जब मैंने ब्लाग शुरू ही किया था और अपने कुछ लेखों में इस बात का जिक्र कर दिया कि राम और कृष्ण , प्रमुख रूप से निरंजन उर्फ़ कालपुरुष के अवतार थे न कि विष्णु जी के । इस बात पर देश विदेश से त्वरित तीखी प्रतिक्रियायें मिलीं । क्योंकि ज्यादातर शास्त्रों में । लोगों की जानकारी में ये दोनों अवतार विष्णु के हुये थे । आईये । क्या है ? इसके पीछे की असली कहानी ? इस पर चर्चा करते हैं ।
सबसे पहले अपनी धर्म नालेज को समझें - एक साधारण धार्मिक जानकारी रखने वाले को ज्यादातर इतना ही पता होता है । प्रमुख शक्तियाँ सिर्फ़ तीन हैं । बृह्मा विष्णु और शंकर जी । और ये अजन्मा है । अविनाशी हैं आदि आदि..। जबकि इस तरह की ज्यादातर बातें गलत हैं । एक और प्रमुख शक्ति देवियों के बारे में लोगों के विचार अलग अलग हैं । इस मामले में ज्यादातर लोग कन्फ़्यूज हैं । कोई किसी देवी को बङा बताता है । कोई किसी देवी को । देवी उपासकों की ये भी धारणा हैं कि देवी इन त्रिदेवों से भी बङी शक्ति है । और आदिशक्ति भी है । यानी सबसे पहले शुरूआत में । यह बात सही भी है । आदि का मतलब ही शुरूआत है । और इसीलिये उसे आदिशक्ति कहा जाता है । ध्यान रहे आदि.. न कि अनादि ??
अब क्योंकि इस लेख का विषय अवतारवाद पर चर्चा करना है । अतः उसी बात पर आते हैं । तो इतना आप स्वीकार करते हो कि प्रमुख शक्तियों में आप बृह्मा विष्णु शंकर और देवी को ही जानते थे । बाकी राम । कृष्ण । वामन । नरसिंह । वराह आदि हस्तियों को विष्णु का अवतार बता दिया जाता था । हनुमान आदि कोई शंकर के अंश से । कोई और कहीं से । विस्तार से नहीं कह रहा । इसलिये संक्षेप में इतना समझिये कि जिसको हिन्दू धर्म कहते हैं । उसका ज्यादातर ग्यान इन्हीं के इर्द गिर्द घूमता है । अब कोई इन्ही में विष्णु को परमात्मा बताता है । कोई शंकर को ।
अवतार का रहस्य - जैसा कि आपने गीता में श्रीकृष्ण के मुँह से सुना होगा कि ..धर्म संस्थापनाये..युगे युगे..यानी मेन बात ये कि श्रीकृष्ण धर्म संस्थापना के लिये युग युग में अवतार लेते हैं । ये कहीं नहीं सुना होगा कि मैं विष्णु धर्म संस्थापना के लिये कृष्ण रूप में अवतार लूँगा । या राम रूप में अवतार लूँगा । राम ने भी यही कहा कि - मैं असुरों का दमन और नाश करके ऋषियों मुनियों को सुख चैन से यग्यादि और धरा को पापरहित करने के लिये अवतार लेता हूँ । अब सवाल ये है कि ये दो प्रमुख ?? अवतार लेने वाली शक्ति कौन सी है ?
पहले तो शास्त्रों में इस बात को टालमटोल के अन्दाज में घुमाने की पूरी पूरी कोशिश की गयी । लेकिन खोजियों ने । छिद्रान्वेषियों ने जब बात की तह को पकङ लिया । तो इसे घुमा फ़िराकर विष्णु के ऊपर डाल दिया गया । जो कि आंशिक रूप से सच भी है ।
अब जरा आप सोचिये - विष्णु और लक्ष्मी का अपना अपना मंत्रालय है । अपनी डयूटीज है । यदि वे इस अवतार के लिये फ़ुल फ़ोर्म में यहाँ आ जायँ । तो उस अनुपस्थिति की अवधि में मन्त्रालय का कार्य कैसे होगा ?
दूसरी बात शास्त्र के ही अनुसार - यदि विष्णु को ही अवतार लेना है । तो नारद जी तो मानों हर दूसरे तीसरे दिन विष्णु जी के चाय पीने पहुँच जाते हैं । सभी देवता विष्णु के लोक से परिचित हैं । उनका आना जाना मिलना बैठना भी होता रहता है । फ़िर अवतार की चिंता की क्या बात है ?
जब भी अवतार होता है । सभी देवता लालायित होकर विभिन्न वेशों में प्रथ्वी पर आ जाते हैं कि प्रभु ?? अवतार लेने वाले हैं । अक्सर ही विष्णु जी के साथ रहने वाले देवताओं को आखिर विष्णु के रूप बदलकर अवतार लेने पर क्या आकर्षण हो सकता है ? अगर लीला देखने वाला प्वाइंट रखो । तो अवतार से बङिया लीलायें देवलोकों में होती रहती हैं ।
यदि आप शास्त्रों की सामान्य से थोङी अधिक जानकारी रखते हैं । तो सभी राक्षस विष्णु से वैर मानते हैं । असुरों को उनसे कोई खास भय भी नहीं लगता । और युद्ध आदि भी करते रहते हैं । जहाँ देवताओं के गुरु बृहस्पति है । असुरों के शुक्राचार्य । और इन सबकी मीटिंग । खुफ़िया प्लानिंग । एक दूसरे की रणनीति राजनीति आदि के बारे में जानकारी की बातें होती ही रहती हैं । आम हैं । तो ये विष्णु किसी और रूप में आ जायँ । इससे उन्हें क्या असर पङेगा ?
आप तुलसी रामायण को ही देखिये - रावण का आतंक और प्रथ्वी पर पाप का अत्यधिक बोझ । प्रथ्वी गाय का रूप रखकर देवताओं के पास जाती हैं । सभी देवता जिनमें बृह्मा विष्णु ?? शंकर भी थे । विचार करते हैं कि क्या किया जाय ? प्रभु कहाँ रहते हैं ?? कैसे उनसे अवतार की प्रार्थना की जाय ??
मुख्य बात ये है कि विष्णु को ही ये कार्य करना था । तो फ़िर इस सब झमेले की क्या आवश्यकता थी ?? वे तो साथ में ही मौजूद थे उस वक्त । गहराई से सोचिये ??
खैर..तब उसी समय शंकर जी कहते हैं - हरि व्यापक सर्वत्र समाना । प्रेम से प्रगट होत " मैं " जाना ।
इसका भी लोग गलत अर्थ लगा लेते हैं । सही यह है - प्रभु सभी जगह मौजूद हैं । जब इंसान का मैं ? यानी अहम चला जाता है । और प्रेम रह जाता है । तो प्रभु प्रगट हो जाते हैं ।
ठीक इसी तरह की उलझन कृष्ण अवतार से पहले होती है । जिसकी बेहद लम्बी चौङी भूमिका बनती है । प्रश्न वही ? यदि ये मामला विष्णु का ही है । तो फ़िर इस सबकी कोई आवश्यकता ही नहीं । अब आप इन बिंदुओं के आधार पर नये सिरे से विचार करें ।
अब प्रसंगवश एक और महत्वपूर्ण चौपाई देखिये -
जाके प्रिय न राम वैदेही । तजिये ताहि कोटि वैरी सम । जधपि परम सनेही ।
प्रचलित अर्थ - जिसको दशरथी राम सीता ( वैदेही ) प्रिय न हों । उसे चाहे वो कितना ही स्नेही प्रिय हो । करोङों वैरियों के समान त्याग देना चाहिये ।
सही अर्थ - वैदेही स्थिति ( यानी जब तन मन का होश न रहे ) में ग्यात होने वाले राम ! जिसको प्रिय न हों । उसे करोङों वैरियों के समान त्याग देना चाहिये । और दशरथ के राम मन से ही पता हैं । बच्चा बच्चा जानता है ।
ध्यान रहे । सीता के पिता जनक जी को भी वैदेही कहा जाता है । और सीता जी को भी वैदेही कहा जाता है । जनक जी योग की इस उच्च स्थिति में निपुण थे । सीता...सिर्फ़ राम का चिंतन इस उच्च स्थिति में करती थीं । इसलिये उन्हें वैदेही कहा गया है । वैदेही यानी बे - देही यानी बिना देह ( जिसमें मन भी शामिल है ) की स्थिति । यानी योग की उच्च स्थिति ! जिसमें शरीर का भान नहीं रहता ।
अब इस लेख की मुख्य बात - सच तो ये है कि हर समय यानी जब अवतार हो चुका होता है । राम ( दशरथ पुत्र ) अपने रामलोक में रहते हैं । ठीक उसी समय ( यानी हर समय ही ) श्रीकृष्ण अपने गोलोक में होते हैं । ठीक उसी समय विष्णु और शंकर भी अपने अपने लोक में होते हैं । याने पूर्णरूपेण ये लोग अपना लोक नहीं छोङ सकते । पहले तो छोङने की कोई आवश्यकता ही नहीं । और छोङे । तो किसके भरोसे छोङें ?
तब अवतार कौन लेता है - सन्तों की भाषा में अवतार आधा होता है ।..इसको इस तरह समझें कि जरूरत के मुताबिक एक नया माडल बनाया जाता है । जिसमें एक स्पेशल चेस पर.. इंजन किसी का । बाडी किसी की । पावर किसी की । ऊर्जा किसी की । सर्किट किसी का । सिस्टम किसी का आदि आदि । ( आपको दधीचि की हड्डियों का वजृ याद ही होगा ) इस तरह प्रमुख शक्तियाँ अवतार को अपनी अपनी शक्ति का अंश उस वक्त की जरूरत के अनुसार दे देती हैं । देती रहती हैं । ( जिस तरह विश्व में किन्हीं देश में युद्ध होने पर एक अस्थायी अड्डा बनाकर वहाँ आवश्यक चीजें पहुँचायीं जातीं हैं ) अवतार का कार्य समाप्त होने पर ये सभी शक्ति अंश जहाँ के तहाँ चले जाते हैं । अब क्योंकि राम और कृष्ण के अवतार में मुख्य भूमिका निरंजन और कालपुरुष की होती है । ( क्योंकि चालाक राक्षस वरदान मांग लेते हैं कि वे किसी देवता से कभी भी न मारे जायँ । और राम । कृष्ण । विष्णु आदि सभी किसी न किसी एंगल से देवताओं की श्रेणी में आते हैं । निरंजन इनमें से किसी उपाधि से युक्त नहीं हैं । राक्षसों के लिये अपरिचित है । त्रिलोकी की सर्वोच्च सत्ता है । अतः इन अवतारों का आधार वही होता है ) उससे कम विष्णु की । इन्द्र की..और अन्य देवताओं की ।
अब क्योंकि काल निरंजन सदैव ही अदृश्य और गुप्त शक्ति है । अतः ये बात विष्णु के लिये कह दी जाती है । ( क्योंकि ज्यादातर अवतारों का जिम्मा उन्हीं का है । दूसरे आखिर किसी को तो मानेंगे । अन्यथा ये समस्या पैदा हो जायेगी कि ये गुप्त भगवान आखिर कौन हैं ? ) क्योंकि निरंजन कभी नहीं चाहता कि कोई उसको जाने । अतः निरंजन का सिर्फ़ दो बेस राम और कृष्ण के रूप में अवतार होता है । जब राम रूप में होता है । तब राम के ( अंश अधिक ) सव यथोचित गुण होते हैं । और कृष्ण रूप में - तब कृष्ण के ( अंश अधिक ) सभी गुण होते हैं । अतः शास्त्र अवतार के बारे में कोई सटीक बात नहीं कहते । इसलिये प्रसंग अनुसार ( और कालपुरुष की इच्छानुसार महामाया के खेल से ) यह बात विष्णु के लिये भी कह दी जाती है । जो आंशिक ही सही सच है ।
हालांकि मैंने आपको साधारण तरीके से मोटे अन्दाज में बात समझाने की कोशिश अवश्य की है । वास्तव में रियल मैटर थोङा और अधिक जटिल है ।
विशेष - समयाभाव की वजह से लेख में कोई भाव कभी कभी अधूरा रह जाता है । कभी कभी कोई प्वाइंट मिस भी हो जाता है । अतः एकदम कोई धारणा न बनायें । यदि कोई प्रश्न उठता है । तो चर्चा करें ।
सबसे पहले अपनी धर्म नालेज को समझें - एक साधारण धार्मिक जानकारी रखने वाले को ज्यादातर इतना ही पता होता है । प्रमुख शक्तियाँ सिर्फ़ तीन हैं । बृह्मा विष्णु और शंकर जी । और ये अजन्मा है । अविनाशी हैं आदि आदि..। जबकि इस तरह की ज्यादातर बातें गलत हैं । एक और प्रमुख शक्ति देवियों के बारे में लोगों के विचार अलग अलग हैं । इस मामले में ज्यादातर लोग कन्फ़्यूज हैं । कोई किसी देवी को बङा बताता है । कोई किसी देवी को । देवी उपासकों की ये भी धारणा हैं कि देवी इन त्रिदेवों से भी बङी शक्ति है । और आदिशक्ति भी है । यानी सबसे पहले शुरूआत में । यह बात सही भी है । आदि का मतलब ही शुरूआत है । और इसीलिये उसे आदिशक्ति कहा जाता है । ध्यान रहे आदि.. न कि अनादि ??
अब क्योंकि इस लेख का विषय अवतारवाद पर चर्चा करना है । अतः उसी बात पर आते हैं । तो इतना आप स्वीकार करते हो कि प्रमुख शक्तियों में आप बृह्मा विष्णु शंकर और देवी को ही जानते थे । बाकी राम । कृष्ण । वामन । नरसिंह । वराह आदि हस्तियों को विष्णु का अवतार बता दिया जाता था । हनुमान आदि कोई शंकर के अंश से । कोई और कहीं से । विस्तार से नहीं कह रहा । इसलिये संक्षेप में इतना समझिये कि जिसको हिन्दू धर्म कहते हैं । उसका ज्यादातर ग्यान इन्हीं के इर्द गिर्द घूमता है । अब कोई इन्ही में विष्णु को परमात्मा बताता है । कोई शंकर को ।
अवतार का रहस्य - जैसा कि आपने गीता में श्रीकृष्ण के मुँह से सुना होगा कि ..धर्म संस्थापनाये..युगे युगे..यानी मेन बात ये कि श्रीकृष्ण धर्म संस्थापना के लिये युग युग में अवतार लेते हैं । ये कहीं नहीं सुना होगा कि मैं विष्णु धर्म संस्थापना के लिये कृष्ण रूप में अवतार लूँगा । या राम रूप में अवतार लूँगा । राम ने भी यही कहा कि - मैं असुरों का दमन और नाश करके ऋषियों मुनियों को सुख चैन से यग्यादि और धरा को पापरहित करने के लिये अवतार लेता हूँ । अब सवाल ये है कि ये दो प्रमुख ?? अवतार लेने वाली शक्ति कौन सी है ?
पहले तो शास्त्रों में इस बात को टालमटोल के अन्दाज में घुमाने की पूरी पूरी कोशिश की गयी । लेकिन खोजियों ने । छिद्रान्वेषियों ने जब बात की तह को पकङ लिया । तो इसे घुमा फ़िराकर विष्णु के ऊपर डाल दिया गया । जो कि आंशिक रूप से सच भी है ।
अब जरा आप सोचिये - विष्णु और लक्ष्मी का अपना अपना मंत्रालय है । अपनी डयूटीज है । यदि वे इस अवतार के लिये फ़ुल फ़ोर्म में यहाँ आ जायँ । तो उस अनुपस्थिति की अवधि में मन्त्रालय का कार्य कैसे होगा ?
दूसरी बात शास्त्र के ही अनुसार - यदि विष्णु को ही अवतार लेना है । तो नारद जी तो मानों हर दूसरे तीसरे दिन विष्णु जी के चाय पीने पहुँच जाते हैं । सभी देवता विष्णु के लोक से परिचित हैं । उनका आना जाना मिलना बैठना भी होता रहता है । फ़िर अवतार की चिंता की क्या बात है ?
जब भी अवतार होता है । सभी देवता लालायित होकर विभिन्न वेशों में प्रथ्वी पर आ जाते हैं कि प्रभु ?? अवतार लेने वाले हैं । अक्सर ही विष्णु जी के साथ रहने वाले देवताओं को आखिर विष्णु के रूप बदलकर अवतार लेने पर क्या आकर्षण हो सकता है ? अगर लीला देखने वाला प्वाइंट रखो । तो अवतार से बङिया लीलायें देवलोकों में होती रहती हैं ।
यदि आप शास्त्रों की सामान्य से थोङी अधिक जानकारी रखते हैं । तो सभी राक्षस विष्णु से वैर मानते हैं । असुरों को उनसे कोई खास भय भी नहीं लगता । और युद्ध आदि भी करते रहते हैं । जहाँ देवताओं के गुरु बृहस्पति है । असुरों के शुक्राचार्य । और इन सबकी मीटिंग । खुफ़िया प्लानिंग । एक दूसरे की रणनीति राजनीति आदि के बारे में जानकारी की बातें होती ही रहती हैं । आम हैं । तो ये विष्णु किसी और रूप में आ जायँ । इससे उन्हें क्या असर पङेगा ?
आप तुलसी रामायण को ही देखिये - रावण का आतंक और प्रथ्वी पर पाप का अत्यधिक बोझ । प्रथ्वी गाय का रूप रखकर देवताओं के पास जाती हैं । सभी देवता जिनमें बृह्मा विष्णु ?? शंकर भी थे । विचार करते हैं कि क्या किया जाय ? प्रभु कहाँ रहते हैं ?? कैसे उनसे अवतार की प्रार्थना की जाय ??
मुख्य बात ये है कि विष्णु को ही ये कार्य करना था । तो फ़िर इस सब झमेले की क्या आवश्यकता थी ?? वे तो साथ में ही मौजूद थे उस वक्त । गहराई से सोचिये ??
खैर..तब उसी समय शंकर जी कहते हैं - हरि व्यापक सर्वत्र समाना । प्रेम से प्रगट होत " मैं " जाना ।
इसका भी लोग गलत अर्थ लगा लेते हैं । सही यह है - प्रभु सभी जगह मौजूद हैं । जब इंसान का मैं ? यानी अहम चला जाता है । और प्रेम रह जाता है । तो प्रभु प्रगट हो जाते हैं ।
ठीक इसी तरह की उलझन कृष्ण अवतार से पहले होती है । जिसकी बेहद लम्बी चौङी भूमिका बनती है । प्रश्न वही ? यदि ये मामला विष्णु का ही है । तो फ़िर इस सबकी कोई आवश्यकता ही नहीं । अब आप इन बिंदुओं के आधार पर नये सिरे से विचार करें ।
अब प्रसंगवश एक और महत्वपूर्ण चौपाई देखिये -
जाके प्रिय न राम वैदेही । तजिये ताहि कोटि वैरी सम । जधपि परम सनेही ।
प्रचलित अर्थ - जिसको दशरथी राम सीता ( वैदेही ) प्रिय न हों । उसे चाहे वो कितना ही स्नेही प्रिय हो । करोङों वैरियों के समान त्याग देना चाहिये ।
सही अर्थ - वैदेही स्थिति ( यानी जब तन मन का होश न रहे ) में ग्यात होने वाले राम ! जिसको प्रिय न हों । उसे करोङों वैरियों के समान त्याग देना चाहिये । और दशरथ के राम मन से ही पता हैं । बच्चा बच्चा जानता है ।
ध्यान रहे । सीता के पिता जनक जी को भी वैदेही कहा जाता है । और सीता जी को भी वैदेही कहा जाता है । जनक जी योग की इस उच्च स्थिति में निपुण थे । सीता...सिर्फ़ राम का चिंतन इस उच्च स्थिति में करती थीं । इसलिये उन्हें वैदेही कहा गया है । वैदेही यानी बे - देही यानी बिना देह ( जिसमें मन भी शामिल है ) की स्थिति । यानी योग की उच्च स्थिति ! जिसमें शरीर का भान नहीं रहता ।
अब इस लेख की मुख्य बात - सच तो ये है कि हर समय यानी जब अवतार हो चुका होता है । राम ( दशरथ पुत्र ) अपने रामलोक में रहते हैं । ठीक उसी समय ( यानी हर समय ही ) श्रीकृष्ण अपने गोलोक में होते हैं । ठीक उसी समय विष्णु और शंकर भी अपने अपने लोक में होते हैं । याने पूर्णरूपेण ये लोग अपना लोक नहीं छोङ सकते । पहले तो छोङने की कोई आवश्यकता ही नहीं । और छोङे । तो किसके भरोसे छोङें ?
तब अवतार कौन लेता है - सन्तों की भाषा में अवतार आधा होता है ।..इसको इस तरह समझें कि जरूरत के मुताबिक एक नया माडल बनाया जाता है । जिसमें एक स्पेशल चेस पर.. इंजन किसी का । बाडी किसी की । पावर किसी की । ऊर्जा किसी की । सर्किट किसी का । सिस्टम किसी का आदि आदि । ( आपको दधीचि की हड्डियों का वजृ याद ही होगा ) इस तरह प्रमुख शक्तियाँ अवतार को अपनी अपनी शक्ति का अंश उस वक्त की जरूरत के अनुसार दे देती हैं । देती रहती हैं । ( जिस तरह विश्व में किन्हीं देश में युद्ध होने पर एक अस्थायी अड्डा बनाकर वहाँ आवश्यक चीजें पहुँचायीं जातीं हैं ) अवतार का कार्य समाप्त होने पर ये सभी शक्ति अंश जहाँ के तहाँ चले जाते हैं । अब क्योंकि राम और कृष्ण के अवतार में मुख्य भूमिका निरंजन और कालपुरुष की होती है । ( क्योंकि चालाक राक्षस वरदान मांग लेते हैं कि वे किसी देवता से कभी भी न मारे जायँ । और राम । कृष्ण । विष्णु आदि सभी किसी न किसी एंगल से देवताओं की श्रेणी में आते हैं । निरंजन इनमें से किसी उपाधि से युक्त नहीं हैं । राक्षसों के लिये अपरिचित है । त्रिलोकी की सर्वोच्च सत्ता है । अतः इन अवतारों का आधार वही होता है ) उससे कम विष्णु की । इन्द्र की..और अन्य देवताओं की ।
अब क्योंकि काल निरंजन सदैव ही अदृश्य और गुप्त शक्ति है । अतः ये बात विष्णु के लिये कह दी जाती है । ( क्योंकि ज्यादातर अवतारों का जिम्मा उन्हीं का है । दूसरे आखिर किसी को तो मानेंगे । अन्यथा ये समस्या पैदा हो जायेगी कि ये गुप्त भगवान आखिर कौन हैं ? ) क्योंकि निरंजन कभी नहीं चाहता कि कोई उसको जाने । अतः निरंजन का सिर्फ़ दो बेस राम और कृष्ण के रूप में अवतार होता है । जब राम रूप में होता है । तब राम के ( अंश अधिक ) सव यथोचित गुण होते हैं । और कृष्ण रूप में - तब कृष्ण के ( अंश अधिक ) सभी गुण होते हैं । अतः शास्त्र अवतार के बारे में कोई सटीक बात नहीं कहते । इसलिये प्रसंग अनुसार ( और कालपुरुष की इच्छानुसार महामाया के खेल से ) यह बात विष्णु के लिये भी कह दी जाती है । जो आंशिक ही सही सच है ।
हालांकि मैंने आपको साधारण तरीके से मोटे अन्दाज में बात समझाने की कोशिश अवश्य की है । वास्तव में रियल मैटर थोङा और अधिक जटिल है ।
विशेष - समयाभाव की वजह से लेख में कोई भाव कभी कभी अधूरा रह जाता है । कभी कभी कोई प्वाइंट मिस भी हो जाता है । अतः एकदम कोई धारणा न बनायें । यदि कोई प्रश्न उठता है । तो चर्चा करें ।
2 टिप्पणियां:
बहुत गहन चिंतन..सोचने को मज़बूर कर देता आलेख..आभार
aapke sabhi sawalon ka sahi jwab mere paas hai jo aapne hindutv pr swal utaye hai saab ka satik jwab janna hai to mujhse mere id pr sampark kre -avi49184@gmail.com ya sahotaavi@ymail.com aaise jwavb milenge ki aapna blog bal lo ge ya band kar do gey
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