मैं कर्मों के ( आंतरिक ) रूप स्पष्ट देखता हूँ । जब आप बुरा कर रहे होते हो । जब आप अच्छा कर रहे होते हो । उनका ( कर्म ) आकार निराधार छाया की भांति आपके ऊपर खङा होता है । और तब आप किसी प्रेत किसी दैवीय आवेश की भांति प्रेरित होकर कुछ भी सोचे बिना कर्म करते चले जाते हो । ऐसा आपने भी बहुत बार देखा होगा । पर आप में और मुझमें फ़र्क इतना है कि - मैं आंतरिक पदार्थ और उससे बनी आक्रुति को भी देखता हूँ । और जीव की उस समय की बाह्य स्थिति को भी । जबकि आप सिर्फ़ बाह्य स्थिति को ही देख पाते हैं । यदि आप उस तमाशे में सलंग्न नहीं हो । उसमें आपकी कोई भूमिका नहीं है । तब आप निश्चय ही जान जाते हो - यह पूरा झगङा बेकार का ही हो रहा है । यह कोई समझदारी नहीं है । यदि इसको ये बात समझ आ जाये । उसको वो बात समझ आ जाये । तो वास्तव में कोई गम्भीर बात ही नहीं है । दुनियाँ के सारे झगङे लङाईयाँ अज्ञान और नासमझी की ही उपज है । इतना तो साधारण इंसान भी तटस्थ होकर देखने से समझ लेता है । जब वह किसी झगङे को बाहर से देखता है । तमाशा देखने वाले तमाशा हो नहीं जाना । पर जैसा कि मैंने कहा - आप झूठे अहम रूपी शराब के नशे में डूबे हो । तब शराब का नशा असर करेगा ही । जो भी पदार्थ ( संस्कार ) आपके अन्दर कृमशः उभरता चला आ रहा है । वह अपनी रासायनिक क्रिया करेगा ही । इसलिये आप भले ही अभी अभी एकदम शान्त बैठे थे । लेकिन जैसे ही समय अनुसार पदार्थ ऊपर आया । और उससे जुङा ( संस्कार रूपी ) दूसरा जीव आया । झगङे और प्रेम की स्थिति बनने
लगी । इसी को परवशता कहते हैं । आप खूब जानते हैं । लङना अच्छी बात नहीं । ईर्ष्या राग द्वेष अच्छा नहीं । पर आप करने पर मजबूर हो जाते हैं । इसी को होनी कहा जाता है । जिसके आगे सभी वेवश होते हैं । अब भाग्यवश मेरी तरह आपको संस्कारों के आंतरिक यम आकार दिखाई देने लगे । तो आप समझ जायें कि - झगङा ये कर ही नहीं रहा । दुखी ये हो ही नहीं रहा । 33 करोङ वृतियाँ आवृत हुयी अपना पोषण प्राप्त कर रही हैं । जिनसे कभी सुदूर भूतकाल में ये जीव वासना के वशीभूत घोर अज्ञान वश आसक्त हुआ था । और अब समय आने पर उसका परिणाम फ़ल बन रहा है ।
इसी में सम होना कहा गया है । बिना विचारे जो करे । सो पाछे पछताय । काम बिगारे आपनो । जग में
होत हँसाय । आप इंसानी स्तर पर इसका उपाय इतना ही कर सकते हैं कि बुरी परिभाषा में आने वाले कार्यों को करने से पहले 100 बार सोचें । उसको यथासंभव टालने की कोशिश ही करें ।
इसको और समझें । यदि आप कोई गलत चीज ( यहाँ पूर्व या पूर्व जन्म के संस्कार ) खा गये हैं । और वह नुकसान ( परिणाम ) करने लगी है । तो सचेत हो जायें । किसी डाक्टर ( गुरु ) से कोई औषधि ( ज्ञान ) लें । जिससे ये विषमता दूर हो । इसका और कोई इलाज नहीं है ।
फ़िर से ऊपर वाली बात पर आते हैं । आंतरिक दृष्टि रखने वाले ज्ञानियों को यहीं अफ़सोस होता है । किसी भी अच्छे बुरे भोग में इस बेचारे जीव ( आत्मा ) का कोई हाथ ही नहीं होता । समस्त इन्द्रियाँ और उनके देवता ही यह भोग भोगते हैं । और इन सबका भोग निचोङ काल रूपी मन भोगता है । ये जीव सिर्फ़ यह मानने भर से कि इस इन्द्रिय समूह से निर्मित ये शरीर मैं हूँ । और मैं ही मन रूप भी हूँ । ये भयानक व्याधियाँ उसे लग जाती हैं । मजा कोई और लेता है । सजा भोगता कोई और है । ये 33 करोङ देवता तुम्हारे ही आश्रित हैं । ये काल
रूप मन भी तुम्हारा गुलाम ही है । ये माया ( अष्टांगी ) तुम्हारी दासी है । पर तुम वासनाओं के जुये में हार कर 5 महाबली पांडवों ( शरीर ) की तरह दीन हीन हो गये हो । और बस तुम्हारी गलती इतनी ही थी कि दुष्ट ( हजारों ) कौरवों ( नीच वृतियों ) से प्रेरित होकर तुम जुये ( विषय वासनाओं ) में प्रवृत हो गये । और सब कुछ हार गये ।
यहाँ और भी समझें । वासनाओं से ( जिन्दगी के ) इस जुये में हार ही हार होनी है । जीतना कभी नहीं होगा । क्योंकि ये जुआ छल का जुआ है । दुष्ट देवता न जबरन तुमसे जुआ खिला रहे हैं । बल्कि मति भृष्ट कर पासे भी गलत फ़िंकवा रहे हैं । क्योंकि तुमने अपने बुद्धि विवेक को ताले में बन्द कर दिया है । अन्यथा पहले तो जुआ ही नहीं खेलते ।
जब इस जीव ( मनुष्य ) का निर्माण होकर इसकी शुरूआत हुयी थी । तब यह पूर्णतः शुद्ध विवेकी था । आखों से अच्छा ही देखता था । देवता ( चक्षु ) ने इसे पाप संकृमित कर दिया । क्योंकि फ़िर वे वासनात्मक तृप्त नहीं होते । तब ये अच्छा बुरा दोनों देखने लगा । यही कान के साथ हुआ । और अच्छा बुरा दोनों सुनने लगा । फ़िर नाक । मुँह । जीभ । त्वचा । वाणी । मन । हाथ । पैर सभी इन्द्रियों को देवताओं ने दूषित कर दिया । और वे अच्छे बुरे दोनों ही कार्य करने लगे । अन्त में प्राण ( स्वांस ) बचा । इसमें देवताओं की प्रविष्टि नहीं थी । वे इसस थर थर कांपते थे । अतः देवता इसको संकृमित नहीं कर पाये । तब यही वो 1 मात्र उपाय था । जिससे जीव सत्य को जान सकता था । असली शान्ति और सुख को प्राप्त हो
सकता था । चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोय । दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय । संसार रूपी चक्की के पाप पुण्य रूपी दो पाट हैं अतः पापी हो । या पुण्यात्मा दोनों ही इसमें पिस रहे हैं ।
कबीर ने जब ये बात कही । तो काल पुरुष द्वारा नियुक्त काल दूत रूपी उनका विरोधी पुत्र कमाल बोला कि - चक्की के मानी ( बीच में लकङी कीली वाला स्थान ) से आ जाने वाले ( पुण्य से कुछ देर सुरक्षित स्थान पा जाने वाले । जैसे स्वर्ग । या 4 प्रकार की काल मुक्ति आदि आदि ) तो बच जाते हैं ।
तब कबीर ने कहा - कुछ ( समय ) देर के लिये । लेकिन जैसे ही फ़िर वो पाट के नीचे ( पुण्य समाप्त होने पर 84 में फ़ेंक दिये जाने पर ) आते हैं । इसी काल चक्की में पिसते हैं । इस काल चक्की से सिर्फ़ वही बचता है । जो
गुरु ज्ञान से चालाकी से काम लेता हुआ इस पाप पुण्य रूपी चक्की से छिटक कर अलग हो जाता है ।
साहेब ।
चलते चलते 1 मजेदार और अनुभूत बात याद आ गयी । आप कबीर पंथ के साधुओं में बैठें । तो वे अक्सर इस तरह कहते हैं - एक निरंजना ( काल पुरुष या त्रिदेव का पिता ) हतो ( था ) एक अधिया ( अष्टांगी या आध्या शक्ति या महादेवी ) हती ( थी ) दोनों ने विषय भोग करो ( किया ) और सृष्टि हुय ( हो ) गयी ।
मैं जब शुरू शुरू में सतसंग करता था । तो काल पुरुष और माया बङा बिघ्न डालते थे । जैसे ही जीव में चेतना जागृत होती । वह आत्मिक झंकृत होने लगता । कोई न कोई विघ्न आ जाता । क्योंकि काल मन रूप ही है । वह तर्क कुतर्क भी करने लगता । तब मुझे यकायक कबीर पंथियों का यही फ़ार्मूला याद आया । और जैसे ही किसी भी माध्यम से विघ्न होता । मैं कहता - अच्छा छोङो । ये सुनो । एक निरंजना ( काल पुरुष या त्रिदेव का पिता ) हतो ( था ) एक अधिया ( अष्टांगी या आध्या शक्ति या महादेवी ) हती ( थी ) दोनों ने विषय भोग करो..।
अब क्योंकि वहाँ अप्रत्यक्ष काल पुरु्ष ही होता था । सो वह घबरा जाता । और तुरन्त शान्त हो जाता । या दूसरे जीव के
रूप में आया विघ्न तुरन्त रफ़ूचक्कर हो जाता । मैंने पहले भी ये लिखा है - ये काल पुरुष मुझसे बहुत घबराता है । और इसकी पत्नी ( सृष्टि की पहली औरत ) अष्टांगी तो मुझसे 100 हाथ दूर भागती है । क्योंकि वो अच्छी तरह जानती हैं - राजीव बाबा अलग ही स्टायल का बाबा है । इसका कोई भरोसा नहीं । कब क्या हरकत कर दे ।
लगी । इसी को परवशता कहते हैं । आप खूब जानते हैं । लङना अच्छी बात नहीं । ईर्ष्या राग द्वेष अच्छा नहीं । पर आप करने पर मजबूर हो जाते हैं । इसी को होनी कहा जाता है । जिसके आगे सभी वेवश होते हैं । अब भाग्यवश मेरी तरह आपको संस्कारों के आंतरिक यम आकार दिखाई देने लगे । तो आप समझ जायें कि - झगङा ये कर ही नहीं रहा । दुखी ये हो ही नहीं रहा । 33 करोङ वृतियाँ आवृत हुयी अपना पोषण प्राप्त कर रही हैं । जिनसे कभी सुदूर भूतकाल में ये जीव वासना के वशीभूत घोर अज्ञान वश आसक्त हुआ था । और अब समय आने पर उसका परिणाम फ़ल बन रहा है ।
इसी में सम होना कहा गया है । बिना विचारे जो करे । सो पाछे पछताय । काम बिगारे आपनो । जग में
होत हँसाय । आप इंसानी स्तर पर इसका उपाय इतना ही कर सकते हैं कि बुरी परिभाषा में आने वाले कार्यों को करने से पहले 100 बार सोचें । उसको यथासंभव टालने की कोशिश ही करें ।
इसको और समझें । यदि आप कोई गलत चीज ( यहाँ पूर्व या पूर्व जन्म के संस्कार ) खा गये हैं । और वह नुकसान ( परिणाम ) करने लगी है । तो सचेत हो जायें । किसी डाक्टर ( गुरु ) से कोई औषधि ( ज्ञान ) लें । जिससे ये विषमता दूर हो । इसका और कोई इलाज नहीं है ।
फ़िर से ऊपर वाली बात पर आते हैं । आंतरिक दृष्टि रखने वाले ज्ञानियों को यहीं अफ़सोस होता है । किसी भी अच्छे बुरे भोग में इस बेचारे जीव ( आत्मा ) का कोई हाथ ही नहीं होता । समस्त इन्द्रियाँ और उनके देवता ही यह भोग भोगते हैं । और इन सबका भोग निचोङ काल रूपी मन भोगता है । ये जीव सिर्फ़ यह मानने भर से कि इस इन्द्रिय समूह से निर्मित ये शरीर मैं हूँ । और मैं ही मन रूप भी हूँ । ये भयानक व्याधियाँ उसे लग जाती हैं । मजा कोई और लेता है । सजा भोगता कोई और है । ये 33 करोङ देवता तुम्हारे ही आश्रित हैं । ये काल
रूप मन भी तुम्हारा गुलाम ही है । ये माया ( अष्टांगी ) तुम्हारी दासी है । पर तुम वासनाओं के जुये में हार कर 5 महाबली पांडवों ( शरीर ) की तरह दीन हीन हो गये हो । और बस तुम्हारी गलती इतनी ही थी कि दुष्ट ( हजारों ) कौरवों ( नीच वृतियों ) से प्रेरित होकर तुम जुये ( विषय वासनाओं ) में प्रवृत हो गये । और सब कुछ हार गये ।
यहाँ और भी समझें । वासनाओं से ( जिन्दगी के ) इस जुये में हार ही हार होनी है । जीतना कभी नहीं होगा । क्योंकि ये जुआ छल का जुआ है । दुष्ट देवता न जबरन तुमसे जुआ खिला रहे हैं । बल्कि मति भृष्ट कर पासे भी गलत फ़िंकवा रहे हैं । क्योंकि तुमने अपने बुद्धि विवेक को ताले में बन्द कर दिया है । अन्यथा पहले तो जुआ ही नहीं खेलते ।
जब इस जीव ( मनुष्य ) का निर्माण होकर इसकी शुरूआत हुयी थी । तब यह पूर्णतः शुद्ध विवेकी था । आखों से अच्छा ही देखता था । देवता ( चक्षु ) ने इसे पाप संकृमित कर दिया । क्योंकि फ़िर वे वासनात्मक तृप्त नहीं होते । तब ये अच्छा बुरा दोनों देखने लगा । यही कान के साथ हुआ । और अच्छा बुरा दोनों सुनने लगा । फ़िर नाक । मुँह । जीभ । त्वचा । वाणी । मन । हाथ । पैर सभी इन्द्रियों को देवताओं ने दूषित कर दिया । और वे अच्छे बुरे दोनों ही कार्य करने लगे । अन्त में प्राण ( स्वांस ) बचा । इसमें देवताओं की प्रविष्टि नहीं थी । वे इसस थर थर कांपते थे । अतः देवता इसको संकृमित नहीं कर पाये । तब यही वो 1 मात्र उपाय था । जिससे जीव सत्य को जान सकता था । असली शान्ति और सुख को प्राप्त हो
सकता था । चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोय । दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय । संसार रूपी चक्की के पाप पुण्य रूपी दो पाट हैं अतः पापी हो । या पुण्यात्मा दोनों ही इसमें पिस रहे हैं ।
कबीर ने जब ये बात कही । तो काल पुरुष द्वारा नियुक्त काल दूत रूपी उनका विरोधी पुत्र कमाल बोला कि - चक्की के मानी ( बीच में लकङी कीली वाला स्थान ) से आ जाने वाले ( पुण्य से कुछ देर सुरक्षित स्थान पा जाने वाले । जैसे स्वर्ग । या 4 प्रकार की काल मुक्ति आदि आदि ) तो बच जाते हैं ।
तब कबीर ने कहा - कुछ ( समय ) देर के लिये । लेकिन जैसे ही फ़िर वो पाट के नीचे ( पुण्य समाप्त होने पर 84 में फ़ेंक दिये जाने पर ) आते हैं । इसी काल चक्की में पिसते हैं । इस काल चक्की से सिर्फ़ वही बचता है । जो
गुरु ज्ञान से चालाकी से काम लेता हुआ इस पाप पुण्य रूपी चक्की से छिटक कर अलग हो जाता है ।
साहेब ।
चलते चलते 1 मजेदार और अनुभूत बात याद आ गयी । आप कबीर पंथ के साधुओं में बैठें । तो वे अक्सर इस तरह कहते हैं - एक निरंजना ( काल पुरुष या त्रिदेव का पिता ) हतो ( था ) एक अधिया ( अष्टांगी या आध्या शक्ति या महादेवी ) हती ( थी ) दोनों ने विषय भोग करो ( किया ) और सृष्टि हुय ( हो ) गयी ।
मैं जब शुरू शुरू में सतसंग करता था । तो काल पुरुष और माया बङा बिघ्न डालते थे । जैसे ही जीव में चेतना जागृत होती । वह आत्मिक झंकृत होने लगता । कोई न कोई विघ्न आ जाता । क्योंकि काल मन रूप ही है । वह तर्क कुतर्क भी करने लगता । तब मुझे यकायक कबीर पंथियों का यही फ़ार्मूला याद आया । और जैसे ही किसी भी माध्यम से विघ्न होता । मैं कहता - अच्छा छोङो । ये सुनो । एक निरंजना ( काल पुरुष या त्रिदेव का पिता ) हतो ( था ) एक अधिया ( अष्टांगी या आध्या शक्ति या महादेवी ) हती ( थी ) दोनों ने विषय भोग करो..।
अब क्योंकि वहाँ अप्रत्यक्ष काल पुरु्ष ही होता था । सो वह घबरा जाता । और तुरन्त शान्त हो जाता । या दूसरे जीव के
रूप में आया विघ्न तुरन्त रफ़ूचक्कर हो जाता । मैंने पहले भी ये लिखा है - ये काल पुरुष मुझसे बहुत घबराता है । और इसकी पत्नी ( सृष्टि की पहली औरत ) अष्टांगी तो मुझसे 100 हाथ दूर भागती है । क्योंकि वो अच्छी तरह जानती हैं - राजीव बाबा अलग ही स्टायल का बाबा है । इसका कोई भरोसा नहीं । कब क्या हरकत कर दे ।
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