आपने कहा कि सिकंदर कबीर के आगे झुका था ! ये गलत है । क्योंकि सिकंदर चाणक्य ,पुरु के समय आया था । और कबीर मुग़लकाल के समय । तो दोनो की मुलाकात कैसे संभव है ? (डेढ़ हज़ार वर्षो को आप खा गये क्या ? ) और अब कुछ बात लेखक जी से । जिन्होंने लिखा है । शंकराचार्य को कामकला का ग्यान कैसे हुआ ?? लेखक महोदय ! आपको ये कहानी कहां से मिली ? क्या प्रमाणिकता है , इसकी आप जैसे लोग किवदंतियों को हवा देते है ?
दूसरी बात आपकी इसी मनगढ़ंत कहानी के अनुसार बिना ब्यवहार के ज्ञान को ज्ञान नहीं माना जा सकता । ये तो और भी बात झूठ है । आप ही बताइए । क्या शंकराचार्य जी बाकी सभी ज्ञान को (कामकला को छोडकर ) ब्यवहारिक जानते थे ? ये संभव है अतः आपसे निवेदन है कि बात वही करे जो तर्कसंगत हो किवदंतियो को बढ़ाना बंद करे । समाज वैसे ही कई किवदंतियो से गुमराह है । धन्यवाद । अजय दुबे (एक पाठक ) ।
ANS - मंडन मिश्र । शंकराचार्य । सरस्वती । के शास्त्रार्थ की बात को कहानी शब्द देना मेरे ख्याल से उचित नहीं है । ये बडी ही प्रसिद्ध घटना है । पर इसमें योग के अलौकिक तत्व होने से आज के लोग इसको हजम नहीं कर पाते । आईये आपको थोडा शंकराचार्य जी के बारे में बताता हूं ।
( south india के । केरल state । तत्कालीन मलाबार state में । shankarachary का जन्म । वैशाख शुक्ल । पंचमी तिथि । ईसवी 788 को । तथा मोक्ष 820 ई. को । माना जाता है । इनके father शिव गुरु तैत्तिरीय शाखा के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे । शंकराचार्य को shiv का अवतार माना जाता है । उनके life के कुछ चमत्कारिक तथ्य देखते हुये लगता है । कि वास्तव में shankarachary शिव के अवतार थे । indian culture के विकास में शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है ।
शंकराचार्य के विषय में कहा गया है ।
अष्टवर्षेचतुर्वेदी द्वादशेसर्वशास्त्रवित ।
षोडशेकृतवान्भाष्यम्द्वात्रिंशेमुनिरभ्यगात ।
अर्थात 8 वर्ष की age में 4 वेदों में निष्णात । 12 में सभी शास्त्रों में पारंगत । 16 में शांकरभाष्य । 32 की age में शरीर त्याग । Shankarachary के दर्शन में सगुण तथा निर्गुण दोनों का दर्शन हैं । निर्गुण ब्रह्म निराकार god है तथा सगुण साकार god है । जिस जगत सृष्टि की मन से हम कल्पना भी नहीं कर सकते उस जगत की उत्पत्ति । स्थिति तथा लय जिससे होता है । उसको ब्रह्म कहते है ।
जगत के जीवों को ब्रह्म के रूप में स्वीकार करना तथा तर्क आदि के द्वारा उसके सिद्ध करना । शंकराचार्य की विशेषता रही है । । शंकर दिग्विजय विजयविलास । जय आदि ग्रन्थों में उनके life से सम्बन्धित अनेक तथ्य मिलते हैं ।
8 वर्ष की age में । गोविन्दपाद के शिष्य बनकर संन्यासी हो जाना । पुन: Varanasi से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना । 16 वर्ष की age में बद्रीकाश्रम पहुंचकर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना । सम्पूर्ण india में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना । दरभंगा में जाकर । मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना । तथा mandan mishra को संन्यास धारण कराना ।
india में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूरकर । समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना । ईश । केन । कठ । प्रश्न । मुण्डक । मांडूक्य । ऐतरेय । तैत्तिरीय । बृहदारण्यक और छान्दोग्य उपनिषद पर भाष्य लिखना । india में राष्ट्रीय एकता । अखण्डता तथा सांस्कृतिक अखण्डता की स्थापना करना । उनके अलौकिक व्यक्तित्व का परिचय है ।
4 धार्मिक मठों । south के श्रृंगेरी शंकराचार्य पीठ । east । उडीसा । जगन्नाथपुरी में गोवर्धन पीठ । west द्वारिका में । शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ । india की एकात्मकता को आज भी दर्शित कर रहा है । कुछ लोग श्रृंगेरी को शारदापीठ । तथा गुजरात के द्वारिका में मठ को कालीमठ कहते है ।
इसके बाद 32 वर्ष की age में मोक्ष प्राप्त करना । अलौकिकता की ही पहचान है । ब्रह्मसूत्र के ऊपर शांकर भाष्य की रचना कर world को 1 सूत्र में बांधने का प्रयास भी shankarachary के द्वारा किया गया है जो कि साधारण मानव से सम्भव नहीं है । जीव अज्ञान व्यष्टि की उपाधि से युक्त है ।
तत्त्वमसि । तुम ही ब्रह्म हो ।
अहं ब्रह्मास्मि । मै ही ब्रह्म हूं ।
अयमात्मा ब्रह्म । यह soul ही ब्रह्म है ।
इन बृहदारण्यक उपनिषद तथा छान्दोग्य उपनिषद के द्वारा इस जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रयत्न shankarachary ने किया है । ब्रह्म को जगत के उत्पत्ति । स्थिति तथा प्रलय का निमित्त कारण बताए हैं । ब्रह्मसत । त्रिकालबाधित । नित्य । चैतन्यस्वरूप तथा आनंद स्वरूप है । ऐसा उन्होंने स्वीकार किया है ।
जीवात्मा को भी सतस्वरूप । चैतन्यस्वरूप । तथा आनंदस्वरूप स्वीकार किया है । जगत के स्वरूप को बताते हुए कहा । नामरूपाभ्यां व्याकृतस्य अनेककर्तृभोक्तृसंयुक्तस्य प्रतिनियत देशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसापि अचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभंगंयत: । अर्थात नाम एवं रूप से व्याकृत । अनेक कत्र्ता । अनेक भोक्ता से संयुक्त । जिसमें देश । काल । निमित्त और क्रियाफल भी नियत हैं । )..आदि ।
शंकराचार्य जी योगयात्रा ( पिछले जन्म के बाद आगे चलना । ) पर आये थे । ये बचपन से ही बाहर जाकर अपना कार्य करना चाहते थे । पर इनकी मां इनको रोक देती थी ।
तब एक दिन शंकराचार्य ने योगलीला रची । और एक तालाब में मगरमच्छ के द्वारा खुद को पकडवा दिया । इनकी मां ने कहा कि वे मगर से खुद को छुडा लें । तव इन्होंने मां से कहा । यदि वह उन्हें बाहर जाने की आग्या दें तो वे ऐसा कर सकते हैं । हारकर इनकी मां ने आग्या दे दी । लेकिन उनकी मां ने वचन लिया कि उनकी मृत्यु पर उन्हें अवश्य आना होगा । शंकराचार्य ने उन्हें वचन दे दिया । जब उनकी मां की मृत्यु हुयी तो उनकी जीभ पर मां के आंचल का दूध आने लगा ।
शंकराचार्य उस समय बेहद दूरी पर थे अतः उन्होंने अपने शिष्यों से जमीन मार्ग से गांव पहुंचने को कहा और स्वयं आकाश मार्ग से मां के पास गये । शंकराचार्य अच्छे योगपुरुष थे और परकाया प्रवेश । आकाश मार्ग में गमन करना ( जो योग सिद्धियों का अंग होता है । ) आदि उनके लिये कोई बडी बात नहीं थी ।
Q बिना ब्यवहार के ज्ञान को ज्ञान नहीं माना जा सकता ये तो और भी बात झूठ है । आप ही बताइए । क्या शंकराचार्य जी बाकी सभी ज्ञान को ( कामकला को छोडकर ) ब्यवहारिक जानते थे ये संभव है ?
ANS लगता है । आपने इस बात को ठीक से नहीं समझा ? अगर आपने उपनिषद पढें हों । तो जहां कहीं शास्त्रार्थ होता था । और कोई पक्ष किसी बात को प्रयोगात्मक तौर पर निजी अनुभव से नहीं जानता हो । तो वो कहता था । मैं इस बात पर बात करूंगा । तो मेरा सिर गिर जायेगा । ( मतलब मेरी निंदा और अपयश होगा । ) इसलिये यहां सभी ग्यान को जानने की बात नहीं थी ? और सभी का ग्यान होना आवश्यक भी नहीं था । काम । क्योंकि धर्म के चार पुरुषार्थ में से ही एक है । इसलिये सरस्वती ने उस पर बात की थी । शास्त्रार्थ के नियम के अनुसार । दोनों पक्ष जिस बात पर हारजीत के लिये केन्द्रित होते थे । उसका प्रयोगात्मक ग्यान होना अनिवार्य माना जाता था । यही कबीर और गोरखनाथ के साथ हुआ था ।
जहां न पहुंचे रवि । वहां पहुंचे कवि ।
जहां न पहुंचे कवि । वहां पहुंचे अनुभवी ।
जहां न पहुंचे अनुभवी । वहां पहुंचे स्वयंभवी ।
अर्थात सूर्य का प्रकाश हर जगह पहुंचता है । पर जहां वह नहीं भी पहुंच पाता कवि या लेखक की कल्पना वहां पहुंच जाती है । लेकिन अनुभवी ( जिसने किसी बात को साक्षात देखा हो । ) वहां होता है । जहां कवि की कल्पना भी नहीं पहुंच पाती । इससे भी बडा स्वयंभवी होता है । यानी स्वयं जिसके साथ कोई बात घटित हुयी हो । इसलिये पुरानी ( आजकल जैसी बातों वाली नहीं । ) शास्त्रार्थ परम्परा के अनुसार विषय का प्रयोगात्मक और व्यवहारिक ग्यान यानी स्वयंभवी होना आवश्यक था ।
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