करण कारण समरथु सुआमी । नानक तिसु सरणाई ।
गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं - गुरु करण कारण और समर्थ होता है । जब हम उसकी शरण लेते हैं । अब अगर फ़िर भी कोई गुरु को न पहचाने । तो उसी की गलती हुयी ।
*** एक बार रूस का बादशाह पीटर जहाजों का काम सीखने के लिये भेष बदलकर मजदूरों में शामिल होकर इटली चला गया ।
वहाँ पर उसकी बहुत से ऐसे रूसी लोगों से मुलाकात हुयी । जिनको उसने किसी न किसी अपराध की सजा के बदले देश निकाला दिया था ।
उन्होने पूछा - तू कहाँ से आया है ?
तब पीटर ने कहा - मैं रूसी हूँ । और तुम भी रूस के रहने वाले हो । चलो साथ साथ ही काम करेंगे ।
उन्होंने कहा - अच्छा ! यह ठीक ही है ।
जब बादशाह ने काम सीख लिया । तो वह साथियों से बोला - चलो अब रूस चलते हैं ।
उन्होंने कहा - मगर बादशाह ने हमें देश निकाला दे दिया है । हम अब वहाँ नहीं जा सकते ।
तब पीटर बोला - फ़िक्र न करो । मैं तुम्हें बख्शवा दूँगा ।
उन्होंने कहा - जैसे हम मजदूर हैं । वैसे ही तू मजदूर है । तुझमें और हम में फ़र्क ही क्या है ? तू हमारी सजा को किस प्रकार बख्शवा देगा ?
पीटर ने जबाब दिया - तुम आ तो जाओ । मेरी बादशाह के साथ जान पहचान है । मेरे साथ होने पर वह तुम्हें कुछ न कहेगा ।
मजदूर राजी हो गये । और जब वहाँ पहुँचे । तो क्या देखा । वही साथी सिंहासन पर विराजमान था ।
इसी तरह सन्त इस देश ( मृत्युलोक ) में हमारे जैसे मनुष्य बनकर ही आते हैं । और सत्य का उपदेश करते हैं । लेकिन जब वे आते हैं । तो हम उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते ।
जबकि वे ( हमारी ही वजह से ) दुख भी सहते हैं । और भला भी करते हैं । इससे पहले भी महात्माओं के साथ क्या क्या बद सलूकी नहीं की गयी ।
शम्स तबरेज की खाल तक खींच ली । मंसूर को सूली पर चङा दिया । गुरु तेग बहादुर का दिल्ली के बाजार में सीस ही काट लिया । गुरु नानक साहब से बोझे उठवाये ।
सन्त हमें इस मुसीवत ( भवसागर ) से निकालने आते हैं । मगर हम उनके साथ यह व्यवहार करते हैं । हमें उनकी असल हस्ती की खबर नहीं पता होती कि वे वास्तव में कौन हैं ? और कहाँ से आये हैं ? और क्या करने हेतु आये हैं ?
बंधन तोङि चरण कमल दृङाए । एक सबदि लिब लाई ।
इस मनुष्य की आत्मा बहुत से बन्धनों में कैद है । पहले स्थूल शरीर का बंधन है । इसमें लेन देन । खाना पीना । काम । क्रोध । लोभ । मोह । अहंकार है । इसी प्रकार जब सूक्ष्म शरीर में जायें । वहाँ सूक्ष्म बंधन है । जब कारण में जायें । तो वहाँ कारण बंधन है ।
पारबृह्म में पहुँचने पर सब बंधन दूर हो जाते हैं ।
हम करोंङो युगों से 84 लाख योनियों के जेलखाने में पङे हुये हैं । हमें अभी तक रिहाई नही मिली । कभी कीङे मकोङे । कभी पतंगे । कभी पशु । कभी पक्षी । कभी वृक्ष । कभी घास फ़ूस का जन्म कर्मानुसार पाते रहें हैं । अगर कभी सही रास्ता मिला होता । तो आज यहाँ क्यों बैठे होते ।
सन्त आजाद ( मुक्त ) होते हैं । वे सचखण्ड से आते हैं । और आकर सबसे कहते हैं - हे भाई ! आ तुझे अपने देश ले चलें । वे किसी का घर बार नहीं छुङवाते । बल्कि वे कहते हैं । ये दुनियाँ जब से बनी है । तभी से तुम्हारे अन्दर वह शब्द ( निर्वाणी नाम ) हो रहा है ।
और वह
किसी आदमी का बनाया हुआ नहीं है । रब्ब या परमात्मा का ही बनाया हुआ है ।
जिस तरह जी टी रोङ एक सीधी सङक है । जिस पर कलकत्ते से चलो । और सीधे ही पेशावर पहुँच जाओ ।
उसी तरह अन्दर शब्द की सीधी सङक है । शब्द दोनों आँखों के बीच से शुरू होकर सीधा सचखण्ड पर जाकर खत्म होता है । बस तुम अपनी सुरति को सदगुरु से नाम लेकर शब्द के साथ लगा दो ।
गुरु गृंथ साहिब में जिस शब्द ( निर्वाणी नाम ) की महिमा है । वह लिखने पङने बोलने में आने वाला शब्द नहीं है । वह गाने बजाने वाला शब्द भी नहीं है । उस शब्द का धुन रूपी कीर्तन तो हर वक्त ही अंतर घट ( शरीर ) में हो रहा है । जो कभी भी बन्द नहीं होता । इंसान जब सो जाता है । तब भी बन्द नहीं होता । बस मौत के वक्त बन्द हो जाता है ।
लेकिन जब तक इस भेद को बताने वाला प्रकट करने वाला सच्चा गुरु नहीं मिलता । तब तक शब्द अन्दर उपस्थित होते हुये भी सुनाई नहीं देता । गुरु यह नहीं कहते कि अन्दर को अकेला ही जा । बल्कि वह अन्दर हर मंजिल पर आपके साथ है । अन्दर तो अन्दर । अगर कोई शिष्य प्रेमपूर्वक सुमरन नाम भक्ति करे । तो बाहर भी हर वक्त साथ है । शिष्य मुम्बई कलकत्ता अमेरिका लंदन कहीं भी हो गुरु साथ ही होता है । इसीलिये गुरु को अंग संग कहा गया है ।
गुरु शिष्य की एक ही काया । कहन सुनन को दो बतलाया ।
इसलिये जो सच्चे महात्मा हम पर इतना उपकार करते हैं । और फ़िर भी हम उनका कहा न मानें । भजन न करें । नाम सुमरन की कमाई न करें । तो ये तो बङे अफ़सोस की ही बात है । हमारा ह्रदय ही मैला है । जो हम उन्हें अपने जैसा इंसान समझते हैं । मनुष्य समझते हैं ।
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