नहर की कोठी और साँपों की हवेली के मेरे नितांत निजी अनुभव आगे कभी देखेंगे । अभी बचपन की जीवन यात्रा की ही बात है । अतः आगे की बात करते हैं ।
नहर की कोठी में कुछ समय रहने के बाद माता पिता दोनों का ही तवादला अन्य जगहों पर हो गया । अब मैं 3 साल से कुछ ऊपर हो चुका था । बङी बहन सात आठ साल की हो गयी थी । दोबारा जन्मी छोटी फ़िर से एक साल से कुछ ही अधिक थी । अब हमने एक कस्बे में किराये का मकान लिया । क्योंकि बच्चों के पढाने का समय आ गया था ।
मेरा प्रथम एडमिशन सबसे नजदीक इस्लामियाँ स्कूल में किया गया । लेकिन ये स्कूल सिर्फ़ नाम का ही इस्लामियाँ था । इसमें सिर्फ़ दो तीन बच्चे ही मुसलमान थे । बाकी सभी विभिन्न जाति के थे । शिक्षक तो सभी हिन्दू ही थे ।
बस्ती में ही बने इस स्कूल की खासियत इसमें लगे बहुत पुराने दो बङे बङे पीपल और बरगद के पेङ थे । इसके बाद काफ़ी लम्बी चौङी उजाङ खण्डहर जमीन थी ।
इस स्कूल में बहुत बच्चे निम्न वर्ग से आते थे । जो मुझे भूतों की रोचक कहानियाँ बच्चा अन्दाज में सुनाते थे । यहीं से मेरा भूतों से पहला परिचय हो गया । और मुझे उनसे भय और देखने की जिग्यासा ये दोनों ही भाव पैदा हो गये ।
ये मेरी विचित्र किस्मत ही थी कि अच्छा खासा घर के नजदीक का किराये के भवन में चलता स्कूल कुछ ही दिनों में सरकारी बिल्डिंग बन जाने से बस्ती के बाहर शिफ़्ट हो गया । और अब जिस लोकेशन में यह स्कूल था । उससे मेरे जीवन पर बहुत प्रभाव पङा ।
इस नये स्कूल के पास ही एक विचित्र कुँआ था । जिसका पानी महज एक मीटर की नीचाई पर रहता था । स्कूल के बाँयी तरफ़ एक खरंजा गली के बाद निम्न वर्ग मुसलमानी बस्ती थी । जिसमें मस्जिद सैयद आदि भी बने हुये थे । और दाँयी तरफ़ कुछ खेत फ़िर कुछ ही दूरी पर नदी और घनी और भुतहा सी बगियाओं का सिलसिला था ।
नदी पार करने पर एक मुसलमानी कब्रिस्तान जिसे मियाँ भीखा के नाम से बुलाते थे था । इससे पहले ही एक हिन्दू शबों को जलाने का भी स्थान था ।
इस्लामियाँ स्कूल के दाँयी तरफ़ थोङा और आगे लगभग ढाई किमी आगे मिडिल स्कूल था । जिसमें मेरी आगे की शिक्षा हुयी ।
लेकिन इस इस्लामियाँ स्कूल और मिडिल स्कूल के बीच और आसपास के रहस्यमय स्थानों ने मेरी जिन्दगी को खासा प्रभावित किया । यह समय 4 से 11 साल की आयु का था ।
फ़िर से वापस पहले वाले स्कूल में लौट आते हैं । उन दिनों हमारे घर के सामने एक चिक का घर था । जो बकरियों भेङों का काम करता था । उसी के घर मैंने पहली बार बकरों को कटते देखा । वह उनकी खाल से ढोलक मढने का कार्य भी करता था ।
खैर..किसी ने पिताजी को राय दी कि बच्चों को बकरी का दूध बेहद फ़ायदेमन्द है । इसलिये हम लोगों के लिये बकरी का दूध बाँध दिया गया । दूध लाने की जिम्मेवारी सदैव मेरी ही थी ।
जब वह चिक दूध दुहता था । वह देखना मुझे बहुत अच्छा लगता था । वह बकरी के दोनों थनों को पीछे से उसकी टांगों के बीच से निकाल कर दूध काङता
था । मेरी इच्छा होती थी कि मैं भी ऐसा ही करूँ । एक दिन मौका हाथ आ ही गया । चिक शाम को नहीं था । उसकी बीबी ने कह दिया । अगर तुम दुह पाओ । तो ऐसा कर लो । फ़िर सब दूध तुम्हीं ले जाना । मैंने भी उसी तरह बकरी के भरे भरे मोटे थन पकङ कर दूध निकाला ।
पर ये बात मुझे नहीं पता थी कि नये और अनाङी आदमी के दूध काङने से जानबर को गुदगुदी होती है । बकरी बेचारी कितनी देर गुदगुदी सहती । उसने मेरे दूध के भरे कमंडले में दूध काङते समय ही लेंङी कर दी । कर क्या दीं । ये मानों । निकल गयी ।
अब तो मेरा अजीब हाल हो गया । अगर
ये बात सबको पता चल जाती । तो पिटाई तय थी । लिहाजा मैंने फ़ुर्ती से दूध में हाथ डालकर सब लेंङियाँ बाहर निकाल दी । अब उस दूध को मैं कैसे पीता ? लिहाजा मैंने मम्मी से कहा - मेरे पेट में दर्द है । मैं आज दूध नहीं पियूँगा ।
लिहाजा छोटी बहन को ये दूध पिला दिया गया । अब सफ़लता पूर्वक सम्पन्न हुयी चालाकी को किसी को बताये बिना मेरा पेट फ़ूला ही जा रहा था । तब अपने साथियों को बता दिया । कमबख्त उन विभीषणी साथियों ने दो मिनट में ही घर में खबर पहुँचा दी ।
बहन उस समय तो नासमझ थी । लेकिन कुछ बङा होने पर उसे जब ये बात पता चली । तो उसने कई बार गिलास के पानी में थूक कर धोखे से मुझे पिलाकर बदला चुकाया । उसने भी अपनी बात सबको बता दी ।
- उस कस्वे में बन्दरों का बहुत आतंक था । और मुझे तो बन्दरों ने खासा तंग किया हुआ था । अतः मैं भी उन्हें
छकाने का कोई आयडिया सोचता ही रहता था । और एक दिन मुझे आयडिया मिल ही गया ।
उन दिनों मैं मम्मी के साथ एक छत के कमरे में रहता था । और उस दिन घर पर अकेला ही था । बन्दरों के डर से मैंने ( उस समय उमर दस वर्ष ) कमरे का दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया था । तभी कुछ देर बाद ही पूरी बन्दर सेना छत पर घूमती हुयी आयी ।
पर मैं निश्चिन्त था कि मैं अन्दर से सांकल लगे दरबाजे के कमरे में बन्द था । लगभग 16 फ़ुट लम्बे उस कमरे के आगे बरामदा और आगे काफ़ी बङी छत थी । छत पर टट्टर पङा हुआ था । कमरे के दोनों साइड दो कमरे अन्य किरायेदारों के थे । पर उस वक्त मैं अकेला ही था ।
मेरे कमरे में तीन फ़ुट ऊँचाई पर लगे चार चार फ़ुट के दो बङे जंगले दरबाजे के दोनों तरफ़ थे । जिन पर अभी खिङकी नहीं लगी थी । छत का पोर्शन अभी मकान मालिक ने नया ही बनबाया था । अतः दीवाल में एकदम छत से जुङे चार - एक एक - डेढ डेढ फ़ुट के मोखे भी थे ।
दरअसल उन दिनों लेंटर या डाट डालने के लिये आज की तरह शटरिंग न लगाकर झूला बनाया जाता था । जिसमें बल्ली पटरा आदि लगाकर छत के लिये बेस तैयार होता था । बङे साइज की ये बल्लियाँ कमरे की चौङाई से दो दो - तीन तीन फ़ुट तक बङी होती थी । उन्हीं के वे मोखे बन जाते थे । ये मोखे प्लास्टर के समय ही बन्द होते थे । क्योंकि प्लास्टर के समय फ़िर चाली आदि लगाने के लिये ऐसे छेद की आवश्यकता होती थी ।
तो साहब मैंने बन्दरों को छकाने का नायाब आयडिया खोज ही लिया । उसी पर अमल करते हुये मैंने कमरे में रखा एक लम्बा बाँस लिया । और उसमें पतली लकङी बाँधकर उसे और भी लम्बा कर लिया । फ़िर उस लकङी में मोटे
धागे से मैंने एक रोटी कुछ लटकती हुयी सी बाँधी । और उसे जंगले से बाहर निकाल कर इस तरह सैट कर लिया कि इच्छा अनुसार ऊपर नीचे कर सकूँ । अब ये लम्बा बाँस मैंने जंगले से बाहर निकाल दिया । और दो फ़ुट ऊँचा करके जंगले के पीछे छुपकर बाँस को सावधानी से पकङ लिया ।
कुछ ही देर में बन्दरों की नजर लटकती रोटी पर पङ गयी । और वे उस तरफ़ आ गये ।
पर जैसे ही वे रोटी लेने की कोशिश करते । रोटी हवा में छह सात फ़ुट ऊँची हो जाती । और उनके हटते ही फ़िर नीची ।
लेकिन मैंने सोचा था कि इस तरह मैं घन्टों तक बन्दरों को परेशान करूँगा । पर ऐसा नहीं हुआ । उस दिन मुझे पता चल ही गया कि बन्दर बन्दर से आदमी ऐसे ही नहीं बन गये । उनमें मुझसे ज्यादा अक्ल थी ।
कुछ ही देर में बन्दरों को रोटी के ऊपर नीचे होने की चालाकी पता चल गयी । और अब उनका ध्यान रोटी से हटकर जंगले के पीछे जाने लगा । वे सभी सावधानी से धीरे धीरे चौकस अन्दाज में बरामदे की तरफ़ आने लगे । ऐसा तो मैंने सोचा भी न था । तुरन्त ही मैं समझ गया कि बस वे किसी भी मिनट जंगले पर नजर आयेगें । अतः बाँस को उसी हालत में मैंने कमरे के फ़र्श पर रख दिया । इससे बाहर
निकला बाँस आठ फ़ुट तक ऊँचा हो गया । और मैं कमरे के दरबाजे के पास चिपककर खङा हो गया । यही वो स्थान था । जहाँ से दोनों जंगलों से भी नहीं देखा जा सकता था । बाकी पूरा कमरा नजर आता था ।
मेरी सोच के अनुसार ही दस दस बन्दर दोनों जंगलों पर नजर आने लगे । वे पूरी तरह से उस अदृश्य इंसान को सबक सिखाना चाहते थे । पर वे भी अभी सही स्थिति को नहीं जानते थे इसलिये कुछ आशंकित और भयभीत से भी थे ।
तब वो हुआ जिसकी मैंने सपने में भी कल्पना नहीं की थी । मुझे किचकिच करके बन्दरियाओं के किटकिटाने की आवाज सुनायी दी और इस आवाज के साथ ही मेरी निगाह ओटोमेटिक उन खुले दीवाल के मोखों पर चली गयी । जिसमें से एक एक बन्दरों का सिर अन्दर को झांक रहा था । तुरन्त ही बिना प्रयास के मेरी सू सू नेकर में ही निकल गयी । और मैं चीख भी नहीं सका । बस - भगवान जी मुझे बचाओ । मन ही मन जल्दी जल्दी से कहने लगा । मेरा शरीर भय से सूखे पत्ते की तरह काँप रहा था ।
बन्दर कमरे के अन्दर कूदने की स्थिति पर विचार ही कर रहे थे । और बाहर खुशी से उनकी तेज किलकारी और किटकिटाहट का स्वर मानों " जय श्री राम " का नारा लगाता हुआ कह रहा था - मिल गया रावण । हो गयी फ़तह ।
ठीक उसी समय दो काम एक साथ हुये । इधर बन्दरों ने कमरे में जम्प करने की तैयारी की और उधर " फ़टाक " से जोरदार आवाज के साथ सीङियों का दरबाजा खुला । और ऊपर आते इंसानी कदमों की पदचाप आने लगी । यकायक इस नयी स्थिति से बन्दरों का ध्यान उस तरफ़ चला गया । और वे एक तरफ़ भागकर सावधान हो गये ।
ये पढने वाले दो तीन छात्र किरायेदार थे । दोपहर का एक बज चुका था । मम्मी भी स्कूल से आने ही वालीं थीं । मैंने तुरन्त अपना बाँस वगैरह ज्यों का त्यों कर दिया । बङे बङे लङकों के एन वक्त पर आ जाने से बन्दर खुद ही भाग गये थे ।
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मेरे बिजली के प्रयोग और साइंस के प्रयोग और धरती का किनारा खोजने के ( इसी उमर में । इसी समय में ) प्रयोग कुछ दिनों बाद ।
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