22 फ़रवरी 2012

संसार की आसक्ति कैसे दूर हो ?

प्रश्न - भजन करते समय सुरत ऊपर की ओर नहीं जा पाती । और अनेक प्रकार की तरंगों में फ़ंस जाती है । लगता है कि मुझमें संसार की प्रबल आसक्ति डेरा जमाये है । संसार की यह आसक्ति कैसे दूर हो ?
उत्तर - कुछ अभ्यासी ऐसे होते हैं । जिनकी दुनियां की आसक्ति इतनी प्रबल होती है कि जब वे भजन । ध्यान करने बैठते हैं । तो बुरी बुरी तरंगे मन में आती है । जो साधक के भजन । सुमिरन । ध्यान में विघ्न बाधा उत्पन्न करती हैं । जिज्ञासु उन्हीं के प्रवाह में बहने लगता है । न तो वे भजन । सुमिरन का आनन्द ले पाते हैं । और न ही श्री सदगुरू के स्वरूप के ध्यान का ही आनन्द ले पाते हैं । ऐसे अभ्यासी स्वयं उन तरंगो को रोकने में असमर्थ हो जाते हैं । या विषयों के ख्याल में इतने डूब जाते हैं कि उन तरंगो को रोकना उनके वश में नहीं होता है । इससे यह स्पष्ट होता है कि - उनकी दुनियां की आसक्ति बहुत प्रबल है । या दूसरे शब्दों में यह कि उनके मन में सांसारिक तथा विषय भोगों के पदार्थों की चाह इतनी गहरी जड पकडे हुए है  कि भजन । सुमिरन । ध्यान के समय भी वे उसी भोग विलास के चिन्तन में डूबे रहते हैं । सन्त महापुरूषों ने कहा है कि ऐसे अभ्यासियों को चाहिये कि वे अपने अभ्यास को धीरे धीरे चलने दें । बन्द न करें ।
बल्कि भजन । सुमिरन । ध्यान के साथ साथ । कुछ कुछ गुरू के साथ बिताये हुए समय के तथा स्थान का ख्याल करते हुए गान करते रहें । और उसके सारांश पर ध्यान देते रहें । बीच बीच में समय देख देख कर भजन । सुमिरन । ध्यान का अभ्यास जारी रखें । ऐसा करते रहने से कुछ दिनों के अभ्यास के द्वारा मन और सुरत में कुछ निर्मलता आने लग जायेगी । तब धीरे धीरे भजन सुमिरन और ध्यान की साधना के अभ्यास में समय बढाते

जाना चाहिये । ऐसा सदा करते रहने से मन का रूझान भजन ध्यान की सुरति में सराबोर होता जायेगा । और माया तथा संसार की तरफ़ से मन हटता जायेगा ।
परन्तु साधक को सदैव सतर्क रहना चाहिये कि वह माया के आकर्षण वाली वस्तुओं के प्रभाव में न जकडे । सदा उधर से मन मोडे रहे । श्री सदगुरू देव जी महाराज के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में मन को सदा जोडे रहे । तथा बुरे कार्यों से सदा डरा करे । जिससे मन । वचन । कर्म से कोई बुरा पाप कर्म न बन पडे । ऐसा सोच विचार । निरख परख सदैव करते रहना चाहिये । यदि ऐसा न हुआ । तो परमार्थ की कमाई में यानी भजन । भक्ति में । तथा भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में बडी हानि होती है । जब मन की बिखरी हुई शक्ति की किरण भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन और ध्यान से एकत्रित होती है । तब साधक या जिज्ञासु चमत्कारी कार्य कर सकते हैं ।
गुरू केवल दो अक्षरों से निर्मित एक शब्द ही नहीं है । अपितु पूर्ण रूप से आन्तरिक अन्धकार को दूर करने का

एकमात्र समर्थ और सशक्त माध्यम है । मानव के ह्रदय में जो माया का अन्धकार छाया हुआ है । उसको दूर करने का केवल यही के उपाय है । जिसे गुरू शब्द का भजन । सुमिरन । ध्यान कहा गया है । केवल एक ही उपाय है कि हम बहुत श्रद्धापूर्वक अपने ह्रदय से गुरू शब्द का सुमिरन करें । और केवल इन दो अक्षरों का स्मरण ही पूरे शरीर को आन्तरिक उज्ज्वलता से भर देता है ।  गंगा जल से स्नान करा देता है । पूरे आकाश में उडने की क्षमता प्रदान कर देता है । अर्थात विहंगम मार्गी बना देता है । क्योंकि ये केवल दो अक्षरों का शब्द ही नहीं । अपितु चेतना युक्त मंत्र शक्ति का संस्कार है । वेदों का सार तत्त्व है । उपनिषदों का निचोड है । जीवन का सार भूत तत्त्व है ।
1 गुरू भक्ति योग का मत है कि - भजन । सुमिरन । ध्यान । तथा समाधि । एवं आत्म साक्षात्कार करने हेतु ह्रदय शुद्धि प्राप्त करने के लिये गुरू सेवा पर खूब जोर देना चाहिये ।
2 सच्चा शिष्य गुरू भक्ति योग के यानी भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान । व आज्ञा के पालन के अभ्यास में लगा रहता है ।
3 पहले भक्ति योग की महत्ता । और उसकी उपयोगिता को समझो । और उसका आचरण करो । आपको सफ़लता अवश्य मिलेगी ।
4 तमाम दुर्गुणों को निर्मूल करने का एकमात्र असर कारक उपाय है । गुरू भक्ति योग को आचरण करना ।
82 प्रश्न - यह प्रसिद्ध है कि गुरू के दर्शन से पाप नष्ट होते हैं । बाहर दर्शन से भीतर सुरत पर जमी हुई पापों की मैल कैसे दूर होती है ? कृपया समझा कर कहिये ।
उत्तर - गुरू के दर्शन करने मात्र से ही जीवन के सारे पाप अपने आप कटने लग जाते हैं । चाहे गुरू बोले । चाहे आप

कुछ पूछें । या ना पूछें । मगर जिस प्रकार से । यदि सूखी लकडी चन्दन के पास में । या सम्पर्क में रहे । तो चन्दन की सुगन्ध उस लकडी में अपने आप चली जाती है । ठीक इसी प्रकार गुरू के दर्शन मात्र से ही जीवन के सारे पाप ताप स्वत: कटने लग जाते हैं ।
जब साधक के पुण्य कर्म का उदय होता है । तो जीवन में उच्च कोटि की भावना जागृत होने लग जाती है । और श्री सदगुरू देव के दर्शन पाते ही जीवन अपने आप में निर्मल और चेतन होने लग जाता है । तब वह अपने ह्रदय में गुरू को स्थापित करता है । साधक निश्चय कर लेता है कि - मुझे सबसे पहले श्री सदगुरू देव जी महाराज के दर्शन व गुरू दीक्षा प्राप्त करनी है । क्योंकि जब तक गुरू के दर्शन का लाभ नहीं मिल पाता । तथा दीक्षा प्राप्त नहीं हो पायेगी । तब तक गुरू और शिष्य का सम्बन्ध एक अलग बात है । गुरू दर्शन । गुरू दीक्षा । पैसे से प्राप्त नहीं की जा सकती है । गुरू दीक्षा तो जब हम गुरू के दर्शन कर गुरू के श्री चरणों में बैठते हैं । गुरू के श्री

मुख की अमृत वाणी सुनते हैं । गुरू की सेवा करते हैं । उनकी आज्ञा का पालन करते हैं । तो गुरू प्रसन्न हो जाते हैं । तब हमें अपने ह्रदय से लगा लेते हैं । और गुरू दीक्षा प्रदान कर हमें इस जन्म मृत्यु से छुटकारा दिलाने का प्रयास करते हैं । अर्थात एक पग आगे बढा देते हैं ।
जब ऐसी स्थिति आ जाती है । तब वह स्थिति पैदा हो जाती है । जब शिष्य की आंखों में निरन्तर गुरू की छवि बसी रहती है । सोते जागते । उठते बैठते । उसकी आंखों के सामने से गुरू का स्वरूप हटता ही नहीं । फ़िर उसे हनुमान चालीसा याद नहीं रहता । फ़िर उसे राम की स्तुति याद नहीं रहती । उसे कृष्ण की लीला याद नहीं आती । उसके ह्रदय में केवल गुरू शब्द की स्मृति रहती है ।
दूसरे शब्दों में सन्तों ने कहा है कि - परमेश्वर अन्तर्यामी हैं । और घट घट वासी है । जो उसके सच्चे सेवक हैं । उन्हें वह अपनी ओर खींचते हैं । अपने श्री चरणों में उसकी प्रीति और प्रतीति को द्रढ करने तथा उसे आध्यात्मिक पथ पर बढाने के लिये परमेश्वर अपने मौज से जब तब गुरू रूप में दर्शन देते हैं । भजन । सुमिरन । ध्यान में भी दर्शन देते हैं । यानी अभ्यास करते समय अन्दर में दर्शन देते रहते हैं । और स्वपन में भी दर्शन होता रहता है । सोते समय भजन । सुमिरन । ध्यान करते हुए सोये । इसका परिणाम यह होता है कि - मन और सुरत का सिमटाव अन्दर की तरफ़ हो जाता है । और देह तथा इन्द्रियों की तरफ़ झुकाव नहीं होता । जब वह सुरत घट के अन्दर प्रवेश करती है । तो घट वासी के दर्शन गुरू रूप में होते हैं । क्योंकि वही इष्ट है । इष्ट के लिये जो भावना होती है । वह सोई पडी रहती है । भजन । सुमिरन । ध्यान की साधना से सुरत निर्मल हो जाती है । सुरत की निर्मलता से वह भावना जागृत रूप में आ जाती है । साधक व अभ्यासियों का इष्ट उनका सदगुरू होता है । अत: वह उसी भावना को लेकर अपनी साधना में सदा रत रहते हैं । और मालिक उन्हें सदगुरू रूप में ही दर्शन देता है । जब वे पूरी तरह अपने आपको श्री सदगुरू में लय कर देते हैं । तब मालिक के दर्शन अनेकानेक रूपों में होने लग जाते हैं । जो वर्णनातीत हैं । उस समय श्री सदगुरु महाराज पुश्ते यानी पीठ पीछे रहकर शिष्य की सहायता करते रहते हैं ।
सन्तो का कथन है कि - इस प्रकार के दर्शन हाड मांस के शरीर के नहीं हैं । वरन चैतन्य अर्थात रूहानी हैं । और श्री सदगुरू देव जी महाराज की तरफ़ से सेवक को अपनी पहचान कराने के लिये धारण किये जाते हैं । वैसे तो मालिक बिना कोई रूप धारण किये ही अरूप तौर पर अन्दर में दया का परिचय दे सकते हैं । परन्तु ऐसी दशा में सेवक को उस दया की पहचान नहीं होगी । और जब पहचान नहीं होगी । तो वह यह कैसे समझेगा कि - मेरे मालिक ने मेरे ऊपर दया व कृपा की है । जब कभी ऐसे दर्शन हों । तो अभ्यासी को चाहिये कि वह अपने भाग्य को सराहे । अहंकार को न आने दे । और श्री सदगुरू देव जी महाराज के स्वरूप का ध्यान बारम्बार मन में लाकर उनके श्री चरण कमलों में ख्याली तौर पर अपना माथा टेकता रहे । ऐसे दर्शनों का फ़ायदा ज्यादा से ज्यादा उठाना चाहिये । वह इस तरह होगा कि - जब जब भजन । सुमिरन । ध्यान के समय । या इसके अलावा भी ऐसे श्री सदगुरू के दर्शन की याद आयेगी । तब तब अवश्य थोडा बहुत प्रेम मालिक के प्रति हिलोरें लेगा । और उस हिलोर की टक्कर से मन और इन्द्रियां नीची पड जायेंगी । तथा भजन । सुमिरन । ध्यान के अभ्यास में विघ्न नहीं डालेंगी ।
शर्त एक ही है । उस गुरू के प्रति साधक के अन्दर में प्रेम होना चाहिये । प्रयासों से जो नहीं हो पाता । प्रेम से सहज ही हो जाता है । एक स्थिति ऐसी आती है । जब यह आन्तरिक गुरू स्वत: मातृवत सक्रिय होकर साधक की बांह पकड लेता है । और ऊपर खींच कर अपने में समाहित कर लेता है । उस गुरू तत्त्व में लय होते ही साधक इस प्रश्न का उत्तर बन जाता है कि - मैं क्या हूं ?
पांल ब्रंटन का अनुभव है कि - यह आन्तरिक गुरू साधना के कृम में मुखर नहीं होता । भजन । सुमिरन । ध्यान । और चिन्तन के सायास क्षणों के परे वह अकस्मात आदेश देने लग जाता है । और उसके आदेश कभी भी गलत सिद्ध नहीं होते । बस उन आदेशों को अपने अहम की प्रेरणा से अलग करके सुनने और समझने की सामर्थ्य होनी चाहिये । ज्ञातव्य है कि - यह श्रम साध्य नहीं है । यह कृपा साध्य है । परन्तु प्रयासों से कृपा के अवतरण में सहायता मिलती है । इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।
सन्तों का कथन है कि - श्री सदगुरू स्वरूप और उनके भजन । सुमिरन । ध्यान की महिमा का फ़ायदा अधिक इसलिये है कि अन्तर्यामी परमेश्वर सेवक पर दया करने के लिये । तथा उसकी प्रीति और प्रतीति बढाने के लिये । स्वयं उस स्वरूप को धारण करके घट में ही दर्शन दे देते हैं । जहां तक रूप रंग रेखा की पहुंच है । वहां तक यह स्वरूप सूक्ष्म से सूक्ष्म होता हुआ । सेवक के सदा साथ रहेगा । और अन्तर में सहायता करता रहेगा । आगे चलकर अभ्यासी गुरू में लय होता हुआ । ऊंचे स्थानों में पहुंचेगा । यह स्वरूप निराकार का भी परिचय कराता जायेगा । इसी को पीठ पीछे रहकर सहायता करना कहा गया है । इसलिये प्रत्येक अभ्यासी को चाहिये कि - जब कभी ऐसे दर्शन अभ्यास के समय । या स्वपन में हों । तो उसे मालिक के ही स्वरूप का दर्शन समझ कर उस स्वरूप में प्रीति और भक्ति भाव लावे । यह भली भांति समझ लेना चाहिये कि - इस प्रकार के दर्शन अभ्यासी के अधिकार की बात नहीं है कि जब वह चाहे । तभी ऐसे दर्शन प्राप्त कर ले । यह तो मालिक की मौज है । वह जब चाहि तब दर्शन दे । जब कभी मालिक की ऐसी मौज हो कि - वह भजन । सुमिरन । ध्यान करते समय । या स्वपन में दर्शन दें । तो यह उनकी महान दया का परिचायक है । इसी प्रसंग में श्रीकृष्ण कहते हैं कि -
अनन्याश्र्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम  ।
जो अनन्य प्रेमी भक्त जन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते हैं । उन नित्य निरन्तर मेरा चिन्तन करने वाले भक्तों का योग और क्षेम मैं स्वयं वहन करता हूं ।
अपना हरि बिनु और न कोई । मातु पिता सुत बंधु कुटुंब सब स्वारथ ही के होई ।
श्री सदगुरू भगवान के बिना इस संसार में अपना हितैषी अन्य कोई नहीं है । माता । पिता । पुत्र । भाई । और कुटुम्ब । कबीला । ये सब स्वार्थ के ही मीत या दोस्त हैं । सन्तों महापुरूषों का कहना है कि - श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा से जिन्हें संसार की वास्तविकता का ज्ञान हो गया है । उन्हें सदैव मालिक का ही ओट आसरा तथा उन्हीं की टेक रहती है ।
एक भरोसा एक बल । एक आस विश्वास । स्वाति सलिल सतगुरू चरण । चातिक तुलसीदास  ।
जो भक्त श्री सदगुरू का ओट आसरा ग्रहण कर लेता है । और अपने ह्रदय में उन्हीं की आस और उन्हीं का विश्वास रखते हैं । उनके सभी प्रकार के दुख दूर हो जाते हैं ।
दैहिक दैविक भौतिक तापा । राम राज काहू नहिं ब्यापा ।
अर्थात श्री सदगुरू की दया से सभी प्रकार के दुख दूर हो जाते हैं । उनके मन के सारे विकार । सम्पूर्ण पाप ताप अपने आप दूर होकर मालिक के श्रीचरण कमलों में प्यार हो जाता है । श्री सदगुरू देव जी महाराज के नाम का भजन । सुमिरन । और ध्यान का तन । मन के स्वास्थय पर भी धनात्मक प्रभाव पडता है । नाम के सुमिरन । भजन । ध्यान के महत्त्व के सम्बन्ध में सत्संग के दौरान हमारे परम आराध्य श्री स्वामी जी महाराज परमहंस ने परमार्थ के गूढ रहस्यों की चर्चा करते हुए यह भी कहा था कि - नाम का भजन । सुमिरन । ध्यान करते रहने से तन और मन दोनों स्वस्थ रहते हैं ।
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ये शिष्य जिज्ञासा की सुन्दर प्रश्नोत्तरी श्री राजू मल्होत्रा जी द्वारा भेजी गयी है । आपका बहुत बहुत आभार ।

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