एक बार हमारे पाठक और अब गुरुभाई बंसल जी ने कहा था - लगता है । कुलश्रेष्ठ जी आप भी कबीर से प्रभावित हो ?
तब मैंने जो उत्तर दिया था । वह लेख रूप में उपलब्ध है । सच तो यह है कि मैं जीवन में आज दिन तक श्री महाराज जी को छोङकर किसी से प्रभावित ही नहीं हुआ । यहाँ तक कि परमात्मा से भी । महाराज जी से भी इसलिये कि उनके पास वो उत्तर प्रक्टीकल रूप में अनुभव रूप में मौजूद थे । जो मेरे पास अभी प्रश्न भी नहीं थे । जहाँ तक प्रश्न अभी उत्पन्न ही नहीं हुए थे । इसलिये प्रभावित होना स्वाभाविक था ।
आगे वर्णित रोचक प्रसंग जो पूरी तरह मेरे सामने ही घटित हुआ है ।.. हिन्दू धर्म में जन्म होने के कारण मुझे भी बचपन से ही ऊटपटांग रीति रिवाज के जंजाल से गुजरना पङा । और मेरी माँ द्वारा यह रीति रिवाजी आयटम मुगली घुट्टी 555 की तरह साल में कई कई बार अनंत चौदस । भैया दूज । होली । दीपावली । करवाचौथ । पूर्णिमा । अमावस्या । सूर्य गृहण । चन्द्र गृहण । नवदुर्गा । सप्ताह में 5 दिन वृत । रक्षा बंधन । दशहरा । मकर संक्राति । सकट चतुर्थी । पितृ विसर्जन संस्कार । इसके अतिरिक्त जन्म दिन । मरण दिन । शुभ विवाह । तेरहवीं आदि ( सभी बताऊँ या इतने काफ़ी है ? ) पर घोंट घोंटकर पिलाये गये ।
बचपन से ही मेरे आश्चर्य का विषय था कि प्रत्येक रीति रिवाज के साथ एक एक ( अगर सही कहो तो वाहियात ) कहानी जुङी थी । जो कुछ कुछ रोचक । भय पैदा करने वाली । और मिथ्या धर्म में मिथ्या आस्था जगाने वाली थी
। जिस तमाम पूजा पाठ का परिणाम रूप में परिणाम ( आज मैं गारन्टिड कह सकता हूँ ) एक ही था - ठेंगा ।
मुझ पर इन कहानियों का इन रिवाजों का कभी कोई असर नहीं हुआ । यहाँ हिन्दू धर्म से अनास्था रखने वाले ज्यादा खुशी न मनायें । क्योंकि ये बात सभी धर्मों के रीति रिवाजों पर ? लागू होती है । रीति रिवाज शब्द पर ध्यान दें । ये पूरी बात धर्म के लिये नहीं है ।
अब थोङी देर के लिये इन बातों को विश्राम देते हुये मैं आपको सीधे आगरा लाइव टेलीकास्ट हेतु लिये चलता हूँ ।
ऊपर मैंने इसीलिये आपको थोङी भूमिका बतायी कि आगे की बात समझने में आसानी हो । जैसा कि अब आपको मालूम ही हो गया होगा कि मेरी जन्मदायी माँ भी ( मूढता हद तक ) घोर संस्कारी हैं । और उन्हें 26 साल से अधिक निर्जला एकादशी वृत रखते हुये हो गये । जिसके अब उधापन की बात थी ।
यह सच मैं ही जानता हूँ कि इस वृत ने
और बिना नहाये पानी न पीने ( मगर उठते ही दो बार में 600 ग्राम चाय पीने ) की आदत ने - गैस ट्रबल । ब्लड प्रेशर । हिचकी । आदि तमाम रोगों को जन्म दिया । और बहुत बार मैंने ही उनको मरने से बचाया । दो चार बार दैविक प्रकोप से भी बचाया ।
खैर..एक आत्मग्यानी साधक का सांसारिक सम्बन्ध आम लोगों की तरह भावनात्मक नहीं होता । अतः उनके संस्कार । उनके विचार । उनकी करनी भरनी वो जाने । सिर्फ़ समझाना फ़र्ज होता है । अर्जी हमारी मर्जी तुम्हारी ।
तो साहब..आगरा में अभी स्थायी रूप से निवास करते हुये मुझे लगभग 4 साल ही हुये हैं । लिहाजा एकादशी उध्यापन हेतु 26 ब्राह्मणों की और एक मुख्य पूजन कर्ता धर्ता ब्राह्मण की आवश्यकता थी । ये बात दूसरी है कि यही ब्राह्मण मुझसे शास्त्र या सन्तमत में ही बात बहस करते हुये एक ही बात बोलते हैं - महाराज बस ?
हमारे इलाके में जो प्रसिद्ध पंडित जी थे । उन्हें हमारे मंडल का ही एक शिष्य बुलाने गया । तो बेचारे अस्पताल से अपने किसी बच्चे को ट्रीटमेंट दिलवाकर बङी परेशानी में आये थे । शिष्य कानाफ़ूसी करते हुये मुझसे बोला - महाराज पियक्कङ बहुत है । छुपकर दारू पीता है । बहुत टेंशन में रहने वाला प्राणी है । इन पंडित जी का एक बङा लङका
कहीं से मन्त्र वन्त्र लेकर एक मनमुखी सिद्ध हेतु साधना करने लगा । और मूढमति के कारण अर्धपागल हो गया । तब भाग्यवश वो महाराज जी को मिल गया । और हँसदीक्षा के बाद उसकी हालत में धीरे धीरे सुधार हो गया ।
पंडित जी ने ऊपर नीचे आगे पीछे ( निवास आदि ) देखते हुये आर्थिक हालत का अन्दाजा लगाया । और जब उन्हें पता चला ( पता क्या चला । गोल गोल बातों में ही उन्होंने आमदनी का साधन भी पूछा ) कि दोनों जजमान पति पत्नी सरकारी तौर पर सेवानिवृत हैं । तो उनकी खुशी बहुत बङ गयी ।
उन्होंने अपनी पुस्तक खोली । और एकादशी उध्यापन का तरीका और सामान की एक लम्बी लिस्ट बतायी । जो निम्न है ।
26 ब्राह्मण और एक ब्राह्मण स्त्री ( उध्यापन
कार्यकृम हेतु ) 26 लोटे तांबे के । 26 आसन । 26 माला । 26 एकादशी चाँदी की ( बनी बनाई मूर्ति टायप आती है ) 26 ब्राह्मणों के लिये 5 - 5 वस्त्र ( प्रत्येक को धोती । कुर्ता । अंडरवियर । बनियान और अंगोछा ) । 26 जनेऊ । 26 सुपाङी । 26 किलो अनाज । 26 चन्दन । 26 एकादशी की पुस्तक । 2 फ़ूलमाला । 1 छाता । 1 जोङी जूता । और मुख्य पंडित जी के लिये अलग से पूरे वस्त्र ।
5 बर्तन । 1 शय्यादान - जिसमें 1 बैड ( चारपाई आदि ) । दरी या गद्दा । चादर । तकिया और 1 रजाई ।
1 साफ़ी या अंगोछा । 1 आसन का कपङा अलग । धूपवत्ती । देशी घी 500 ग्राम । बूरा 250 ग्राम । बतासे 100 ग्राम । 1 नारियल गोला ।
रोली । चावल । कलावा । सुपाङी । फ़ल । मिष्ठान । हवन सामग्री । चन्दन चूरा । 5 मेवा । काले तिल । इन्द्र जौ । लकङी । 1 जनेऊ का जोङा । फ़लाहार । शमा के चावल खीर के लिये ।
- अब यहाँ एक स्पेशल बात हुयी । जिसका पंडित जी या मेरी माँ को भी पता नहीं था । या कहिये अन्दाजा नहीं था
। पंडित जी ने पूछा - ये वृत गिनती के अनुसार कौन सा हो गया ? क्योंकि पंडित जी के अनुसार वह उध्यापन 26 वें वृत पर ही होना चाहिये था ।
जबकि वृत करते हुये 30 साल से अधिक हो गये थे । अब चक्कर ये था कि पंडित जी अपने उपदेश में पहले ही कह चुके थे कि 26 वें वृत पर उध्यापन न करने पर ये हो जाता है ? वो हो जाता है ? वृत कर्ता नरक में जाता है ? फ़लाना ढीमका ? तब इसका कोई फ़ल नहीं मिलता आदि आदि ?
मैं यह सब साक्षी भाव से देख सुन रहा था । दरअसल पंडित जी का पूरा जोर अभी कराने का था । उन्हें अन्दाजा था कि जो निर्जला एकादशी रहता रहा हो । वो और बारीक बातें भी जानता ही होगा । पर यहाँ ना जानकारी में सारा मामला
उलट गया । मुझे ये पोंगा छाप तमाशा देखने में बङा मजा आ रहा था ।
अब पंडित जी को अपनी ही कही बातों पर लीपना था । अन्यथा विष्णु के नियमनुसार तो भारी अपराध वृत कर्ता से हो चुका था ? और उसका नरक में जाना तय ही था ? इधर एकादशी जैसे बङे कार्यकृम ( अनुमानित खर्च 40000 ) का जजमान निकल रहा था ।
तब उन्होंने अग्यानता भूल आदि शब्दों का प्रयोग करते हुये विष्णु के संविधान को भी तुरन्त ही बदल दिया । और बोले - करा लो । सब ठीक होगा ( कहना ये था - सब चलता है )
पर अभी एक और समस्या थी । हमारी खास रिश्तेदारी में ही आगरा के एक नर्सिंग होम में एक सम्बन्धी जीवन मृत्यु के बीच झूल रही थीं । और उनका अगले दो तीन दिन में मेजर आपरेशन होना था । अतः माँ ने इस एकादशी पर भी करने की असमर्थता जतायी । क्योंकि किसी भी तरह की खबर आ सकती थी ।
हालांकि पंडित जी ने बहुत डराऊ धमकाऊ उपदेश दिया कि पूजा के कार्य में यह सब नहीं सोचना चाहिये । नहीं देखना चाहिये । असल में वे यह सोच रहे थे कि समय निकलने पर ये दूसरे ब्राह्मण का भी विकल्प देख सकते हैं । इसलिये उन्हें जल्दी थी ।
लेकिन जब फ़ायनल मना हुयी । तो उन्हें बेहद निराशा हुयी । ये था विवरण ।
अब मेरी बात - इस तरह का सारा दान सभी वृत उपवास अन्य क्रियाकलाप एकदम बकबास होते हैं । एकादशी को मरण उपरान्त मोक्षदायी भी माना जाता है । पर सवाल यह है कि विष्णु या त्रिदेव का खुद का मोक्ष नहीं है । वे खुद काल माया के जाल में है । तो किसी को कैसे मोक्ष दे या दिलवा सकते हैं ? समय ( भले ही वह लम्बा समय हो ) पूरा होने पर उन्हें भी पदच्युत कर जबरन नीचे फ़ेंक दिया जाता है ।
5 ग्यानेन्द्रियों 5 कर्मेंन्द्रियों को 1 मन के साथ समेटकर एकाग्र होकर जो अविनाशी परमात्मा का भावपूर्ण सुमिरन है । उसे असली 5 + 5 + 1 - 11 एकादशी कहते है ।
और इसमें कोई नियम नहीं । जब चाहे वृत ( बरत या सुमिरन ) कर लो । जब चाहे । और जितना चाहे । दान करो । नरक तो बहुत दूर की बात है । पूरे जीवन में 1 घंटा भी भावपूर्ण वास्तविक सुमिरन कर लिया । तो यमदूत पास में भी नहीं फ़टक सकते । इसी सुमिरन का फ़ल रूपी स्वर्ग भोग इन्द्र की तुलना में बहुत हो जायेगा ।
खैर..ये सब तो मैं बताता ही रहता हूँ । इस तमाम वार्ता में मुझे जो दिलचस्प लगा कि ऐसी भक्ति किस काम की । जो भूल हो जाय । या कोई गम्भीर बीमार हो । या भक्ति वृत करने वाले को ही रोगी बना दे । या थोङी भूल चूक हो जाने पर उसका फ़ल नरक ही हो जाय आदि ।
ब्राह्मण और राक्षस मूल रूप से बृह्मा की वंशबेल या सन्ताने हैं । बृह्मा को उनकी माँ अष्टांगी या आदि शक्ति द्वारा ही अपूज्यनीय होने का शाप मिला हुआ है । तब बृह्मा ने अपने छोटे भाई विष्णु से दुखङा रोया कि मैं कैसे तृप्त होऊँगा ?
इस पर विष्णु जिन्हें सर्वश्रेष्ठ और पूज्यनीय देवता होने का वरदान अष्टांगी ने दिया था । उन्होंने बृह्मा से कहा - मैं अपनी भक्ति हेतु संसार में ऐसा भृम डाल दूँगा कि पूजा पाठ के तमाम कार्य ब्राह्मणों के बगैर पूरे नहीं होंगे । इस तरह तुम्हारा वंश समृद्ध रहेगा ।
शेष फ़िर..।
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