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पूजा - जो भी हम पूजते हैं । वह सिर्फ 1 खेल है । वह अच्छा है । यदि तुम्हें पूजा करना अच्छा लगता है । ठीक है । खेल अच्छा है । और मैं कभी भी किसी के खेल को बिगाड़ने में उत्सुक नहीं हूं । यदि तुम पूजा करने में रस लेते हो । और चर्च जाते हो । तो यह अच्छा है । जाते रहो । लेकिन याद रखो कि तुम बुनियादी बात चूक रहे हो कि वह आत्यंतिक पूजा करने वाले के भीतर छिपा है । इसलिए जब पूजा करो । तो अपनी आंखों को पूजा की जाने वाली वस्तु पर ही मत टिकाये रखना । अपने को भीतर पूजा करने वाले पर केंद्रित करना । वहां वह प्रगट होगा । वहीं वह छिपा है ।
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विज्ञान शब्द का अर्थ ही होता है - जानना । और यदि कुछ अज्ञेय है । तो विज्ञान उसके लिए सहमति नहीं देगा । विज्ञान उससे राजी नहीं होगा । विज्ञान का अर्थ होता है - वह । जिसे जाना जा सकता है । इसलिए विज्ञान रहस्यपूर्ण नहीं है । वह निरर्थक बातों में नहीं पड़ता । विज्ञान के लिए आत्मज्ञान शब्द ही निरर्थक है । परंतु फिर भी धर्म अर्थपूर्ण है । क्योंकि जानने का 1 दूसरा आयाम भी है ।
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खेलपूर्ण - तुम्हारी प्रौढ़ता झूठी है । क्योंकि वह तुम्हारे बचपन के विरुद्ध है । 1 बच्चा पैदा हुआ था । प्रौढ़ता निर्मित की गई है । बच्चा प्राकृतिक था । तुम कृत्रिम हो । संस्कारित हो । तम्हें अपने बचपन की ओर लौटना पड़ेगा । स्रोत की ओर लौटना पड़ेगा । जहां से कि विकास संभव है । इसलिए तुम्हारे खेलपूर्ण होने पर मेरा इतना जोर है ।
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मैं - महान ईसाई संत मिस्टर इकहार्ट ने कहा है कि सिर्फ परमात्मा ही " मैं " कह सकता है । कोई व्यक्ति वस्तुत: नहीं कह सकता है - मैं । क्योंकि मैं का संबंध समग्र से है । मेरा हाथ नहीं कह सकता है - मैं । क्योंकि हाथ तो मेरा है । मेरा पांव नहीं कह सकता - मैं । क्योंकि पांव तो मेरा है । मेरा पांव । मेरा हाथ । मेरी आंखें । वे नहीं कह सकते - मैं । क्योंकि वे सब हिस्से हैं । 1 वृहत इकाई के अंग हैं । तुम भी अपने आप में 1 इकाई नहीं हो । तुम 1 विराट समग्रता के हिस्से हो । तुम सिर्फ 1 अंश हो । 1 आणविक कोष हो समग्र के । तुम नहीं कह सकते - मैं ।
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बुद्धपुरुष - विवेकानंद ने कहा है । और वह बात बहुत सच है कि बुद्धपुरुष, कृष्ण और क्राइस्ट जिन्हें कि हम जानते हैं । वे असली प्रतिनिधि नहीं हैं । वे केंद्र नहीं हैं । वे सिर्फ परिधि पर हैं । जो केंद्र की घटना है । वस्तुत: वह तो इतिहास के लिए अज्ञात ही रही । जो लोग इतने मौन हो गये कि वे हमसे कोई बात न कर सके । वे तो अज्ञात ही रहे । उन्हें जाना भी नहीं जा सकता । उन्हें जानने का कोई मार्ग भी नहीं है । 1 अर्थ में विवेकानंद सही हैं । किंतु जो लोग इतने मौन हो गये कि उन्होंने अपने अनुभव के बारे में कुछ भी बोला । उन्होंने हमारी कोई सहायता नहीं की । वे हमारे प्रति करुणाजनक भी नहीं रहे । 1 अर्थों में वे पूरी तरह स्वार्थी ही रहे ।
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मन 1 उपाय है । साधन है । बाहर के संसार में जीने के लिए । उसकी भीतर कोई जरूरत नहीं है । और यदि तुम उसे भीतर ले गए । तो तुम भीतर प्रवेश नही कर सकते । मन के साथ तुम बाहर जा सकते हो । तुम भीतर नहीं जा सकते । मन को गिरा दो । उसे अलग रख दो । कह दो - अब तुम्हारी जरूरत नहीं है । मैं भीतर की यात्रा पर जा रहा हूं । वहां तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है ।
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यत्र यत्र मनो देही धारयेत सकलं धिया ।
स्नेहाद द्वेषाद भयाद वापि याति तत्सरूपताम ।
- यदि कोई मनुष्य प्रेम से या द्वेष से अथवा भय से या जानबूझ कर ही एकाग्र रूप से किसी वस्तु ( अथवा देवी, देवता, प्रेत आदि ) में अपना मन लगा दे । तो उसे उसी वस्तु का स्वरूप प्राप्त हो जाता है । श्रीमदभागवत, एकादश स्कन्ध, अध्याय 9 श्लोक 22
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