श्री सदगुरु महाराज की जय ! एक लेख जो मन में इधर उधर की घटा जोड़ को बुन कर सामने आया । प्रस्तुत कर दिया है । बाकी आप इसमें बहुत सी जगह कुछ जोड़ सकते हैं । हमारे एक मित्र हैं दिल्ली में । जिनका नाम है बंटी । अब मित्र हैं । तो जाहिर है । सप्ताह में एक बार 3-4 घंटे आराम से साथ गुजारते ही होंगे । अभी पिछले सप्ताह मिले । तो काफी परेशान से लग रहे थे । कारण पूछा । तो बोलने लगे । झाड़ने फिलासफी - जिंदगी इतनी मुश्किल होगी । सोचा न था । जब जिंदगी ही ऐसी है । तो मौत के बाद की हालत क्या होगी ?
मुझे नहीं लगता कि - कोई भगवान होता है ? एक आदमी अपने जीवन में कितनी ही कठिनाइयाँ झेलता है । उसके बाद भी नतीजा वही - ढाक के तीन पात । मेरे बहुत समझाने पर सीधा सीधा बताया कि - यार ! काम धाम ठीक नहीं चल रहा । इसलिए परेशान हूँ । तब मैंने कहा - सिर्फ एक ये ही लाइन है । जो मुझे समझ आयी । बाकी सब तो ऊपर से निकल
रहा था । दरअसल ये हमारा स्वभाव ही है कि जहाँ मन को थोड़ी ख़ुशी मिलती है । उस चीज से चिपक कर ही बैठना चाहता हैं । मन बहुत चालाक होता है । हमेशा उसके पीछे भागता है । जो हमारे पास नहीं होती । और जब हम उसे प्राप्त कर लेते हैं ।तब यही मन किसी और अभिलाषा को मजबूत कर । हम पर सवार होकर । उसकी प्राप्ति के लिए हमें चाबुक मारता रहता है । और जब कोई चीज छूट जाती है । तब हमारा हाल भी बेचारे बंटी जी जैसा ही हो जाता है । बंटी जी की समस्या सुनकर हमारा मन भी कुप्पा हो गया । और सोचा । चलो आज ये पोंगा पंडित इन पर सुने सुनाये प्रवचन की वर्षा कर देते हैं । तब मैंने उन्हें एक कहानी ..हाँ कहानी भी कह सकते हैं सुनाई ।
बंटी भाई ! कभी तुमने कुम्हार को देखा है ? तब बेचारे ने कुम्हार के गधे जैसे ही मुँह लटकाकर कहा -
नहीं..। कुम्हार बर्तन बनाने की प्रक्रिया में सबसे पहले एक ख़ास प्रकार की मिटटी का चयन करता है । "काली चिकनी मिटटी " फिर मिटटी ढोकर अड्डे पर ले जाता है । उसे छोटे छोटे डलों में करके पानी डाल कर अपने पैरों से रौंदता है । जब वही मिटटी एकसार हो जाती है । तब वह आगे की प्रक्रिया के लिए तैयार हो जाती है । बंटी यार ! अब बता । अगली प्रक्रिया क्या है ? तब वो कहता है - तू कहानी चालु रख । एग्जाम टाइम बाद में । खैर ! अगली प्रक्रिया है । चक्करघिन्नी । अर्थात चाक । अब कुम्हार मिटटी को चाक पर चढ़ा कर एक आकार देता है । वह आकार कुम्हार की मर्जी और मिटटी की गुणवत्ता पर ही निर्भर करता है । उसने एक घड़ा बनाया । और साइड में धूप में रख दिया । और इस प्रकार मिटटी को कई और आकार दिए । और धुप में रख दिया । अब कुम्हार अपने बनाये बर्तनों को देखता है । और खुश होता है । अरे यह क्या..यह मटका आकार में थोडा गड़बड़ा गया । अरे ये क्या । कुम्हार तो मटके की पिटाई ही करने लगा । नहीं यार ! पिटाई नहीं । ये उसे आकार दे
रहा है । हाँ ! अब ठीक है । अब सारे बर्तन धूप में सूखने के लिए रख दिए । एक दिन । दो दिन । तीन दिन । अरे यार ! सुख तो गए । अब क्या ? अब आता है - final process ! वो क्या है ? वो है । इनको भट्टी में तपाना । भट्टी से निकल कर इनमें मजबूती और निखार आयेगा । अब कुम्हार इन्हें भट्टी में रख कर भट्टी तपाता है । और यह क्रिया सप्ताह से लेकर एक पखवाड़े तक का समय मौसम अनुसार लेती है ।
लो बंटी भैया ! अब बताओ । बर्तन तो बाहर आ गए । क्या ये तैयार हैं ? अब बंटी का गुस्सा - यार मैं अपनी
परेशानी में मरा जा रहा हूँ । और तू कहानियाँ सुना सुना कर एग्जाम ले रहा है । तो सुन भाई ! अब बर्तन भी तेरी ही तरह एक और final एग्जाम से गुजरेंगे । कुम्हार एक एक बर्तन को उठाता है । जगह जगह से ठोकता है । कान लगा कर आवाजें सुनता है । किसी बर्तन का निरीक्षण करते हुए खुश होता है । और उन्हें अलग रख देता है । और किसी किसी में मायूस सा होकर उन्हें अलग रख देता है । पहले वाले बर्तन जिन पर कुम्हार खुश होता था । अब पूरी तरह से तैयार
है । दूसरे किस्म के बर्तन में कुछ दुबारा भट्टी में जायेंगे । और बचे हुए बर्तन बेकार हो गए । और जो बेकार हो गए । वो पूरी तरह से बेकार हो गए । क्योंकि अब न वो वापिस मिटटी हो सकते हैं । और न बर्तन । तीसरा कोई रास्ता नहीं ।
देख भाई बंटी ! जिस तरह से इस मिटटी को तरह तरह की प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है । ठीक उसी तरह हमें भी इन्ही से गुजरना पड़ता है । हम दुःख से व्याकुल तो हो जाते है । परन्तु ये नहीं जानते कि इस दुख की प्रक्रिया से गुजर कर जो नई स्थिति बनती है । वह कितनी सुख कर है । परन्तु उसे भी आगे किसी और प्रक्रिया से होकर गुजरना है । ताकि उसमें और निखार आ सके । और यह प्रक्रिया अंत तक चलती ही रहती है ।
संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है । जो अपना वर्तमान रूप खोये बिना नया रूप धारण कर सके । आप अपने
आस पास की चीजों को ही लीजिये । जैसे - पलंग । मूल रूप लकड़ी का सपाट बोर्ड । प्रक्रिया काटना ठोकना । कीलें भेदना । चिपकाना । रंदा लगना । तब कही जाकर पलंग रूप लेना । मटके का तो उदाहरण प्रस्तुत ही है । इसी प्रकार आध्यात्मिक उन्नति के इच्छुक को भी अपना वर्तमान अहम भाव तोड़ कर नाम के मर्दन की विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है । तब जो रूप सामने आता है । तो वह गुरु में समां कर गुरु रूप ही होता है ।
अरे यार बंटी ! ये क्या । तेरी आँखों में आंसू । आंसू नहीं हैं । तेरी कहानी से मुझे एक हौंसला मिला है कि दुःख के एन आगे ही सुख प्रतीक्षा कर रहा है । देख बंटी ! अब न कहना कि - भगवान नहीं होता है । अब याद करके
उस आकार में टेढ़े मटके की पिटाई के समय की आवाज़ पर ध्यान दे । तेरी ही तरह रो रहा था - धब धब..हाय ! कितना दुःख है यहाँ । भगवान है कि नहीं.. धब धब । अरे मुर्ख ! जिस समय तू भगवान को दुहाई दे रहा था । उस समय तू खुद उस भगवान के हाथ में था । अगर उसका एक हाथ तुझे आकार दे रहा था । तेरी कमियों को दूर कर रहा था । तो दुसरा हाथ तेरी मदद के लिए अन्दर से तुझे थामे हुए भी था । अगर उसका तुझे अन्दर से सहारा न हो । तो मैं नहीं समझता कि तुझमे उसकी एक चोट मात्र भी बर्दाश्त करने की ताकत है ।
गुरु भी कुम्हार रूप में अगढ़ मिटटी को
नाम के साथ मथ मथ कर अपने अनुसार एक नया रूप देता है ।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है । गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट । अंतर हाथ सहार दै । बाहर बाहै चोट ।
कुमति कीच चेला भरा । गुरु ज्ञान जल होय । जनम जनम का मोरचा । पल में डारे धोय ।
तीन लोक नौ खंड में । गुरु से बड़ा न कोई । करता करे न कर सके । गुरु करे सो होई ।
घड़ा बन जाने के बाद कुम्हार रूपी गुरु अपने प्रिय शिष्यों की परख भी करता है । उनका इम्तहान लेता है । यदि घड़ा कुम्हार के अनुसार टन टन करता ( अर्थात ज्ञान होने पर अभिमान भी
देखता है ) है । तो ठीक । वर्ना फिर चल बेटा भट्टी में ..। और जो बर्तन बेकार हो गए । जिन्हे गुरु ने नकार दिया । उनका तो न इस लोक में । न अन्य किसी लोक में कोई ठौर है । उन्होंने तो अपने ही हाथो अधोगति का वरन किया है ।
प्रस्तुति - अशोक कुमार दिल्ली से । आभार अशोक जी ।
मुझे नहीं लगता कि - कोई भगवान होता है ? एक आदमी अपने जीवन में कितनी ही कठिनाइयाँ झेलता है । उसके बाद भी नतीजा वही - ढाक के तीन पात । मेरे बहुत समझाने पर सीधा सीधा बताया कि - यार ! काम धाम ठीक नहीं चल रहा । इसलिए परेशान हूँ । तब मैंने कहा - सिर्फ एक ये ही लाइन है । जो मुझे समझ आयी । बाकी सब तो ऊपर से निकल
रहा था । दरअसल ये हमारा स्वभाव ही है कि जहाँ मन को थोड़ी ख़ुशी मिलती है । उस चीज से चिपक कर ही बैठना चाहता हैं । मन बहुत चालाक होता है । हमेशा उसके पीछे भागता है । जो हमारे पास नहीं होती । और जब हम उसे प्राप्त कर लेते हैं ।तब यही मन किसी और अभिलाषा को मजबूत कर । हम पर सवार होकर । उसकी प्राप्ति के लिए हमें चाबुक मारता रहता है । और जब कोई चीज छूट जाती है । तब हमारा हाल भी बेचारे बंटी जी जैसा ही हो जाता है । बंटी जी की समस्या सुनकर हमारा मन भी कुप्पा हो गया । और सोचा । चलो आज ये पोंगा पंडित इन पर सुने सुनाये प्रवचन की वर्षा कर देते हैं । तब मैंने उन्हें एक कहानी ..हाँ कहानी भी कह सकते हैं सुनाई ।
बंटी भाई ! कभी तुमने कुम्हार को देखा है ? तब बेचारे ने कुम्हार के गधे जैसे ही मुँह लटकाकर कहा -
नहीं..। कुम्हार बर्तन बनाने की प्रक्रिया में सबसे पहले एक ख़ास प्रकार की मिटटी का चयन करता है । "काली चिकनी मिटटी " फिर मिटटी ढोकर अड्डे पर ले जाता है । उसे छोटे छोटे डलों में करके पानी डाल कर अपने पैरों से रौंदता है । जब वही मिटटी एकसार हो जाती है । तब वह आगे की प्रक्रिया के लिए तैयार हो जाती है । बंटी यार ! अब बता । अगली प्रक्रिया क्या है ? तब वो कहता है - तू कहानी चालु रख । एग्जाम टाइम बाद में । खैर ! अगली प्रक्रिया है । चक्करघिन्नी । अर्थात चाक । अब कुम्हार मिटटी को चाक पर चढ़ा कर एक आकार देता है । वह आकार कुम्हार की मर्जी और मिटटी की गुणवत्ता पर ही निर्भर करता है । उसने एक घड़ा बनाया । और साइड में धूप में रख दिया । और इस प्रकार मिटटी को कई और आकार दिए । और धुप में रख दिया । अब कुम्हार अपने बनाये बर्तनों को देखता है । और खुश होता है । अरे यह क्या..यह मटका आकार में थोडा गड़बड़ा गया । अरे ये क्या । कुम्हार तो मटके की पिटाई ही करने लगा । नहीं यार ! पिटाई नहीं । ये उसे आकार दे
रहा है । हाँ ! अब ठीक है । अब सारे बर्तन धूप में सूखने के लिए रख दिए । एक दिन । दो दिन । तीन दिन । अरे यार ! सुख तो गए । अब क्या ? अब आता है - final process ! वो क्या है ? वो है । इनको भट्टी में तपाना । भट्टी से निकल कर इनमें मजबूती और निखार आयेगा । अब कुम्हार इन्हें भट्टी में रख कर भट्टी तपाता है । और यह क्रिया सप्ताह से लेकर एक पखवाड़े तक का समय मौसम अनुसार लेती है ।
लो बंटी भैया ! अब बताओ । बर्तन तो बाहर आ गए । क्या ये तैयार हैं ? अब बंटी का गुस्सा - यार मैं अपनी
परेशानी में मरा जा रहा हूँ । और तू कहानियाँ सुना सुना कर एग्जाम ले रहा है । तो सुन भाई ! अब बर्तन भी तेरी ही तरह एक और final एग्जाम से गुजरेंगे । कुम्हार एक एक बर्तन को उठाता है । जगह जगह से ठोकता है । कान लगा कर आवाजें सुनता है । किसी बर्तन का निरीक्षण करते हुए खुश होता है । और उन्हें अलग रख देता है । और किसी किसी में मायूस सा होकर उन्हें अलग रख देता है । पहले वाले बर्तन जिन पर कुम्हार खुश होता था । अब पूरी तरह से तैयार
है । दूसरे किस्म के बर्तन में कुछ दुबारा भट्टी में जायेंगे । और बचे हुए बर्तन बेकार हो गए । और जो बेकार हो गए । वो पूरी तरह से बेकार हो गए । क्योंकि अब न वो वापिस मिटटी हो सकते हैं । और न बर्तन । तीसरा कोई रास्ता नहीं ।
देख भाई बंटी ! जिस तरह से इस मिटटी को तरह तरह की प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है । ठीक उसी तरह हमें भी इन्ही से गुजरना पड़ता है । हम दुःख से व्याकुल तो हो जाते है । परन्तु ये नहीं जानते कि इस दुख की प्रक्रिया से गुजर कर जो नई स्थिति बनती है । वह कितनी सुख कर है । परन्तु उसे भी आगे किसी और प्रक्रिया से होकर गुजरना है । ताकि उसमें और निखार आ सके । और यह प्रक्रिया अंत तक चलती ही रहती है ।
संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है । जो अपना वर्तमान रूप खोये बिना नया रूप धारण कर सके । आप अपने
आस पास की चीजों को ही लीजिये । जैसे - पलंग । मूल रूप लकड़ी का सपाट बोर्ड । प्रक्रिया काटना ठोकना । कीलें भेदना । चिपकाना । रंदा लगना । तब कही जाकर पलंग रूप लेना । मटके का तो उदाहरण प्रस्तुत ही है । इसी प्रकार आध्यात्मिक उन्नति के इच्छुक को भी अपना वर्तमान अहम भाव तोड़ कर नाम के मर्दन की विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है । तब जो रूप सामने आता है । तो वह गुरु में समां कर गुरु रूप ही होता है ।
अरे यार बंटी ! ये क्या । तेरी आँखों में आंसू । आंसू नहीं हैं । तेरी कहानी से मुझे एक हौंसला मिला है कि दुःख के एन आगे ही सुख प्रतीक्षा कर रहा है । देख बंटी ! अब न कहना कि - भगवान नहीं होता है । अब याद करके
उस आकार में टेढ़े मटके की पिटाई के समय की आवाज़ पर ध्यान दे । तेरी ही तरह रो रहा था - धब धब..हाय ! कितना दुःख है यहाँ । भगवान है कि नहीं.. धब धब । अरे मुर्ख ! जिस समय तू भगवान को दुहाई दे रहा था । उस समय तू खुद उस भगवान के हाथ में था । अगर उसका एक हाथ तुझे आकार दे रहा था । तेरी कमियों को दूर कर रहा था । तो दुसरा हाथ तेरी मदद के लिए अन्दर से तुझे थामे हुए भी था । अगर उसका तुझे अन्दर से सहारा न हो । तो मैं नहीं समझता कि तुझमे उसकी एक चोट मात्र भी बर्दाश्त करने की ताकत है ।
गुरु भी कुम्हार रूप में अगढ़ मिटटी को
नाम के साथ मथ मथ कर अपने अनुसार एक नया रूप देता है ।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है । गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट । अंतर हाथ सहार दै । बाहर बाहै चोट ।
कुमति कीच चेला भरा । गुरु ज्ञान जल होय । जनम जनम का मोरचा । पल में डारे धोय ।
तीन लोक नौ खंड में । गुरु से बड़ा न कोई । करता करे न कर सके । गुरु करे सो होई ।
घड़ा बन जाने के बाद कुम्हार रूपी गुरु अपने प्रिय शिष्यों की परख भी करता है । उनका इम्तहान लेता है । यदि घड़ा कुम्हार के अनुसार टन टन करता ( अर्थात ज्ञान होने पर अभिमान भी
देखता है ) है । तो ठीक । वर्ना फिर चल बेटा भट्टी में ..। और जो बर्तन बेकार हो गए । जिन्हे गुरु ने नकार दिया । उनका तो न इस लोक में । न अन्य किसी लोक में कोई ठौर है । उन्होंने तो अपने ही हाथो अधोगति का वरन किया है ।
प्रस्तुति - अशोक कुमार दिल्ली से । आभार अशोक जी ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें