इस प्रकार बहुत दिन बीत गये । तब अष्टांगी ने सोचा । मेरे गये हुये पुत्रों बृह्मा और विष्णु ने क्या किया । इसका कुछ पता नहीं लगा । वे अब तक लौटकर क्यों नहीं आये ।
तब सबसे पहले विष्णु लौटकर माता के पास आये । और बोले - पाताल में मुझे पिता के चरण तो नहीं मिले । उल्टे मेरा शरीर विष ज्वाला ( शेषनाग के प्रभाव से ) से श्यामल हो गया । हे माता ! जब मैं पिता निरंजन के दर्शन नहीं कर पाया । तो मैं व्याकुल हो गया । और फ़िर लौट आया । अष्टांगी यह सुनकर प्रसन्न हो गयी । और विष्णु को दुलारते हुये बोली - हे पुत्र ! तुमने निश्चय ही सत्य कहा है ।
उधर अपने पिता के दर्शनों के बेहद इच्छुक बृह्मा चलते चलते उस स्थान पर पहुँच गये । जहाँ न सूर्य था । न चन्द्रमा केवल शून्य 0 था । वहाँ बृह्मा ने अनेक प्रकार से निरंजन की स्तुति की । जहाँ ज्योति का प्रभाव था । वहाँ भी ध्यान लगाया । और ऐसा करते हुये बहुत दिन बीत गये । परन्तु बृह्मा को निरंजन के दर्शन नहीं हुये । शून्य 0 में ध्यान करते हुये बृह्मा को अब चार युग बीत गये ।
तब अष्टांगी को बहुत चिंता हुयी कि मैं बृह्मा के बिना किस प्रकार सृष्टि रचना करूँ ? और किस प्रकार उसे वापस लाऊँ ?
तब अष्टांगी ने एक युक्ति सोचते हुये अपने शरीर में उवटन लगाकर मैल निकाला । और उस मैल से एक पुत्री रूपी कन्या उत्पन्न की । उस कन्या में उन्होंने दिव्य शक्ति का अंश मिलाया । और इस कन्या का नाम गायत्री रखा ।
तब गायत्री उन्हें प्रणाम करती हुयी बोली - हे माता ! तुमने मुझे किस कार्य हेतु बनाया है ? वह आग्या कीजिये ।
अष्टांगी बोली - हे पुत्री ! मेरी बात सुनो । बृह्मा तुम्हारा बङा भाई है । वह पिता के दर्शन हेतु शून्य 0 आकाश की ओर गया है । उसे बुलाकर लाओ । वह चाहे अपने पिता को खोजते खोजते सारा जन्म गवां दे । पर उनके दर्शन नही कर पायेगा । अतः तुम जिस विधि से चाहो । कोई उपाय करके उसे बुलाकर लाओ ।
तब गायत्री बताये अनुसार बृह्मा के पास पहुँची ।
तो उसने देखा - ध्यान में लीन बृह्मा अपनी पलक तक नहीं झपकाते थे । वह कुछ दिन तक यही उपाय सोचती रही कि किस विधि द्वारा बृह्मा का ध्यान से ध्यान हटाकर अपनी ओर आकर्षित किया जाय । फ़िर उसने अष्टांगी का ध्यान किया ।
तब अष्टांगी ने ध्यान में गायत्री को आदेश दिया कि अपने हाथ से बृह्मा को स्पर्श करो । तब वह ध्यान से जागेंगे । गायत्री ने ऐसा ही किया । और बृह्मा के चरण कमलों का स्पर्श किया ।
बृह्मा ध्यान से जाग गया । और उसका मन भटक गया । तब वह व्याकुल होकर बोला - तू ऐसी कौन सी पापी अपराधी है । जो मेरी ध्यान समाधि छुङायी । मैं तुझे शाप देता हूँ । क्योंकि तूने आकर पिता के दर्शन का मेरा ध्यान खंडित कर दिया ।
तब गायत्री बोली - मुझसे कोई पाप नहीं हुआ है । पहले तुम सब बात समझ लो । तब मुझे शाप दो । मैं सत्य कहती हूँ । तुम्हारी माता ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है । अतः शीघ्र चलो । तुम्हारे बिना सृष्टि का विस्तार कौन करे ।
बृह्मा बोले - मैं माता के पास किस प्रकार जाऊँ । अभी मुझे पिता के दर्शन भी नहीं हुये हैं ।
गायत्री बोली - तुम पिता के दर्शन कभी नहीं पाओगे । अतः शीघ्र चलो । वरना पछताओगे ।
तब बृह्मा बोला - यदि तुम झूठी गवाही दो कि मैंने पिता का दर्शन पा लिया है । और ऐसा स्वयँ तुमने भी अपनी आँखों से देखा है कि पिता निरंजन प्रकट हुये । और बृह्मा ने आदर से उनका शीश स्पर्श किया । यदि तुम माता से इस प्रकार कहो । तो मैं तुम्हारे साथ चलूँ ।
गायत्री बोली - हे वेद सुनने और धारण करने वाले बृह्मा । सुनो मैं झूठ वचन नहीं बोलूँगी । हाँ यदि मेरे भाई ! तुम मेरा स्वार्थ पूरा करो । तो मैं इस प्रकार की झूठ बात कह दूँगी ।
बृह्मा बोले - मैं तुम्हारी स्वार्थ वाली बात समझा नहीं । अतः मुझे स्पष्ट कहो ।
गायत्री बोली - यदि तुम मुझे रतिदान दो । यानी मेरे साथ कामक्रीङा करो । तो मैं ऐसा कह सकती हूँ ।
यह मेरा स्वार्थ है । फ़िर भी तुम्हारे लिये परमार्थ जानकर कहती हूँ ।
बृह्मा विचार करने लगे कि इस समय क्या उचित होगा ? यदि मैं इसकी बात नहीं मानता । तो ये गवाही नहीं देगी । और माता मुझे मुझे धिक्कारेगी कि न तो मैंने पिता के दर्शन पाये । और न कोई कार्य सिद्ध हुआ । अतः मैं इसके प्रस्ताव में पाप को विचारता हूँ । तो मेरा काम नहीं बनता । इसलिये रतिदान देने की इसकी इच्छा पूरी करनी ही चाहिये ।
ऐसा ही निर्णय करते हुये बृह्मा और गायत्री ने मिलकर विषय भोग किया । उन दोनों पर रतिसुख का रंग प्रभाव दिखाने लगा । बृह्मा के मन में पिता को देखने की जो इच्छा थी । उसे वह भूल गया । और दोनों के ह्रदय में काम विषय की उमंग बङ गयी । फ़िर दोनों ने मिलकर छलपूर्ण बुद्धि बनायी ।
तब बृह्मा ने कहा कि - चलो अब माता के पास चलते हैं ।
गायत्री बोली - एक उपाय और करो । जो मैंने सोचा है । वह युक्ति यह है कि एक दूसरा गवाह भी तैयार कर लेते हैं ।
बृह्मा बोले - यह तो बहुत अच्छी बात है । तुम वही करो । जिस पर माता विश्वास करे ।
तब गायत्री ने साक्षी उत्पन्न करने हेतु अपने शरीर से मैल निकाला । और उसमें अपना अंश मिलाकर एक कन्या बनायी । बृह्मा ने उस कन्या का नाम सावित्री रखवाया । तब गायत्री ने सावित्री को समझाया कि तुम चलकर माता से कहना कि बृह्मा ने पिता का दर्शन पाया है ।
सावित्री बोली - जो तुम कह रही हो । उसे मैं नहीं जानती । और झूठी गवाही देने में तो बहुत हानि है ।
अब बृह्मा और गायत्री को बहुत चिंता हुयी । उन्होंने सावित्री को अनेक प्रकार से समझाया । पर वह तैयार नहीं हुयी ।
तब सावित्री अपने मन की बात बोली - यदि बृह्मा मुझसे रति प्रसंग करे । तो मैं ऐसा कर सकती हूँ । तब गायत्री ने बृह्मा को समझाया कि सावित्री को रतिदान देकर अपना काम बनाओ ।
बृह्मा ने सावित्री को रतिदान दिया । और बहुत भारी पाप अपने सिर ले लिया । सावित्री का दूसरा नाम बदलकर पुहुपावती कहकर अपनी बात सुनाते हैं । ये तीनों मिलकर वहाँ गये । जहाँ कन्या आदि कुमारी अष्टांगी थी ।
तीनों के प्रणाम करने पर अष्टांगी ने पूछा - हे बृह्मा ! क्या तुमने अपने पिता के दर्शन पाये हैं ? और यह दूसरी स्त्री कहाँ से लाये ।
बृह्मा बोले - हे माता ! ये दोनों साक्षी है कि मैंने पिता के दर्शन पाये । इन दोनों के सामने मैंने पिता का शीश स्पर्श किया है ।
तब अष्टांगी बोली - हे गायत्री ! विचार करके कहो कि तुमने अपनी आँखों से क्या देखा है ? सत्य बताओ । बृह्मा ने अपने पिता का दर्शन पाया ? और इस दर्शन का उस पर क्या प्रभाव पङा ?
गायत्री बोली - बृह्मा ने पिता के शीश का दर्शन पाया है । ऐसा मैंने अपनी आँखों से देखा है कि बृह्मा अपने पिता निरंजन से मिले । हे माता ! यह सत्य है । बृह्मा ने अपने पिता पर फ़ूल चङाये । और उन्हीं फ़ूलों से यह पुहुपावती उस स्थान से प्रकट हुयी । इसने भी पिता का दर्शन पाया है । आप इससे पूछ के देखिये । इसमें रत्ती भर भी झूठ नहीं है ।
अष्टांगी बोली - हे पुहुपावती ! मुझसे सत्य कहो । और बताओ । क्या बृह्मा ने पिता के सिर पर पुष्प चङाया ।
पुहुपावती ने कहा - हे माता ! मैं सत्य कहती हूँ । चतुर्मुख बृह्मा ने पिता के शीश के दर्शन किये । और शांत एवं स्थिर मन से फ़ूल चङाये ।
इस झूठी गवाही को सुनकर अष्टांगी परेशान हो गयी । और विचार करने लगी ।
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तब सबसे पहले विष्णु लौटकर माता के पास आये । और बोले - पाताल में मुझे पिता के चरण तो नहीं मिले । उल्टे मेरा शरीर विष ज्वाला ( शेषनाग के प्रभाव से ) से श्यामल हो गया । हे माता ! जब मैं पिता निरंजन के दर्शन नहीं कर पाया । तो मैं व्याकुल हो गया । और फ़िर लौट आया । अष्टांगी यह सुनकर प्रसन्न हो गयी । और विष्णु को दुलारते हुये बोली - हे पुत्र ! तुमने निश्चय ही सत्य कहा है ।
उधर अपने पिता के दर्शनों के बेहद इच्छुक बृह्मा चलते चलते उस स्थान पर पहुँच गये । जहाँ न सूर्य था । न चन्द्रमा केवल शून्य 0 था । वहाँ बृह्मा ने अनेक प्रकार से निरंजन की स्तुति की । जहाँ ज्योति का प्रभाव था । वहाँ भी ध्यान लगाया । और ऐसा करते हुये बहुत दिन बीत गये । परन्तु बृह्मा को निरंजन के दर्शन नहीं हुये । शून्य 0 में ध्यान करते हुये बृह्मा को अब चार युग बीत गये ।
तब अष्टांगी को बहुत चिंता हुयी कि मैं बृह्मा के बिना किस प्रकार सृष्टि रचना करूँ ? और किस प्रकार उसे वापस लाऊँ ?
तब अष्टांगी ने एक युक्ति सोचते हुये अपने शरीर में उवटन लगाकर मैल निकाला । और उस मैल से एक पुत्री रूपी कन्या उत्पन्न की । उस कन्या में उन्होंने दिव्य शक्ति का अंश मिलाया । और इस कन्या का नाम गायत्री रखा ।
तब गायत्री उन्हें प्रणाम करती हुयी बोली - हे माता ! तुमने मुझे किस कार्य हेतु बनाया है ? वह आग्या कीजिये ।
अष्टांगी बोली - हे पुत्री ! मेरी बात सुनो । बृह्मा तुम्हारा बङा भाई है । वह पिता के दर्शन हेतु शून्य 0 आकाश की ओर गया है । उसे बुलाकर लाओ । वह चाहे अपने पिता को खोजते खोजते सारा जन्म गवां दे । पर उनके दर्शन नही कर पायेगा । अतः तुम जिस विधि से चाहो । कोई उपाय करके उसे बुलाकर लाओ ।
तब गायत्री बताये अनुसार बृह्मा के पास पहुँची ।
तो उसने देखा - ध्यान में लीन बृह्मा अपनी पलक तक नहीं झपकाते थे । वह कुछ दिन तक यही उपाय सोचती रही कि किस विधि द्वारा बृह्मा का ध्यान से ध्यान हटाकर अपनी ओर आकर्षित किया जाय । फ़िर उसने अष्टांगी का ध्यान किया ।
तब अष्टांगी ने ध्यान में गायत्री को आदेश दिया कि अपने हाथ से बृह्मा को स्पर्श करो । तब वह ध्यान से जागेंगे । गायत्री ने ऐसा ही किया । और बृह्मा के चरण कमलों का स्पर्श किया ।
बृह्मा ध्यान से जाग गया । और उसका मन भटक गया । तब वह व्याकुल होकर बोला - तू ऐसी कौन सी पापी अपराधी है । जो मेरी ध्यान समाधि छुङायी । मैं तुझे शाप देता हूँ । क्योंकि तूने आकर पिता के दर्शन का मेरा ध्यान खंडित कर दिया ।
तब गायत्री बोली - मुझसे कोई पाप नहीं हुआ है । पहले तुम सब बात समझ लो । तब मुझे शाप दो । मैं सत्य कहती हूँ । तुम्हारी माता ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है । अतः शीघ्र चलो । तुम्हारे बिना सृष्टि का विस्तार कौन करे ।
बृह्मा बोले - मैं माता के पास किस प्रकार जाऊँ । अभी मुझे पिता के दर्शन भी नहीं हुये हैं ।
गायत्री बोली - तुम पिता के दर्शन कभी नहीं पाओगे । अतः शीघ्र चलो । वरना पछताओगे ।
तब बृह्मा बोला - यदि तुम झूठी गवाही दो कि मैंने पिता का दर्शन पा लिया है । और ऐसा स्वयँ तुमने भी अपनी आँखों से देखा है कि पिता निरंजन प्रकट हुये । और बृह्मा ने आदर से उनका शीश स्पर्श किया । यदि तुम माता से इस प्रकार कहो । तो मैं तुम्हारे साथ चलूँ ।
गायत्री बोली - हे वेद सुनने और धारण करने वाले बृह्मा । सुनो मैं झूठ वचन नहीं बोलूँगी । हाँ यदि मेरे भाई ! तुम मेरा स्वार्थ पूरा करो । तो मैं इस प्रकार की झूठ बात कह दूँगी ।
बृह्मा बोले - मैं तुम्हारी स्वार्थ वाली बात समझा नहीं । अतः मुझे स्पष्ट कहो ।
गायत्री बोली - यदि तुम मुझे रतिदान दो । यानी मेरे साथ कामक्रीङा करो । तो मैं ऐसा कह सकती हूँ ।
यह मेरा स्वार्थ है । फ़िर भी तुम्हारे लिये परमार्थ जानकर कहती हूँ ।
बृह्मा विचार करने लगे कि इस समय क्या उचित होगा ? यदि मैं इसकी बात नहीं मानता । तो ये गवाही नहीं देगी । और माता मुझे मुझे धिक्कारेगी कि न तो मैंने पिता के दर्शन पाये । और न कोई कार्य सिद्ध हुआ । अतः मैं इसके प्रस्ताव में पाप को विचारता हूँ । तो मेरा काम नहीं बनता । इसलिये रतिदान देने की इसकी इच्छा पूरी करनी ही चाहिये ।
ऐसा ही निर्णय करते हुये बृह्मा और गायत्री ने मिलकर विषय भोग किया । उन दोनों पर रतिसुख का रंग प्रभाव दिखाने लगा । बृह्मा के मन में पिता को देखने की जो इच्छा थी । उसे वह भूल गया । और दोनों के ह्रदय में काम विषय की उमंग बङ गयी । फ़िर दोनों ने मिलकर छलपूर्ण बुद्धि बनायी ।
तब बृह्मा ने कहा कि - चलो अब माता के पास चलते हैं ।
गायत्री बोली - एक उपाय और करो । जो मैंने सोचा है । वह युक्ति यह है कि एक दूसरा गवाह भी तैयार कर लेते हैं ।
बृह्मा बोले - यह तो बहुत अच्छी बात है । तुम वही करो । जिस पर माता विश्वास करे ।
तब गायत्री ने साक्षी उत्पन्न करने हेतु अपने शरीर से मैल निकाला । और उसमें अपना अंश मिलाकर एक कन्या बनायी । बृह्मा ने उस कन्या का नाम सावित्री रखवाया । तब गायत्री ने सावित्री को समझाया कि तुम चलकर माता से कहना कि बृह्मा ने पिता का दर्शन पाया है ।
सावित्री बोली - जो तुम कह रही हो । उसे मैं नहीं जानती । और झूठी गवाही देने में तो बहुत हानि है ।
अब बृह्मा और गायत्री को बहुत चिंता हुयी । उन्होंने सावित्री को अनेक प्रकार से समझाया । पर वह तैयार नहीं हुयी ।
तब सावित्री अपने मन की बात बोली - यदि बृह्मा मुझसे रति प्रसंग करे । तो मैं ऐसा कर सकती हूँ । तब गायत्री ने बृह्मा को समझाया कि सावित्री को रतिदान देकर अपना काम बनाओ ।
बृह्मा ने सावित्री को रतिदान दिया । और बहुत भारी पाप अपने सिर ले लिया । सावित्री का दूसरा नाम बदलकर पुहुपावती कहकर अपनी बात सुनाते हैं । ये तीनों मिलकर वहाँ गये । जहाँ कन्या आदि कुमारी अष्टांगी थी ।
तीनों के प्रणाम करने पर अष्टांगी ने पूछा - हे बृह्मा ! क्या तुमने अपने पिता के दर्शन पाये हैं ? और यह दूसरी स्त्री कहाँ से लाये ।
बृह्मा बोले - हे माता ! ये दोनों साक्षी है कि मैंने पिता के दर्शन पाये । इन दोनों के सामने मैंने पिता का शीश स्पर्श किया है ।
तब अष्टांगी बोली - हे गायत्री ! विचार करके कहो कि तुमने अपनी आँखों से क्या देखा है ? सत्य बताओ । बृह्मा ने अपने पिता का दर्शन पाया ? और इस दर्शन का उस पर क्या प्रभाव पङा ?
गायत्री बोली - बृह्मा ने पिता के शीश का दर्शन पाया है । ऐसा मैंने अपनी आँखों से देखा है कि बृह्मा अपने पिता निरंजन से मिले । हे माता ! यह सत्य है । बृह्मा ने अपने पिता पर फ़ूल चङाये । और उन्हीं फ़ूलों से यह पुहुपावती उस स्थान से प्रकट हुयी । इसने भी पिता का दर्शन पाया है । आप इससे पूछ के देखिये । इसमें रत्ती भर भी झूठ नहीं है ।
अष्टांगी बोली - हे पुहुपावती ! मुझसे सत्य कहो । और बताओ । क्या बृह्मा ने पिता के सिर पर पुष्प चङाया ।
पुहुपावती ने कहा - हे माता ! मैं सत्य कहती हूँ । चतुर्मुख बृह्मा ने पिता के शीश के दर्शन किये । और शांत एवं स्थिर मन से फ़ूल चङाये ।
इस झूठी गवाही को सुनकर अष्टांगी परेशान हो गयी । और विचार करने लगी ।
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