सारे जहाँ से अच्छा । हिन्दुस्तान हमारा ।
मुसाफ़िर है यहाँ सब । सिर्फ़ सतलोक है हमारा ।
अब मैं कहूँ कि न कहूँ......... कसम सब्जी मन्डी की...... आज कह ही देता हूँ ।
राजीव राजा ! तुम्हारे ब्लाग पर पुरुष भी आते हैं । और महिलाएं भी आती हैं । जवान भी आते हैं । और बूढे भी आते हैं ( मेरी बात अलग है )
कमी है तो सिर्फ़ बच्चों की । मैं बिलकुल भी छोटे बच्चों की बात नहीं कर रहा । बचपन बचपन ही होता है । छोटे बच्चों की अधिक दिलचस्पी खेलकूद में होती है ।
लेकिन जो कुमार अवस्था है । जो 13 साल की आयु से शुरु होती है । तो वो बच्चे जो 13 साल के हो चुके हैं । या 13 से अधिक आयु के हैं । वो तो तुम्हारा ब्लाग पढ भी सकते हैं । और कोशिश करने पर समझ भी सकते हैं ।
कोई बात समझ न आये । तो घर का कोई बडी आयु का सदस्य समझा सकता है ।
लेकिन अब सवाल ये है । इन बच्चों को तुम्हारे ब्लाग पर लाया कैसे जाये । तो इसका भी जवाब मौजूद है ।
जो लोग भी तुम्हारे नियमित पाठक है । उन्हें चाहिये कि वो अपने बच्चों ( स्कूल की बङी कक्षाओं में पढने वाले । या कालेज जाने वालों ) को तुम्हारे ब्लाग के बारे में बतायें ।
बच्चे 1 बार आ जायेंगे । उसके बाद कभी कभी आ जायेंगे ।
फ़िर शायद रोज रोज आने लगे । इस तरह फ़िर वो अपने अन्य मित्रों या सहेलियों से भी बात कर सकते हैं । अगर किसी के बच्चे ये ब्लाग पढते भी हैं । तो ठीक है ।
तो फ़िर उन्हें अपने पङोसियों या अन्य रिश्तेदारो के बच्चों को इस ब्लाग के बारे में बताना चाहिये । इस तरह चुपचाप हाथ पर हाथ रख कर बैठने से कुछ नहीं होगा ।
मैंने नोटिस किया है कि - तुम कभी कभी बहुत बढिया जानकारी की बात छापते हो । लेकिन लोग ससुरे पढ कर गुलटी हो लेते है । कोई ब्लाग पर टिप्पणी आदि भी पोस्ट नहीं करता । जितनी टिप्पणी प्रकाशित होती हैं । वो कम हैं ।
खैर.. हींग लगे न फ़टकडी और रंग आवे चोखा ।
जब बात बच्चों पर ही चली है । तो मैंने 20वीं सदी के हिन्दी कार्टून कामिक्स के सबसे लोकप्रिय नायक " चाचा चौधरी " के उपर 1 बहुत ही छोटा सा गाना लिखा है ।
वो तुम्हे सुनाता हूँ । ये गाना मैंने अभी तक किसी और को नहीं सुनाया ।
लेकिन तुम्हें जरुर सुनाऊँगा । क्यूँ कि तुम तो मेरे अपने हो ।
तो सुनो -
चा चा चा च च चा चा चा
दुनिया देख रह जाती दंग । ताकत और अक्ल की जंग ।
देसी रंग और देसी राग । कम्पयूटर से भी तेज दिमाग ।
अक्ल की खेती हरी भरी । बात सुनाये खरी खरी ।
चाचा चौधरी चाचा चौधरी चाचा चौधरी ।
हाथ छडी सिर पर है पगडी । मूँछे भी हैं तगडी तगडी ।
अजब गजब चाचा के चक्कर । बङों बङों से लेते टक्कर ।
साथ में है मिस्टर साबू । जो आता नही किसी के काबू ।
चाची के भी अलग कमाल । देखो राकेट की भी चाल ।
इनके सामने रह जाती है । हर चालाकी धरी धरी ।
चाचा चौधरी चाचा चौधरी ।
चा चा चा चा...
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प्रस्तुतकर्ता - श्री विनोद त्रिपाठी जी । प्रोफ़ेसर । भोपाल । मध्य प्रदेश । ई मेल से । त्रिपाठी जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।
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मैं श्री त्रिपाठी जी की बात से सहमत हूँ । मैं अपने
बचपन के अनुभव से जानता हूँ । हमारे समय में कामिक्स का इतना चलन नहीं था । बच्चों के लिये बहुत कम कितावें छपती थी । और जो छपती भी थी । वह आफ़सेट के बजाय पुराने ढंग के छापाखाना - जिनमें रबर के फ़ांट कम्पोज करके एक खाँचे में सैट कर दिये जाते थे ।
किताब में कोई भी चित्र जोङने के लिये चित्र का ब्लाक बनाया जाता था । वह ब्लाक उसी खाँचे में सही जगह एडजस्ट कर दिया जाता था । इस तरह किताबें आकर्षक नहीं होती थी ।
फ़िर भी त्रिपाठी जी ने 13 साल की आयु से जो बच्चों को ग्यानवर्धक चीजों से जोङने की बात कही है । उस पर मेरा नजरिया थोङा अलग है । आज 5वीं क्लास में जो अध्ययन कराया जाता है । उतना पुराने समय में 10वीं क्लास में था । कक्षा 6 से तो A B C D सिखायी जाती थी ।
आज छोटे बच्चे भी सूटेड बूटेड टाई आदि लगाकर अपडेट होकर स्कूल जाते हैं । उस समय बङे बङे तक अधिकतर अण्डरवियर ( वो भी मेन जगह पर फ़टे ) बनियान पहनकर जाते थे ।
तब कोई दूसरा तीसरे को बताता हुआ मि. पारनेकर को सचेत करता - ओ रे वू देख नंगो ।
तब तो ( लगभग 11 - 12 साल के ) पारनेकर जी को पता चलता । उनकी दुकान का शटर खुला है । फ़िर वो झेंपने के बजाय हँसते हुये उस पर शर्ट का परदा डाल लेते थे ।
मुँह धोने की जरूरत ही नहीं समझते थे । अम्मा का रात को लगाया मोटा मोटा काजल आधे चेहरे पर आ जाता था ।
अधिकतर क्लास ( पढाई ) के बीच लेट्रीन के लिये भागते थे - मास्साब मोय टट्टी लग रई ए ।
कमबख्तों को 9 बजे के लगभग....आती थी । तब तक बुरी तरह से " वायु प्रदूषण " फ़ैलाने में भरपूर योगदान करते थे ।
( यह सब मैं इसलिये भी बता रहा हूँ कि - आज बहुत से माता पिता का ख्याल है कि अच्छे शिक्षा संस्थानों से ही बच्चे ग्यान प्राप्त कर सकते हैं । जबकि राजीव बाबा जैसे ग्यानी " पादोपादम शिक्षा संस्थान -ऊसराहार " से शिक्षा प्राप्त हैं । वहीं मुझे.. पाद पादनम पादाभ्यामि.. के बङे बङे महत्व पता चले । )
खैर..मेरे ताऊ जी ने बाबा के लिये कल्याण आदि बहुत सी धार्मिक पुस्तकें और गीता प्रेस से श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं की कामिक्स स्टायल पुस्तकें बङी संख्या में खरीदी थी ।
उन्हीं से आकर्षक रंगीन चित्रों ( जिनमें भगवान राक्षस आदि को मार रहे थे ) के साथ थोङा थोङा विवरण पङते हुये मैं पूरी पूरी लायब्रेरी को चाटने वाला पढाकू बना । उस समय मेरी आयु सात आठ साल की थी । नौ साल तक तो मैं पढने का अभ्यस्त हो चला था ।
शेष फ़िर कभी ...
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