और देखते ही देखते सारिपुत्र में फूल खिलने लग गये । उसके आसपास भी भगवान जैसी शीलता फैलने लगी । सुवास उठने लगी । और जल्द ही उपलब्ध हो गया । श्रावस्ती निवासी सीधे साधे भोले लोग । सारिपुत्र के गुणों की प्रशंसा कर रहे थे । गुण तो ऐसे थे सारिपुत्र में । जिनकी प्रशंसा की ही जाए । लेकिन 1 बुद्ध विरोधी ब्राह्मण भी वहीं बैठा था । उसने कहा - तुम्हें उसे क्रोधित करना आता ही नहीं । फिर किसी ने कहा कि - हमारे आर्य तो ऐसे हैं कि उनकी सहनशीलता का तो कोई जवाब ही नहीं । उन्हें तो मारने वाले पर भी क्रोध नहीं आता । ये बात उस मिथ्या दृष्टि ब्राह्मण को चुभ गई । वह तो पहले ही जलाभुना बैठा था । इस बात ने और आग में घी का काम किया ।
मिथ्या दृष्टि का अर्थ होता है । जिसे उलटा देखने की आदत हो । उलटी खोपड़ी । जो सीधी बात को भी उलटा देखे । मिथ्या दृष्टि किसी की प्रशंसा बर्दाश्त नहीं कर सकता है । क्योंकि उसके अंदर 1 हीनता है । वह किसी की प्रशंसा को अपनी निंदा समझता है । दूसरा बड़ा हो गया । और मैं छोटा हो गया । यह उसका तर्क है । लेकिन 1 बड़े मजे की बात है । मिथ्या दृष्टि किसी की निंदा सुन सकता है । यह उसके अंहकार का भरण पोषण करती है । वह मानता है - अच्छा यह भी चरित्रहीन है । मैं तो पहले ही जानता था । देखा तर्क । आप किसी को यह कह दो कि - वह आदमी तो संत हो गया । 50 बातें लगाएंगे । 100 तर्क करेंगें । 1000 दलीलें देंगे कि - वह हो ही नहीं सकता । और आप यह कह दो कि - वह आदमी तो चोर है । वह झट से मान जाएगा कि - मैं तो पहले ही मानता था । उसके लिए कोई प्रमाण की जरूरत नहीं होगी ।
आपके अखबार का मूल रस निंदा ही है । पत्रकारिता । कैसे खोज लें - दाल में कुछ काला । कहीं भी कुछ गलत । कैसे खोज लें । अब वह मिथ्या दृष्टि ये मानने को तैयार ही नहीं है कि सारिपुत्र को क्रोधित नहीं किया जा सकता । उसने कहा - ये बात तुम मुझ पर छोड़ दो । मैं तुम्हें तुम्हारे आर्य को क्रोधित करके दिखाता हूं ।
नगरवासी हंसे । कभी भोलेभाले लोग ज्यादा समझदार सिद्ध होते हैं । बौद्धिक पंडित हार जाते हैं । उस ब्राह्मण ने पीछे से जाकर जब सारिपुत्र भिक्षाटन को जा रहे थे । तो उनकी पीठ पर लात मारी । लेकिन स्थविर ने तो पीछे मुढकर देखा भी नहीं । निष्प्रयोजन । भगवान ने कहा था - जरा भी ऊर्जा नहीं बहाना । जहां नहीं देखने में सार हो । वहां मत देखना । व्यर्थ को देखने में क्या लाभ है ? व्यर्थ को न सुनना । न विचार करना । सार्थक की और ध्यान देना ।
भगवान ने कहा था - जब जाना ही है । तो मंजिल पर । तब नाहक अपनी शक्ति को बर्बाद मत करना । सारी शक्ति को 1 तरफ ही लगा देना । सारिपुत्र ने तो पीछे मुढकर भी नहीं देखा । लात तो जैसे हमें लगती है । ऐसी ही सारिपुत्र को भी लगी । और कहीं अधिक । क्योंकि वह तो जागा था । 1 शराबी को कोई लात मारे । तो वह सुबह बता भी नहीं पायेंगे कि - रात क्या हुआ था ? पर सारिपुत्र का बोध तो प्रगाढ़ था । वह तो पूर्ण जागरूक हो गया था । सारिपुत्र ध्यान के शिखर पर था । जहां से गिरा हुआ आदमी जन्मों जन्मों के लिए भटक सकता है । वे ध्यान में जागे । ध्यान के दीए को संभाले चलते रहे । उलटे उनके मन में प्रसन्नता ही हुई होगी कि साधारणतया: ऐसी स्थिति में मन डांवाडोल हो जाता है । देखा कि मन डांवाडोल नहीं हुआ । चोट पड़ी । और चोट नहीं हुई । हवा का झोंका आया । और गुजर गया । उनके चेहरे पर प्रसन्नता फेल गई । ह्रदय कमल खिल गया । और कहां होगा - अहोभाग्य । 1 प्रकृति है - देह की । 1 प्रकृति है - आत्मा की । देह की प्रकृति में पहली बात घटेगी । आत्मा की प्रकृति में जो उतरने लगा । उसे दूसरी बात घटेगी ।
उन्होंने उस ब्राह्मण को भीतर भीतर धन्यवाद दिया । तूने मुझे मेरी ज्योति को देखने को मौका तो दिया कि - वह कितनी थिर हो गई है । इस घटना ने अंधे को आंखे दे दीं । वह सारिपुत्र के चरणों में गिर गया । और प्रार्थना करने लगा कि - आप उनके घर चलें । थोड़ा मौका दें सेवा का । और भोजन भी ग्रहण करें ।
सारिपुत्र ने हंसकर कहां कि - अभी तो की थी सेवा । और क्या घर ले जाकर करना चाहते हो ? उस ब्राह्मण की आंखों से पश्चाताप के आंसू बहने लगे । उसने सारिपुत्र के चरणों को छोड़ा ही नहीं । और सर रख उन्हें आंसुओं से धो दिया । अगर आप घर नहीं चलेंगे । तो मैं यह कदम नहीं छोड़ूगा । उसकी आंखों में पश्चाताप के आंसू भरे थे । और वे आंसू उसके अंतस के कल्मष को बहाकर ले गये । उसकी आत्मा को निर्मल कर गये ।
उसने सारिपुत्र के निमित्त पहली बार बुद्ध की किरण उतरते देखी । शिष्य ही तो आईना होता है गुरु का । 1 छोटी छवि । 1 दीपक,जो सूर्य की किरणों की आभा की बात बता रहा है कि मैं तो मात्र क्षण हूं । पूर्ण को जब देखोगे । तो तुम्हारी आंखें चुंधिया जायेगी । उस ब्राह्मण को लगा कि जब सारिपुत्र ही ऐसे हैं । तो इनका गुरु भगवान कैसा होगा ? इसकी तो कल्पना भी उसके बाहर की बात हो गई ।
लेकिन और भिक्षुओं को यह बात जंची नहीं । उन्होंने भगवान से कहा - आयुष्मान सारिपुत्र ने अच्छा नहीं किया । जो उस मारने वाले ब्राह्मण के घर जाकर भोजन ग्रहण किया । अब तो वह किसी को भी नहीं छोड़ेगा । वहां से तो हमारा आना जाना दुष्कर हो जायेगा । उसको तो मारने की लत ही पड़ जायेगी । अब तो वह भिक्षुओं को मारने पर विचार भी नहीं करेगा ।
शास्ता ने भिक्षुओं से कहा - भिक्षुओं, ब्राह्मण को मारने वाला ब्राह्मण नहीं है । गृहस्थ ब्राह्मण द्वारा श्रमण ब्राह्मण मारा गया होगा । और सारिपुत्र ने वहीं किया । जो ब्राह्मण के योग्य है । फिर तुम्हें पता भी नहीं है । सारिपुत्र के ध्यान पूर्ण व्यवहार ने 1 अंधे को आंखे प्रदान कर दी ।
ब्राह्मण के लिए यह कम श्रेयस्कर नहीं है कि वह प्रिय पदार्थों से मन को हटा लेता है । जहां जहां मन हिंसा से निवृत्त होता है । वहां वहां दुःख शांत हो जाता है ।
न जटा से । न गोत्र से । न जन्म से । ब्राह्मण होता है । जिसमें सत्य और धर्म है । वहीं शुचि है । और वही ब्राह्मण है । हे दुर्बुद्धि ! जटाओं से तेरा क्या बनेगा ? मृगचर्म पहनने से तेरा क्या होगा ? तेरा अंतर तो विकारों से भरा है । बाहर क्या धोता है ? जो सारे संयोजनों को काटकर भयरहित हो जाता है । उस संग और आसक्ति से विरत को मैं ब्राह्मण कहता हूं ।
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आपका ब्लॉग एक अच्छा प्रयास है नव समाज बनाने का.
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