अभी कुछ ही दिन पहले हरियाणा के सुशील जी ने मुझसे एक प्रश्न पूछा था । जिसका मैंने सही उत्तर दे दिया । उस पर सुशील जी चकित हो गये । और उन्होंने ये प्रतिक्रिया की - आपने कहा था कि वास्तविक हँसदीक्षा के बारे में तमाम मंडलों के पुराने साधक भी ठीक से नहीं जानते ( 50 -50 साल पुराने भी ) और आपने ये भी कहा था कि इससे आगे की जो बडी दीक्षा है ( परमहँस दीक्षा ) वो इस समय पूरे विश्व में सिर्फ़ आपके मंडल में ही दी जाती है । क्या ये सब 100 % सच है ?
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वास्तव में सुशील जी का चकित होना कुछ हद तक सही ही है । आईये । इसके पीछे क्या कारण छुपे होते हैं ? इस पर चर्चा करते हैं ।
सबसे पहले कबीर साहब को लेते हैं । इनके 10 000 { कोई कोई इस संख्या को 70 000 भी बताता है । } शिष्य हुये थे । जिनमें सिर्फ़ चार को पूरा ग्यान प्राप्त हुआ था । अब 10 000 को ही मान लिया जाय । तो सिर्फ़ 4 शिष्यों को ग्यान होना कि वे आगे गुरु बन सकें । बङी अटपटी बात लगती है । इसका क्या मतलब हुआ । कबीर साहब में कमी थी ? या उनके शिष्यों में कमी थी ? जाहिर है । कबीर साहब तो पूर्ण गुरु ही थे । निर्विवाद थे । जरूर उनके शिष्यों में ही कमी रही होगी ।
रामकृष्ण परमहँस के शिष्यों में सिर्फ़ विवेकानन्द जी को पूरा ग्यान प्राप्त हुआ था । उनके बाकी शिष्यों को नहीं । वो भी अन्त समय में । और इससे पहले कि इस ग्यान का किसी को उत्तराधिकारी बनाते । उन्होंने शरीर त्याग दिया ।
रैदास जी की शिष्या मीरा को ही सिर्फ़ लास्ट तक का ग्यान प्राप्त हुआ था । और मीरा जी ने कोई शिष्य नहीं बनाया था । जबकि रैदास जी के ढेरों अन्य शिष्य रहे होगे ।
ऐसे ही अनेक सच्चे सतगुरुओं के उदाहरण दिये जा सकते हैं । जिनके किसी एक या दो पूर्ण समर्पित शिष्य को ही ग्यान प्राप्त हुआ ।
लेकिन इनकी परम्परा लम्बे समय तक चलती रही । कबीर रैदास आदि की परम्परा आज तक चली आ रही है ।
मेरे मन में एक प्रश्न अक्सर उठा । सभी सन्तमत वाले यह बात स्वीकार करते हैं कि एक समय में शरीरधारी सदगुरु एक ही होते हैं । गुरु अनेक हो सकते हैं ।
अब चलिये । इसी सिद्धांत को मान लेते हैं । तो एक ही मिशन की प्रमुख शाखाओं में अनेक महात्माओं को उनके शिष्य और वह मिशन सतगुरु कहता है । फ़िर उसकी और छोटी शाखाओं के आश्रम में भी एक एक सतगुरु विराजमान होते हैं ।
दरअसल ये शब्दों का ऐसा खेल है कि अपने नाम के आगे सदगुरु से नीचा कोई लगाना ही नहीं चाहता । दरअसल ये गद्दी के उत्तराधिकारी होते हैं । ग्यान के उत्तराधिकारी नहीं ।
तो अब इनसे ये पूछा जाय कि सन्तमत जब ये कहता है कि एक टाइम में एक ही सतगुरु होता है । और उसी ग्यान पर आधारित आप बात कर रहे हो । तो फ़िर आपके ही एक ही मिशन में इतने सतगुरु कैसे हो गये ?? दुनियाँ में एक ही टाइम में इतने सतगुरु होने का क्या कारण है ? ये सवाल किसी के मन में नहीं आता । और आपस में भी ये टक्कर के दो या अधिक मंडल वाले मिलते हैं । तब भी ऐसा सवाल नहीं करते ।
अब मैं सुशील जी की शंका का समाधान करता हूँ । उदाहरण के लिये कामिनी जी ने जिस संस्था का जिक्र किया था । उसके संस्थापक को निश्चय ही बृह्म तक का ग्यान प्राप्त हुआ था । और वह सच्चा भी था । लेकिन दुर्भाग्य से इस ग्यान का भी सार गृहण करने वाला 40 % योग्य शिष्य भी उन्हें मुश्किल से मिला ।
बाद में उसे { शिष्य को } 5 % वाला भी नहीं मिला । और इस तरह इस संस्था के लिये ये आंतरिक ग्यान किताबी होकर रह गया । बस मान लो । हम आत्मा है । और प्रभु की शरण में हैं । ऐसे प्रार्थना करो । वैसे प्रार्थना करो । हो गया मोक्ष ।
अब इनके ध्यान तरीके पर गौर करो । इससे अच्छा तरीका बाबा रामदेव का कपाल भांति । अनुलोम विलोम । कुम्भक { ॐ को दीर्घ जपना } आदि है ।
ये आप तरीके से करें । तो वाकई यौगिक रूप से मानसिक और शारीरिक लाभ होगा । पर आत्मिक लाभ इससे नहीं होगा । इस तरह ये संस्था बस एक स्कूल की तरह बनकर रह गयी । जिससे लोग शुद्ध आचरण और ग्यान की बेसिक थ्योरी सीखते हैं ।
दूसरे मैंने एक बात कई जगह कही है । हरेक संस्था पर उसके योगी या सन्त गुरु की योग पावर के हिसाब से समय की " आन " लगी होती है कि ये इतने समय तक ? प्रभावशाली रहेगी । उसके बाद कृमशः उसका प्रभाव क्षीण होता जायेगा । और ऐसा ही हो जाता है ।
रही सही कसर बाद के खिलाङी { जो काफ़ी बाद में ऐसे आश्रमों में गुरु सतगुरु आदि बनते हैं } अपने मनमुखी भाव । अपना अलग प्रभाव जमाने की चेष्टा आदि के कारण उस ग्यान का अपनी अटपटी और सारहीन बातों से कचरा करके रख देते हैं ।
तो सुशील जी आप ऐसी किसी भी संस्था का इतिहास ले लें । उसके संस्थापक गुरु या सतगुरु । जिन्होंने काफ़ी कठिनाई से ग्यान प्राप्त किया । काफ़ी मुसीवतें झेलकर प्राप्त किया । उन तक । उनके सामने ही उसी टाइम में जो खास शिष्य थे । उन तक । उसके बाद " उन " शिष्यों के कुछ शिष्यों को 30 - 40 % । और उसके बाद । आन के अनुसार 10 या 15 % ग्यान ही रह जाता है । और ये प्रभाव भी खत्म होते ही ग्यान किताबी होकर रह जाता है । बाद में मनमुखी आचरणों वाले के हाथ संस्था पहुँच जाने पर ये ग्यान संकृमित होकर दूषित हो जाता है । और तभी लोगों का ग्यान पर से विश्वास उठ जाता है ।
इसी उदाहरण से कोई भी असली हकीकत समझ सकता है । हमारी भी यदि ऐसी कोई संस्था बनती है । तो अधिकतम 120 साल बाद ये बात आधी भी नहीं रहेगी । जो आज है ।
अब मैं आप सबको एक रहस्य की बात बताऊँ । ये संस्थायें भी चलती तो ईश्वर की इच्छा से ही हैं । तब ऐसा क्यों ?
ये दरअसल बाद में लोगों मैं ग्यान । गुरु । सतगुरु । परमात्मा के प्रति भाव बनाने का कार्य करती हैं । इन स्कूलों से निकले योग्य शिष्य अपने पुण्य कर्मों और उच्च भावों के अनुसार स्वतः ही गुरु और सतगुरु के पास पहुँच जाते हैं ।
और आगे का कार्यकृम शुरू हो जाता है । अतः इनका भी उपयोग है ।
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वास्तव में सुशील जी का चकित होना कुछ हद तक सही ही है । आईये । इसके पीछे क्या कारण छुपे होते हैं ? इस पर चर्चा करते हैं ।
सबसे पहले कबीर साहब को लेते हैं । इनके 10 000 { कोई कोई इस संख्या को 70 000 भी बताता है । } शिष्य हुये थे । जिनमें सिर्फ़ चार को पूरा ग्यान प्राप्त हुआ था । अब 10 000 को ही मान लिया जाय । तो सिर्फ़ 4 शिष्यों को ग्यान होना कि वे आगे गुरु बन सकें । बङी अटपटी बात लगती है । इसका क्या मतलब हुआ । कबीर साहब में कमी थी ? या उनके शिष्यों में कमी थी ? जाहिर है । कबीर साहब तो पूर्ण गुरु ही थे । निर्विवाद थे । जरूर उनके शिष्यों में ही कमी रही होगी ।
रामकृष्ण परमहँस के शिष्यों में सिर्फ़ विवेकानन्द जी को पूरा ग्यान प्राप्त हुआ था । उनके बाकी शिष्यों को नहीं । वो भी अन्त समय में । और इससे पहले कि इस ग्यान का किसी को उत्तराधिकारी बनाते । उन्होंने शरीर त्याग दिया ।
रैदास जी की शिष्या मीरा को ही सिर्फ़ लास्ट तक का ग्यान प्राप्त हुआ था । और मीरा जी ने कोई शिष्य नहीं बनाया था । जबकि रैदास जी के ढेरों अन्य शिष्य रहे होगे ।
ऐसे ही अनेक सच्चे सतगुरुओं के उदाहरण दिये जा सकते हैं । जिनके किसी एक या दो पूर्ण समर्पित शिष्य को ही ग्यान प्राप्त हुआ ।
लेकिन इनकी परम्परा लम्बे समय तक चलती रही । कबीर रैदास आदि की परम्परा आज तक चली आ रही है ।
मेरे मन में एक प्रश्न अक्सर उठा । सभी सन्तमत वाले यह बात स्वीकार करते हैं कि एक समय में शरीरधारी सदगुरु एक ही होते हैं । गुरु अनेक हो सकते हैं ।
अब चलिये । इसी सिद्धांत को मान लेते हैं । तो एक ही मिशन की प्रमुख शाखाओं में अनेक महात्माओं को उनके शिष्य और वह मिशन सतगुरु कहता है । फ़िर उसकी और छोटी शाखाओं के आश्रम में भी एक एक सतगुरु विराजमान होते हैं ।
दरअसल ये शब्दों का ऐसा खेल है कि अपने नाम के आगे सदगुरु से नीचा कोई लगाना ही नहीं चाहता । दरअसल ये गद्दी के उत्तराधिकारी होते हैं । ग्यान के उत्तराधिकारी नहीं ।
तो अब इनसे ये पूछा जाय कि सन्तमत जब ये कहता है कि एक टाइम में एक ही सतगुरु होता है । और उसी ग्यान पर आधारित आप बात कर रहे हो । तो फ़िर आपके ही एक ही मिशन में इतने सतगुरु कैसे हो गये ?? दुनियाँ में एक ही टाइम में इतने सतगुरु होने का क्या कारण है ? ये सवाल किसी के मन में नहीं आता । और आपस में भी ये टक्कर के दो या अधिक मंडल वाले मिलते हैं । तब भी ऐसा सवाल नहीं करते ।
अब मैं सुशील जी की शंका का समाधान करता हूँ । उदाहरण के लिये कामिनी जी ने जिस संस्था का जिक्र किया था । उसके संस्थापक को निश्चय ही बृह्म तक का ग्यान प्राप्त हुआ था । और वह सच्चा भी था । लेकिन दुर्भाग्य से इस ग्यान का भी सार गृहण करने वाला 40 % योग्य शिष्य भी उन्हें मुश्किल से मिला ।
बाद में उसे { शिष्य को } 5 % वाला भी नहीं मिला । और इस तरह इस संस्था के लिये ये आंतरिक ग्यान किताबी होकर रह गया । बस मान लो । हम आत्मा है । और प्रभु की शरण में हैं । ऐसे प्रार्थना करो । वैसे प्रार्थना करो । हो गया मोक्ष ।
अब इनके ध्यान तरीके पर गौर करो । इससे अच्छा तरीका बाबा रामदेव का कपाल भांति । अनुलोम विलोम । कुम्भक { ॐ को दीर्घ जपना } आदि है ।
ये आप तरीके से करें । तो वाकई यौगिक रूप से मानसिक और शारीरिक लाभ होगा । पर आत्मिक लाभ इससे नहीं होगा । इस तरह ये संस्था बस एक स्कूल की तरह बनकर रह गयी । जिससे लोग शुद्ध आचरण और ग्यान की बेसिक थ्योरी सीखते हैं ।
दूसरे मैंने एक बात कई जगह कही है । हरेक संस्था पर उसके योगी या सन्त गुरु की योग पावर के हिसाब से समय की " आन " लगी होती है कि ये इतने समय तक ? प्रभावशाली रहेगी । उसके बाद कृमशः उसका प्रभाव क्षीण होता जायेगा । और ऐसा ही हो जाता है ।
रही सही कसर बाद के खिलाङी { जो काफ़ी बाद में ऐसे आश्रमों में गुरु सतगुरु आदि बनते हैं } अपने मनमुखी भाव । अपना अलग प्रभाव जमाने की चेष्टा आदि के कारण उस ग्यान का अपनी अटपटी और सारहीन बातों से कचरा करके रख देते हैं ।
तो सुशील जी आप ऐसी किसी भी संस्था का इतिहास ले लें । उसके संस्थापक गुरु या सतगुरु । जिन्होंने काफ़ी कठिनाई से ग्यान प्राप्त किया । काफ़ी मुसीवतें झेलकर प्राप्त किया । उन तक । उनके सामने ही उसी टाइम में जो खास शिष्य थे । उन तक । उसके बाद " उन " शिष्यों के कुछ शिष्यों को 30 - 40 % । और उसके बाद । आन के अनुसार 10 या 15 % ग्यान ही रह जाता है । और ये प्रभाव भी खत्म होते ही ग्यान किताबी होकर रह जाता है । बाद में मनमुखी आचरणों वाले के हाथ संस्था पहुँच जाने पर ये ग्यान संकृमित होकर दूषित हो जाता है । और तभी लोगों का ग्यान पर से विश्वास उठ जाता है ।
इसी उदाहरण से कोई भी असली हकीकत समझ सकता है । हमारी भी यदि ऐसी कोई संस्था बनती है । तो अधिकतम 120 साल बाद ये बात आधी भी नहीं रहेगी । जो आज है ।
अब मैं आप सबको एक रहस्य की बात बताऊँ । ये संस्थायें भी चलती तो ईश्वर की इच्छा से ही हैं । तब ऐसा क्यों ?
ये दरअसल बाद में लोगों मैं ग्यान । गुरु । सतगुरु । परमात्मा के प्रति भाव बनाने का कार्य करती हैं । इन स्कूलों से निकले योग्य शिष्य अपने पुण्य कर्मों और उच्च भावों के अनुसार स्वतः ही गुरु और सतगुरु के पास पहुँच जाते हैं ।
और आगे का कार्यकृम शुरू हो जाता है । अतः इनका भी उपयोग है ।
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