सर्व संसार में 1 शक्ति काम कर रही है । संसार की समस्त रचना उसी के द्वारा हुयी है । इस शरीर में भी कार्य करने वाली वही शक्ति है । उसको कुण्डलिनी महामाया कहते हैं । इसका स्थान नाभि के नीचे है ।
पेट में माँस का 1 कमल है । इस कमल के बीच ही ह्रदय कमल स्थिति है ।
इस कमल में सूर्य और चन्द्रमा स्थित है । इस कमल के अन्दर 2 और कमल हैं । 1 कमल नीचे और दूसरा ऊपर है । 1 कमल आकाश रूप और दूसरा प्रथ्वी रूप है । ऊपर के कमल में सूर्य का निवास और नीचे के कमल में चन्द्रमा का निवास है । इन दोनों के मध्य में ही कुण्डलिनी महामाया रहती है । और साँप के समान साढे 3 लपेटे मारकर बैठी है । वह उज्जवल मोतियों के भण्डार के समान प्रकाशित है ।
इससे स्वतः जो वायु निकलती है । वह साँप की फ़ुफ़कार के समान " प्राण " और " अपान " रूप में स्थित रहती है । यह दोनों वायु आपस में टकराती हैं । तो इनसे 1 प्रकार की संघर्ष शक्ति पैदा होती है । उसका दूसरा नाम जठराग्नि है ।
यह पेट में इस तरह रहती है । जैसे सागर में बङबानल अग्नि का वास होता है । यह दोनों ही जल सुखाती हैं ।
प्राण और अपान परस्पर टक्कर खाती हैं । उससे ह्रदय में बङा प्रकाश होता है । इस ह्रदय में 1 भंवरा
सोने के रंग का है । उस भंवरे के दर्शन से योगी की दृष्टि लाख योजन तक देखने की क्षमता वाली हो जाती
है । शीतल वायु को चन्द्रमा और गर्म वायु को सूर्य कहते हैं । इसके मुख से फ़ुँकार की आवाज निकलती है ।
इस आवाज को " शब्द " प्रणव " ॐ " या मन इत्यादि भी कहते हैं ।
यह वासनाओं से भरी हुयी होती है । भांति भांति की सांसारिक वासनायें उसका विषय है । जब कुण्डलिनी
में स्फ़ुरण पैदा होता है । तब " मन " प्रकट होता है । जब निश्चय भाव हुआ । तब बुद्धि उत्पन्न हुयी ।
जब " अहं " भाव हुआ । तब अहंकार पैदा हुआ । जब चिन्तन होता है । तब चित्त उत्पन्न होता है ।
" रस " लेने की इच्छा से - जल । सूँघने की इच्छा से - प्रकृति । इसी तरह 5 तन्मात्रा । 4 अंतःकरण
14 इन्द्रियां और सब नाङियाँ इसी कुण्डलिनी से ही उत्पन्न होती हैं । मन से 3 लोक और 4 वेद उत्पन्न होते हैं । सब कर्म धर्म इसी से प्रकट होते हैं । यह स्थूल रूप से बृह्माण्ड में विराजमान है ।
पिंड से बृह्माण्ड के लिये सुषमणा नाङी से होकर मार्ग जाता है । प्राण और अपान दोनों तरह की वायु को योगेश्वर सुषमणा नाङी के मार्ग से बृह्माण्ड में पहुँचाते हैं । 1 क्षण इस स्थान पर वायु ठहराने से सिद्ध पुरुषों का दर्शन होता है । सुषमणा के भीतर जो बृह्मारन्ध्र है । उसमें पूरक द्वारा कुण्डलिनी शक्ति स्थित होती है । अथवा रेचक प्राणवायु के प्रयोग से 12 अंगुल तक मुख से बाहर अथवा भीतर ऊपर 1 मुहूर्त तक 1 ही बार स्थित होती है । तब 5 कोषों में सिद्धों का दर्शन होता है ।
जिस समय समाधि द्वारा आँखों की दोनों पुतलियाँ अन्दर की और उलटने लगती है । तो सबसे पहले अन्धकार में प्रकाश की कुछ किरणें दिखायी देती हैं । और फ़िर अलोप हो जाती हैं । बिजली जैसी
चमक दिखाई देती है । दीपक जैसी ज्योति दिखाई देती है । 5 तत्वों के रंग - लाल । पीला । नीला । हरा और सफ़ेद दिखाई देते हैं । इससे वृति अभ्यास में लीन होने लगती है ।
इसके बाद आसमान पर तारों जैसी चमक । दीपमाला जैसी झिलमिल दिखाई देगी । और चाँद जैसा प्रकाश और सूर्य जैसी किरणें दिखाई देंगी । जिस समय आँख बिलकुल भीतर की ओर उलट जायेगी । तब सुरती शरीर छोङकर ऊपर की ओर चङेगी । तो आकाश दिखाई देगा । जिसमें " सहस्त्रदल " कमल दिखाई देगा ।
उसके हजारों पत्ते अलग अलग त्रिलोकी का काम कर रहे हैं ।
अभ्यासी यह दृश्य देखकर बहुत खुश होता है । यहाँ उसे 3 लोक के मालिक का दर्शन होता है । बहुत से अभ्यासी इसी स्थान को पाकर इसको ही कुल का मालिक समझकर गुरु से आगे चलने का रास्ता नहीं पूछते ।
यहाँ का प्रकाश देखकर सुरति त्रप्त हो जाती है । इस प्रकाश के ऊपर 1 " बारीक और झीना दरबाजा " अभ्यासी को चाहिये कि इस छिद्र में से सुरति को ऊपर प्रविष्ट करे । इसके आगे " बंक नाल " याने टेङा मार्ग है । जो कुछ दूर तक सीधा जाकर नीचे की ओर आता है । फ़िर ऊपर की ओर चला जाता है ।
इस नाल से पार होकर सुरति " दूसरे आकाश " पहुँची । यहाँ " त्रिकुटी स्थान " है । यह लगभग लाख योजन लम्बा और चौङा है । इसमें अनेक तरह के विचित्र तमाशे और लीलाएं हो रही हैं । हजारों सूर्य और चन्द्रमा इसके प्रकाश से लज्जित है ।
" ॐ" और " बादल की सी गरज " सुनाई देती है । जो बहुत सुहानी लगती है । तथा वह आठों पहर होती रहती है । इस स्थान को पाकर सुरती को बहुत आनन्द मिलता है । और वह सूक्ष्म और साफ़ हो जाती है । इस स्थान से अन्दर के गुप्त भेदों का पता चलने लगता है ।
कुछ दिन इस स्थान की सैर करके सुरती ऊपर की ओर चढने लगी । चढते चढते लगभग करोङ योजन ऊपर चङकर तीसरा परदा तोङकर वह " सुन्न " में पहुँची । यह स्थान अति प्रसंशनीय है । यहाँ सुरति बहुत खेल विलास आदि करती है ।
यहाँ " त्रिकुटी स्थान " से बारह गुणा अधिक प्रकाश है । यहाँ अमृत से भरे बहुत से " मानसरोवर " तालाब स्थित हैं । और बहुत सी अप्सरायें स्थान स्थान पर नृत्य कर
रही हैं । इस आनन्द को वहाँ पहुँची हुयी सुरति ही जानती है । यह लेखनी या वाणी का विषय हरगिज नहीं है । यहाँ तरह तरह के अति स्वादिष्ट सूक्ष्म भोजन तैयार होते हैं । अनेको तरह के राग रंग नाना खेल हो रहे हैं ।
स्थान स्थान पर कलकल करते हुये झरने बह रहे हैं । यहाँ की शोभा और सुन्दरता का वर्णन नहीं किया जा सकता । हीरे के चबूतरे । पन्ने की क्यारियाँ । तथा जवाहरात के वृक्ष आदि दिखाई दे रहे हैं । यहाँ अनन्त शीशमहल का निर्माण है ।
यहाँ अनेक जीवात्माएं अपने अपने मालिक के अनुसार अपने अपने स्थानों पर स्थित हैं । वे इस रंग विलास को देखती हैं । और दूसरों को भी दिखलाती हैं । इन जीवात्माओं को " हंस मंडली " भी कहा गया है । यहाँ स्थूल तथा जङता नहीं है । सर्वत्र चेतन ही चेतन है । शारीरिक स्थूलता और मलीनता भी नहीं हैं । इसको संतजन भली प्रकार जानते हैं । इस तरह के भेदों को अधिक खोलना उचित नहीं होता ।
सुरति चलते चलते 5 अरब 75 करोङ योजन और ऊपर की ओर चली गयी ।
अब " महासुन्न " का नाका तोङकर वह आगे बङी । वहाँ 10 योजन तक घना काला घोर अंधकार है । इस अत्यन्त तिमिर अंधकार को गहराई से वर्णित करना बेहद कठिन है ।
फ़िर लगभग खरब योजन का सफ़र तय करके सुरति नीचे उतरी । परन्तु फ़िर भी उसके हाथ कुछ न लगा । तब वह फ़िर और ऊपर को चङी । और जो चिह्न ? सदगुरुदेव ने बताया था । उसकी सीध लेकर सुरति उस मार्ग पर चली । इस यात्रा का और इस स्थान का सहज पार पाना बेहद मुश्किल कार्य है ।
सुरति और आगे चली तो महासुन्न का मैदान आया । इस जगह पर " 4 शब्द और 5 स्थान " अति गुप्त हैं । सच्चे दरबार के मालिक की अनन्त सुर्तियां यहाँ रहती हैं । उनके लिये बन्दी खाने बने हुये हैं ।
यहाँ पर उनको कोई कष्ट नहीं है । और अपने अपने प्रकाश में वे कार्य कर रहीं हैं ।
परन्तु वे अपने मालिक का दर्शन नहीं कर सकती हैं । दर्शन न होने के कारण वे व्याकुल अवश्य हैं । इनको क्षमा मिलने की एक युक्ति होती है । जिससे वे मालिक से मिल सकती हैं । जब कोई सन्त इस मार्ग से जाते हैं । तो जो सुरतियां नीचे संतो के द्वारा वहाँ जाती हैं । तब उन सुरतियों को उनका दर्शन होता है । फ़िर उन जीवात्माओं को ऊपर ले जाने से जो प्रसन्नता उन संतो को होती है । उसका वर्णन कैसे हो सकता है ।
सच्चे मालिक की करुणा और दया उन पर होती है । संतजन उन सुरतियों को क्षमा प्रदान करवाकर सच्चे मालिक के पास बुलबाते हैं ।
इन स्थानों की यात्रा पूरी करती हुयी सुरति " भंवर गुफ़ा " में पहुँचती है । वहाँ 1 " चक्र " है । जिसको झूला भी कहते हैं । वह हर समय घूमता रहता है । सुरति वहाँ सदैव झूलती रहती है ।
इसके इधर उधर " अनन्त चेतन दीप " बने हुये हैं । उन दीपों से " सोहंग " की आवाज उठ रही है । सुरति और हंस उन धुनों से विलास कर रहे हैं । ये सभी वर्णन सांकेतिक रूप में किये जाते है ।
वास्तविक शोभा का वर्णन करना बेहद कठिन कार्य है । साधक या अभ्यासी को चाहिये । कि गुरु की बताई युक्ति पर चले । यही शुद्ध अभ्यास है ।
आसमानी झूला की सैर के बाद सुरति और आगे की तरफ़ चली । तो दूर से चन्दन की अति मनमोहक खुशबू अनन्त सुगन्ध उसे महसूस हुयी । इस स्थान पर " बाँसुरी " की अनन्त धुन भी हो रही है । इस धुनि और सुगन्ध का आनन्द लेती हुयी सुरति और आगे बङी । और इस मैदान के आगे पहुँची । तो उसे " सतलोक " की सीमा दिखाई दी । वहाँ पर " तत्सत " की आवाज भी सुनाई देती है । और अनेक तरह के बीन बाजा वाध यन्त्र सुनाई पङते है । उनको सुनती हुयी । मस्ती में झूमती हुयी सुरति आगे चली । तो अनेक नहरें और सुन्दर दृश्य उसको दिखाई दिये ।
करोङ योजन ऊँचाई वाले वृक्षों के बाग उसको दिखाई दिये । उन वृक्षों पर करोङों सूर्य चन्द्रमा और अनेकानेक फ़ल फ़ूल लगे हुये थे । सुरति उन पेङों पर पक्षियों के समान किलोल करती है । इन सब दृश्यों को देखती हुयी सुरति " सतलोक " पहुँची । और " सतपुरुष " का दर्शन पाया । सतपुरुष का एक एक रोम इतना प्रकाशवान है । कि करोङों सूर्य और चन्द्रमा उसके आगे लज्जित हैं ।
जब 1 रोम की महिमा ऐसी है । तो सारे शरीर की शोभा का वर्णन कैसे किया जाय । स्वर्ण नेत्र नासिका हाथ पैर आदि की अतुलनीय शोभा है । जो अवर्णनीय ही है । वहाँ ज्योति प्रकाश का अथाह सागर ठाठे मार रहा है । 1 " पदम पालिंग " का विस्तार है । 3 लोक का " 1 पालिंग " होता है । इस तरह उसकी पूरी लम्बाई चौङाई का वर्णन असंभव ही है । यहाँ पवित्र सुरति जिसको " हंस " भी कहते हैं । अपना निवास करती है । उसे " वीणा " की आवाज सुनाई देती है । अमृत ही उसका भोजन है ।
इस स्थान की शोभा देखकर सुरति " अलख लोक " में पहुँची । इस लोक का विस्तार असंख्य महापालिंग है । अनेकों अरब खरब सूर्यों का प्रकाश उस अलख पुरुष के रोम रोम से निकलता है ।
वहाँ से आगे चलकर सुरति " अगम लोक " में पहुँची । वहाँ के हंसो का स्वरूप भी अदभुत है ।
यहाँ से सुरति " अनामी लोक " में पहुँचकर अनामी पुरुष का दर्शन करती है । अब वह उसमें समा गयी । जो बेअन्त है । संतो का यही निज स्थान है ।
इस स्थान को पाकर संत शांत और मौन हो जाते हैं । यही सत्य है । यही सत्य है । यही सत्य है ।
सबसे ऊपर चित्र में लेटे साधक सहज योग स्थिति में
पेट में माँस का 1 कमल है । इस कमल के बीच ही ह्रदय कमल स्थिति है ।
इस कमल में सूर्य और चन्द्रमा स्थित है । इस कमल के अन्दर 2 और कमल हैं । 1 कमल नीचे और दूसरा ऊपर है । 1 कमल आकाश रूप और दूसरा प्रथ्वी रूप है । ऊपर के कमल में सूर्य का निवास और नीचे के कमल में चन्द्रमा का निवास है । इन दोनों के मध्य में ही कुण्डलिनी महामाया रहती है । और साँप के समान साढे 3 लपेटे मारकर बैठी है । वह उज्जवल मोतियों के भण्डार के समान प्रकाशित है ।
इससे स्वतः जो वायु निकलती है । वह साँप की फ़ुफ़कार के समान " प्राण " और " अपान " रूप में स्थित रहती है । यह दोनों वायु आपस में टकराती हैं । तो इनसे 1 प्रकार की संघर्ष शक्ति पैदा होती है । उसका दूसरा नाम जठराग्नि है ।
यह पेट में इस तरह रहती है । जैसे सागर में बङबानल अग्नि का वास होता है । यह दोनों ही जल सुखाती हैं ।
प्राण और अपान परस्पर टक्कर खाती हैं । उससे ह्रदय में बङा प्रकाश होता है । इस ह्रदय में 1 भंवरा
सोने के रंग का है । उस भंवरे के दर्शन से योगी की दृष्टि लाख योजन तक देखने की क्षमता वाली हो जाती
है । शीतल वायु को चन्द्रमा और गर्म वायु को सूर्य कहते हैं । इसके मुख से फ़ुँकार की आवाज निकलती है ।
इस आवाज को " शब्द " प्रणव " ॐ " या मन इत्यादि भी कहते हैं ।
यह वासनाओं से भरी हुयी होती है । भांति भांति की सांसारिक वासनायें उसका विषय है । जब कुण्डलिनी
में स्फ़ुरण पैदा होता है । तब " मन " प्रकट होता है । जब निश्चय भाव हुआ । तब बुद्धि उत्पन्न हुयी ।
जब " अहं " भाव हुआ । तब अहंकार पैदा हुआ । जब चिन्तन होता है । तब चित्त उत्पन्न होता है ।
" रस " लेने की इच्छा से - जल । सूँघने की इच्छा से - प्रकृति । इसी तरह 5 तन्मात्रा । 4 अंतःकरण
14 इन्द्रियां और सब नाङियाँ इसी कुण्डलिनी से ही उत्पन्न होती हैं । मन से 3 लोक और 4 वेद उत्पन्न होते हैं । सब कर्म धर्म इसी से प्रकट होते हैं । यह स्थूल रूप से बृह्माण्ड में विराजमान है ।
पिंड से बृह्माण्ड के लिये सुषमणा नाङी से होकर मार्ग जाता है । प्राण और अपान दोनों तरह की वायु को योगेश्वर सुषमणा नाङी के मार्ग से बृह्माण्ड में पहुँचाते हैं । 1 क्षण इस स्थान पर वायु ठहराने से सिद्ध पुरुषों का दर्शन होता है । सुषमणा के भीतर जो बृह्मारन्ध्र है । उसमें पूरक द्वारा कुण्डलिनी शक्ति स्थित होती है । अथवा रेचक प्राणवायु के प्रयोग से 12 अंगुल तक मुख से बाहर अथवा भीतर ऊपर 1 मुहूर्त तक 1 ही बार स्थित होती है । तब 5 कोषों में सिद्धों का दर्शन होता है ।
जिस समय समाधि द्वारा आँखों की दोनों पुतलियाँ अन्दर की और उलटने लगती है । तो सबसे पहले अन्धकार में प्रकाश की कुछ किरणें दिखायी देती हैं । और फ़िर अलोप हो जाती हैं । बिजली जैसी
चमक दिखाई देती है । दीपक जैसी ज्योति दिखाई देती है । 5 तत्वों के रंग - लाल । पीला । नीला । हरा और सफ़ेद दिखाई देते हैं । इससे वृति अभ्यास में लीन होने लगती है ।
इसके बाद आसमान पर तारों जैसी चमक । दीपमाला जैसी झिलमिल दिखाई देगी । और चाँद जैसा प्रकाश और सूर्य जैसी किरणें दिखाई देंगी । जिस समय आँख बिलकुल भीतर की ओर उलट जायेगी । तब सुरती शरीर छोङकर ऊपर की ओर चङेगी । तो आकाश दिखाई देगा । जिसमें " सहस्त्रदल " कमल दिखाई देगा ।
उसके हजारों पत्ते अलग अलग त्रिलोकी का काम कर रहे हैं ।
अभ्यासी यह दृश्य देखकर बहुत खुश होता है । यहाँ उसे 3 लोक के मालिक का दर्शन होता है । बहुत से अभ्यासी इसी स्थान को पाकर इसको ही कुल का मालिक समझकर गुरु से आगे चलने का रास्ता नहीं पूछते ।
यहाँ का प्रकाश देखकर सुरति त्रप्त हो जाती है । इस प्रकाश के ऊपर 1 " बारीक और झीना दरबाजा " अभ्यासी को चाहिये कि इस छिद्र में से सुरति को ऊपर प्रविष्ट करे । इसके आगे " बंक नाल " याने टेङा मार्ग है । जो कुछ दूर तक सीधा जाकर नीचे की ओर आता है । फ़िर ऊपर की ओर चला जाता है ।
इस नाल से पार होकर सुरति " दूसरे आकाश " पहुँची । यहाँ " त्रिकुटी स्थान " है । यह लगभग लाख योजन लम्बा और चौङा है । इसमें अनेक तरह के विचित्र तमाशे और लीलाएं हो रही हैं । हजारों सूर्य और चन्द्रमा इसके प्रकाश से लज्जित है ।
" ॐ" और " बादल की सी गरज " सुनाई देती है । जो बहुत सुहानी लगती है । तथा वह आठों पहर होती रहती है । इस स्थान को पाकर सुरती को बहुत आनन्द मिलता है । और वह सूक्ष्म और साफ़ हो जाती है । इस स्थान से अन्दर के गुप्त भेदों का पता चलने लगता है ।
कुछ दिन इस स्थान की सैर करके सुरती ऊपर की ओर चढने लगी । चढते चढते लगभग करोङ योजन ऊपर चङकर तीसरा परदा तोङकर वह " सुन्न " में पहुँची । यह स्थान अति प्रसंशनीय है । यहाँ सुरति बहुत खेल विलास आदि करती है ।
यहाँ " त्रिकुटी स्थान " से बारह गुणा अधिक प्रकाश है । यहाँ अमृत से भरे बहुत से " मानसरोवर " तालाब स्थित हैं । और बहुत सी अप्सरायें स्थान स्थान पर नृत्य कर
रही हैं । इस आनन्द को वहाँ पहुँची हुयी सुरति ही जानती है । यह लेखनी या वाणी का विषय हरगिज नहीं है । यहाँ तरह तरह के अति स्वादिष्ट सूक्ष्म भोजन तैयार होते हैं । अनेको तरह के राग रंग नाना खेल हो रहे हैं ।
स्थान स्थान पर कलकल करते हुये झरने बह रहे हैं । यहाँ की शोभा और सुन्दरता का वर्णन नहीं किया जा सकता । हीरे के चबूतरे । पन्ने की क्यारियाँ । तथा जवाहरात के वृक्ष आदि दिखाई दे रहे हैं । यहाँ अनन्त शीशमहल का निर्माण है ।
यहाँ अनेक जीवात्माएं अपने अपने मालिक के अनुसार अपने अपने स्थानों पर स्थित हैं । वे इस रंग विलास को देखती हैं । और दूसरों को भी दिखलाती हैं । इन जीवात्माओं को " हंस मंडली " भी कहा गया है । यहाँ स्थूल तथा जङता नहीं है । सर्वत्र चेतन ही चेतन है । शारीरिक स्थूलता और मलीनता भी नहीं हैं । इसको संतजन भली प्रकार जानते हैं । इस तरह के भेदों को अधिक खोलना उचित नहीं होता ।
सुरति चलते चलते 5 अरब 75 करोङ योजन और ऊपर की ओर चली गयी ।
अब " महासुन्न " का नाका तोङकर वह आगे बङी । वहाँ 10 योजन तक घना काला घोर अंधकार है । इस अत्यन्त तिमिर अंधकार को गहराई से वर्णित करना बेहद कठिन है ।
फ़िर लगभग खरब योजन का सफ़र तय करके सुरति नीचे उतरी । परन्तु फ़िर भी उसके हाथ कुछ न लगा । तब वह फ़िर और ऊपर को चङी । और जो चिह्न ? सदगुरुदेव ने बताया था । उसकी सीध लेकर सुरति उस मार्ग पर चली । इस यात्रा का और इस स्थान का सहज पार पाना बेहद मुश्किल कार्य है ।
सुरति और आगे चली तो महासुन्न का मैदान आया । इस जगह पर " 4 शब्द और 5 स्थान " अति गुप्त हैं । सच्चे दरबार के मालिक की अनन्त सुर्तियां यहाँ रहती हैं । उनके लिये बन्दी खाने बने हुये हैं ।
यहाँ पर उनको कोई कष्ट नहीं है । और अपने अपने प्रकाश में वे कार्य कर रहीं हैं ।
परन्तु वे अपने मालिक का दर्शन नहीं कर सकती हैं । दर्शन न होने के कारण वे व्याकुल अवश्य हैं । इनको क्षमा मिलने की एक युक्ति होती है । जिससे वे मालिक से मिल सकती हैं । जब कोई सन्त इस मार्ग से जाते हैं । तो जो सुरतियां नीचे संतो के द्वारा वहाँ जाती हैं । तब उन सुरतियों को उनका दर्शन होता है । फ़िर उन जीवात्माओं को ऊपर ले जाने से जो प्रसन्नता उन संतो को होती है । उसका वर्णन कैसे हो सकता है ।
सच्चे मालिक की करुणा और दया उन पर होती है । संतजन उन सुरतियों को क्षमा प्रदान करवाकर सच्चे मालिक के पास बुलबाते हैं ।
इन स्थानों की यात्रा पूरी करती हुयी सुरति " भंवर गुफ़ा " में पहुँचती है । वहाँ 1 " चक्र " है । जिसको झूला भी कहते हैं । वह हर समय घूमता रहता है । सुरति वहाँ सदैव झूलती रहती है ।
इसके इधर उधर " अनन्त चेतन दीप " बने हुये हैं । उन दीपों से " सोहंग " की आवाज उठ रही है । सुरति और हंस उन धुनों से विलास कर रहे हैं । ये सभी वर्णन सांकेतिक रूप में किये जाते है ।
वास्तविक शोभा का वर्णन करना बेहद कठिन कार्य है । साधक या अभ्यासी को चाहिये । कि गुरु की बताई युक्ति पर चले । यही शुद्ध अभ्यास है ।
आसमानी झूला की सैर के बाद सुरति और आगे की तरफ़ चली । तो दूर से चन्दन की अति मनमोहक खुशबू अनन्त सुगन्ध उसे महसूस हुयी । इस स्थान पर " बाँसुरी " की अनन्त धुन भी हो रही है । इस धुनि और सुगन्ध का आनन्द लेती हुयी सुरति और आगे बङी । और इस मैदान के आगे पहुँची । तो उसे " सतलोक " की सीमा दिखाई दी । वहाँ पर " तत्सत " की आवाज भी सुनाई देती है । और अनेक तरह के बीन बाजा वाध यन्त्र सुनाई पङते है । उनको सुनती हुयी । मस्ती में झूमती हुयी सुरति आगे चली । तो अनेक नहरें और सुन्दर दृश्य उसको दिखाई दिये ।
करोङ योजन ऊँचाई वाले वृक्षों के बाग उसको दिखाई दिये । उन वृक्षों पर करोङों सूर्य चन्द्रमा और अनेकानेक फ़ल फ़ूल लगे हुये थे । सुरति उन पेङों पर पक्षियों के समान किलोल करती है । इन सब दृश्यों को देखती हुयी सुरति " सतलोक " पहुँची । और " सतपुरुष " का दर्शन पाया । सतपुरुष का एक एक रोम इतना प्रकाशवान है । कि करोङों सूर्य और चन्द्रमा उसके आगे लज्जित हैं ।
जब 1 रोम की महिमा ऐसी है । तो सारे शरीर की शोभा का वर्णन कैसे किया जाय । स्वर्ण नेत्र नासिका हाथ पैर आदि की अतुलनीय शोभा है । जो अवर्णनीय ही है । वहाँ ज्योति प्रकाश का अथाह सागर ठाठे मार रहा है । 1 " पदम पालिंग " का विस्तार है । 3 लोक का " 1 पालिंग " होता है । इस तरह उसकी पूरी लम्बाई चौङाई का वर्णन असंभव ही है । यहाँ पवित्र सुरति जिसको " हंस " भी कहते हैं । अपना निवास करती है । उसे " वीणा " की आवाज सुनाई देती है । अमृत ही उसका भोजन है ।
इस स्थान की शोभा देखकर सुरति " अलख लोक " में पहुँची । इस लोक का विस्तार असंख्य महापालिंग है । अनेकों अरब खरब सूर्यों का प्रकाश उस अलख पुरुष के रोम रोम से निकलता है ।
वहाँ से आगे चलकर सुरति " अगम लोक " में पहुँची । वहाँ के हंसो का स्वरूप भी अदभुत है ।
यहाँ से सुरति " अनामी लोक " में पहुँचकर अनामी पुरुष का दर्शन करती है । अब वह उसमें समा गयी । जो बेअन्त है । संतो का यही निज स्थान है ।
इस स्थान को पाकर संत शांत और मौन हो जाते हैं । यही सत्य है । यही सत्य है । यही सत्य है ।
सबसे ऊपर चित्र में लेटे साधक सहज योग स्थिति में
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