16 जून 2012

Darling it's a computer not a husband


राम राम कहि जे जमुहाहीं । तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं ?
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा । कुल समेत जगु पावन कीन्हा ।
जो लोग राम राम कहकर जँभाई लेते हैं ( अर्थात आलस से भी जिनके मुँह से राम नाम का उच्चारण हो जाता है ) पापों के समूह ( कोई भी पाप ) उनके सामने नहीं आते । फिर इस गुह को तो स्वयं राम ने हृदय से लगा लिया । और कुल समेत इसे जगत पावन ( जगत को पवित्र करने वाला ) बना दिया ।


करम नास जलु सुरसरि परई । तेहि को कहहु सीस नहिं धरेई ।
उलटा नामु जपत जगु जाना । बालमीकि भए बृह्म समाना ???
कर्मनाशा नदी का जल गंगा में मिल जाता है । तब उसे कौन सिर पर धारण नहीं करता ? जगत जानता है कि उलटा नाम ( स्वांस में गूँजता अजपा महामंत्र ) जपकर वाल्मीकि बृह्म के समान हो गये ।
कपटी कायर कुमति कुजाती । लोक बेद बाहेर सब भाँती ।
राम कीन्ह आपन जबही तें । भयउ भुवन भूषन तबही तें । 
मैं कपटी । कायर । कुबुद्धि और कुजाति हूँ । और लोक वेद दोनों से सब प्रकार से बाहर हूँ । पर जबसे राम ने मुझे अपनाया है । तभी से मैं विश्व का भूषण हो गया । 
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई । जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ??
तुम्हरिहि कृपा तुम्हहि रघुनंदन । जानहिं भगत भगत उर चंदन ।
वही आपको जानता है । जिसे आप जना देते हैं । और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है । हे रघुनंदन ! हे भक्तों के हृदय को शीतल करने वाले चंदन । आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं ।
काम कोह मद मान न मोहा । लोभ न छोभ न राग न द्रोहा ?
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया । तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया ।
जिनके न तो - काम । क्रोध । मद । अभिमान । और मोह हैं । न लोभ है । न क्षोभ है । न राग है । न द्वेष है । और न कपट । दम्भ और माया ही है । हे रघुराज ! आप उनके हृदय में निवास कीजिए ।
सब के प्रिय सब के हितकारी । दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी ।
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी । जागत सोवत सरन तुम्हारी ।
जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं । जिन्हें दुख और सुख तथा प्रशंसा ( बड़ाई ) और गाली ( निंदा ) समान है । जो विचार कर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं । तथा जो जागते सोते आपकी ही शरण हैं ।
जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई । प्रिय परिवार सदन सुखदाई ।
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई । तेहि के हृदय रहहु रघुराई ।
जाति । पाँति । धन । धर्म । बड़ाई । प्यारा परिवार । और सुख देने वाला घर । सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किए रहता है । हे रघुनाथ ! आप उसके हृदय में रहिए ।
सरगु नरकु अपबरगु समाना । जहँ तहँ देख धरें धनु बाना ।
करम बचन मन राउर चेरा । राम करहु तेहि कें उर डेरा ।
स्वर्ग । नरक । और मोक्ष । जिसकी दृष्टि में समान हैं । क्योंकि वह जहाँ तहाँ ( सब जगह ) केवल धनुष बाण धारण किए आपको ही देखता है । और जो कर्म से । वचन से । और मन से आपका दास है । हे राम ! आप उसके हृदय में डेरा कीजिए ।
रामहि केवल प्रेमु पिआरा । जानि लेउ जो जान निहारा ।
सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि । जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि । 
राम को केवल प्रेम प्यारा है । जो जानने वाला हो ( जानना चाहता हो ) वह जान ले ।लक्ष्मण सीता और राम की ( अथवा लक्ष्मण और सीता राम की ) ऐसी सेवा करते हैं । जैसे अज्ञानी मनुष्य शरीर की करते हैं । 
बोले लखन मधुर मृदु बानी । ग्यान बिराग भगति रस सानी ।
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता । निज कृत करम भोग सबु भ्राता ।
तब लक्ष्मण ज्ञान । वैराग्य । और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले - हे भाई ! कोई किसी को सुख दुख का देने वाला नहीं है । सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं ।
जोग बियोग भोग भल मंदा । हित अनहित मध्यम भृम फंदा ।
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू । संपति बिपति करमु अरु कालू ।
संयोग ( मिलना )  वियोग ( बिछुड़ना )  भले बुरे भोग । शत्रु । मित्र । और उदासीन । ये सभी भृम के फंदे हैं । जन्म । मृत्यु । सम्पत्ति । विपत्ति । कर्म । और काल । जहाँ तक जगत के जंजाल हैं ।
धरनि धामु धनु पुर परिवारू । सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू ।
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं । मोह मूल परमारथु नाहीं ।
धरती । घर । धन । नगर । परिवार । स्वर्ग । और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं । जो देखने । सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं । इन सबका मूल मोह ( अज्ञान ) ही है । परमार्थतः ये नहीं हैं ।
सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ । जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जिय जोइ ? 
जैसे स्वपन में राजा भिखारी हो जाए या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इन्द्र हो जाए । तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है । वैसे ही इस दृश्य प्रपंच को हृदय से ऐसा ही जानना चाहिए ।
अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू । काहुहि बादि न देइअ दोसू ।
मोह निसा सबु सोवनिहारा । देखिअ सपन अनेक प्रकारा ??
ऐसा विचार कर क्रोध नहीं करना चाहिए । और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए । सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोने वाले हैं । और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वपन दिखाई देते हैं ।
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच बियोगी ।
जानिअ तबहिं जीव जग जागा । जब सब बिषय बिलास बिरागा ??
इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं । जो परमार्थी हैं । और प्रपंच ( मायिक जगत ) से छूटे हुए हैं । जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए । जब सम्पूर्ण भोग विलासों से वैराग हो जाये ।
होइ बिबेकु मोह भृम भागा । तब रघुनाथ चरन अनुरागा ।
सखा परम परमारथु एहू । मन क्रम बचन राम पद नेहू ।
विवेक होने पर मोह रूपी भृम भाग जाता है । तब ( अज्ञान का नाश होने पर )  रघुनाथ के चरणों में प्रेम होता है । हे सखा ! मन । वचन । और कर्म से राम के चरणों में प्रेम होना । यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ ( पुरुषार्थ ) है ।
धरमु न दूसर सत्य समाना । आगम निगम पुरान बखाना ?
संभावित कहुँ अपजस लाहू । मरन कोटि सम दारुन दाहू ।
वेद । शास्त्र और पुराणों में कहा गया है कि - सत्य के समान दूसरा धर्म नहीं है । प्रतिष्ठित पुरुष के लिए अपयश की प्राप्ति करोड़ों मृत्यु के समान भीषण संताप देने वाली है । हे तात ! मैं 
मेटि जाइ नहिं राम रजाई । कठिन करम गति कछु न बसाई ?
जासु नाम सुमिरत एक बारा । उतरहिं नर भव सिंधु अपारा ??
राम की आज्ञा मेटी नहीं जा सकती । कर्म की गति कठिन है । उस पर कुछ भी वश नहीं चलता ।1 बार जिनका नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भव सागर के पार उतर जाते हैं ? और जिन्होंने ( वामन  

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