21 अक्टूबर 2013

माफ़ करना तुम्हें प्यार नहीं कर पाउँगा

उस महान राजा का नाम था - जनक । जो इतने वैराग्यशील माने जाते हैं कि 1 कहानी चल पड़ी कि जब 1 बार राज दरबार में बैठकर वे अध्यात्म चर्चा में लीन थे ।  तो किसी ने उन्हें सूचना दी कि महाराज आपकी राजधानी मिथिला में आग लग गई है । तो आप जानते हैं कि पुराण गाथाओं में राजा जनक का कौन सा जवाब दर्ज है - मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्याति कश्चन । यानी अगर मिथिला जल रही है । तो इसमें मेरा भला क्या जल रहा है ? हमारे इतिहास में मिथिला में आग लग जाने की घटना कहीं खास दर्ज है नहीं । इसलिए लगता यही है कि जनक की घोर वैराग्यशीलता दिखाने के लिए 1 ऐसा गाथा संवाद गढ़ लिया गया । पर वैराग्यशीलता की प्रतिष्ठा का आलम यह है कि आज हमें परमहंस जैसा कोई महा सम्पन्न व्यक्ति मिल जाए । तो हम कह उठते हैं कि वह तो साक्षात

जनक है । विदेह उनका वंश नाम है ? पर वि-देह । यानी जिसे अपने देह की भी सुध नहीं । इस अर्थ वाला वंश नाम भी हम आजकल किसी भी वैराग्यशील व्यक्ति को देने में गौरव का अनुभव करते हैं । जनक को राजर्षि इसलिए कहा जाता है कि वे राजा होते हुए भी अर्थात राज नेता होते हुए भी ऋषि जैसे वीतराग थे । आज हम अगर डा. राजेन्द्र प्रसाद को भी राजर्षि कहना चाहते हैं । और पुरुषोत्तम दास टंडन को भी राजर्षि कहते हैं । और सारा देश इसका अर्थ तत्काल समझ जाता है । तो जाहिर है कि जनक का उपाधि नाम तक हमारे जहन में अपने पूरे अर्थ संदेश के साथ कहीं गहरे बस गया है । और हजारों सालों से इसी अर्थ संदेश के साथ बसा हुआ है । तो क्या यह कोई छोटी बात है ? तो ऐसे जनक कौन थे ? कब हुए थे ? हम भारतवासियों के दिलोदिमाग में सीता के पिता का नाम जनक है 

। जो ठीक ही है । सीता के पिता जनक थे । और उसी मिथिला के राजा थे । जहां धनुष यज्ञ हुआ था । और राम ने धनुष तोड़कर सीता के साथ विवाह किया था । पर जनक को लेकर हमारे सामने 1 बड़ी दिक्कत है । हमारे सामने 1 जनक वे हैं । जो सीता के पिता थे । और जो राम के समकालीन थे । यानी आज से 6000 साल पहले हुए । हमारे सामने 1 जनक वे हैं । जिनके राज दरबार में आचार्य याज्ञवल्क्य ने अपने ब्रह्मवाद की जबर्दस्त प्रतिष्ठा की थी । जहाँ उस समय की प्रख्यात विदुषी गार्गी वाचक्नवी ने याज्ञवल्क्य के सिद्धांतों को चुनौती दी थी । और याज्ञवल्क्य बड़ी मुश्किल से उनके सवालों के जवाब दे पाए थे । जनक के दरबार में हुआ याज्ञवल्क्य संवाद प्रख्यात ग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण में अपनी पूरी शाब्दिक शोभा के नाम निरूपित है । याज्ञवल्क्य वैशम्पायन मुनि के भतीजे माने जाते हैं । और ये वैशम्पायन वे महापुरुष हैं । जो मुनि वेद व्यास की उस टीम के विशिष्ट सदस्य थे । जिसने 1 लाख श्लोकों वाला महाभारत तैयार किया था । जाहिर है कि याज्ञवल्क्य वेद व्यास और वैशम्पायन से संबद्ध होने के कारण महाभारत के नायक कौरव पांडवों के आसपास के समय के माने जाएंगे । और अगर उनकी अध्यात्म चर्चाओं का केन्द्र राजा जनक का दरबार था । तो ये जनक आज से 5000 साल पहले हुए । अर्थात जिस जनक को हम सीता के पिता के रूप में जानते हैं । उनमें और जिन जनक की प्रतिष्ठा महान अध्यात्म वेत्ता के रूप में शतपथ ब्राह्मण नामक ग्रन्थ में ही नहीं । हमारी स्मृतियों में भी दर्ज है । उनमें 1000 साल का काल बीत जाता है । अब बताईए । कैसे हो । इस 

समस्या का हल ? क्यों न हल की तलाश के लिए थोड़ा जनक वंश में डुबकी लगा ली जाए ? और डुबकी लगाने से पहले यह बताने की जरूरत नहीं कि सीता के पिता न तो पहले जनक थे । और न ही आखिरी जनक । जाहिर है कि 1 पूरी वंश परम्परा है । जिसने मिथिला में शासन किया है । जब हम महाभारत के पहले 3000 वर्षों को इतिहास संक्षेप में बखान रहे थे । तो हमने बताया कि मनु के बाद जहाँ अयोध्या में इक्ष्वाकु वंश का राजवंश शुरू हुआ । वहां मिथिला में निमि वंश का राजवंश चला । मिथिला नाम बाद में पड़ा । पर उसी शहर में निमि वंश का शासन पहले शुरू हुआ । निमि वंश इसलिए कि इस राजवंश के पहले राजा का नाम था - निमि । पूरा नाम है - निमि जनक । निमि के बाद हुए मिथि । पूरा नाम है - मिथि जनक । इन्हीं मिथि के नाम पर राजधानी का नाम

पड़ा मिथिला । हो सकता है कि यूं ही महत्वाकांक्षा के वशीभूत होकर राजा ने अपनी राजधानी का नाम मिथिला कर दिया हो । या फिर वे इतना महान व्यक्तित्व हों कि इतिहास ने उनकी राजधानी उन्हीं के नाम पर लिख दी हो । इन दोनों राजाओं के नाम के साथ जनक लगा है । वैसे वाल्मीकि रामायण में अपने कुल का परिचय देते हुए सीरध्वज जनक कहते हैं कि मिथि के पुत्र का नाम जनक था ( जिनके कारण उनके कुल का नाम जनक कुल पड़ गया ) जो पहले जनक थे - जनको मिथिपुत्राक: । प्रथमो जनको राजा । बालकांड 71.4 । इनके बाद आने वाले भी हर राजा के नाम के साथ जनक लगता रहा है । मसलन उदावसु जनक, देवरात जनक, कृतिरथ जनक, सीरध्वज जनक, जनक दैवराति, आदि । स्पष्ट है कि जनक नाम 1 कुल नाम जैसा है । और इस नाम वाला कोई 1 खास जनक नहीं है । जनक के साम्राज्य का नाम विदेह कैसे और कब पड़ा ? कहना कठिन है । पर ग्रंथों में जहाँ भी जनक के साम्राज्य का वर्णन है । वहाँ कई बार, बल्कि अक्सर विदेह

शब्द मिल जाता है - विदेहानां राजा अर्थात विदेहों का राजा । विदेहों अर्थात विदेह देश का राजा । संस्कृत में देशवाची शब्दों के लिए प्राय: बहुवचन का प्रयोग मिलता है । सीता जिन विदेहराज जनक की बेटी थीं । उनका नाम था - सीरध्वज जनक । और जिन कुशध्वज जनक की 3 बेटियों के साथ राम के शेष 3 भाइयों की शादी हुई थी । वे सीरध्वज के छोटे भाई थे । या तो सीरध्वज का मध्यम आयु में देहांत हो गया था । या फिर कुशध्वज काफी दीर्घायु थे । क्योंकि सीरध्वज का कोई बेटा न होने के कारण । यानी सीता का कोई भाई न होने के कारण । कुशध्वज ही अपने भाई सीरध्वज के उत्तराधिकारी बने । जनक वंश में डुबकी लगाने के बाद फिर से अपने सवाल पर आते हैं कि वे जनक कौन थे ? जो हमारे इतिहास में महान वैराग्यशील राजर्षि के रूप में अमिट हो गए ? सीता के पिता सीरध्वज जनक बाकी जनकों से अधिक महत्वपूर्ण तरीके से पुराणों में वर्णित हैं । पर यह नहीं पता चलता कि वे महत्वपूर्ण क्यों थे ? कहीं कहीं उन्हें वीर राजा के रूप में सराहा गया है । जिस कदर उन्होंने शिव धनुष तोड़ने की प्रतिज्ञा में सीता विवाह को बांध दिया था । उससे वे अति साहसी तो लगते हैं । पर कोई खास दूरदर्शी नजर नहीं आते । क्यों ? इसलिए कि राम वहाँ संयोगवश उपस्थित न होते । तो सीता का विवाह तो 1 बार संकट में पड़ ही गया था । लगता यही है कि सीता के पिता और राम के श्वसुर होने के कारण सीरध्वज जनक मशहूर हो गए । और इस संबंध का फायदा उनके भाई कुशध्वज को भी मशहूरी के रूप में मिला । पर इन दोनों जनक भाइयों में से कोई महान वैराग्यशील अध्यात्म वेत्ता राजर्षि भी था । इसके प्रमाण

दूर दूर तक नहीं मिलते । बेशक गोस्वामी तुलसीदास ने अपने रामचरित मानस में अध्यात्म वेत्ता राजर्षि के तमाम विशेषण सीता के पिता ( सीरध्वज ) जनक को दे दिए हैं । याज्ञवल्क्य ने जिस महान अध्यात्म वेत्ता जनक के राज दरबार में बृह्म चर्चा के खुशबूदार फूल खिला दिए थे । आखिर वे जनक थे कौन ? कुछ संदर्भों में उन जनक का नाम है - दैवराति । यह उनका अपना नाम नहीं लगता । बल्कि दैवराति का अर्थ है - देवरात का पुत्र - देवरातस्य पुत्रा: देवराति: । पर निमि वंश में जिन देवरात का नाम मिलता है । वे तो निमि से 17वीं पीढ़ी थे । जबकि दैवराति को याज्ञवल्क्य का समकालीन होने के कारण काफी बाद का यानी महाभारत के तत्काल बाद का होना चाहिए । महाभारत के समय मिथिला में बहुलाश्व जनक राज कर रहे थे । जिनसे मिलने स्वयं कृष्ण गए थे । उनके पुत्र का नाम था - कृतिजनक । जो महाभारत संग्राम में कौरवों की ओर से लड़ा था । और मारा गया था । कृतिजनक के बाद जिन जनक का नाम मिलता है । वे शायद हमारी समस्या को हल कर दें । क्या था इन जनक का नाम ? नहीं मालूम । जो नाम मिलता है । वह उनका नाम नहीं । बल्कि ओढ़ा हुआ या लोगों के द्वारा दिया गया नाम नजर आता है । नाम है - महावशी । यानी जिसने अपने पर ( महान ) पूरी तरह ( वश ) बस कर लिया है । हो सकता है कि यही वे जनक हों । जो महावशी, महा  वैराग्यशील, परम बृह्मज्ञ, अध्यात्म वेत्ता रहे हों । और इस हद तक रहे हों कि उन्होंने अपना नाम तक छोड़ दिया हो । और प्रफुल्लित प्रजा ने इन्हें अपनी ओर से महावशी नाम दे दिया हो । पर यकीनन उनके दरबार में ही वे बृह्म चर्चाएं होती थीं । जिनके लिए जनक और याज्ञवल्क्य दोनों ही उस वक्त विश्वविख्यात हो गए । पर सवाल उठता है कि इन जनक को देवरात का बेटा कैसे कहा जा सकता है । जबकि उनके पिता का नाम देवरात जनक नहीं । कृतिजनक था ? 1 ही जवाब हो सकता है । जनकवंश में देवरात नहीं । कृतिजनक था ? 1 ही जवाब हो सकता है । जनकवंश में देवरात 1 अपेक्षाकृत अधिक प्रसिद्ध नाम है । हो सकता है कि अयोध्या के राजा ऋषभदेव और उनके पुत्र जड़ भरत की तरह मिथिला के राजा देवरात जनक भी वैराग्यशील व्यक्ति रहे हों । और जब पीढ़ियों बाद कृत्रि पुत्र जनक परम अध्यात्म वेत्ता हुए । तो परम्परा ने या तब के लोगों ने उनका संबंध सीधा उन्हीं अति प्राचीन देवरात जनक से जोड़कर महावशी जनक को दैवराति कहने में अधिक सुख का अनुभव किया हो । पर ये महावशी जनक परम वैराग्यशील थे । इतने कि उनका सारा जीवन अध्यात्म चर्चाओं में ही आनंद लेने में बीत गया । या तो इन्होंने विवाह नहीं किया था । फिर इनके कोई पुत्र नहीं था । क्योंकि महावशी के बाद विदेहराज जनकों की परम्परा ही समाप्त हो गई लगती है । हो सकता है कि अगर कभी मिथिला को आग लगी हो । तो वह भी इन्हीं जनक के समय लगी हो । और वे उसे जलता छोड़कर महा प्रस्थान कर गए हों । अगर यह सब ठीक है । तो धन्य हैं महावशी । जिन्होंने अपने बृह्मज्ञानी होने की ख्याति अपने वंश के तमाम पूर्ववर्ती जनकों को भी दे दी । पर आश्चर्य कि इन महावशी का नाम ही हमें नहीं मालूम । अपना नाम, राज, वंश तक खत्म कर बैरागी हो जाने वाले इस महावशी के बारे में क्या कहें ? साभार -विकीपीडिया
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शास्त्र का व्याख्यान करना । ना समझों के लिए 1 धार्मिक अपराध है । सत्य को न समझ कर किसी के भी गुरु बन जाते हैं । और 1 नया भ्रम बना देते है । इतफाक से किसी को फायदा हो जाता है । लेकिन वह 10 को और भ्रमित कर देते हैं । 1 गलत व्याख्यान से अनेकों को बर्बाद कर देते हैं । और अपने को बना देते हैं - आचार्य, संत, महात्मा, योगी, बृह्म ज्ञानी, तत्वदर्शी, इत्यादि ।
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ओ कंप्यूटर युग की छोरी । मन की काली तन की गोरी ।
करना मुझको माफ़ । मैं तुम्हें प्यार नहीं कर पाउँगा ।
तू फैशन tv सी लगती । मैं संस्कार का चैनल हूँ ।
तू मिनरल पानी की बोतल लगती है । मैं गंगा का पावन जल हूँ ।
तुम लाखों की गाड़ी में चलने वाली । मैं पाँव पाँव चलने वाला ।
तुम हैलोजन सी जलती हो । मैं दीपक सा जलने वाला ।
करना मुझको माफ़ । मैं तुम्हें प्यार नही कर पाउँगा ।
तुम रैंप पर देह दिखाती हो । मैं संस्कारों को जीता हूँ ।
जब तुम्हें देख कर सीटी बजती । मैं घूँट लहू का पीता हूँ ।
तुम सूप पीने वाली । मैं मट्ठा पीने वाला हूँ ।
तुम शॉक अलार्म से भी ना डरो । मैं पॉपकॉर्न से डरने वाला ।
तुम डिस्को की धुन पर नाचो । मैं राम नाम ही जपता हूँ ।
तुम पिता जी को डैड और टेलीफोन को भी डेड कहो ।
और माँ को मम्मी mummy  बुलाती हो ।
तुम करवा चौथ भूल बैठी और वेलेंटाइन डे मनाती हो ।
तुम पॉप म्यूजिक की धुन सी बजती । मैं बंसी की धुन का धनि-या ।
मुझसे डॉट कॉम भी ना लगती । तुम इंटरनेटी दुनियां । 
तुम मोबाइल पर मैसेज लिखने वाली । मैं पोस्टकार्ड लिखने वाला ।
तुम राकेट सी लगती हो और । मैं उड़ने वाला गुब्बारा सा ।
तू अपना सब कुछ हार चुकी । मैं जीता हुआ जुआरी हूँ ।
तुम इटली की रानी जैसी । मैं देसी अटल बिहारी हूँ । दहाडो हिन्दुओ
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अंधकार की छाया - स्वामी विवेकानन्द की तेजस्वी और अद्वितीय प्रतिभा के कारण कुछ लोग ईर्ष्या से जलने लगे । कुछ दुष्टों ने उनके कमरे में 1 वेश्या को भेजा । श्री रामकृष्ण परमहंस को भी बदनाम करने के लिए ऐसा ही घृणित प्रयोग किया गया । किन्तु उन वेश्याओं ने तुरन्त ही बाहर निकल कर दुष्टों की बुरी तरह खबर ली । और दोनों संत विकास के पथ पर आगे बढ़े । पैठण के एकनाथ जी महाराज पर भी दुनिया वालों ने बहुत आरोप प्रत्यारोप गढ़े । लेकिन उनकी विलक्षण मानसिकता को तनिक भी आघात न पहुँचा । अपितु प्रभु भक्ति में मस्त रहने वाले इन संत ने हँसते खेलते सब कुछ सह लिया । संत तुकाराम महाराज को तो बाल मुंडन करवाकर गधे पर उल्टा बिठाकर जूते और चप्पल का हार पहनाकर पूरे गाँव में घुमाया । बेइज्जती की । एवं न कहने योग्य कार्य किया । ऋषि दयानन्द के ओज तेज को न सहने वालों ने 22 बार उनको जहर देने का बीभत्स कृत्य किया । और अन्ततः वे नराधम इस घोर पातक कर्म में सफल तो हुए । लेकिन अपनी सातों पीढ़ियों को नरक गामी बनाने वाले हुए ।
हरि गुरु निन्दक दादुर होई । जन्म सहस्र पाव तन सोई । 
ऐसे दुष्ट दुर्जनों को हजारों जन्म मेंढक की योनि में लेने पड़ते हैं । ऋषि दयानन्द का तो आज भी आदर के साथ स्मरण किया जाता है । लेकिन संतजन के वे हत्यारे व पापी निन्दक किन किन नरकों की पीड़ा सह रहे होंगे । यह तो ईश्वर ही जानें । समाज को गुमराह करने वाले संत द्रोही लोग संतों का ओज, प्रभाव, यश देखकर अकारण जलते पचते रहते हैं । क्योंकि उनका स्वभाव ही ऐसा है । जिन्होंने संतों को सुधारने का ठेका ले रखा है । उनके जीवन की गहराई में देखोगे । तो कितनी दुष्टता भरी हुई है । अन्यथा सुकरात, जीसस, ज्ञानेश्वर, रामकृष्ण, रमण महर्षि, नानक और कबीर जैसे संतों को कलंकित करने का पाप ही वे क्यों मोल लेते ? ऐसे लोग उस समय में ही थे । ऐसी बात नहीं । आज भी मिला करेंगे । कदाचित इसीलिए विवेकानन्द ने कहा था - जो अंधकार से टकराता है । वह खुद तो टकराता ही रहता है । अपने साथ वह दूसरों को भी अँधेरे कुएँ में ढकेलने का प्रयत्न करता है । उसमें जो जागता है । वह बच जाता है । दूसरे सभी गड्डे में गिर पड़ते हैं । कट्टर हिन्दू रामसेवक । 
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1 वैश्या की आत्म कथा ।
जिस गली को समाज के ठेकेदार गन्दगी कहते हैं । वही लोग रात को इन गलियों में ज्यादा पाए जाते हैं । जो हमको दिन में देखना भी न करते गंवारा । ना जाने कितने वैसों की रातों को हमने संवारा । दिन में वे करते हमसे घृणा और देते रहे हैं दुत्कार । रात को वही गोद में बैठा करते बीवी से ज्यादा प्यार । बातें करते बड़ी बड़ी ये है इन ठेकेदारों का असूल । छोड़ते नहीं जब तक हो ना जाए पूरा पैसा वसूल । शादी में दिए वचन परनारी मानूँगा बहन । हवस की भूख के आगे सब वचन हुए दहन । काश ये ठेकेदार हमें 2 वक़्त की रोटी दे पाते । तो आज हम मजबूर होकर इस धंधे में ना आते । पैसे से ख़रीद सको तुम सबसे प्यारा खेल हूँ प्यार का । मेरी देह पर लिखा हुआ सु-स्वागतम रोज़ नए यार का । कहते जहाँ हमारे पैर पड़े वो जगह अपवित्र हो जाए । रात को उन्हीं पैरों के बीच अपनी मर्दानगी दिखाए । यह तो अपना अपना धंधा साहब सब है करते । आप भूख पूरी है करते, हम भूख के किए करते । यह तो हमारा एहसान है समाज पर और है चमत्कार । वरना घर घर गली गली मैं आए दिन हो बलात्कार । आते हैं आप पूरा करने अपना अपना अधूरा प्यार साहब । हम तो तन बेच नहीं कर पाते पूरे बच्चों के अधूरे ख्वाब । क्यों पैदा किया हमको इस कलयुग में बोलो ? क्या पाप किया हमने खुदा कुछ तो बोलो ? मेरी बातों का बुरा न मानना मेरे खुदा हुज़ूर । आप ही हमारे अन्नदाता हो फिर आना जरूर । 

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