगे बोले - हे धर्मदास ! बृह्मा विष्णु महेश तीनों को शाप देने के बाद अष्टांगी माता मन में पछताने लगी । उसने सोचा । शाप देते समय मुझे बिलकुल दया नहीं आयी । अब न जाने निरंजन मेरे साथ कैसा व्यवहार करेगा ?
उसी समय आकाशवाणी हुयी - हे भवानी ! तुमने यह क्या किया ? मैंने तो तुम्हें सृष्टि की रचना के लिये भेजा था । परन्तु तुमने शाप देकर यह कैसा चरित्र किया ? हे भवानी ! ऊँचा और बलबान ही निर्बल को सताता है । और यह निश्चित है कि वह इसके बदले दुख पाता है । इसलिये जब द्वापर युग आयेगा । तब तुम्हारे भी पाँच पति होंगे ।
जब भवानी ने अपने शाप के बदले निरंजन का शाप सुना । तो मन में सोच विचार किया । पर मुँह से कुछ न बोली । वह सोचने लगी - मैंने बदले में शाप पाया । हे निरंजन राव ! मैं तो तेरे वश में हूँ । जैसा चाहो । व्यवहार करो ।
फ़िर अष्टांगी ने विष्णु को दुलारते हुये कहा - हे पुत्र ! तुम मेरी बात सुनो । सच सच बताओ । जब तुम पिता के चरण स्पर्श करने गये । तब क्या हुआ ? पहले तो तुम्हारा शरीर गोरा था । तुम श्याम रंग कैसे हो गये ?
विष्णु ने कहा - हे माता ! पिता के दर्शन हेतु जब मैं पाताललोक पहुँचा । तो शेषनाग के पास पहुँच गया । वहां उसके विष के तेज से मैं सुस्त ( अचेत सा ) हो गया । मेरे शरीर में उसके विष का तेज समा गया । जिससे वह श्याम हो गया ।
तब एक आवाज हुयी - हे विष्णु ! तुम माता के पास लौट जाओ । यह मेरा सत्य वचन है कि जैसे ही सतयुग त्रेतायुग बीत जायेंगे । तब द्वापर में तुम्हारा कृष्ण अवतार होगा । उस समय तुम शेषनाग से अपना बदला लोगे । तब तुम यमुना नदी पर जाकर नाग का मान मर्दन करोगे । यह मेरा नियम है कि जो भी ऊँचा नीचे वाले को सताता है । उसका बदला वह मुझसे पाता है । जो जीव दूसरे को दुख देता है । उसे मैं दुख देता हूँ । हे माता ! उस आवाज को सुनकर मैं तुम्हारे पास आ गया । यही सत्य है । मुझे पिता के श्री चरण नहीं मिले ।
भवानी यह सुनकर प्रसन्न हो गयी । और बोली - हे पुत्र सुनो ! मैं तुम्हें तुम्हारे पिता से मिलाती हूँ । और तुम्हारे मन का भृम मिटाती हूँ । पहले तुम बाहर की स्थूल दृष्टि ( शरीर की आँखें ) छोङकर । भीतर की ग्यान दृष्टि ( अन्तर की आँख । तीसरी आँख ) से देखो । और अपने ह्रदय में मेरा वचन परखो ।
स्थूल देह के भीतर सूक्ष्म मन के स्वरूप को ही कर्ता समझो । मन के अलावा दूसरा और किसी को कर्ता न मानों ।
यह मन बहुत ही चंचल और गतिशील है । यह क्षण भर में स्वर्ग पाताल की दौङ लगाता है । और स्वछन्द होकर सब ओर विचरता है । मन एक क्षण में अनन्त कला दिखाता है । और इस मन को कोई नहीं देख पाता । मन को ही निराकार कहो । मन के ही सहारे दिन रात रहो ।
हे विष्णु ! बाहरी दुनियाँ से ध्यान हटाकर अंतर्मुखी हो जाओ । और अपनी सुरति और दृष्टि को पलटकर भृकुटि के मध्य ( भोहों के बीच आग्या चक्र ) पर या ह्रदय के शून्य में ज्योति को देखो । जहाँ ज्योति झिलमिल झालर सी प्रकाशित होती है ।
तब विष्णु ने अपनी स्वांस को घुमाकर भीतर आकाश की ओर दौङाया । और ( अंतर ) आकाश मार्ग में ध्यान लगाया । विष्णु ने ह्रदय गुफ़ा में प्रवेश कर ध्यान लगाया । ध्यान प्रकिया में विष्णु ने पहले स्वांस का संयम प्राणायाम से किया । कुम्भक में जब उन्होंने स्वांस को रोका । तो प्राण ऊपर उठकर ध्यान के केन्द्र शून्य 0 में आया । वहाँ विष्णु को अनहद नाद की गर्जना सुनाई दी । यह अनहद बाजा सुनते हुये विष्णु प्रसन्न हो गये । तब मन ने उन्हें सफ़ेद लाल काला पीला आदि रंगीन प्रकाश दिखाया ।
हे धर्मदास ! इसके बाद विष्णु को ..मन ने अपने आपको दिखाया । और ज्योति प्रकाश किया । जिसे देखकर वह प्रसन्न हो गये । और बोले - हे माता ! आपकी कृपा से आज मैंने ईश्वर को देखा ।
तब धर्मदास चौंककर बोले - हे सदगुरु कबीर साहब ! यह सुनकर मेरे भीतर एक भृम उत्पन्न हुआ है । अष्टांगी कन्या ने जो मन का ध्यान ? बताया । इससे तो समस्त जीव भरमा गये हैं ? यानी भृम में पङ गये हैं ?? ( इस बात पर विशेष गौर करें )
तब कबीर साहिब बोले - हे धर्मदास ! यह काल निरंजन का स्वभाव ही है कि इसके चक्कर में पङने से विष्णु सत्यपुरुष का भेद नहीं जान पाये । ( निरंजन ने अष्टांगी को पहले ही सचेत कर आदेश दे दिया था कि सत्यपुरुष का कोई भेद जानने न पाये । ऐसी माया फ़ैलाना ) अब उस कामिनी अष्टांगी की यह चाल देखो कि उसने अमृतस्वरूप सत्यपुरुष को छुपाकर विष रूप काल निरंजन को दिखाया ।
जिस ज्योति का ध्यान अष्टांगी ने बताया । उस ज्योति से काल निरंजन को दूसरा न समझो । हे धर्मदास ! अब तुम यह विलक्षण गूढ सत्य सुनो । ज्योति का जैसा प्रकट रूप होता है । वैसा ही गुप्त रूप भी है । जो ह्रदय के भीतर है । वह ही बाहर देखने में भी आता है ।
जब कोई मनुष्य दीपक जलाता है । तो उस ज्योति के भाव स्वभाव को देखो । और निर्णय करो । उस ज्योति को देखकर पतंगा बहुत खुश होता है । और प्रेमवश अपना भला जानकर उसके पास आता है । लेकिन ज्योति को स्पर्श करते ही पतंगा भस्म हो जाता है । इस प्रकार अग्यानता में मतबाला हुआ वह पतंगा उसमें जल मरता है । ज्योति स्वरूप काल निरंजन भी ऐसा ही है । जो भी जीवात्मा उसके चक्कर में आ जाता है । क्रूर काल उसे छोङता नहीं ।
इस काल ने करोंङो विष्णु अवतारों को खाया । और अनेकों बृह्मा शंकर को खाया । तथा अपने इशारे पर नचाया । काल द्वारा दिये जाने वाले जीवों के कौन कौन से दुख को कहूँ ? वह लाखों जीव नित्य ही खाता है । ऐसा वह भयंकर काल निर्दयी है ।
तब धर्मदास बोले - हे साहिब ! मेरे मन में एक संशय है । अष्टांगी को सत्यपुरुष ने उत्पन्न किया था । और जिस प्रकार उत्पन्न किया । वह सब कथा मैंने जानी । काल निरंजन ने उसे भी खा लिया । फ़िर वह सत्यपुरुष के प्रताप से बाहर आयी ।
फ़िर उस अष्टांगी ने ऐसा धोखा क्यों किया कि काल निरंजन को तो प्रकट किया । और सत्यपुरुष का भेद गुप्त रखा ? यहाँ तक कि सत्यपुरुष का भेद उसने अपने पुत्रों बृह्मा विष्णु महेश को भी नहीं बताया । और उनसे भी काल निरंजन का ध्यान कराया । यह अष्टांगी ने कैसा चरित्र किया कि सत्यपुरुष को छोङकर काल निरंजन की साथी हो गयी । अर्थात जिन सत्यपुरुष का वह अंश थी । उसका ध्यान क्यों नहीं कराया ?
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास सुनो । नारी का स्वभाव जैसा होता है । वह अब तुम्हें बताता हूँ । जिसके घर में पुत्री होती है । वह अनेक जतन करके उसे पालता पोसता है । वह उसे पहनने को वस्त्र । खाने को भोजन । सोने को शैय्या । रहने को घर आदि सब सुख देता है । और घर बाहर सब जगह उस पर विश्वास करता है । उसके माता पिता उसके हित में यग्य आदि करा के विवाह करते हुये विधिपूर्वक उसे विदा करते हैं । माता पिता के घर से विदा होकर जब वह अपने पति के घर आ जाती है । तो उसके साथ सब गुणों में होकर प्रेम में इतनी मगन हो जाती है कि अपने माता पिता सबको भुला देती है ।
हे धर्मदास ! नारी का यही स्वभाव है । इसलिये नारी स्वभाववश अष्टांगी भी पराये स्वभाव वाली ही हो गयी । वह काल निरंजन के साथ होकर उसी की होकर रह गयी । और उसी के रंग में रंग गयी । इसीलिये उसने सत्यपुरुष का भेद प्रकट नहीं किया । और अपने पुत्र विष्णु को काल निरंजन का ही रूप दिखाया ।
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