23 जनवरी 2011

मनुष्य के लिए आनंद का मार्ग


नवसंन्यास क्या ? संन्यास मेरी दृष्टि में । पूरब की श्रेष्ठतम देन - संन्यास । मनुष्य है 1 बीज । अनंत संभावनाओं से भरा हुआ । बहुत फूल खिल सकते हैं । अलग अलग प्रकार के । बुद्धि विकसित हो मनुष्य की । तो विज्ञान का फूल खिलता है । और हृदय विकसित हो तो काव्य का । और पूरा मनुष्य ही विकसित हो जाए । तो संन्यास का ।
संन्यास है - समग्र मनुष्य का विकास । और पूरब की मनीषा ने । पूरब की प्रतिभा ने जगत के विकास को जो दान दिया है । वह संन्यास है ।
संन्यास का अर्थ है । जीवन को 1 काम की भांति नहीं । वरन 1 खेल की भांति जीना । जीवन नाटक से ज्यादा न रह जाए । बन जाए 1 अभिनय । जीवन में कुछ भी इतना महत्वपूर्ण न रह जाए कि चिंता को जन्म दे सके । दुख हो या सुख । पीड़ा हो । संताप हो । जन्म हो । या मृत्यु ।
संन्यास का अर्थ है इतनी समता में जीना । हर स्थिति में कि भीतर कोई चोट न पहुंचे । अंतरतम में कोई झंकार भी पैदा न हो । अंतरतम ऐसा अछूता रह जाए जीवन की सारी यात्रा से । जैसे कमल के पत्ते पानी में रहकर भी पानी से अछूते रह जाते हैं । ऐसे अस्पर्शित । ऐसे असंग । ऐसे जीवन से गुजरते हुए भी जीवन के बाहर रहने की कला का नाम संन्यास है । यह कला बहुत विकृत भी हुई । जो भी इस जगत में विकसित होता है । उसकी संभावना विकृत होने की भी होती है । संन्यास विकृत हुआ । संसार के विरुद्ध खड़े हो जाने के कारण, संसार की निंदा, संसार की शत्रुता के कारण । संन्यास खिल सकता है वापस । फिर मनुष्य के लिए आनंद का मार्ग बन सकता है । संसार के साथ संयुक्त होकर । संसार को स्वीकृत करके । संसार का विरोध करने वाला । संसार की निंदा और संसार को शत्रुता के भाव से देखने वाला संन्यास । अब आगे संभव नहीं होगा । उसका कोई भविष्य नहीं है । है भी रुग्ण वैसी दृष्टि ।
यदि परमात्मा है । तो यह संसार उस परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है । इसे छोड़कर, इसे त्याग कर परमात्मा को पाने की बात ही नासमझी है । इस संसार में रहकर ही इस संसार से अछूते रह जाने की । जो सामर्थ्य विकसित होती है । वही इस संसार का पाठ है । वही इस संसार की सिखावन है । और तब संसार 1 शत्रु नहीं । वरन 1 विद्यालय हो जाता है । और तब कुछ भी त्याग करके । सचेष्ट रूप से त्याग करके । छोड़कर भागने की पलायनवादी वृत्ति को प्रोत्साहन नहीं मिलता । वरन जीवन को उसकी समग्रता में, स्वीकार में, आनंदपूर्वक, प्रभु का अनुग्रह मानकर जीने की दृष्टि विकसित होती है । भविष्य के लिए मैं ऐसे ही संन्यास की संभावना देखता हूं । जो परमात्मा और संसार के बीच विरोध नहीं मानता । कोई खाई नहीं मानता । वरन संसार को परमात्मा का प्रकट रूप मानता है । और परमात्मा को संसार का अप्रकट छिपा हुआ प्राण मानता है । संन्यास को ऐसा देखेंगे । तो वह जीवन को दीनहीन करने की बात नहीं । जीवन को और समृद्ध और संपदा से भर देने की बात है ।
असल में जब भी कोई व्यक्ति जीवन को बहुत जोर से पकड़ लेता है । तभी जीवन कुरूप हो जाता है । इस जगत में हम जो भी जोर से पकड़ेंगे । वही कुरूप हो जाएगा । और जिसे भी हम मुक्त रख सकते हैं । स्वतंत्र रख सकते हैं । मुट्ठी बांधे बिना रख सकते हैं । वही इस जगत में सौंदर्य को, श्रेष्ठता को, शिवत्व को उपलब्ध हो जाता है । जीवन के सब रहस्य ऐसे हैं । जैसे कोई मुट्ठी में हवा को बांधना चाहे । जितने जोर से बांधी जाती है मुट्ठी । हवा मुट्ठी के उतने ही बाहर हो जाती है । खुली मुट्ठी रखने की सामर्थ्य हो । तो मुट्ठी हवा से भरी रहती है । और बांधी मुट्ठी कि हवा से खाली हो जाती है । उलटी दिखाई पड़ने वाली । उलटबांसी सी यह बात, कि मुट्ठी खुली हो । तो भरी रहती है । और बंद की गई हो । बंद करने की आकांक्षा हो । तो खाली हो जाती है । जीवन के समस्त रहस्यों पर लागू होती है । कोई अगर प्रेम को पकड़ेगा । बांधेगा । प्रेम नष्ट हो जाएगा । कोई अगर आनंद को पकड़ेगा । बांधेगा । आनंद नष्ट हो जाएगा । और कोई अगर जीवन को भी पकड़ना चाहे । बांधना चाहे । तो जीवन भी नष्ट हो जाता है । संन्यास का अर्थ है । खुली हुई मुट्ठी वाला जीवन । जहां हम कुछ भी बांधना नहीं चाहते । कुछ भी रोकना नहीं चाहते । प्रवाह । और सतत नये की स्वीकृति । और कल जो दिखाएगा । उसके लिए भी परमात्मा को धन्यवाद का भाव । बीते हुए कल को भूल जाना है । क्योंकि बीता हुआ कल । अब स्मृति के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं । जो हाथ में है । उसे भी छोड़ने की तैयारी रखनी है । क्योंकि इस जीवन में सब कुछ क्षणभंगुर है । जो अभी हाथ में है । क्षण भर बाद हाथ के बाहर हो जाएगा । जो स्वांस अभी भीतर है । क्षण भर बाद बाहर होगी । ऐसा प्रवाह है जीवन । इसमें जिसने भी रोकने की कोशिश की । वही गृहस्थ है । और जिसने जीवन के प्रवाह में बहने की सामर्थ्य साध ली । जो प्रवाह के साथ बहने लगा - सरलता से । सहजता से । असुरक्षा में । अनजान में । अज्ञात में । वही संन्यासी है ।
संन्यास के 3 बुनियादी सूत्र खयाल में ले लेने जैसे हैं ।
पहला - जीवन 1 प्रवाह है । उसमें रुक नहीं जाना । ठहर नहीं जाना । वहां कहीं भी घर नहीं बना लेना है - 1 यात्रा है । और जीवन में पड़ाव हैं बहुत । लेकिन मंजिल कहीं भी नहीं । मंजिल जीवन के पार परमात्मा में है । दूसरा - जीवन जो भी दे । उसके साथ पूर्ण संतुष्टि । और पूर्ण अनुग्रह । क्योंकि जहां असंतुष्ट हुए हम । तो जीवन जो देता है । उसे भी छीन लेता है । और जहां संतुष्ट हुए हम । जीवन जो नहीं देता । उसके भी द्वार खुल जाते हैं । और तीसरी बात - जीवन में सुरक्षा का मोह न रखना । सुरक्षा संभव नहीं है । तथ्य ही असंभावना का है । असुरक्षा ही जीवन है । सच तो यह है । सिर्फ मृत्यु ही सुरक्षित हो सकती है । जीवन तो असुरक्षित होगा ही । इसलिए जितना जीवंत व्यक्तित्व होगा । उतना असुरक्षित होगा । और जितना मरा हुआ व्यक्तित्व होगा । उतना सुरक्षित होगा । सुना है मैंने । 1 सूफी फकीर मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने मरते वक्त वसीयत की थी कि मेरी कब्र पर 1 दरवाजा बना देना । और उस दरवाजे पर कीमती से कीमती, वजनी से वजनी, मजबूत से मजबूत ताला लगा देना । लेकिन 1 बात ध्यान रखना । दरवाजा ही बनाना । मेरी कब्र के चारों तरफ दीवार मत बनाना । कब्र पर दरवाजा बना है । आज भी नसरुद्दीन की कब्र पर दरवाजा खड़ा है - बिना दीवारों के । ताले लगे हैं जोर से । मजबूत । चाबियां समुद्र में फेंक दी गईं । ताकि कोई उन्हें खोज न ले । नसरुद्दीन की यह मरते वक्त आखिरी मजाक थी । 1 संन्यासी की मजाक संसारियों के प्रति ।
हम भी जीवन में कितने ही ताले डालें । सिर्फ ताले ही रह जाते हैं । चारों तरफ जीवन असुरक्षित है सदा । कहीं कोई दीवार नहीं है । जो इस सत्य को स्वीकार करके जीना शुरू कर देता है कि जीवन में कोई सुरक्षा नहीं है । असुरक्षा के लिए मैं राजी हूं । मेरी पूर्ण सहमति है । वही संन्यासी है । और जो असुरक्षित होने को तैयार हो गया । निराधार होने को । उसे परमात्मा का आधार उपलब्ध हो जाता है ।

2 टिप्‍पणियां:

मनोज कुमार ने कहा…

विश्लेषण अच्छा लगा।

दर्शन कौर धनोय ने कहा…

राजीवजी ,आपको अपना दोस्त कहते हुए फक्र महसूस होता हे --आपकी प्रस्तुति प्रशंसनीय हे