27 अप्रैल 2011

एक हत्यारी देवी का मन्दिर


पूजा करने आये हो या किसी बेबस बेजुबान को काटने मारने आये हो ।   बलि देने का शौक है । तो शेर चीतों की बलि दो ।



 बलि हत्या का तमाशा शौक से देखते लोग । अब क्या कहा जाय इनके बारे में ?


माटी कहे कुम्हार से तू क्या रूँधे मोय ।  एक दिन ऐसा आयेगा मैं रूदूँगी तोय ।
अभी वो बेचारा बेबस से । इसलिये कर ले मन  की बेटा । अगले जन्म में ऐसे ही ये तुझे काटेगा । तब कल्पना कर तुझे कैसा लगेगा ?


वाह रे बहादुरों ! टीका तो ऐसे लगा रहे हो । जैसे एक असहाय जानवर को मारकर कोई युद्ध जीत लिया हो । धिक्कार है । तुम्हारे मनुष्य होने पर ।

परमात्मा मर गया

सावधान रहो - बुद्धों से । क्राइस्टों से । कृष्णों से । मुझसे भी सावधान रहो । निष्कर्ष तो तुम्हारे अपने जीवन से ही आने चाहिए । अनुभव में उतरो । बनो अपने अनुभव के प्रति प्रामाणिक । और निष्कर्षों को अपनी विशिष्ट एवं व्यक्तिगत खोज से आने दो । सत्य तुम पर घटित होगा । लेकिन यदि तुम दूसरों से उधार लेते रहे । तो वह कभी भी घटित नहीं होगा । वह सत्य का परिपूरक बन जाता है । वैसा सत्य समस्याएं ज्यादा खड़ी कर देता है । सुलझाता कम है ।
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स्वर्ग:परोक्षवादो वेदोयम बालानामनुशासनम ।
कर्ममोक्षाय कर्माणि विधत्ते ह्यगदम यथा ।
- यह वेद सापेक्ष हैं । यह कर्मों से मुक्ति के लिये उचित कर्म का विधान करता है । जैसे बालक को औषधि देने के लिये मिठाई आदि का लालच दिया जाता है । वैसे ही यह अज्ञानियों को श्रेष्ठ कर्म में प्रवृत्त करने के लिये स्वर्ग आदि का प्रलोभन देता है । श्रीमदभागवत, एकादश स्कन्ध, अध्याय 3 श्लोक 44
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परमात्मा मर गया है - कभी ऐसे लोग थे । जो कि आस्तिक थे । जो सचमुच में ही विश्वास करते थे कि परमात्मा है । ऐसे भी लोग थे । जो कि पक्के नास्तिक थे । जो कि उतनी ही त्वरा से विश्वास करते थे कि परमात्मा नहीं है । लेकिन आधुनिक मन उदासीन है । वह चिंता नहीं करता कि परमात्मा है । या नहीं । यह बात असंगत है । कोई परमात्मा के पक्ष में । या विपक्ष में । सिद्ध करने में रस नहीं लेता । वास्तव में यही अर्थ है नीत्शे की घोषणा का कि - परमात्मा मर गया है ।
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पृथ्वी जीवित है - प्राचीन ग्रंथ तो यह कहते ही हैं । पर अब कुछ वैज्ञानिकों को भी संदेह है कि पृथ्वी भी स्वांस लेती है । पृथ्वी भी स्वांस लेती है । रोएं रोएं छिद्र छिद्र से । और इसीलिए कोई भी पृथ्वी जीवित नहीं हो सकती । अगर उसके पास कम से कम 200 मील का वायु का घेरा न हो । यह हमारी पृथ्वी भी, 200 मील तक वायु का घेरा है । इसके चारों तरफ । इसलिए अब तो वैज्ञानिकों को सूत्र मिल गया है कि जिस ग्रह के पास भी वायु का घेरा है । अगर उसमें कार्बन और आक्सीजन की 1 निश्‍चित मात्रा है । तो वहां जीवन होगा । क्योंकि वह पृथ्वी जीवित है । इसका मतलब हुआ कि कुछ पृथ्‍वियां जीवित हैं । कुछ पृथ्‍वियां मृत हैं ।
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यह कृष्ण और जीसस क्या कह रहे हैं ? - जीसस ने कहा है - बिफोर अब्राहम आइ वॉज । अब्राहम था । उसके पहले भी मैं था । अब्राहम को हुए हजारों वर्ष हो चुके थे । जीसस के वक्त में । अर्जुन से कृष्ण ने कहा है कि - इस गीता को जो मैं तुझे कहता हूं । मैंने पहले फलां ऋषि को कहा था । उसके पहले फलां ऋषि को कहा था । उसके पहले फलां ऋषि को कहा था । और इन ऋषियों को हुए हजारों वर्ष हो चुके थे । इसका क्या मतलब ? कृष्ण और जीसस यह कह रहे हैं कि समय के आयाम में जो प्रथम है । वह भी मैं हूं । और समय के आयाम में जो अंतिम होगा । वह भी मैं हूं । यह जो समय की धारा है । इसमें प्रथम और अंतिम जुड़े हैं । यह समय की पूरी धारा मेरी ही धारा है । क्षुद्रतम कण है । उसमें भी मैं हूं । और 1 विराट सूर्य है । उसमें भी मैं हूं । यह क्षेत्र, स्पेस के 2 छोर हैं । छोटे से छोटा, बड़ा से बड़ा । पहला, अंतिम । ये समय के छोर हैं । हर आयाम में 1 का ही विस्तार है ।
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क्या प्रमाण है कि प्रेम है ? - हनुमान से कोई पूछता है । तो अपनी छाती फाड़कर बता देते हैं । मगर अगर अभी इस वक्त बताएंगे । तो हम पकड़कर उनकी जांच करवाएंगे कि जरूर कोई चालबाजी है । इसमें राम जो अंदर दिखायी पड़ते हैं । पहले से कुछ इंतजाम किया हुआ है । प्रि-अरेंज्‍ड है । होना चाहिए । अन्यथा हृदय में कहां राम होने वाले हैं । क्या प्रमाण है कि प्रेम है ? अब तक तो कोई प्रमाण दिया नहीं जा सका । आपके हृदय को काटा पीटा जाए । वहां कोई प्रेम नहीं मिलता । आपके हृदय में फुकस मिलता है । जो स्वांस को चलाने का यंत्र है । जीवन 1 रहस्य है । और रहस्य को समझने जब भी कोई तर्क से चलेगा । तो असल में वह नहीं समझने का तय करके चला ।
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जो पिंड में है । वही ब्रह्मांड में है - कुछ रूसी वैज्ञानिकों का खयाल बनना शुरू हुआ है कि जैसे हमारी छाती फूलती है । और सिकुड़ती है स्वांस लेने में । ऐसे पृथ्वी प्रतिपल थोड़ी बड़ी और छोटी होती है । बहुत बार शायद पृथ्वी के इसी हड़कंप से बहुत से हलन चलन पैदा हो जाते हैं । आज नहीं कल यह बात शायद साफ हो जाएगी कि पृथ्वी पर भी हृदय के दौरे पड़ जाते हैं । न केवल पृथ्वी । बल्कि पूरा विश्व भी । यूनिवर्स भी स्वांस लेता है । इसी को हिंदुओं ने कहा है कि - जो अंड में है । जो पिंड में है । वही ब्रह्मांड में है । विस्तार है । जो अणु में है । वही विराट में है । विस्तार का फर्क है ।
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स्वप्न और तथाकथित वास्तविकता के बीच केवल 1 भेद है कि स्वप्न निजी वास्तविकता है । और जो संसार है । वो 1 सार्वजनिक स्वप्न है । मनुष्य स्वयं के स्वप्न मे किसी को साझीदार नही बना सकता । वो 1 निजी संसार है । तो फिर ये संसार क्या है ? ये 1 सामूहिक स्वप्न है । हम सब 1 साथ स्वप्न देखते हैँ । क्योँकि हमारे मन 1 ही ढंग से कार्य करते हैं । 1 सीधी छड़ी को पानी मे डुबोने पर वो तत्क्षण टेढ़ी दिखाई देती है । बाहर निकालते ही दिखाई देता है । वो सीधी ही है । मन का ढंग और प्रकाश किरणोँ का व्यवहार 1 धोखा निर्मित कर देता है । एक भ्रम - कि वह मुड़ गई है । सभी को वो मुड़ी हुई ही दिखाई देगी । किसी का ज्ञान काम न आएगा । ये 1 सामूहिक भ्रम है । इसी तरह संसार 1 सामूहिक स्वप्न है ।
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यह इंद्रजाल है । इनका हम कौन कौन से विधान ( प्रयोग ) में उपयोग कर सकते है ? इसकी पूजा करनी चाहिए कि नहीं ? आप महानुभावों से मेरी विनती है कि इसके बारे में योग्य मार्गदर्शन दीजिये । अथवा कोई ग्रन्थ का

सूचन करें । जिसमें इंद्रजाल के बारे में सम्पूर्ण जानकारी हो ।
( इंटरनेट के एक पेज से । उत्तर भी वहीं से )
यह श्याम ( syam ) सिद्ध समुद्री वनस्पति है । इसे रवि पुष्य नक्षत्र में पंचोपचार से पूजन करके जिस कार्य के लिये सिद्ध करना है । उसकी 11 माला करें । दशांश हवन करें । इसे फ़्रेम में लगाकर धूप दीप दिखाते रहें - लाल बाबा ।   

26 अप्रैल 2011

सदगुरु और शिष्यों को शराब पिलाए

जार्ज गुरजिएफ के पास जब भी कोई नये शिष्य आते थे । तो पहला उसका काम था कि वह उनको इतनी शराब पिला देता । अब यह तुम थोड़े हैरान होओगे कि कोई सदगुरु और शिष्यों को शराब पिलाए । लेकिन गुरजिएफ के अपने रास्ते थे । हर सदगुरु के अपने रास्ते होते हैं । इतनी शराब पिला देता । पिलाए ही जाता । पिलाए ही जाता । जब तक कि वह बिलकुल बेहोश न हो जाता । गिर न जाता । अल्ल बल्ल न बकने लगता । जब वह अल्ल बल्ल बकने लगता । तब वह बैठकर सुनता कि - वह क्या कह रहा है । वह उसके आधार पर उसकी साधना तय करता । क्योंकि जब तक वह होश में है । तब तक तो वह धोखा देगा । तब तक मसला कुछ और होगा । बताएगा कुछ और । कामवासना से पीड़ित होगा । और ब्रह्मचर्य के संबंध में पूछेगा । धन के लिए आतुर होगा । और ध्यान की चर्चा चलायेगा । पद के लिए भीतर महत्त्वाकांक्षा होगी । और संन्यास क्या है ? ऐसे प्रश्न उठायेगा । भोग में लिप्सा होगी । और त्याग के संबंध में विचार विमर्श करेगा । क्यों ? क्योंकि ये अच्छी अच्छी बातें हैं । और इन अच्छी अच्छी बातों पर बात करने से प्रतिष्ठा बढ़ती है । लोग अपनी सच्ची समस्याएं भी नहीं कहते । लोग ऐसी समस्याओं पर चर्चा करते हैं । जो उनकी समस्याएं ही नहीं हैं । जिनसे उनका कुछ लेना देना नहीं है । और अगर तुम चिकित्सक को ऐसी बीमारी बताओगे । जो तुम्हारी बीमारी नहीं है । तो इलाज कैसे होगा ?
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लोग प्रमाण या अथॉरिटी के बड़े दीवाने होते हैं । 1 मित्र मेरे पास आए । यही अभी परसों । उन्होंने कहा कि मैं बहुत परेशान था । नींद मुझे नहीं आती थी । नींद खो गई थी । इससे चिंतित था । मनोवैज्ञानिक के पास गया । तो मनोवैज्ञानिक ने कहा कि - यह तो बिलकुल ठीक है । मनोवैज्ञानिक ने पूछा कि - सेक्स के बाबत तुम्हारी क्या स्थिति है ? तो मनोवैज्ञानिक ने उनसे कहा कि तुम हस्तमैथुन, मस्टरबेशन शुरू कर दो । उन्होंने कहा कि - कैसी बात कहते हैं ? तो उन्होंने कहा - यह तो स्वभाव है । यह तो आदमी को करना ही पड़ता है । जब मनोवैज्ञानिक कहता हो । वे राजी हो गए । फिर 2 साल में उस हालत में पहुंच गए कि उसी मनोवैज्ञानिक ने कहा कि - अब तुम्हें इलेक्ट्रिक शॉक की जरूरत है । अब तुम बिजली के शॉक्स लो । अब जब मनोवैज्ञानिक कह रहा है । और हम तो अथारिटी के ऐसे दीवाने हैं । ऐसे पागल हैं । और जो चीज जब अथारिटी बन जाए । कभी मंदिर का पुरोहित अथारिटी था । तो वह जो कह दे । वह सत्य था । अब वह पौरोहित्य जो है मंदिर का । वह मनोवैज्ञानिक के हाथ में आया जा रहा है । अब वह जो कह दे । वह सत्य है । तो बिजली के शॉक ले लिए । सब तरह से व्यक्तित्व अस्त व्यस्त हो गया ।
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ॐ 1 गुप्त कुंजी भी है । जब मैं कहता हूं कि - गुप्त कुंजी । तो मेरा अर्थ है कि वह अंतिम ध्वनि से मिलती जुलती है । यदि आप उसका उपयोग कर सकें । और उसके साथ साथ धीरे धीरे भीतर गहरे में जा सकें । तो आप अंतिम द्वार तक पहुंच जाएंगे । क्योंकि वह मिलता जुलता है । और वह और भी अधिक मिलेगा । यदि आप कुछ बातें और करें । जैसे यदि आप ॐ का उच्चारण करें । तो अपने होंठ काम में मत लें । केवल अपने भीतर अपने मन की सहायता से ॐ की ध्वनि उत्पन्‍न करें । अपने शरीर को भी काम में मत लें । तब वह और भी मिलती जुलती होगी । क्योंकि तब आप 1 और अधिक सूक्ष्म माध्यम का उपयोग करेंगे । मन का भी उपयोग न करें । बस भीतर ॐ शब्द की ध्वनि उत्पन्‍न करें । तब उसे भी बंद कर दें । और ध्वनि को प्रतिध्वनित होने दें । कोई भी प्रयास न करें । यह अपने से आता है । तब यह वह जप बन जाता है । तब वह और भी गहरा चला जाता है । और आप उसे 1 कुंजी की भांति काम में ले सकते हैं ।
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मैं जब जीसस को देखता हूं । तो मुझे वे गहरे ध्यान में डूबे दिखाई देते
है । गहन संबोधि में है वे । परंतु उनको ऐसी जाति के लोगों में रहना पडा । जो धार्मिक या दार्शनिक नहीं थे । वे बिलकुल राजनीतिक थे । इन यहूदियों का मस्तिष्क और ही ढंग से काम करता है ? इसलिए इनमें कोई दार्शनिक नहीं हुआ । इनके लिए जीसस अजनबी थे । और वे बहुत गड़बड़ कर रहे थे । यहूदियों की जमी जमायी व्यवस्था को बिगाड़ रहे थे जीसस । अंत: उन्हें चुप कराने के लिए यहूदियों ने उनको सूली लगा दी । सूली पर वे मरे नहीं । उनके शरीर को सूली से उतार कर जब 3 दिन के लिए गुफा में रखा गया । तो मलहम आदि लगाकर उसे ठीक किया गया । और वहीं से जीसस पलायन कर गए । इसके बाद वे मौन हो गए । और अपने ग्रुप के साथ अर्थात अपनी शिष्य मंडली के साथ वे चुपचाप गुह्म रहस्यों की साधना करते रहे । ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी गुप्त परंपरा आज भी चल रही है । जीसस को समझने के लिए जरूरी है कि ईसाईयत द्वारा की गई उनकी व्याख्या को बीच में से हटाकर सीधे उनको देखा जाए । तब उनकी आंतरिक संपदा से हम समृद्ध हो सकत हैं ।
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मैं गया सुसराड़ । नया कुर्ता गाड़ ।
दाढ़ी बनवाई बाल रंग्वाए । रेहड़ी पर ते संतरे तुलवाए ।
हाथ मैं दो किलो फ्रूट । मैं हो रया सूटम सूट ।
फागन का महीना था । आ रया पसीना था ।
पोहंच गया गाम मैं । मीठे मीठे घाम मैं ।
सुसराड़ का टोरा था । मैं अकड में होरा था ।
साले मिलगे घर के बाहर । बोले आ रिश्तेदार आ रिश्तेदार ।
बस मेरी खातिरदारी शुरू होगी ।
रात ने खा पीके सो गया तडके मेरी बारी शुरू होगी ।
सोटे ले ले शाहले आगी । मेरे ते मिठाईया के पैसे मांगन लागी ।
दो दो चार चार सबने लगाये । पैसे भी दिए और सोटे भी खाए ।
साली भी मेरी मुह ने फेर गी । गाढ़ा रंग घोल के सर पे गेर गी ।
सारा टोरा हो गया था ढिल्ला ढिल्ला ।
गात हो गया लिल्ला लिल्ला गिल्ला गिल्ला ।
रहा सहा टोरा साला ने मिटा दिया । भर के कोली नाली में लिटा दिया ।
साँझ ताहि देहि काली आँख लाल होगी । बन्दर बरगी मेरी चाल होगी ।
बटेऊ हाडे तो नु हे सोटे खावेगा । बता फेर होली पे हाडे आवेगा ।
मैं हाथ जोड़ बोल्या या गलती फेर नहीं दोहराऊंगा ।
होली तो के मैं थारे दिवाली ने भी नहीं आउंगा ।

बुद्धओं ने बना लिये बहुत धर्म

1 गांव में 1 शराबी लड़खड़ाता लड़खड़ाता पादरी के पास पहुंचा । और उसने कहा - 1 बात मुझे पूछनी है । आदमी को गठिया कैसे हो जाता है ? पादरी को मौका मिला । इस तरह के लोग तो इसी मौके की तलाश में रहते हैं । पादरी को मौका मिला । उसने कहा - मैंने तुमसे हजार बार कहा कि शराब पीना बंद करो । नहीं तो गठिया हो जाएगा । यह अच्छा अवसर था । इस अवसर पर शिक्षा दे देनी चाहिए । ऐसे ही तो साधु संत शिक्षा दे देते हैं । कितनी बार मैंने कहा कि गठिया हो जाएगा । अगर शराब पीनी बंद न की । उसने कहा - मैं अपने बाबत नहीं कुछ पूछ रहा हूं । मैंने अखबार में पढ़ा है कि वैटिकन में पोप को गठिया हो गया है । तो मैं तो इसलिए पूछ रहा हूं कि गठिया कैसे हो गया ? मुझको हो जाए ठीक । मैं तो शराब पीता हूं जाहिर बात है । मगर पोप को कैसे गठिया हो गया ?
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मैं तुमसे कहता हूं कि ज्यादा भोजन मत करो । मैं कहता हूं । 48 बार चबाओ । और होश पूर्वक धीमे धीमे भोजन करो । अपने आप भोजन की मात्रा एक तिहाई हो जाएगी । उतनी ही हो जाएगी जितनी जरूरी है । और ज्यादा तृप्त करेगी । ज्यादा परितृप्त करेगी । क्योंकि उसका रस फैलेगा । ठीक पचेगा । ऐसी ही किसी भी प्रक्रिया को धीमा करो । अगर वह सार्थक प्रक्रिया है । तो टूटेगी नहीं । अगर व्यर्थ प्रक्रिया है । अपने आप टूट जाएगी । क्योंकि मूढ़ता स्पष्ट हो जाएगी । पाप को छोड़ना पड़ता है । मूढ़ता को छोडना नहीं पड़ता । जानना ही पड़ता है । मूढ़ता छूट जाती है ।
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दुनियां में सैनिकों की जरूरत नहीं है अब । बहुत हो चुके सैनिक । और बहुत हम कष्ट भोग चुके सैनिकों के कारण । अब यहां स्वतंत्र चेता संन्यासियों की जरूरत है । जो अपना दायित्व समझेंगे । और अपने ढंग से जीएंगे । और यह मेरी मान्यता है कि अगर कोई भी व्यक्ति अपने ढंग से जी रहा है । और किसी दूसरे को नुकसान नहीं पहुंचा रहा है । चोट नहीं कर रहा है । तो किसी दूसरे को हक नहीं है कि उसकी सीमा में बाधा डाले । तुम्हें क्या अड़चन है ? तुम्हारी धारणा होगी यह कि संन्यासी को नाचना नहीं चाहिए । लेकिन यह तुम्हारी धारणा है । तुम मत नाचो । कोई संन्यासी नाच रहा हो । इस कारण यह मान लेना कि वह संन्यासी नहीं है । जरा अपनी सीमा के बाहर जाना है ।
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मैं तुमसे नहीं कहता कि धूम्रपान छोड़ दो । कोई कहता है तुमसे कि धूम्रपान मत करो । क्षय रोग हो जाएगा । और अगर तुम किताब में पढ्ने जाओगे । तो वे कहते हैं कि 1 आदमी अगर 12 सिगरेट रोज पीए । तो 20 साल में जितनी सिगरेट पीए । तब कहीं उसे क्षय रोग हो सकता है । कौन फिक्र करता है 20 साल की । और 12 सिगरेट रोज और 20 साल तक । और फिर देखेंगे । और फिर यह भी पक्का नहीं है कि 20 साल में सभी को हो जाता है । क्योंकि सैकड़ों सिगरेट पीने वाले हैं । जो 12 नहीं 24 पीते हैं रोज । और जिंदगी भर से पी रहे हैं । और क्षय रोग नहीं हुआ । फिर ऐसे लोग हैं । सिगरेट तो दूर कहो । पानी भी छान छान कर पीते हैं । और क्षय रोग हो गया । और इधर शराब पीने वाले पडे हैं । जिन्हें क्षय रोग नहीं हुआ । सब तरह से सात्विकता से जीते थे । और कैंसर हो गया । और दूसरा है कि जिसने सात्विकता कभी जानी ही नहीं । जिन्होंने कसम खा ली थी कि सात्विकता से कभी न जीएंगे । जो कभी वक्त से न उठे । न सोए । न वक्त पर खाना खाया । न ढंग का खाना खाया । कुछ भी खाया । कुछ भी पीया । कहीं भी सोए । कहीं भी बैठे । कभी जागे । कोई हिसाब किताब न रखा । और अभी तक कैंसर नहीं हुआ । तो ये बातें सिर्फ डराने की हैं ।
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हम औपचारिक हैं । हम बैठते हैं पूजा का थाल सजाकर । 1 मूर्ति बनाकर । धूप दीप बालकर । संस्कृत का पाठ करते हैं । सब व्यर्थ हो जाता है । संस्कृत तुम्हारे हृदय से भी नहीं आती । उसका अर्थ भी तुम्हें मालूम नहीं है । कि मुसलमान है तो अरबी में पाठ कर रहा है । उसे कुछ पता भी नहीं कि वह क्या कह रहा है । पराई भाषा बोल रहे हो । मुर्दा भाषा बोल रहे हो । अपनी भाषा में बोलो । और हुए होंगे बड़े बड़े पंडित । और उन्होंने बड़े सुंदर प्रार्थना के पद रचे होंगे । मगर वे उधार हैं । तुम तुतलाओ सही । मगर अपनी ही भाषा में । तुम अपनी ही बात कहो । कम से कम परमात्मा के सामने तो तुम अपनी ही बात कहो । देखते हो । मां के सामने उसका बेटा तुतलाता भी है । तो खुश हो जाती है ! कम से कम तुतलाहट उसकी अपनी तो है । अपने हृदय से आती है । क्षणभंगुर कहकर संसार की निंदा मत करो । क्षण उस शाश्वत की अभिव्यक्ति है । वही बोला है । वही झलका है । वही झांका है । तुम देखो जरा आंख खोलकर चारों तरफ । कितना सौंदर्य है । कितना छंद है । और तुम पिटी पिटाई बातें लिए बैठे हो । तुम्हें कोई भी कहता रहा है कि - संसार क्षणभंगुर है । तुमने सीख लिया । तोते की तरह रट ली यह बात । संसार क्षणभंगुर है । क्षण क्या है ? क्षण शाश्वत की लहर है । शाश्वत में उठी तरंग है । तो क्षण में ही छिपा है शाश्वत । समय में ही छिपा है नित्य । भागो मत । डूबो । डुबकी मार दो क्षण में ।
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मैं कहता हूँ - नशा करना पाप नहीं मूढता है । मैं नहीं कहता कि इससे तुम्हें कुछ नुकसान है । पर इस मूर्खता पूर्ण कृत्य से कोई लाभ भी नहीं है । मैं नहीं कहता कि तुम सिर्फ नैतिकता या कथित धार्मिकता के लिये इसे छोड़ दो । बस इसे ध्यान से करो । तुम्हें इसकी मूढता स्पष्ट दिखाई देगी । और यह अपने आप छूट जायेगा ।
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बुद्धओं के धर्म - बुद्धों ने तो 1 ही बात कही है । इतनी बातें नहीं । 1 ही धर्म कहा है । इतने धर्म नहीं । मगर बुद्धओं ने बना लिये बहुत धर्म । और बुद्धओं की भीड़ है । ये जो इतने धर्म हैं । ये बुद्धों के कारण नहीं हैं । ईसाईयत के पीछे जीसस का हाथ नहीं है । और न ही बौद्ध धर्म के पीछे बुद्ध का हाथ है । यद्यपि बुद्ध में जो दीया जला था । उसके ही कारण सिलसिला शुरू हुआ । फिर भी बुद्ध उसके लिए जिम्मेवार नहीं । जिम्मेवार तो बुद्ध के पीछे आने वाले पंडितों का समूह है । बुद्ध बोले । जो कहा । वह सुना लोगों ने । पकड़ा लोगों ने । शास्त्र बने । व्याख्याएं हुईं । संप्रदाय बने ।

25 अप्रैल 2011

ज्ञान में ही धर्म है के फूल लगते हैं

1 सूफी फकीर निरंतर कहा करता था कि - परमात्मा तेरा धन्यवाद । अहोभाग्य है मेरे कि जब मेरी जो जरूरत होती है । तू तत्क्षण पूरी कर देता है । उसके शिष्य उससे धीरे धीरे परेशान हो गए । यह बात सुन सुनकर । क्योंकि वे कुछ देखते नहीं थे कि कौन सी जरूरत पूरी हो रही है ? फकीर गरीब था । शिष्य भूखे मरते थे । कुछ उपाय न था । और यह रोज सुबह सांझ 5 बार मुसलमान फकीर 5 बार प्रार्थना करे । और 5 बार भगवान को धन्यवाद देता । और ऐसे अहोभाव से । तो शिष्यों को लगता कि यह भी क्या मामला है ? 1 दिन हद हो गई । यात्रा पर थे, तीर्थयात्रा के लिए जा रहे थे । 3 दिन से भूखे प्यासे थे । 1 गांव में सांझ थके मांदे आए । गांव के लोगों ने ठहराने से इनकार कर दिया । तो वृक्षों के नीचे भूखे थके मांदे पड़े हैं । और आखिरी प्रार्थना का क्षण आया । कोई उठा नहीं । क्या प्रार्थना करनी है ? किससे प्रार्थना करनी है ? हो गई बहुत प्रार्थना । यह क्षण नहीं था प्रार्थना का । लेकिन गुरु उठा । उसने हाथ जोड़े । वही अहोभाव कि - धन्यवाद परमात्मा ! जब भी मेरी जो भी जरूरत होती है । तू तभी पूरी कर देता है । 1 शिष्य से यह बर्दाश्त न हुआ । उसने कहा - बंद करो बकवास । यह हम बहुत सुन चुके । अब आज तो यह बिलकुल ही असंगत है । 3 दिन से भूखे प्यासे हैं । छप्पर सिर पर नहीं है । ठंडी रेगिस्तानी रात में बाहर पड़े हैं । किस बात का धन्यवाद दे रहे हो ? उस फकीर ने कहा - आज गरीबी मेरी जरूरत थी । आज भूख मेरी जरूरत थी । वह उसने पूरी की । आज नगर के बाहर पड़े रहना मेरी जरूरत थी । आज गांव मुझे स्वीकार न करे । यह मेरी जरूरत थी । और अगर इस क्षण में उसे धन्यवाद न दे पाया । तो मेरे सब धन्यवाद बेकार हैं । क्योंकि जब वह तुम्हें कुछ देता है । जो तुम्हारी मन के अनुकूल है । तब धन्यवाद का क्या अर्थ ? जब वह तुम्हें कुछ देता है । जो तुम्हारे मन के अनुकूल नहीं है । तभी धन्यवाद का कोई अर्थ है । और जब उसने दिया है । तो जरूर मेरी जरूरत होगी । अन्यथा वह देगा ही क्यों ? आज यही जरूरी होगा मेरे जीवन उपक्रम में । मेरी साधना में । मेरी यात्रा में कि आज मैं भूखा रहूं कि गांव अस्वीकार कर दे कि रेगिस्तान में खुली रात, ठंडी रात पड़ा रहूं । आज यही थी जरूरत । और अगर इस जरूरत को उसने पूरा किया है । और मैं धन्यवाद न दूं । तो बात ठीक न होगी । ऐसे व्यक्ति को ही परमात्मा उपलब्ध होता है । तो तुम जब उदास हो । तो समझ लो कि यही थी तुम्हारी जरूरत । आज परमात्मा ने चाहा है कि उदासी में नाचो । पर नाच नहीं रुके । धन्यवाद बंद न हो । उत्सव जारी रहे । ओशो
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धर्म - कोई धर्म के संबंध में पूछ रहा था । उससे मैंने कहा - धर्म का संबंध इससे नहीं है कि आप उसमें विश्वास करते हैं । या नहीं करते । वह आपका विश्वास नहीं । आपका स्वांस प्रश्वास हो । तो ही सार्थक है । वह तो कुछ है - जो आप करते हैं । या नहीं करते हैं । जो आप होते हैं । या नहीं होते हैं । धर्म कर्म है । वक्तव्य नहीं । और धर्म कर्म तभी होता है । जब वह आत्मा बन गया हो । जो आप करते हें । वह आप पहले हो गये होते हें । सुवास देने के पहले फूल बन जाना आवश्यक है । फूलों की खेती की भांति आत्मा की खेती भी करनी होती है । और, आत्मा में फूलों को जगाने के लिए पर्वतों पर जाना आवश्यक नहीं है । वे तो जहां आप हैं । वहीं उगाये जा सकते हैं । स्वयं के अतिरिक्त एकांत में ही पर्वत हैं । और अरण्य हैं । यह सत्य है कि पूर्ण एकांत में ही सत्य और सौंदर्य के दर्शन होते हैं । और जीवन में जो भी श्रेष्ठ है । वह उन्हें मिलता है । जो अकेले होने का साहस रखते हैं । जीवन के निगूढ़ रहस्य एकांत में ही अपने द्वार खोलते हैं । और आत्मा प्रकाश को और प्रेम को उपलब्ध होती है । और जब सब शांत और एकांत होता है । तभी वे बीज अंकुर बनते हैं । जो हमारे समस्त आनंद को अपने में छिपाये हमारे व्यक्तित्व की भूमि में दबे पड़े हैं । वह वृद्धि, जो भीतर से बाहर की ओर होती है । एकांत में ही होती है । और स्मरण रहे कि सत्य वृद्धि भीतर से बाहर की ओर होती है । झूठे फूल ऊपर से थोपे जा सकते हैं । पर असली फूल तो भीतर से ही आते हैं ।  इस आंतरिक वृद्धि के लिए पर्वत और अरण्य में जाना आवश्यक नहीं है । पर पर्वत और अरण्य में होना अवश्य आवश्यक है । वहां होने का मार्ग प्रत्येक के ही भीतर है । दिन और रात्रि की व्यस्त दौड़ में थोड़े क्षण निकालें । और अपने स्थान और समय को । और उससे उत्पन्न अपने तथाकथित व्यक्तित्व और " मैं " को भूल जाएं । जो भी चित्त में आये । उसे जानें कि - यह मैं नहीं हूं । और उसे बाहर फेंक दें । सब छोड़ दें । प्रत्येक चीज । अपना नाम । अपना देश । अपना परिवार । सब स्मृति से मिट जाने दें । और कोरे कागज की तरह हो रहें । यही मार्ग आंतरिक एकांत और निर्जन का मार्ग है । इससे ही अंतत: आंतरिक संन्यास फलित होता है ।
चित्त जब सब पकड़ छोड़ देता है । सब नाम रूप के बंधन तोड़ देता है । तब वही आप में शेष रह जाता है । जो आपका वास्तविक होना है । उस ज्ञान में ही धर्म है के फूल लगते हैं । और जीवन परमात्मा की सुवास से भरता है । इन थोड़े क्षणों में जो जाना जाता है । जो शांति और सौंदर्य । और जो सत्य । वह आपको 1 ही साथ 2 तलों पर जीने की शक्ति दे देता है । फिर कुछ बांधता नहीं है । और जीवन मुक्त हो जाता है । जल में होकर भी फिर जल छूता नहीं है । इस अनुभूति में ही जीवन की सिद्धि है । और धर्म की उपलब्धि है ।

पृथ्वी कुछ अदभुत लोगों से भर गयी

श्रेष्ठ आत्माएं कब जन्म लेती है ? - श्रेष्ठ आत्माएं कभी  कभी सैकड़ों वर्षों के बाद ही पैदा हो पाती हैं । और यह भी जानकार हैरानी होगी कि जब श्रेष्ठ आत्माएं पैदा होती हैं । तो करीब करीब पूरी पृथ्वी पर श्रेष्ठ आत्माएं 1 साथ पैदा हो जाती हैं । जैसे कि बुद्ध और महावीर भारत में पैदा हुए आज से 2500  वर्ष पहले । बुद्ध महावीर दोनों बिहार में पैदा हुए । और उसी समय बिहार में 6 और अदभुत विचारक थे । उनका नाम शेष नहीं रह सका । क्योंकि उन्होंने कोई अनुयायी नहीं बनाये । और कोई कारण न था । वे बुद्ध और महावीर की ही हैसियत के लोग थे । लेकिन उन्होंने बड़े हिम्मत का प्रयोग किया । उन्होंने कोई अनुयायी नहीं बनाए । उनमें 1 आदमी था - प्रबुद्ध कात्यायन । 1 आदमी था - अजित केसकंबल । 1 था - संजय वेलट्ठीपुत्त । 1 था - मक्खली गोशाल । और लोग थे । उस समय ठीक बिहार में 1 साथ 8 आदमी 1 ही प्रतिभा के 1 ही क्षमता के पैदा हो गए । और सिर्फ बिहार में । 1 छोटे से इलाके में सारी दुनिया के । ये आठों आत्माएं बहुत देर से प्रतीक्षारत थीं । और मौका मिल सका । तो 1 से भी मिल गया ।
और अक्सर ऐसा होता है कि 1 श्रृंखला होती है अच्छे की भी । और बुरे की भी । उसी समय यूनान में सुकरात पैदा हुआ । थोड़े समय के बाद अरस्तू पैदा हुआ । प्लेटो पैदा हुआ । च्वांगत्से पैदा हुआ । उसी समय सारी दुनिया के कोने कोने में कुछ अदभुत लोग एकदम से पैदा हुए । सारी पृथ्वी कुछ अदभुत लोगों से भर गयी । ऐसा प्रतीत होता है कि ये सारे लोग प्रतीक्षारत थे । प्रतीक्षारत थीं उनकीं आत्माएं । और 1 मौका आया । और गर्भ उपलब्ध हो सके । और जब गर्भ उपलब्ध होने का मौका आता है । तो बहुत से गर्भ 1 साथ उपलब्ध हो जाते हैं । जैसे कि फूल खिलता है 1 । फूल का मौसम आया है । 1 फूल खिला । और आप पाते हैं कि दूसरा खिला । और तीसरा खिला । फूल प्रतीक्षा कर रहे थे । और खिल गए । सुबह हुई । सूरज निकलने की प्रतीक्षा थी । और कुछ फूल खिलने शुरू हुए । कलियां टूटीं । इधर फूल खिला । उधर फूल खिला । रात भर से फूल प्रतीक्षा कर रहे थे । सूरज निकला । और फूल खिल गए ।
ठीक ऐसा ही निकृष्ट आत्माओं के लिए भी होता है । जब पृथ्वी पर उनके लिए योग्य वातावरण मिलता है । तो 1 साथ एक श्रृंखला में वे पैदा हो जाते हैं । जैसे हमारे इस युग ने भी हिटलर और स्टैलिन और माओ जैसे लोग एकदम से पैदा किये । एकदम से ऐसे खतरनाक लोग पैदा किए । एकदम से ऐसे खतरनाक लोग पैदा हुए । जिनको हजारों साल तक प्रतीक्षा करनी पड़ी होगी । क्योंकि स्टैलिन या हिटलर या माओ जैसे आदमियों को भी जल्दी पैदा नहीं किया जा सकता ।
अकेले स्टैलिन ने रूस में कोई 60 लाख लोगों की हत्या की । अकेले 1 आदमी ने । और हिटलर ने अकेले 1 आदमी ने । कोई 1 करोड़ लोगों की हत्या की । हिटलर ने हत्या के ऐसे साधन ईजाद किये । जैसे पृथ्वी पर कभी किसी ने नहीं किये थे । हिटलर ने इतनी सामूहिक हत्या की । जैसे कभी किसी आदमी ने नहीं की थी । तैमूरलंग और चंगीज खांन सब बचकाने सिद्ध हो गये । हिटलर ने गैस चैंबर्स बनाए । उसने कहा - 1-1 आदमी को मारना तो बहुत महंगा है । 1-1 आदमी को मारो । तो गोली बहुत महंगी पड़ती है । 1-1 आदमी को मारना महंगा है । 1-1 आदमी को कब्र में दफनाना महंगा है । 1-1 आदमी की लाश को उठाकर गांव के बाहर फेंकना बहुत महंगा है । तो कलेक्टिव मर्डर । सामूहिक हत्या कैसे की जाए ?
लेकिन सामूहिक हत्या करने के भी उपाय हैं । अभी अहमदाबाद में कर दी । या कहीं और की । लेकिन ये बहुत महंगे उपाय हैं । 1-1 आदमी को मारो । बहुत तकलीफ होती है । बहुत परेशानी होती है । और बहुत देर भी लगती है । ऐसे 1-1 को मारोगे । तो काम ही नहीं चल सकता । इधर 1 मारो । उधर 1 पैदा हो जाता है । ऐसे मारने से कोई फायदा नहीं होता ।
तो हिटलर ने गैस चैंबर बनाए । 1-1 चैंबर में 5-5000 लोगों को इकट्ठा खड़ा करके बिजली का बटन दबाकर एकदम वाष्पीभूत किया जा सकता है । बस 5000 लोग खड़े किये । बटन दबा । वे गए । एकदम गए । इसके बाद हॉल । वे गैस बन गए । इतनी तेज चारों तरफ से बिजली गई कि वे गैस हो गए । न उनकी कब्र बनानी पड़ी । न उनको कहीं मारकर खून गिराना पड़ा । खून वून गिराने का हिटलर पर कोई नहीं लगा सकता जुर्म । अगर पुरानी किताबों से भगवान चलता होगा । तो हिटलर को बिल्कुल निर्दोष पायेगा । उसने खून किसी का गिराया नहीं । किसी की छाती में छुरा मारा नहीं । उसने ऐसी तरकीब निकाली । जिसका कहीं वर्णन हीं नहीं था । उसने बिल्कुल नई तरकीब निकाली - गैस चैंबर । जिसमें आदमी को खड़ा करो । बिजली की गर्मी तेज करो । एकदम वाष्पीभूत हो जाए । एकदम हवा हो जाए । बात खत्म हो गई । उस आदमी का फिर नामोल्लेख भी खोजना मुश्किल है । हड्डी खोजना मुश्किल है । उस आदमी की चमड़ी खोजना मुश्किल है । वह गया । पहली दफा हिटलर ने, पहली दफा हिटलर ने इस तरह आदमी उड़ाए । जैसे पानी को गर्म करके भाप बनाया जाता है । पानी कहां गया । पता लगाना मुश्किल है । ऐसे खो गया आदमी । ऐसे गैस चैंबर बनाकर उसने 1 करोड़ आदमियों को अंदाजन गैस चैंबर में उड़ा दिया ।
ऐसे आदमी को जल्दी जन्म मिलना बड़ा मुश्किल है । और अच्छा ही है कि नहीं मिलता । नहीं तो बहुत कठिनाई हो जाए । अब हिटलर को बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ेगी फिर । बहुत समय लग सकता है अब हिटलर को दोबारा वापस लौटने के लिए । बहुत कठिन मामला है । क्योंकि इतना निकृष्ट गर्भ अब फिर से उपलब्ध हो । और गर्भ उपलब्ध होने का मतलब क्या है ? गर्भ उपलब्ध होने का मतलब है कि मां  पिता, उस मां और पिता की लंबी श्रृंखला दुष्टता का पोषण कर रही है लंबी श्रृंखला । एकाध जीवन में कोई आदमी इतनी दुष्टता पैदा नहीं कर सकता कि उसका गर्भ हिटलर के योग्य हो जाए । 1 आदमी कितनी दुष्टता करेगा ? 1 आदमी कितनी हत्याएं करेगा ? हिटलर जैसा बेटा पैदा करने के लिए । हिटलर जैसा बेटा किसी को अपना मां बाप चुने । इसके लिए सैकड़ों, हजारों, लाखों वर्षों की लंबी कठोरता की परंपरा ही कारगर हो सकती है । ओशो 

24 अप्रैल 2011

वो छिपकली जब इंसान थी ?

सत श्री अकाल सर जी ! मेरा नाम हरकीरत सिंह है । मेरा पेट नेम हैप्पी है । मैं हरनीत का छोटा भाई हूँ । मेरी उमर 21 साल है । मैं पटिआला में खालसा कालेज में पढता हूँ । आज हम सबको हरनीत ने आपका लिखा हुआ गुरबाणी पर लेख दिखाया । वो आजकल पटिआला आयी हुई है । हम सबको बहुत खुशी हुई । मैं रोज शाम को टयूशन जाते वक्त गुरुद्वारा जाता हूँ । अगर..??? मुझे भी गुरुबाणी के बारे में कुछ पूछ्ना हुआ । तो मैं भी आपको ई-मेल करुँगा ।

*** हरकीरत सिंह जी आपका सत्यकीखोज पर बहुत बहुत स्वागत है । आप..अगर मगर..नहीं बल्कि अवश्य ही टाइम निकालकर थोङा सतसंग भी किया करें । इससे आप भी Happy होंगे । और हम सब Very Happy होंगे । और सबको Happy करना बेहद पुण्य का काम है । अतः हमें आपके पत्रों का इंतजार रहेगा ।

*** आज वास्तव में मेरा सन्तवाणी पर ही कुछ काम करने का विचार था । पर वह कहते हैं ना । तेरे मन कुछ और है । दाता के कुछ और ।
..जैसे ही मैं विद टी लेपटाप के सामने बैठा । मेरी निगाह दीवाल में लगे बङे मिरर पर गयी । उसमें दिखाई देते दृश्य को देखकर सुबह ही सुबह मेरा मन दृवित हो गया । विचलित हो गया । शायद कोई आम इंसान इस दृश्य को देखता । तो कोई नोटिस न लेता । पर मैं ऐसी घटनाओं के पीछे छिपी हकीकत को जानता हूँ । इसलिये मुझे बङा कष्ट सा महसूस हुआ ।
ये वो छिपकली नहीं है 


आइने के अन्दर..दूसरी दीवाल पर लगे सींखचे के सहारे एक छिपकली बारबार दीवाल पर चङने की असफ़ल कोशिश कर रही थी । लेकिन चङ नहीं पा रही थी । इसका कारण था । उस छिपकली की कमर और नीचे के दोनों पैर किसी दरवाजे से भिंचकर टूट चुके थे । और एकदम चपटे से हो गये थे ।..सोचिये दीवार पर रहने वाली छिपकली की दो पैरों बिना क्या स्थिति हुयी होगी ?
हालांकि इस छिपकली को कम से कम मेरे घर में किसी ने जानबूझकर ऐसा नहीं किया होगा । ये छिपकली किसी कीट मच्छर आदि की ताक में किसी खिङकी या दरवाजे की ऐसी जगह होगी कि किसी के द्वारा उसको बन्द करते समय यह दब गयी होगी । और आजीवन के लिये अपंग हो गयी । दूसरों का काल बनने जा रही छिपकली खुद काल का शिकार हो गयी । यही जीवन का फ़लसफ़ा है ।
जरा सोचिये । ये भला कोई गौर करने लायक बात है ? ऐसा जाने क्या क्या और कहाँ कहाँ होता रहता है ? पर क्या आप भी ऐसा ही सोचते हैं ? तो ठहरिये । आप बहुत गलत सोचते हैं ।

विचार करके देखें । यही { दुर } घटना किसी इंसान के साथ हुयी होती । तो कितनी हाय हूय करता । दर्द से महीनों चिल्लाता । तुरन्त डाक्टर । एक्सरा । स्कैनिंग । दवाई । सवाई । गाङियों पर हस्पताल भागना । यार रिश्तेदार आदि का चिंतित होना । पता नहीं क्या क्या होता ।
लेकिन छिपकली के साथ..?
उसको कोई दवा दारू की पूछने वाला तो दूर । पानी पत्ता । खाना वाना भी कैसे मिला होगा ? सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है । एक इंसान जैसा ही दर्द उसे भी हुआ होगा । उसकी हालत घिसटने लायक कितने दिनों में हुयी होगी आदि आदि । इसी दर्द और परेशानी का अन्दाजा लगाकर आप 84 के असंख्य कष्टों की सहज कल्पना कर सकते हैं ।

खैर..मैं इस छिपकली की कोई मदद करना भी चाहता । तो नहीं कर सकता था । क्योंकि वो मेरे देखने के समय फ़ुल्ली डैमेज हो चुकी थी । और मेरे ख्याल से उसमें सुधार की कोई गुंजाइश बाकी नहीं थी ।
कुछ देर विचलित होने के बाद मैं इसका आध्यात्म पहलू सोचने लगा । जिसके लिये मुझे कोई मशक्कत नहीं करनी थी ।
84 लाख योनियाँ क्योंकि भोग योनियों में आती है । इसलिये इस छिपकली द्वारा इस जन्म में और अन्य 84  जिसको वह स्टेप बाय स्टेप कन्टीनुअस भोगती आ रही है । ऐसा कोई कार्य नहीं हुआ होगा । जिसके लिये ये दन्ड मिला था । ये उसके लाखों साल पहले किसी मनुष्य जन्म के कर्म का ही फ़ल था । जिसमें बस उसकी गलती इतनी ही थी कि उसके द्वारा असावधानी से कोई जीव दुर्घटना का शिकार हुआ होगा । या जानी बूझी लापरवाही से हुआ होगा ।
मेरी इस बात पर यहाँ आपका एकदम उचित तर्क हो सकता है कि वह इंसान जिसके द्वारा अनजाने में छिपकली भिची । उस पर भी तो यही बात लागू होती है । मान लो छिपकली निर्दोष हो । ये तर्क भी सही लगता है ।
लेकिन अगर हम इस बात को मान लें । तो एक महाप्रश्न पैदा हो जाता है कि उस निरीह जीव को फ़िर किस बात का दन्ड मिला ? वो भी असहाय स्थिति में । जबकि भोग योनियों में सिर्फ़ भोग ही आते हैं ।

इसके विवेचन के लिये गीता में कहा गया है । गुण ही गुणों में बरत रहे हैं । यानी सरलता से कहा जाय । तो ये मिक्स टायप मामला है । आपके अच्छे बुरे कर्मों द्वारा जो ढेरों संस्कार बनते हैं । उनका एक निचोङ सा निकालकर सजा { भोग } तय होती है । उसमें आपके अच्छे कर्म बुरे कर्मों का प्रभाव कम या नष्ट भी कर देते हैं । तो इस इंसान द्वारा उसे दन्ड देकर बदला तो लिया ही गया । साथ ही नया संस्कार भी बना । ये दोनों ही बातें हैं । गुणों की फ़िलासफ़ी समझना बेहद जटिल है । लेकिन सिर्फ़ इसी के द्वारा कर्म संस्कार का गणित समझा जा सकता है ।
परन्तु ये बात किसी भी उच्चस्तर के भक्त या आत्मग्यान दीक्षा वाले पर लागू नहीं होती । उसके द्वारा इस तरह का नया कर्म अनजाने में भी नहीं होगा । ये बात पक्की है । तभी उसका मोक्ष हो पाता है ।
अब आईये । इससे मिलते जुलते कुछ और प्रसंगो पर चर्चा करें ।
पिछली गर्मियों की ही बात है । जब मैं शाम चार बजे के लगभग कंज के पेङ की छाया में अक्सर बैठता था । मुझे एक गिलहरी के बच्चे की करुण चींची दो तीन दिन से सुनाई दे रही थी । फ़िर मैंने एक बच्चे को वो गिलहरी का बच्चा जेब में लिये भी घूमते देखा । मुझे बारबार वो बच्चा आकर्षित कर रहा था । पर उसकी हिस्ट्री पता नहीं चल रही थी ।
तभी अगली सुबह जब मैं उसी स्थान पर था । एक बङा लङका मेरे पास आया । और बोला । ये गिलहरिया का बच्चा तीन दिन से भूखा चींचीं कर रहा है । समझ में नहीं आता । इसके लिये क्या करूँ । इसे क्या खिलाऊँ । और कैसे खिलाऊँ ? तीन दिन पहले इसकी माँ किसी प्रकार मर गयी । और तब से यह अपने घोंसले { जो बिना प्लास्टर की दीवाल पर ईंटों के बङे होल में था } में ऐसे ही चिल्ला रहा है । यहाँ कोई कौआ आदि इसको मार डालेगा ।
मुझे एकदम झटका सा लगा । इसीलिये मैं बारबार आता था । पर अभी उस बच्चे का सही समय न आने से कनेक्शन नहीं जुङ पा रहा था । मैंने कहा । रुई या किसी सूती कपङे की बारीक से बत्ती बनाकर पानी मिला दूध बत्ती से पिलाओ । वह बहुत खुश हुआ । उसने ऐसा ही किया । और फ़िर मेरे सुझाव अनुसार गुदगुदे कपङों की एक डलिया में बच्चे को घर के अन्दर ले जाकर रख दिया । मैंने सोचा । बच्चा एक महीने में आत्मनिर्भर हो जायेगा । पर उसकी जरूरत ही नहीं आयी । कहते हैं न । जिसका कोई नहीं उसका खुदा होता है यारो । एक गिलहरी को पता नहीं उस पर दया आ गयी । या प्रभु की लीला । वो बच्चे को उठाकर अपने घोंसले में ले गयी । और हम सबकी चिंता दूर हो गयी ।

*** लेख अधिक विस्तार ले रहा है । इसलिये .. अगला राइट पैर कटी गाय का प्रसंग । महाभारत युद्ध में ठीक रणक्षेत्र में । टिटहरी चिङिया के बच्चे कैसे बचे ..ये घटना । मेरे द्वारा पाले गये जानवर खरगोश हिरण
और अब तक तीन डाग के बारे में  । जिन्दगी में 13 वर्ष की आयु तक मेरे द्वारा नादानी में जानबूझ कर की गयी 3 हत्या । 2 मेंढक और 1  गिलहरी । और उनका फ़ल जो इसी जन्म में मिला । क्योंकि अगले भोग जन्म होने ही नहीं हैं ..आदि आदि घटनाओं का मानव जीवन से क्या सम्बन्ध है । और इसके आध्यात्मिक पहलू क्या हैं ? हमारी मामूली सी गलती क्या परिणाम देती है । ऐसे विषयों पर अगले समय में टाइम मिलते ही चर्चा करूँगा ।

अन्त में आप सबका बहुत बहुत आभार धन्यवाद ।

23 अप्रैल 2011

लेकिन अब सब कुछ छोड देना चाहता हूँ ।...

राजीव साहेब ! मैं कुन्दन कुमार ( आजकल नेपाल में ) मैंने पहले 1 बार आप को ई-मेल की थी । जब मैंने बंगाल के " वामा खेपा " जी के बारे में पूछा था । शायद आपको याद आ गया हो । दरसल मैंने आज आपसे पूछना तो कुछ नही । सिर्फ़ दिल की बात करनी है ।
मैं और मेरी पत्नी आपका ब्लाग पढते ही रहते हैं । हमारे मन में भी कुछ सवाल जनम लेते हैं । लेकिन इससे पहले हम समय निकाल कर आपको ई-मेल करें । तब तक कोई और सज्जन पाठक आपको हमारे सवाल से मिलता जुलता सवाल कर देते हैं । परिणाम स्वरुप उसका उत्तर आपके किसी न किसी लेख में मिल जाता है । इस बात से कभी कभी बहुत खुशी होती है कि ये तो घर बैठे ही गंगास्नान हो गया ।
आप बहुत उत्तम कार्य कर रहे हैं । मेरे पास शब्द नहीं है कि कैसे आपकी तारीफ़ करुँ । शायद तारीफ़ करने की कला मे मैं निपुण नही हूँ । लेकिन आपके प्रति भावना प्रेम से भरी पडी है ।
 मैं अपने बारे में मैं ये ही कहूँगा कि मैं वैसे तो दिल्ली का रहने वाला हूँ । लेकिन कामकाज के कारण कभी बंगाल रहा । तो कभी किसी शहर तो कभी किसी । ये तो आपको बता दिया है कि आजकल नेपाल में हूँ । लेकिन वापिस भारत जल्दी आने की उम्मीद है ।
न तो मेरे पास पैसा कम है । और न ही ज्यादा । लेकिन जितना है । इसके चक्कर में ही मुझे अलग शहर और स्थानों के चक्कर अब तक पूरी जिन्दगी काटने पडे । लेकिन अब सब कुछ छोड देना चाहता हूँ । हालात के अनुसार जितनी जायज जरुरत होनी चाहिये । उतना भगवान ने दिया ही है ।
अन्त में ये ही कहूँगा कि अगर भगवान ने चाहा । तो शायद कभी आपकी और हमारी मुलाकात हो । बाकी सब ईश्वर की असीम लीला ही है । असल में सब कुछ वो ही जानता है कि कब क्या होना है । और कैसे होना है । हम लोगों को तो आने वाले 1 पल की खबर नही होती ।
क्युँ कि कभी कभी कुछ होते होते कुछ और ही हो जाता है । जिसकी कल्पना भी नहीं की होती । बस और क्या लिखूँ । अगर आप उचित समझें । तो मुझे भी अपने चरणो में स्थान दें । मैं अपनी पहचान हेतु अपनी और अपनी पत्नी की तसवीर भेज रहा हूँ । कुन्दन कुमार ( आजकल नेपाल में ) जय हनुमान ।

*** कुन्दन कुमार जी ! हालांकि आप पहले ही हमारे ब्लाग के सदस्य हो चुके हैं । फ़िर भी सपत्नीक आपके इस सुन्दर चित्र के साथ सत्यकीखोज पर आपका फ़िर से बहुत बहुत स्वागत है । साथ ही आपसे एक निवेदन भी है । कुछ इसी तरह के चित्र जिनमें आप भी मौजूद हों । और कोई खास स्थान या खास दृश्य हो । वो भी कृपया आप मुझे भेजें ।

एक और बात । अपने कार्य के चलते आप विभिन्न स्थानों पर रहे हैं । वहाँ की धार्मिक आस्थायें और रीतिरिवाज आदि पर कोई दिलचस्प अनुभव भी भेजें । आपको समय का अभाव होने पर आपकी पत्नी भी भेज सकती हैं ।
आपने इस मेल में एक बङी दिलचस्प बात कही है..लेकिन अब सब कुछ छोड देना चाहता हूँ ।...इसके तुरन्त ही बाद आपने ठीक इसके विरोध वाली बात कही है...अन्त में ये ही कहूँगा कि अगर भगवान ने चाहा । तो शायद कभी आपकी और हमारी मुलाकात हो । बाकी सब ईश्वर की असीम लीला ही है । असल में सब कुछ वो ही जानता है कि कब क्या होना है । और कैसे होना है । हम लोगों को तो आने वाले 1 पल की खबर नही होती । क्युँ कि कभी कभी कुछ होते होते कुछ और ही हो जाता है । जिसकी कल्पना भी नहीं की होती ।

*** वास्तव में यही सच है । आप न कुछ पकङ सकते हैं । न कुछ छोङ सकते हैं । आपके जहाँ और जितने संस्कार जुङे हुये हैं । वहाँ हर हालत में आप खिंचे चले जाओगे ।.. दरअसल ये सब हो रहा है । और इंसान या जीव क्योंकि " अहम " मूल से बना है । इसलिये उसे ऐसा लगता है कि वो ये सब कर रहा है । अगर वास्तव में कोई भी इंसान अपनी स्थिति में बदलाव करना चाहता है । तो वह सिर्फ़ भक्ति से ही संभव है । इसलिये जो आप चाहते हैं । उसके लिये बस सिर्फ़ प्रभु से प्रार्थना ही कर सकते हैं ।

आपने इससे पहले वाले मेल में श्री महाराज जी से " हँसदीक्षा " हेतु अर्जी लगायी थी । इससे एक प्रेमी होने के नाते मैं अपनत्व भाव से बता रहा हूँ । और ये मानें । स्पेशली आपको ही नहीं । अपने सभी पाठकों को बता रहा हूँ । इस संसार के सभी लोगों के पास महज 7 महीने का टाइम रह गया है । इन 7 महीनों में भी विभिन्न स्थानों पर लोग आपदा के शिकार होंगे । पर वो ज्यादा हाहाकारी नहीं होगा । हालांकि जिस पर बीतती है । उसके लिये तो सर में दर्द होना भी हाहाकारी हो जाता है । पर कुछ संकट ऐसे होते हैं । जिनका उपचार तो किया जा सकता है ।
लेकिन 7 महीने बाद रोग लाइलाज स्थिति में होगा । और उस वक्त एकमात्र बङे स्तर की प्रभुभक्ति और उससे भी अधिक समर्थ  " हँसदीक्षा " ही इंसान को सबसे बङा सहारा देगी । और काल के हाहाकार से बचायेगी ।

इसलिये आप जितना भी जल्द संभव हो सके । सपत्नीक बाल बच्चों को हँसदीक्षा दिलवा दें । और जब तक आप आने में असमर्थ हैं । श्री महाराज जी से फ़ोन पर स्वयँ निवेदन करके अपनी अर्जी खुद लगा दें । आप लोग पता नहीं क्यों महाराज जी से बात करने में झिझकते हो ।
श्री  महाराज जी बहुत सरल ह्रदय हैं । उनसे फ़ोन पर बात करके ही एक अनोखी शान्ति और आनन्द प्राप्त होता है । मेरी प्रेरणा से जिन लोगों ने महाराज जी से एक बार भी बात कर ली । अब वो अक्सर ही बात करते रहते हैं । और अभी एक बार भी उनके दर्शन न कर पाने के बाद भी लाभ उठा रहे हैं ।
दरअसल आप लोग सन्तमत का एक रहस्य को नहीं जानते । ये आवश्यक नहीं कि किसी कारणवश किसी सच्चे सन्त के पास नहीं पहुँच पा रहे । तो जाये बिना काम ही नहीं होगा । आपकी सच्ची प्रेममय और श्रद्धायुक्त भावना भी उन तक पहुँचती है । फ़िर फ़ोन से तो आपको भी तसल्ली हो जाती है कि मैं भी अब महाराज जी की शरण में हूँ । इसलिये गलत स्थान पर जाने से हिचको । गलत कार्य से हिचको । पर शुभ कार्य तो जितनी जल्दी कर सको । उतना ही बेहतर ।
अन्त में आप सभी प्रेमीजनों का बहुत बहुत आभार । जो मुझ जैसे साधारण इंसान को बारबार सतसंग और प्रभु की याद दिलाते रहते हो । धन्यवाद ।

22 अप्रैल 2011

क्या प्रेतयोनि 84 लाख योनि के अन्तर्गत आती है ?

राजीव भाई ! ये कहानी अच्छी लगी । 1 बात बताएँ । क्या ये सब प्रेत कहानियाँ.. जो सिर्फ़ आपके ब्लाग पर ही पढने को मिलती हैं । क्या ये सब प्रसुन जी के सच्चे अनुभव हैं । या सिर्फ़ दिलचस्प कहानीयाँ ?
क्या वाकई प्रसुन जी नाम का कोई साधक है । या ये सिर्फ़ कोई काल्पनिक किरदार है । अगर ये सच है । तो क्या कोई अति जिग्यासा रखने वाला व्यक्ति भी ये प्रसुन जी वाली साधना कर सकता है । क्या प्रसुन जी की सारी विध्याएँ सिर्फ़ द्वैत साधनाओं के अन्तर्गत आती है । क्या प्रसुन जो दिव्य साधना करते हैं । वो द्वैत की सबसे बडी साधना है ? क्या ये दिव्य साधना से द्वैत की बाकी कुछ छोटी साधनाओं का फ़ल भी मिल जाता है ? क्या प्रसुन जी के गुरु सिर्फ़ द्वैत साधना के ही गुरु हैं ? तो वो किस श्रेणी में आते हैं ? सन्त । सिद्ध । योगी या महात्मा ?
ये तो मैं आपके लेखों से जान ही गया हूँ कि किसी भी साधना ( चाहे द्वैत हो । या अद्वैत ) उसके लिये मार्गदर्शक रुपी गुरु की भूमिका अति महत्वपूर्ण है । क्या ऐसे गुरु ( प्रसुन के गुरु ) आज के जमाने में भी हैं ? ( आजकल ) क्या ऐसे गुरु गुप्त रहना ज्यादा पसन्द करते हैं ? अगर ऐसे गुरु और प्रसून जी जैसे साधक समाज में हैं ( बेशक बेहद कम गिनती में ही सही )
तो फ़िर तो ये आजकल के नकली बाबा जिनकी समाज में भरमार है । ये सब लोग प्रसुन जी जैसे साधक और प्रसुन जी के गुरुजी के सामने बिल्कुल जीरो हैं ।

सारी सर ! मैं अपने पहले वाले ई-मेल में 1 बात जोडना भूल गया था । ये भी बता दीजिए कि प्रेत योनियाँ क्या अनेक किस्म की होती हैं ? और क्या प्रेतयोनि 84 लाख योनि के अन्तर्गत आती है ? या प्रेतयोनि 84 लाख योनियों से बाहर है ? प्लीज इस दूसरी ई-मेल को भी मेरी पहले वाली ई-मेल के साथ जोडकर फ़िर एक साथ उत्तर के रुप में लेख लिखें ।
राजीव भाई ! प्लीज आप मेरे इस ई-मेल पर गौर करते हुए अपने आने वाले लेख में इस के बारे में खुलकर खुलासा करें । मुझे दिल से और बेसब्री से आपके जवाबों का इन्तजार रहेगा । राम राम ।

1 बात बताएँ । क्या ये सब प्रेत कहानियाँ.. जो सिर्फ़ आपके ब्लाग पर ही पढने को मिलती हैं । क्या ये सब प्रसुन जी के सच्चे अनुभव हैं । या सिर्फ़ दिलचस्प कहानीयाँ ?

*** तथ्यात्मक जानकारी और प्रेतवाधा से बचाव की जागरूकता हेतु ये मैंने अपनी जिन्दगी और सन्तों के सम्पर्क से प्राप्त अनुभवों को ही लिखा है । इसमें लिखी घटनायें आपको बङी लगती होंगी । पर द्वैत के मायाजगत में इससे बङी बङी घटनायें होती रहती हैं । जो आपको रोचक तो लग सकती हैं । पर उनका आम जिन्दगी से कोई लेना देना नहीं होता । इसलिये मैं उनको नहीं लिखता ।


क्या वाकई प्रसुन जी नाम का कोई साधक है ? या ये सिर्फ़ कोई काल्पनिक किरदार है ? अगर ये सच है । तो क्या कोई अति जिग्यासा रखने वाला व्यक्ति भी ये प्रसुन जी वाली साधना कर सकता है ? क्या प्रसुन जी की सारी विध्याएँ सिर्फ़ द्वैत साधनाओं के अन्तर्गत आती है ? क्या प्रसुन जो दिव्य साधना करते हैं । वो द्वैत की सबसे बडी साधना है ? क्या ये दिव्य साधना से द्वैत की बाकी कुछ छोटी साधनाओं का फ़ल भी मिल जाता है ? क्या प्रसुन जी के गुरु सिर्फ़ द्वैत साधना के ही गुरु हैं ? तो वो किस श्रेणी में आते हैं ? सन्त । सिद्ध । योगी या महात्मा ?

*** प्रसून जी के बारे में जानने के लिये मुझसे बहुत लोगों ने आग्रह किया । लेकिन मैं इसका हाँ या ना में कोई भी जबाब दूँ । उससे आपको कोई लाभ नहीं होगा । द्वैत के अन्तर्गत आने वाली ये साधना कोई भी इसके लिये समर्पित और चाहत रखने वाला इंसान कर सकता है । ये कुन्डलिनी ग्यान या चक्रों पर आधारित साधना है । बङी छोटी साधना वाला मैटर तन्त्र मन्त्र के अन्तर्गत आता है । इसमें नहीं होता । कुन्डलिनी या सुरति शब्द में जितनी पढाई चङाई साधक करता जाता है । उतनी पावर उसे प्राप्त होती जाती है । वैसे इसमें गुरु की पहुँच की भूमिका महत्वपूर्ण होती है । जब कोई आदमी डी एम बन जाता है । तो उससे नीचे पदों के लाभ उसे स्वतः ही मिलते हैं । यही बात किसी भी साधना पर भी लागू होती है । सिद्ध बहुत छोटे होते हैं । ऐसे गुरु को योगी और महात्मा दोनों ही कहते हैं ।


ये तो मैं आपके लेखों से जान ही गया हूँ कि किसी भी साधना ( चाहे द्वैत हो । या अद्वैत ) उसके लिये मार्गदर्शक रुपी गुरु की भूमिका अति महत्वपूर्ण है । क्या ऐसे गुरु ( प्रसुन के गुरु ) आज के जमाने में भी हैं ? ( आजकल ) क्या ऐसे गुरु गुप्त रहना ज्यादा पसन्द करते हैं ?

*** जी हाँ ! छोटे से छोटा और बङे से बङा गुरु हर समय मौजूद रहा है । सिर्फ़ सतगुरु शरीर रूप में हमेशा नहीं होते । वे कभी कभी ही प्रकट होते हैं । कोई भी सच्चा सन्त । गुरु । साधक गुप्त और सादगी से ही रहना पसन्द करते हैं । वे जीव को चेताने । ग्यान देने और उसके आत्मकल्याण में अधिक विश्वास रखते हैं । न कि किसी प्रकार की तङक भङक में ।..गुप्त रहने का एक कारण और भी है । जब जनता को पता चलता है कि इन बाबा के पास कोई रूहानी ताकत है । तो उसके पास अपनी समस्याओं को लेकर पहुँचने वालों का ताँता सा लग जाता है । और सच्चा सन्त किसी को ना नहीं कर सकता । इससे उनके भजन ध्यान में बाधा आती है । और वो ज्यादातर गुप्त रहते हैं । अगर किसी तरह वे पब्लिक में शो हो भी जायँ । तो तुरन्त अपना स्थान बदल लेते हैं ।


सारी सर ! मैं अपने पहले वाले ई-मेल में 1 बात जोडना भूल गया था । ये भी बता दीजिए कि प्रेत योनियाँ क्या अनेक किस्म की होती हैं ? और क्या प्रेतयोनि 84 लाख योनि के अन्तर्गत आती है ? या प्रेतयोनि 84 लाख योनियों से बाहर है ?

*** जी हाँ ! प्रेत योनियाँ अनेक किस्म की होती हैं । कुछ लाख तो होती ही हैं । लेकिन ये प्रेत योनियाँ 84 के अन्तर्गत नहीं आती । 84 के अन्तर्गत 1 अंडज { अंडे से पैदा होने वाली }  2 जरायुज { सीधे सीधे बच्चा उत्पन्न होना } 3 स्वेदज { पसीने से उत्पन्न } 4 वारिज { जल से उत्पन्न }
अधिक जानकारी के लिये आगे का मैटर " अनुराग सागर " से पढिये -
तब आध्याशक्ति ने ( कालपुरुष के कहेनुसार..यह बात कालपुरुष दोबारा कहने आया  था । क्योंकि पहले अष्टांगी ने जब पुत्रों को इससे पहले सृष्टि रचना के लिये कहा । तो उन्होंने अनसुना कर दिया । )  अपने तीनो पुत्रों के साथ सृष्टि की रचना की ।
आद्धाशक्ति ने खुद अंडज । यानी अंडे से पैदा होने वाले जीवों को रचा । बृह्मा ने पिंडज । यानी पिंड से शरीर से पैदा होने वाले जीवों की रचना की । विष्णु ने ऊश्मज । यानी पानी । गर्मी से पैदा होने  वाले जीव कीट पतंगे जूं आदि की रचना की । शंकर जी ने स्थावर यानी पेड । पौधे । पहाड़ । पर्वत आदि जीवों की रचना की । और फिर इन सब जीवों को 4 खानों वाली 84 लाख योनियों में डाल दिया । इनमें मनुष्य शरीर की रचना सर्वोत्तम थी ।

21 अप्रैल 2011

इस पार देह है उस पार चैतन्‍य है

प्‍यारे ओशो, कल प्रथम बार मैंने शिविर में विपश्‍यना ध्‍यान किया । इतनी उड़ान अनुभव हुई । कृपया विपश्‍यना के बारे में प्रकाश डालें ।
- ईश्‍वर समर्पण । विपश्‍यना मनुष्‍य जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण ध्‍यान प्रयोग है । जितने व्‍यक्‍ति विपश्यना से बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हुए । उतने किसी और विधि से कभी नहीं । विपश्यना अपूर्व है । विपश्यना शब्‍द का अर्थ होता है - देखना । लौटकर देखना ।
बुद्ध कहते थे - इहि पस्‍सिको । आओ और देखो । बुद्ध किसी धारणा का आग्रह नहीं रखते । बुद्ध के मार्ग पर चलने के लिए ईश्‍वर को मानना न मानना । आत्‍मा को मानना न मानना आवश्‍यक नहीं है । बुद्ध का धर्म अकेला धर्म है दुनिया में । जिसमें मान्‍यता, पूर्वाग्रह, विश्‍वास इत्‍यादि की कोई आवश्‍यकता नहीं है । बुद्ध का धर्म अकेला वैज्ञानिक धर्म है ।
बुद्ध कहते - आओ और देख लो । मानने की जरूरत नहीं है । देखो, फिर मान लेना । और जिसने देख लिया । उसे मानना थोड़े ही पड़ता है । मान ही लेना पड़ता है । और बुद्ध के देखने की जो प्रकिया थी । दिखाने की जो प्रकिया थी । उसका नाम था - विपस्सना ।
विपस्सना बड़ा सीधा सरल प्रयोग है । अपनी आती जाती स्वांस के प्रति साक्षी भाव । स्वांस जीवन है । स्वांस से तुम्‍हारी आत्‍मा और तुम्‍हारी देह जुड़ी है । स्वांस सेतु है । इस पार देह है । उस पार चैतन्‍य है । मध्‍य में स्वांस है । यदि तुम स्वांस को ठीक से देखते रहो । तो अनिवार्य रूपेण अपरिहार्य रूप से शरीर से तुम भिन्‍न अपने को जानोगे । स्वांस को देखने के लिए जरूरी हो जायेगा कि तुम अपनी आत्‍म चेतना में स्‍थिर हो जाओ । बुद्ध कहते नहीं कि - आत्‍मा को मानो । लेकिन स्वांस को देखने का ओर कोई उपाय नहीं है । जो स्वांस को देखेगा । वह स्वांस से भिन्‍न हो गया । और जो स्वांस से भिन्‍न हो गया । वह शरीर से भी भिन्‍न हो गया । क्‍योंकि शरीर सबसे दूर है । उसके बाद स्वांस है । उसके बाद तुम हो । अगर तुमने स्वांस को देखा । तो स्वांस के देखने में शरीर से तो तुम अनिवार्य रूपेण छूट गए । शरीर से छूटो । स्वांस से छूटो । तो शाश्‍वत का दर्शन होता है । उस दर्शन में ही उड़ान है । ऊँचाई है । उसकी ही गहराई है । बाकी न तो कोई ऊँचाईयां है जगत में । न कोई गहराईयां है जगत में । बाकी तो व्‍यर्थ की आपाधापी है ।
फिर स्वांस अनेक अर्थों में महत्‍वपूर्ण है । यह तो तुमने देखा होगा । क्रोध में स्वांस 1 ढंग से चलती है । करूणा में दूसरे ढंग से चलती है । दौड़ने में वह दूसरे ढंग से चलती है । आहिस्‍ता चलने में वह दूसरे ढंग से चलती है । चित ज्‍वर ग्रस्‍त होता है । 1 ढंग ये चलती है । तनाव से भरा होता है । तो 1 ढंग से चलती है । और चित शांत होता है । मौन होता है । तो दूसरे ढंग से चलती है ।
स्वांस भावों से जुड़ी है । भाव को बदलो । स्वांस बदल जाती है । स्वांस को बदल लो । भाव बदल जाते हैं । जरा कोशिश करना । क्रोध आये अगर । स्वांस को डोलने मत देना । स्वांस को थिर रखना । शांत रखना । स्वांस का संगीत अखंड रखना । स्वांस का छंद न टूटे । फिर तुम क्रोध न कर पाओगे । तुम बड़ी मुश्‍किल में पड़ जाओगे । क्रोध उठेगा भी । तो गिर गिर जायेगा । क्रोध के होने के लिए स्वांस को आंदोलित होना । स्वांस आंदोलित हो । तो भीतर को केंद्र डगमगाता है । नहीं तो क्रोध देह पर ही रहेगा । देह पर आये क्रोध का कुछ अर्थ नहीं । जब तक कि चेतना उससे आंदोलित हो । चेतना आंदोलित हो । तो जुड़ गये । फिर इससे उल्‍टा भी सच है । भावों को बदलो । स्वांस बदल जाती है । तुम कभी बैठे हो सुबह उगते सूरज को देखने नदी तट पर । भाव शांत है । कोई तरंग नहीं है चित पर । उगते सूरज के साथ तुम लवलीन हो । लौटकर देखना । स्वांस का क्‍या हुआ ? स्वांस बड़ी शांत हो गई । स्वांस में 1 रस हो गया । 1 स्‍वाद । 1 छंद बंध गया । स्वांस संगीत पूर्ण हो गयी ।
विपस्सना का अर्थ है शांत बैठकर । स्वांस को बिना बदले । ख्‍याल रखना । प्राणयाम और विपस्सना में यही भेद है । प्राणायाम में स्वांस को बदलने की चेष्‍टा की जाती है । विपस्सना में स्वांस जैसी है । वैसी ही देखने की आकांशा है । जैसी है । उबड़ खाबड़ है । अच्छी बुरी है । तेज है । शांत है । दौड़ती है । भागती है । ठहरती है । जैसी है ।
बुद्ध कहते हैं - तुम अगर चेष्‍टा करके स्वांस को किसी तरह नियोजित करोगे । तो चेष्‍टा से कभी भी महत फल नहीं होता । चेष्‍टा तुम्‍हारी है । तुम ही छोटे हो । तुम्‍हारे हाथ छोटे है । तुम्‍हारे हाथ की जहां जहां छाप होगी । वहां वहां छोटापन होगा ।
इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा है कि - स्वांस को तुम बदलो । बुद्ध ने प्राणायाम का समर्थन नहीं किया । बुद्ध ने तो कहा - तुम तो बैठ जाओ । स्वांस तो चल ही रही है । जैसी चल रही है । बस बैठकर देखते रहो । जैसे राह के किनारे बैठकर देखते रहो । जैसे राह के किनारे बैठकर कोई राह चलते यात्रियों को देखे कि नदी तट पर बैठकर नदी की बहती धार को देखे । तुम क्‍या करोगे ?
आई 1 बड़ी तरंग । तो देखोगे । और नहीं आई तरंग । तो देखोगे । राह पर निकली कारें बसें । तो देखोगे । गाय भैंस निकली । तो देखोगे । जो भी है । जैसा है । उसको वैसा ही देखते रहो । जरा भी उसे बदलने की आकांक्षा आरोपित मत करना । शांत बैठकर स्वांस को देखते रहो । देखते रहो । स्वांस और शांत हो जाती है । क्‍योंकि देखने में ही शांति है ।  और निर्चुनाव - बिना चुने देखने में बड़ी शांति है । अपने करने का कोई प्रश्‍न ही नहीं है । जैसा है । ठीक है । जैसा है । शुभ है । जो भी गुजर रहा है आँख के सामने से । हमारा उससे कुछ लेना देना नहीं है । तो उद्विग्‍न होने का कोई सवाल ही नहीं है । आसक्‍त होने की कोई बात नहीं । जो भी विचार गुजर रहे है । निष्‍पक्ष देख रहे है । स्वांस की तरंग धीरे धीरे शांत होने लगेगी । स्वांस भीतर आती है । अनुभव करो फेफड़ों का फैलना । फिर क्षण भर सब रूक जाना । अनुभव करो । उस रुके हुए क्षण को । फिर स्वांस बाहर चली । फेफड़े सुकड़े लगे । अनुभव करो । उस सुड़कने को । फिर नासापुटों से स्वांस बाहर गयी । अनुभव करो । उतप्‍त स्वांस नासापुटों से बाहर जाती है । फिर क्षण भर सब ठहर जाता है । फिर नया स्‍वास आयी ।
यह पड़ाव है । स्वांस का भीतर आना क्षण भर । स्वांस का भीतर ठहरना । फिर स्वांस का बाहर जाना क्षण भर । फिर स्वांस का बाहर ठहरना । फिर नई स्वांस का आवागमन । यह वर्तुल है । वर्तुल को चुपचाप देखते रहो । करने को कोई भी बात नहीं । बस देखो । यहीं विपस्‍सना का अर्थ है ।
क्‍या होगा इस देखने से ? इस देखने से अपूर्व होता है । इसके देखते देखते ही चित के सारे रोग तिरोहित हो जाते है । इसके देखते देखते ही - मैं देह नहीं हूँ । इसकी प्रत्‍यक्ष प्रतीति हो जाती है । इसके देखते देखते ही - मैं मन नहीं हूं । इसका स्‍पष्‍ट अनुभव हो जाता है । और अंतिम अनुभव होता है कि - मैं स्वांस भी नहीं हूं । फिर मैं कौन हूं ? फिर उसका कोई उत्‍तर तुम दे न पाओगे । जान तो लोगे । मगर गूंगे को गुड़ हो जायेगा । वही है उड़ान । पहचान तो लोगे कि - मैं कौन हूं ? मगर अब बोल न पाओगे । अब अबोल हो जायेगा । अब मौन हो जाओगे । गुन सुनाओगे भीतर ही भीतर । मीठा  मीठा स्‍वाद लोगे । नाचोगे मस्‍त होकर । बांसुरी बजाओगे । पर कह नहीं पाओगे ।
ईश्‍वर समर्पण । ठीक ही हुआ । कहा तुमने । इतनी उड़ान अनुभव हुई । अब विपस्‍सना के सूत्र को पकड़ लो । अब इसी सूत्र के सहारे चल पड़ो । और विपस्‍सना की सुविधा यह है कि कहीं भी कर सकते हो । किसी को कानों कान खबर भी नहीं होगी । बस में बैठे । ट्रेन में सफर करते । कार में यात्रा करते । राह के किनारे । दुकान पर । बाजार में । घर में । बिस्‍तर पर लेटे । लिखते पढ़ते । खाते नहाते । किसी को पता भी न चले । क्‍योंकि न तो कोई मंत्र का उच्‍चरण करना है । न कोई शरीर का विशेष आसन चुनना है । धीरे धीरे इतनी सुगम और सरल बात है । और इतनी भीतर की है कि कहीं भी कर ले सकते हो । और जितनी ज्‍यादा विपस्‍सना तुम्‍हारे जीवन में फैलती जायेगी । उतने ही 1 दिन बुद्ध के इस अदभुत आमंत्रण को समझोगे - इहि पस्‍सिको । आओ और देख लो । बुद्ध कहते है - ईश्‍वर को मानना मत । क्‍योंकि शास्‍त्र कहते है - मानना तभी । जब देख लो । बुद्ध कहते है । इसलिए भी मत मानना कि मैं कहता हूं । मान लो । तो चूक जाओगे । देखना । दर्शन करना । और दर्शन ही मुक्‍तिदायी हे । मान्‍यताएं हिंदू बना देती है । मुसलमान बना देती है । ईसाई बना देती है । जैन बना देती है । बौद्ध बना देती है । दर्शन तुम्‍हें परमात्‍मा के साथ 1 कर देता है । फिर तुम न हिंदू हो । न मुसलमान । न ईसाई । न जैन । न बौद्ध । फिर तुम परमात्मा मय हो । ओर वही अनुभव पाना है । वहीं अनुभव पाने योग्‍य है । ओशो
http://www.osho.com/meditate/meditation-tool-kit/questions-about-meditation/what-is-vipassana

19 अप्रैल 2011

ये बाबाजी 1 पल में पूरी कायनात को खतम कर सकते हैं ।

नमस्ते ! श्री राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ जी । समझ में नहीं आ रहा कि बात कैसे और कहाँ से शुरु करुँ ? मैं अपने बारे में क्या बताऊँ । मैं आपका अनाम पाठक हूँ । अनाम इसलिये क्युँ कि मेरी पहचान इस लायक नहीं कि मैं किसी को कह सकूँ कि मैं ये हूँ । या मैं वो हूँ ।
मैं अपने बारे में सिर्फ़ इतना ही बताना चाहता हूँ कि मैं १०० प्रतिशत आस्तिक आदमी हूँ । मैंने आपसे कोई सवाल नही पूछ्ना । सवाल भी क्युँ पूछूँ ? आपके ब्लाग में मुझे मेरे हर सवाल का जवाब बिना पूछे ही मिल गया । जो नही पता था । उसकी भी जानकारी मिल गयी । और दिन पर दिन लगातार आपके लेखों और आपके उत्तम पाठकों द्वारा नयी नयी जानकारी पढने को मिल रही है । फ़िर और क्या चाहिये ?
मुझे तो बिना मेहनत किये । बिना सवाल पूछे ग्यान के मोती मुफ़्त में मिल रहे हैं ।
श्री राजीव जी ! ये मेरा पहला ई-मेल है । मैं आपसे कुछ पूछ्ने की बजाय कुछ बताना चाहता हूँ । ये मेरी बीती हुई जिन्दगी का १ छोटा सा अनुभव है । साल २००६ से पहले मैं कभी किसी सतसग में नही गया था । लेकिन पूजा पाठ जरुर किया करता था ।
 साल २००६ में जून या जुलाई के महीने में मेरा १ दोस्त मुझे किसी आलीशान सतसंग ले गया । मैं भी दिल की खुशी से उसके साथ चल पडा । पर वहाँ पहुँचते ही मेरी तो सारी खुशी हवा हो गयी । वहाँ सतसंग जैसा कोई माहौल ही नही था । ऐसा लग रहा था । जैसे लोग पिकनिक मनाने आये हैं ।
वहाँ सबसे पहले हमारी गाडी की चैकिंग की गयी । जितनी चैकिंग वहाँ की गयी । शायद इतनी चैकिंग पोलिस भी नहीं करती ।


फ़िर आगे जाकर हमारे बैग । मोबाइल फ़ोन । पर्स । कपडे और पूरे शरीर की चैकिंग की गयी । आदमीयो की चैकिंग पुरुष कर रहे थे । और औरतों की चैकिंग महिलाएँ कर रही थी । मैं अन्दर ही अन्दर गुस्से से उबल रहा था ।
फ़िर वहाँ रात का खाना फ़िल्म की तरह टिकट कटाने के बाद मिलता है \ उस वकत मुझे बहुत सी तादाद में प्रेमी जोडे भी दिखायी दिये । अगले दिन सुबह १० और ११ के बीच सतसंग था । भीड हजारों की तादाद में थी । औरतें अलग बैठी थीं । और पुरुष अलग ।
अमीर लोगो की पंक्तियाँ अलग थी । और मेरे जैसों की अलग । बाबा जी के आने से पहले बन्दूकधारी और लाठी वाले सेवादार हम जैसे सतसंगीयो की तरफ़ गुस्से से देख रहे थे । इतने में बाबा जी ने फ़िल्मी स्टाईल से एन्ट्री मारी ।
मेरे आसपास के लोग ( जो गरीब । बूङे । साधारण कपडों में थे । ) जिगयासावश प्रेम से उठकर बाबा जी को एडियों के भार पर खडे होकर देखने लगे । उनमें से किसी ने कोई अनुचित हरकत नही की । बस उनकी भावना सिर्फ़ प्रेम की ही थी ।
इतने मे सेवादारों ने थप्पडों और लाठीयों से उन लोग को अपनी जगह पर बिठाना शुरु कर दिया । कुछ लोगों की पिटाई होते ही, बाकी बेचारे खुद ब खुद डरकर अपनी जगह पर बैठ गये । तब फ़िर १० मिनट बाद शुरु हुए १ घन्टे के सतसंग में पहले तो बाबा जी ने जो लोग सतसंग सुनने आये थे । उनको डाँटा ।
 और कहा कि - तुम लोग मेरे दर्शन ले नहीं रहे थे । तुम लोग तो अपने दर्शन मेरे को दे रहे थे । तुम लोगों की आदतें पशुओं की तरह हैं ?


तुम लोगो को सतगुरु का आदर करना नही आता । जब तुम लोगों ने मुझे अपना बाप माना है । तो बाप के सामने आने का तरीका भी सीखो ? फ़िर उसके बाद बाबा जी ने सतसंग रूपी भाषण दिया । जो मेरे लिये मूल्यवान नही था ।
 हम लोगों को रात वहीं रहना पडा । जो अमीर लोग थे । वहाँ उनके लिये बहुत तादाद में फ़्लैट बने हुए हैं । ( विद एयर कन्डीशन )  बाकी लोग ( आम लोग ) वहाँ जमीन पर १ बडे से शैड के नीचे सोते रहे । बाबाजी के आसपास बहुत बाडीगार्ड थे ।
रात को वहाँ का १ निवासी बता रहा था कि - बाबा जी पूर्ण परमात्मा हैं । इनमें और परमात्मा में कोई फ़र्क नहीं । इनकी पावर और परमात्मा की पावर में कोई अन्तर नहीं । जैसे परमात्मा पूरे बृह्माण्ड को १ पल में खत्म कर सकता है ।
 वैसे ही ये बाबाजी भी १ पल में पूरी कायनात को खतम कर सकते हैं । मैं बोला तो कुछ नही । लेकिन मन में सोचा कि - हाँ, तभी तेरे बाबाजी को इतने सारे बाडीगार्डस की जरूरत रहती है । ताकी इनको न कोई बिना थूक लगाये रगड दे ।
वहाँ कुछ चरित्रहीन लोग भी सरेआम घूमते दिखाई दिये । जो महिला सतसंगीयों को अनादर से देख रहे थे । हाँ १ बात और बाबाजी सतसंग में सिगरेट और तम्बाकू की बहुत निन्दा कर रहे थे । और इसके सेवन को महापाप बता रहे थे । और मैंने अपने आखों से उनके ही आलीशान आश्रम में उनके ही सेवादार को जर्दा और तम्बाकू का चोरी चोरी सेवन करते देखा ।
 वो अलग बात है कि बाहर से आये लोगों की डबल चैकिंग की जाती है । वहाँ जो कुछ भी देखा । कुछ भी अच्छा नही लगा ( इस वकत ये सब लिखते हुये भी मूड खराब हो रहा है । ) मैंने उस दिन मन में कसम खाली कि आगे से यहाँ नही आऊँगा ।
 उस दिन के बाद मैं वहाँ कभी नहीं गया । और तो और किसी भी सतसंग में नहीं गया । मैंने जानबूझ कर आपको उस आश्रम या बाबा का नाम नहीं बताया । क्युँ कि मुझे पता है कि आपका ब्लाग जन-कल्याण के लिये है ।
 इसलिये किसी का नाम ( चाहे वो ढोंगी ही क्युँ न हो ) छापना उचित नहीं । मुझे वहाँ बाबा के बारे में १ बात और सुनने को मिली कि बाबा जी बाबा बनने से पहले विदेश में अच्छी तनखाह वाली नौकरी करते थे । बस कुछ साल पहले ही बाबा बने हैं ।
 उनका सेवादार बडी खुशी से कह रहा था कि - हमारे पूजनीय बाबा जी विदेशों में खूब सतसंग करते हैं । इन्डिया में कम ही रहते हैं ।


तब मैंने मन में कहा - तो तेरा नया बाप साधना कब करता है ? पहले कई साल नौकरी की । और अब विदेश भ्रमण चल रहा है । साधना का वकत कब निकालता है ? उस सतसंग के कई दिन बाद मुझे उस बाबा का ही दूर का रिशतेदार मिला । उसने मुझे बताया कि बाबा जी बाबा बनने से पहले बडे शौक से सिगरेट पीते थे । और शराब भी पीते थे ।
 मैं सब कुछ चुपचाप सुनता रहा । और देखता रहा । लेकिन मेरे मन में बडा आघात लगा । मैं १०० प्रतिशत आस्तिक हूँ । इसलिये मन में बडी पीडा महसूस हुई कि आजकल ये बडे बडे आश्रम और बाबाओं का जो हाल है । वो भरोसा करने लायक बिल्कुल नहीं ।
मैं एक तरह से उदास रहने लगा था । तभी पिछ्ले साल अचानक ही १ दिन आपके ब्लाग पर आना हो गया । तब कुछ सकून महसूस हुआ । आपके ब्लाग पर आना जाना शुरु हो गया । फ़िर ये सिलसिला लगातार हर रोज शुरु हो गया ।
 अब तो आपके ब्लाग पर हर रोज २ बार आता हूँ । सुबह और शाम ।
 श्री राजीव जी ! मैं आपसे पहले ही बोल चुका हूँ कि मैं आपसे पूछ्ने कुछ भी नहीं आया । सब कुछ अपने आप ही आपके ब्लाग से पढने को मिल रहा है ।
 बस ये मेरा निवेदन है । प्रार्थना है । बिनती है कि आप अपना ब्लाग चलाते रहें । इस ब्लाग को बन्द मत करना । ये ब्लाग शुरु करके आपने बहुत परोपकार का काम किया है । मेरा ये अन्दाजा है कि जितने पाठक आपको ई-मेल करते हैं । आपके ब्लाग को पढने वालो की गिनती उनसे भी ज्यादा है ।
ये बात और है कि हर कोई आप को ई-मेल नही करता । या किसी वजह से कर नहीं पाता । अब मैं और क्या लिखूँ । आपकी जितनी तारीफ़ की जाये । उतनी ही कम है । मेरी दिल से शुभकामनाये आपके साथ हैं । बस आप लगे रहिये । इस महान कार्य में । रूकना मत । हो सके तो मेरे मन के विचारों रूपी इस लेख को अपने ब्लाग मे जरूर छापें । आपका अनाम पाठक ।

*** प्रिय सतसंग प्रेमी बन्धु ! सत्यकीखोज..पर आपका बहुत बहुत स्वागत हैं । आपको यहाँ आकर ग्यान संतुष्टि मिली । यह प्रभु की कृपा ही है । आपने बहुत सुन्दर और जनोपयोगी पत्र लिखा है । मैं अपने सभी पाठकों से..इन भाई की प्रेरणा से यह कहना चाहूँगा कि आज नकली बाबाओं ने ऐसा माहौल बना दिया कि लोग सच्चे और सीधे साधुओं को भी शक की निगाह से देखने लगे हैं । और ऐसा मानने लगे हैं कि ग्यान ध्यान सब बकबास बातें हैं ।
मैं आप सभी लोगों से आवाहन करता हूँ कि भारत की इस समृद्ध और गौरवशाली ग्यान परम्परा को फ़िर से दृण स्थापित करने में मेरा सहयोग करें । मैं इसके लिये आपसे कुछ भी नहीं चाहता । पर जो कुछ आपको यहाँ प्राप्त होता है । उसे सतसंग रूप में अधिक से अधि्क लोगों को बतायें । और यकीन मानिये । ये किसी फ़ालतू बाबा के सतसंग में धक्के खाने की अपेक्षा बहुत पुण्य का कार्य है ।

18 अप्रैल 2011

तुम्हारे चारों तरफ तरंगें मौजूद हैं

महानिर्वाण को उपलब्ध हो जाने के बाद भी । ज्ञानी और गुरुजन समष्टि में मिलकर किस प्रकार हमारी सहायता करते हैं ? इसे अधिक स्पष्ट करें । 
- सहायता करते हैं । ऐसा कहना ठीक नहीं । सहायता होती है । करने वाला तो बचता नहीं । नदी तुम्हारी प्यास बुझाती है । ऐसा कहना ठीक नहीं । नदी तो बहती है । तुम अगर पी लो जल । प्यास बुझ जाती है । अगर नदी का होना प्यास बुझाता होता । तब तो तुम्हें पीने की भी जरूरत न थी । नदी ही चेष्टा करती । नदी तो निष्क्रिय बही चली जाती है । नदी तो अपने तई हुई चली जाती है । तुम किनारे खड़े रहो जन्मों जन्मों तक । तो भी प्यास न बुझेगी । झुको । भरो अंजुली में । पीयो । प्यास बुझ जाएगी ।
ज्ञानीजन समष्टि में लीन हो जाने के बाद ही या समष्टि में लीन होने के पहले तुम्हारी सहायता नहीं करते । क्योंकि कर्ता का भाव ही जब खो जाता है । तभी तो ज्ञान का जन्म होता है । जब तक कर्ता का भाव है । तब तक तो कोई ज्ञानी नहीं । अज्ञानी है । 
मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर रहा हूं । और न तुम्हारी कोई सेवा कर रहा हूं । कर नहीं सकता हूं । मैं सिर्फ यहां हूं । तुम अपनी अंजुलि भर लो । तुम्हारी झोली में जगह हो । तो भर लो । तुम्हारे हृदय में जगह हो । तो रख लो । तुम्हारा कंठ प्यासा हो । तो पी लो । ज्ञानी की सिर्फ मौजूदगी, निष्क्रिय मौजूदगी पर्याप्त है । करने का ऊहापोह वहां नहीं है । न करने की आपाधापी है ।
इसलिए ज्ञानी चिंतित थोड़े ही होता है । तुमने उसकी नहीं मानी । तो चिंतित थोड़े ही होता है । उसने जो तुम्हें कहा । वह तुमने नहीं किया । तो परेशान थोड़े ही होता है । अगर कर्ता भीतर छिपा हो । तो परेशानी होगी । तुमने नहीं माना । तो वह आग्रह करेगा । जबरदस्ती करेगा । अनशन करेगा कि मेरी मानो । नहीं तो मैं उपवास करूंगा । अपने को मार डालूंगा । अगर मेरी न मानी ।
सत्याग्रह शब्द बिलकुल गलत है । सत्य का कोई आग्रह होता ही नहीं । सब आग्रह असत्य के हैं । आग्रह मात्र ही असत्य है । सत्य की तो सिर्फ मौजूदगी होती है । आग्रह क्या है ? सत्य तो बिलकुल निराग्रह है । सत्य तो मौजूद हो जाता है । जिसने लेना हो । ले ले । उसका धन्यवाद । जो ले ले । जिसे न लेना हो । न ले । उसका भी धन्यवाद । जो न ले । सत्य को कोई चिंता नहीं है कि लिया जाए । न लिया जाए । हो । न हो ।
सत्य बड़ा तटस्थ है । करुणा की कमी नहीं है । लेकिन करुणा निष्क्रिय है । नदी बही जाती है । अनंत जल लिए बही जाती है । लेकिन हमलावर नहीं है । आक्रमक नहीं है । किसी के कंठ पर हमला नहीं करती । और किसी ने अगर यही तय किया है कि प्यासे रहना है । यह उसकी स्वतंत्रता है । वह हकदार हैं प्यासा रहने का । 
संसार बड़ा बुरा होगा । बड़ा बुरा होता । अगर तुम प्यासे रहने के भी हकदार न होते । संसार महागुलामी होती । अगर तुम दुखी होने के भी हकदार न होते । तुम्हें सुखी भी मजबूरी में किया जा सकता । तो मोक्ष हो ही नहीं सकता था फिर । तुम स्वतंत्र हो । दुखी होना चाहो । दुखी । तुम स्वतंत्र हो । सुखी होना चाहो । सुखी । आंख खोलो । तो खोल लो । बंद रखो । तो बंद रखो । सूरज का कुछ लेना देना नहीं । खोलोगे । तो सूरज द्वार पर खड़ा है । न खोलोगे । तो सूरज कोई अपमान अनुभव नहीं कर रहा है ।
जीते जी । या शरीर के छूट जाने पर ज्ञान 1 निष्क्रिय मौजूदगी है ।
इसको लाओत्से ने " वुईवेई ' कहा है । वुईवेई का अर्थ होता है - बिना किए करना । यह जगत का सबसे रहस्यपूर्ण सूत्र है । ज्ञानी कुछ करता नहीं । होता है । ज्ञानी बिना किए करता है । और लाओत्से कहता है कि जो कर करके नहीं किया जा सकता । यह बिना किए हो जाता है । भूलकर भी किसी के ऊपर शुभ लादने की कोशिश मत करना । अन्यथा तुम्हीं जिम्मेदार होओगे उसको अशुभ की तरफ ले जाने के । 
ऐसा रोज होता है । अच्छे घरों में बुरे बच्चे पैदा होते हैं । साधु बाप बेटे को असाधु बना देता है । चेष्टा करता है साधु बनाने की । उसी चेष्टा में बेटा असाधु हो जाता है । और बाप सोचता है कि शायद मेरी चेष्टा पूरी नहीं थी । शायद मुझे जितनी चेष्टा करनी थी । उतनी नहीं कर पाया । इसीलिए यह बेटा बिगड़ गया । बात बिलकुल उलटी है । तुम बिलकुल चेष्टा न करते । तो तुम्हारी कृपा होती । तुमने चेष्टा की । उससे ही प्रतिरोध पैदा होता है ।
अगर कोई तुम्हें बदलना चाहे । तो न बदलने की जिद पैदा होती है । अगर कोई तुम्हें स्वच्छ बनाना चाहे । तो गंदे होने का आग्रह पैदा होता है । अगर कोई तुम्हें मार्ग पर ले जाना चाहे । तो भटकने में रस आता है । क्यों ? क्योंकि अहंकार को स्वतंत्रता चाहिए । और इतनी भी स्वतंत्रता नहीं ।
जो लोग जानते हैं । वह बिना किए बदलते हैं । उनके पास बदलाहट घटती है । ऐसे ही घटती है । जैसे चुंबक के पास लोहकण खिंचे चले आते हैं । कोई चुंबक खींचता थोड़े ही है । लोह कण खिंचते हैं । कोई चुंबक आयोजन थोड़े ही करता है । जाल थोड़े ही फेंकता है । चुंबक का तो 1 क्षेत्र होता है । चुंबक की 1 परिधि होती है । प्रभाव की । जहां उसकी मौजूदगी होती है । तुम उसकी प्रभाव परिधि में प्रविष्ट हो गए कि तुम खिंचने लगते हो । कोई खींचता नहीं । 
ज्ञानी तो 1 चुंबकीय क्षेत्र है । उसके पास भर आने की तुम हिम्मत जुटा लेना । शेष होना शुरू हो जाएगा । इसीलिए तो ज्ञानी के पास आने से लोग डरते हैं । हजार उपाय खोजते हैं न आने के । हजार बहाने खोजते हैं न आने के । हजार तरह के तर्क मन में खड़े कर लेते हैं न आने के । हजार तरह अपने को समझा लेते हैं कि जाने की कोई जरूरत नहीं ।
पंडित के पास जाने से कोई भी नहीं डरता । क्योंकि पंडित कुछ कर नहीं सकता । अब यह बड़े मजे की बात है, कि पंडित करना चाहता है । और कर नहीं सकता । ज्ञानी करते नहीं । और कर जाते हैं ।
सतसंग बड़ा खतरा है । उससे तुम अछूते न लौटोगे । तुम रंग ही जाओगे । तुम बिना रंगे न लौटोगे । वह असंभव है । लेकिन ज्ञानी कुछ करता है । यह मत सोचना । हालांकि तुम्हें लगेगा । बहुत कुछ कर रहा है । तुम पर हो रहा है । इसलिए तुम्हें प्रतीति होती है कि बहुत कुछ कर रहा है । तुम्हारी प्रतीति तुम्हारे तईं ठीक है । लेकिन ज्ञानी कुछ करता नहीं ।
बुद्ध का अंतिम क्षण जब करीब आया । तो आनंद ने पूछा कि - अब हमारा क्या होगा ? अब तक आप थे । सहारा था । अब तक आप थे । भरोसा था । अब तक आप थे । आशा थी कि आप कर रहे हैं । हो जाएगा । अब क्या होगा ? 
बुद्ध ने कहा - मैं था । तब भी मैं कुछ कर नहीं रहा था । तुम्हें भ्रांति थी । और इसलिए परेशान मत होओ । मैं नहीं रहूंगा । तब भी जो हो रहा था । वह जारी रहेगा । अगर मैं कुछ कर रहा था । तो मरने के बाद बंद हो जाएगा ।
लेकिन मैं कुछ कर ही न रहा था । कुछ हो रहा था । उससे मृत्यु का कोई लेना देना नहीं । वह जारी रहेगा । अगर तुम जानते हो कि कैसे अपने हृदय को मेरी तरफ खोलो । तो वह सदा सदा जारी रहेगा ।
ज्ञानी पुरुष जैसा दादू कहते हैं - लीन हो जाते हैं । उनकी लौ सारे अस्तित्व पर छा जाती है । उनकी लौ फिर तुम्हें खींचने लगती है । कुछ करती नहीं । अचानक किन्हीं क्षणों में जब तुम संवेदनशील होते हो । ग्राहक क्षण होता है कोई । कोई लौ तुम्हें पकड़ लेती है । उतर आती है । वह हमेशा मौजूद थी । जितने ज्ञानी संसार में हुए हैं । उनकी किरणें मौजूद हैं । तुम जिसके प्रति भी संवेदनशील होते हो । उसी की किरण तुम पर काम करना शुरू कर देती है । कहना ठीक नहीं कि काम करना शुरू कर देती है । काम शुरू हो जाता है ।
इसलिए तो ऐसा होता है कि कृष्ण का भक्त ध्यान में कृष्ण को देखने लगता है । क्राइस्ट का भक्त ध्यान में क्राइस्ट को देखने लगता है । दोनों 1 ही कमरे में बैठे हों । दोनों ध्यान में बैठे हों । 1 क्राइस्ट को देखता है । 1 कृष्ण को देखता है । दोनों की संवेदनशीलता 2 अलग धाराओं की तरफ हैं । कृष्ण की हवा है । क्राइस्ट की हवा है । तुम जिसके लिए संवेदनशील हो । वही हवा तुम्हारे तरफ बहनी शुरू हो जाती है । तुमने जिसके लिए हृदय में गङ्ढा बना लिया है । वही तुम्हारे गङ्ढे को भरने लगता है ।
अनंतकाल तक ज्ञानी का प्रभाव शेष रहता है । उसका प्रभाव कभी मिटता नहीं । क्योंकि वह उसका प्रभाव ही नहीं है । वह परमात्मा का प्रभाव है । अगर वह ज्ञानी का प्रभाव होता । तो कभी न कभी मिट जाता । लेकिन वह शाश्वत सत्य का प्रभाव है । वह कभी भी नहीं मिटता ।
तुम थोड़े से खुलो । और तुम्हारे चारों तरफ तरंगें मौजूद हैं । जो तुम्हें उठा लें आकाश में । जो तुम्हारे लिए नाव बन जाएं । और ले चलें भवसागर के पार । चारों तरफ हाथ मौजूद हैं । जो तुम्हारे हाथ में आ जाएं । तो तुम्हें सहारा मिल जाए । मगर वे हाथ झपट्टा देकर तुम्हारे हाथ को न पकड़ेंगे । तुम्हें ही उन हाथों को टटोलना पड़ेगा । वे आक्रमक नहीं हैं । वे मौजूद हैं । वे प्रतीक्षा कर रहे हैं । लेकिन आक्रमक नहीं हैं । ज्ञान अनाक्रमक है । ज्ञान का कोई आग्रह नहीं है ।
इसे थोड़ा समझ लो । ज्ञान का नियंत्रण तो है । आमंत्रण तो है । आग्रह नहीं है । आक्रमण नहीं है । जिसने सुन लिया आमंत्रण । वह जगत के अनंत स्रोतों से जलधार लेने लगता है । जिसने नहीं सुना आमंत्रण । उसके पास ही जलधाराएं मौजूद होती हैं । और वह प्यासा पड़ा रहा है । तुम किनारे पर ही खड़े खड़े प्यासे मरते हो । जहां सब मौजूद था ।
लेकिन कोई करने वाला नहीं है । करना तुम्हें होगा । बुद्ध ने कहा है - बुद्धपुरुष तो केवल इशारा करते हैं । चलना तुम्हें होगा । ओशो 

आपको बाबूजी बनना है ? या फ़टीचर जी बनना है ?

राजीव जी ! नमस्ते.. मैं सुभाष राजपुरा से ।
राजीव जी ! आपसे बिनती है कि पहले की तरह आप फ़िर 1 बार और मेरे प्रश्नों पर गौर करते हुए इनका बिल्कुल सही जवाब दें । जो मैं लिखने जा रहा हूँ । आप उसका बुरा मत मानना ( कही आप सोचे कि ये आदमी बारबार 1 ही बात को घसीटता रहता है ) आपको पता ही है कि मेरे 1 दूर के अंकल को ओशो का भूत सवार है ।


लेकिन मुझे ये बात समझ में नहीं आयी कि पुराने वाले रजनीश ओशो तो लोगो को अमर करने में लगे हुए थे । उनकी पुरानी कैसेट मैंने देखी थी । और किताब भी पढी थी ।
उनके अनुसार जीवन अनन्त है । जीवन कभी भी समाप्त नही होता । सिर्फ़ उसका रुपान्तरण हो जाता है । आत्मा सदा अमर है । केवल चोला बदल लेती है । उनके अनुसार हमारे अन्दर । यानी इस स्थूल शरीर के भीतर । जो जीवित है । उसे ही जीवात्मा कहा जाता है । हर कोई अपने अपने कर्मों के अनुसार नया जनम पाता है । इसको ही जीवन का रूपान्तरण कहा गया है । राजीव जी ! क्या बडे ओशो की ये बात बिल्कुल सही है ?

उनके अनुसार मौत का जीवन से कोई वास्ता नहीं ( यहाँ उनका इशारा आत्मिक जीवन की तरफ़ है ) उनके अनुसार शरीर का बनना और बिगडना 1 तरह से प्राकृतिक कार्य है । जिसको सामान्य तौर पर जन्म मरण बोल दिया जाता है । उनके अनुसार सुक्ष्म शरीर । और फ़िर उसके उपर स्थूल शरीर । ये सब परतों की तरह आत्मा के उपर वस्त्र चङे हु्ये हैं । उनके अनुसार केवल आत्मा ही मूलतत्व है । जो सदा से है । और सदा ही रहेगा ( ये आदि अन्तरहित है )  उनके अनुसार असल में हमारा असली स्वरुप आत्मा ही है । हम ही वो आत्मा हैं । और अपने आपको हम सब भूले हुए हैं । हमें होश ही नहीं है । एक तरह से मूर्छा में हैं । बडे ओशो अपनी बातों में गीता में कहे गये कृष्ण जी के बोलों की उदाहरण हमेशा देते हैं ।


अब आईय़े । नये.....? पर ( ओशो....? जी ) ये कृष्ण जी और गीता की बात नहीं करते । लेकिन अपने सिर्फ़ 20 मिनट के सतसंग में 10 या 12 सन्तों का नाम ले देते हैं ( पलटू जी । नामदेव । रविदास । धर्मदास । जगजीवन जी । कबीर जी । पीपा जी । मीरा जी का भी बहुत बार नाम लिया जाता है ) इनका प्रोग्राम वैसे तो मैं कम ही देखता हूँ । लेकिन जब मेरे वो वाले अंकल दिल्ली से हम लोगों के पास राजपुरा आये होते हैं । तो मुझे भी नये वाले ओशो का प्रोग्राम टीवी पर रोज 20 मिनट देखना पडता है ।

पुराने वाले ओशो जी की बात तो मैंने आपको बता दी । लेकिन ये नये वाले .... ? जी सिर्फ़ मरने को बोलते है । बस मीरा की तरह हो जाओ । मरने से पहले.. मर जाओ ?

जैसे आमतौर पर होता है । आम सतसंगों में इस संसार की अच्छी तरह बुराई करने के बाद । फ़िर नये ओशो जी कहते है - तुम तो मर जाओगे । तुम्हारे अन्दर से आत्मा रूपी पन्छी उड जायेगा । तुम सिवाय देखने के कुछ नहीं कर पाओगे ? और ये कहकर वो बडी मगनता से सिर हिलाते रहते हैं ।  जैसे पास में कोई म्यूजिक लगा हो ।
राजीव जी ! अगर मैं ये पूछूँ कि अगर मैं तो मर जाऊँगा । तो फ़िर ठीक है । मरने से पहले जितनी ऐश हो सकती है । कर लेता हूँ । दूसरी बात जब मैं मर गया । तो आसमान में उङती जा रही आत्मा रूपी पन्छी को देखेगा  कौन ? मेरी लाश ? कभी कभी तो लगता है कि ये नये ओशो जी भी बाकी सन्तों ( शायद नकली ) की तरह समझाते कम हैं । और डराते ज्यादा हैं ।

लगता है । इनके अनुसार शरीर हम खुद हैं । और आत्मा कोई पराया तत्व है ?  प्लीज इस पर कुछ रोशनी डालिये । आखिरी बात । और अगर मैं ही आत्मा हूँ । और इस स्थूल शरीर को 1 साधन की तरह इस्तेमाल करते हुए अपने कर्मों का दुख सुख भोग रहा हूँ । तो बात समझ में भी आती है । क्योंकि अगर मुझे अपनी असलियत का पता होगा । इस महाप्रश्न ( मैं कौन हूँ ? ) का उत्तर पता होगा ( मैं असल में आत्मा हूँ ) तो मैं फ़िर किसी न किसी गुरु की तलाश में निकलूँगा । जिससे दीक्षा लेकर अपने असली मुकाम पर पहुँच सकूँ । लेकिन अगर ये ही नही पता होगा कि - मैं कौन हूँ ? और अधुरे बाबा ये कहते रहेंगे कि तुम मर जाओगे कभी भी मर जाओगे । तो फ़िर ये ही बात है । तो ठीक है । मरने से पहले ऐश कर लो । क्योंकि बाबाजी के अनुसार मरने के बाद कुछ रहेगा ही नही ।

*** सुभाष जी क्योंकि आप लम्बा पत्र लिखते हैं । अतः हो सके । तो निम्न अशुद्धियाँ दूर करने का प्रयास करें ।

*** 1 - आप सुभाश की बजाय सुभाष में ये वाला ष लिखने के लिये shift दबाकर s और फ़िर सादा h  दवायें ।
2 - हु की बजाय हूँ लिखने के लिये hoo इसके बाद ( स्पेस दबाने से पहले ही ) shift दबाये रखकर esc के ठीक नीचे वाली इस निशान की ~ की दबायें । इसके बाद shift छोङकर । फ़िर से shift दबाकर m दबा दें । हूँ लिख जायेगा ।
3 - मै.. मे आदि को.. मैं.. में या कहीं भी बिन्दी  ( ं  ) लगाने हेतु । शब्द लिखने के बाद । स्पेस की दवाने से पहले ही । shift दवाकर m दवा दें ।
4 - आप लोग पूर्ण विराम नहीं लगाते । कृपया इसकी आदत अवश्य डालें । मेरा बहुत समय खराब होता है । पूर्ण विराम ( । ) लगाने के लिये shift दबाये रखकर enter के ठीक ऊपर इस निशान ( \ ) वाली " की " को दबा दें ।

** अब आईये आपके प्रश्नों पर बात करते हैं ।

- उनके अनुसार जीवन अनन्त है । जीवन कभी भी समाप्त नही होता । सिर्फ़ उसका रुपान्तरण हो जाता है । आत्मा सदा अमर है । केवल चोला बदल लेती है । उनके अनुसार हमारे अन्दर । यानी इस स्थूल शरीर के भीतर । जो जीवित है । उसे ही जीवात्मा कहा जाता है । हर कोई अपने अपने कर्मों के अनुसार नया जनम पाता है । इसको ही जीवन का रूपान्तरण कहा गया है । राजीव जी ! क्या बडे ओशो की ये बात बिल्कुल सही है ?

*** मैंने अपने कई लेखों में कहा है कि कबीर । रजनीश । तुलसी । वाल्मीकि । वेद । पुराण । विभिन्न शास्त्र । वेदान्त दर्शन आदि में जो सन्तों की वाणियाँ हैं । उनका सही अर्थ निकालना आम आदमी के वश की बात नहीं है । वे आम आदमी की जिग्यासा इस तरफ़ मोङने हेतु लिखी अवश्य गयी हैं । पर उनकी असली चाबी सन्तों के पास ही है । इसीलिये प्रत्येक सन्तवाणी सन्तों की महिमा । सदगुरु की आवश्यकता । असली और सम्पूर्ण शिष्यत्व आदि पर बेहद जोर देते हैं ।
आपने ऊपर जो भी बातें लिखी हैं । वे अक्षरशः सत्य है । इसका उत्तर आगे के उत्तरों में और भी स्पष्ट हो जायेगा ।

- उनके अनुसार मौत का जीवन से कोई वास्ता नहीं ( यहाँ उनका इशारा आत्मिक जीवन की तरफ़ है ) उनके अनुसार शरीर का बनना और बिगडना 1 तरह से प्राकृतिक कार्य है । जिसको सामान्य तौर पर जन्म मरण बोल दिया जाता है । उनके अनुसार सुक्ष्म शरीर । और फ़िर उसके उपर स्थूल शरीर । ये सब परतों की तरह आत्मा के उपर वस्त्र चङे हु्ये है । उनके अनुसार केवल आत्मा ही मूलतत्व है । जो सदा से है । और सदा ही रहेगा ( ये आदि अन्तरहित है )  उनके अनुसार असल में हमारा असली स्वरुप आत्मा ही है । हम ही वो आत्मा हैं । और अपने आपको हम सब भूले हुए हैं । हमें होश ही नहीं है । एक तरह से मूर्छा में हैं । बडे ओशो अपनी बातों में गीता में कहे गये कृष्ण जी के बोलों की उदाहरण हमेशा देते हैं ।

*** मौत.. जो मरता है । उसे कतई नहीं लगता कि उसकी कोई मौत हुयी है । यह तो बाहर से देख रहे लोगों को लगता है कि ये मर गया । क्योंकि जीवात्मा उस वक्त यमदूतों द्वारा शरीर से बाहर खींच लिया जाता है । और इस तरह शरीर जो अब तक जीवित था । मर जाता है ।
लेकिन इससे पहले.. हर प्राणी के कर्म संस्कार के अनुसार लगभग आधा घन्टा उसे बेहद कष्टदायक स्थिति से गुजरना होता है । जब यमदूतों के हवाले होने से पहले..काल.. जीव को अपने जबङों में दबाकर उसे खाता है । या कहिये..गन्ना चूस स्टायल में उसका रस सा निचोङता है । इसी आधा घन्टा के लिये जीव को मूर्छा आ जाती है । इसके बाद वो अपने आपको यमदूतों के हाथ में पाता है । इसके बाद कर्मानुसार उसकी विभिन्न गति होती है ।
ये सामान्य अवस्था का नियम है । इसलिये उसे कतई नहीं महसूस होता कि वह मर गया है । बल्कि उसे अपने घर । घरवालों । यार दोस्त वगैरा सबकी याद होती है । यदि वो नरक में जाता है । तो भी पूरी सजा के दौरान उसे अपना जीवन और उसके कर्म याद आते रहते हैं । स्वर्ग में भी सब याद रहता है ।
लेकिन..जैसे ही वह मानव योनि के शरीर को पुनः प्राप्त होता है । योगमाया उसकी बुद्धि पर परदा डाल देती है । अन्य 84 लाख योनियों के लिये ये नियम नहीं हैं । क्योंकि वे सिर्फ़ भोग योनियाँ हैं ।
तो ओशो ने कहा अवश्य है । पर उसका मतलब ये नहीं निकाल लेना चाहिये कि जीवन हमेशा है । इसलिये मस्त हो जाओ । होण दे..मौजां ही मौजां..।
जब तुम इंसान रूप में इतने दुखी हो । तो 84 लाख योनियों में तो भयानक कष्ट ही कष्ट हैं । मान लीजिये । कोई आपकी.. ओशो को कही इतनी बात ही पढे । तो वो तो निश्चिन्त हो ही जायेगा । पर यहाँ ओशो ने किसी स्थिति को समझाया है । बाकी अन्य स्थितियों पर उनके कष्ट दुख आदि के बारे में भी उन्होंने कहा है ।

- अब आईय़े । नये....? पर (  .....? जी ) ये कृष्ण जी और गीता की बात नहीं करते । लेकिन अपने सिर्फ़ 20 मिनट के सतसंग में 10 या 12 सन्तों का नाम ले देते हैं ( पलटू जी । नामदेव । रविदास । धर्मदास । जगजीवन जी । कबीर जी । पीपा जी । मीरा जी का भी बहुत बार नाम लिया जाता है )
ये सिर्फ़ मरने को बोलते है । बस मीरा की तरह हो जाओ । मरने से पहले.. मर जाओ ?
जैसे आमतौर पर होता है । आम सतसंगों में इस संसार की अच्छी तरह बुराई करने के बाद । फ़िर नये...? जी कहते है - तुम तो मर जाओगे । तुम्हारे अन्दर से आत्मा रूपी पन्छी उड जायेगा । तुम सिवाय देखने के कुछ नहीं कर पाओगे ? और ये कहकर वो बडी मगनता से सिर हिलाते रहते हैं ।  जैसे पास में कोई म्यूजिक लगा हो ।

*** रजनीश बेजोड़ हैं । और मात्र एक । केवल एक ।.. one and only ।
" ओशो कम्यून " में एक पत्थर पर ऐसा वाक्य लिखा हुआ है -
“ OSHO - never born..never died...only visited the planet earth between 11th Dec. 1931 to 19th Jan 1990 ”
यानी -
" ओशो- ना कभी पैदा हुआ । ना कभी मरा । केवल 11 दिसम्बर 1931 से 19 जनवरी 1990 के बीच पृथ्वी पर आया था । "
इसलिये भाई ! कहाँ से बारबार एक नया ओशो पकङ लाते हो ? बाजार में उनके डुप्लीकेट मिलने लगे क्या ? एक ओशो को तो दुनियाँ अभी तक झेल नहीं पायी ( मतलब अभी उनके ही गूढार्थ लोग नहीं समझ पा रहे । ) आप क्यों नकली माल से टेंशन पैदा कर रहे हो । जबकि असली खरा माल ( उनके उपदेश ) थोक में उपलब्ध है । चाइना के सस्ते माल की आदत सी मालूम होती है..आपको ।
उनसे कहना । भाई सबके बदले तुम मर जाओ । क्यों शाम को थके हारे इंसान को प्राइम टाइम 20 मिनटिया टेंशन देते हो । मीरा की तरह..? होने में पोटी निकल जाती है भाई । कैमरे के सामने । ठाठ बाट से टोपी लगाकर बैठना...मीरा की तरह होना नहीं है ।.. असली योग में प्राण की गति उल्टी चलती है । शरीर की सब चूलें हिल जाती हैं ।

- राजीव जी ! अगर मैं ये पूछूँ कि मैं तो मर जाऊँगा । तो फ़िर ठीक है । मरने से पहले जितनी ऐश हो सकती है । कर लेता हूँ । दूसरी बात.. जब मैं मर गया । तो आसमान में उङती जा रही आत्मा रूपी पन्छी को देखेगा..कौन ? मेरी लाश ? कभी कभी तो लगता है कि ये नये ओशो जी भी बाके सन्तों ( शायद नकली ) की तरह समझाते कम हैं । और डराते ज्यादा हैं । लगता है । इनके अनुसार शरीर हम खुद हैं । और आत्मा कोई पराया तत्व है ?  प्लीज इस पर कुछ रोशनी डालिये ।

*** भैया ! ऐश करना भी आपके हाथ की बात नहीं है । ( बिकाज.. अब वो अभिषेक बच्चन के पास है ).. ये भी आपने भाग्य कमाया हो । तभी तो मिलेगी । अपने पापा । चाचा । ताऊजी आदि से पूछना । वे भी नई उमर में आपकी ही तरह सोचते थे । और बाद में हर स्त्री पुरुष.. चूल्हा । चक्की । आटा । दाल में ही उलझकर रह जाता है । यहाँ कोई ऐश नहीं कर पाता ? ये ख्वामख्याली है आपकी ।.. अभी मम्मी पापा के ऊपर हो । तो चाहे इसको ऐश मान लो । और चाहो । तो ऐश्वर्या राय मान लो । मरजी आपकी । इसलिये ग्यानियों ने कहा है कि - बङी कठिन है..डगर पनघट की । जल्दी से भर लाओ ..यमुना से मटकी ।
मतलब ये जिन्दगी का सफ़र आसान नहीं है । इन्हीं परिस्थियों में आपको सभी कार्य करते हुये अपने उद्धार के लिये भी सोचना है । प्रयत्न करना है । अन्यथा..फ़िर पछताय होत का..जब चिङिया चुग गयी खेत । बाकी..ये उङते पन्छी वगैरा के चक्कर में आप मत पङो । ये बनाऊ बाबा लोगों के फ़न्डे हैं । वैसे ये बात आप सही कह रहे हो । ये ग्यान कम देते है । डराते ज्यादा हैं ।


- आखिरी बात । और अगर मैं ही आत्मा हूँ । और इस स्थूल शरीर को 1 साधन की तरह इस्तेमाल करते हुए अपने कर्मों का दुख सुख भोग रहा हूँ । तो बात समझ में भी आती है । क्योंकि अगर मुझे अपनी असलियत का पता होगा । इस महाप्रश्न ( मैं कौन हूँ ? ) का उत्तर पता होगा ( मैं असल में आत्मा हूँ ) तो मैं फ़िर किसी न किसी गुरु की तलाश में निकलूँगा । जिससे दीक्षा लेकर अपने असली मुकाम पर पहुँच सकूँ । लेकिन अगर ये ही नही पता होगा कि - मैं कौन हूँ ? और अधुरे बाबा ये कहते रहेंगे कि तुम मर जाओगे कभी भी मर जाओगे । तो फ़िर ये ही बात है । तो ठीक है । मरने से पहले ऐश कर लो । क्योंकि बाबाजी के अनुसार मरने के बाद कुछ रहेगा ही नही ।

‌*** भाई मेरे ! B.A के स्टूडेंट हो । ये बताओ कि गौतम बुद्ध जैसों का इतिहास ( एक जर्जर बूङे को देखना । अर्थी को देखना । अपाहिज या बीमार को देखना आदि ) किसलिये लिखा गया है ? ये तमाम शास्त्र किसलिये खोजियों ने लिखे हैं ?
आप इस इंटरनेट का यूज कर रहे हो । सभी तरह की आधुनिक टेक्नोलोजी का यूज कर सुख उठाते हो । ये सब क्या आसमान से टपकी हैं ? दूसरों की अथक मेहनत और खोज का ही तो परिणाम है । ये सब । और इन सबका भी ( कैसे विकास हुआ । क्या कठिनाईयाँ आयीं । आप ही लोगों ने कैसी हँसी बनायी आदि )
इतिहास लिखा हुआ मौजूद है कि नहीं । उसी से आगे के लोग फ़ायदा उठाते हैं । यही परम्परा है ।
 या किसी एक के लिये पूरा इतिहास नया लिखा जायेगा ?
जरूरी नहीं कि खुद को ठोकर लगे । तभी संभलना सीखा जाय । इसलिये..जिस तरह  सामाजिक नियम ये कहता है कि - अपने पैरों पर खङे होकर आत्मनिर्भर बनो । उसी तरह आध्यात्म का नियम यह कहता है कि - इसी दुर्लभ क्षणभंगुर मनुष्य जीवन में अपनी आगे की स्थिति संभाल सको । तो संभाल लो । और पुराने ऐतहासिक अनुभव यह कहते हैं कि - इसके लिये पहले स्वाध्याय करो । फ़िर किसी गुरु की तलाश करो । आप जब छोटे थे । तो मम्मी किताब से अ.. आ..पढातीं थीं । फ़िर स्कूल । फ़िर गुरु । फ़िर ..और स्कूल..। फ़िर और गुरु । इसके बाद डिप्लोमा..ट्रेनिंग आदि । इसके बाद बन गये बाबूजी ।
यही बात तो ..इंसानी जीवन में मौत के बाद लागू होती है कि -
आपको बाबूजी बनना है ? या फ़टीचर जी बनना है ?
तो सार ये कि हरेक आदमी इतना ग्यानी नहीं हो सकता कि उसे खुद ही सब बात का अहसास हो । हम जिन्दगी के सभी पक्षों में.. अधिकांश स्थितियों में..दूसरों के अनुभव से ही फ़ायदा उठाते हैं । किसी भी बात पर विचार करके देख लो । चाहे वह सवेरे की गरम गरम चाय की चुस्कियाँ ही सही ।
सोचिये ..कुछ लोगों की खोज और मेहनत से ही तो रोज सुबह आल वर्ल्ड में सब कह उठते हैं । 
आह ताज..वाह ताज..( मतलब ताजमहल चाय )