मिटे करम काल चौरासी । होइ तब लोक का वासी ।
अली यहि बात से आवे । और विधि राह न पावे ।
तुलसी जब बूझ में आवे । अधर घर आदि अपनावे ।
फ़टे जब करम कागद के । लखे दुरबीन मन मंज के ।
सुनो सेठ संवाद साध समझ कोइ बूझि है । सूझे समझ विचार ये अपार मन अगम है ।
मन की अगम चीज गति गाऊँ । गुन गोविन्द बरनि येहि नाउं ।
बिनु सतगुरु येहि धीर न आवे । बिना सन्त को पीर बुझावे ।
गुन की गैल गवन नित भागे । सोवत नित सतगुरु संग जागे ।
सतगुरु पदम पार बलिहारी । सुरति लखाइ दीन दिल न्यारी ।
नित नित सैल सुरति चढ चीन्हा । तब मन सुरति भया यकीना ।
लख लख परा पदम पद न्यारा । तब भाखो जिनि सुरति पारा ।
जग वैराट बना विधि सारा । अंस सिध से आन संवारा ।
उठे बैराट बैराट विधाना । मन तन साथ बंधा सोइ जाना ।
पश्चिम दिशा धाम मन के री । सो नहि सुपनेहू मन हेरी ।
जगत देख दूषन में आया । मन बनिया सुन सेठ कहाया ।
कर्म बंध बिच कीन्ह दुकाना । भर सुभ असुभ माल सोइ जाना ।
बंधन वेद जाल जग माहीं । भौ भृम जील जंजीर चढाई ।
नित नित परे काल का डाका । जग जग घेरि कर्म के नाका ।
चौकी पाँच पचीस बसाई । तीन गुनन बिच नाम गुसाई ।
जो कछु माल कर्म का लादा । डाका परा सेठ पर जादा ।
भये कैद बस सेठ बेचारे । बिना सन्त कहो कौन उबारे ।
भूले सेठ सार घर अपने । बिनु सतगुरु छूटे नहिं सुपने ।
सन्त कृपा कोउ राह बतावे । बूझे बाट समझ घर आवे ।
बिन बूझे नहिं लगे ठिकाना । जुग जुग भरम खानि भरमाना ।
जब सतगुरु ने शबद सुनाया । पश्चिम से दक्खिन को आया ।
कर दुकान दुनियाँ ने लूटा । माल लुटे पर फ़िर नहिं छूटा ।
चर और अचर खानि ढंग चारा । मन सोइ सेठ बन्द बिच डारा ।
सज्जन साध करे निरवारा । उतरे भौ सागर के पारा ।
सुरति चढे शब्द निरवारा । नहिं तो रहे काल को जारा ।
कर्म काल ने माल डराया । जग जम जाल खरीदन आया ।
जा को रमज रेखता गाई । बूझे साध समझ जिन पाई ।
बेहोशी जग फ़ाँस फ़ँसाना । निज घर अपना आदि न जाना ।
सन्त दयाल शब्द दरसावे । ये मन बिच सुपने नहि पावे ।
निस दिन फ़िरे अचेत अयाना । जुग जुग भरमे चारों खाना ।
अब चित बिच कछु चेत कराई । दुरलभ तन नर देही पाई ।
दृग से देख चेत चित माहीं । ये जग जाल बहा औ माहीं ।
मन घर बार बाट बिच रोका । व्यापे नित नित संशय शोका ।
अब या का इक शबद सुनाऊँ । सन्त साध की साखि बताऊँ ।
दृग देखो रै चित चेतो रे ये जग जात बहयो । ये घट बार घाट घट रोके धोखे धार बहावे ।
नौका नाव घाइ घसि पैठे । बैठे मन थिर लावे । बाट बटाऊ लेतो रै ।
सुर नर मुनि गंधर्व अरु देवा । बृह्मा विष्नु करत मन सेवा ।
बिनु घट भेद न जानत भेया । नारद व्यास न पावे छेया ।
वेद पुकारत नेतो रे ।
ये तन तोर तलैया सूखे । कांच महल कूकर कृत भूसे ।
आसा आस पास पद चूके । बार बार विष धर धर टूके ।
भटक अटक भृम लेखो रे ।
अली यहि बात से आवे । और विधि राह न पावे ।
तुलसी जब बूझ में आवे । अधर घर आदि अपनावे ।
फ़टे जब करम कागद के । लखे दुरबीन मन मंज के ।
सुनो सेठ संवाद साध समझ कोइ बूझि है । सूझे समझ विचार ये अपार मन अगम है ।
मन की अगम चीज गति गाऊँ । गुन गोविन्द बरनि येहि नाउं ।
बिनु सतगुरु येहि धीर न आवे । बिना सन्त को पीर बुझावे ।
गुन की गैल गवन नित भागे । सोवत नित सतगुरु संग जागे ।
सतगुरु पदम पार बलिहारी । सुरति लखाइ दीन दिल न्यारी ।
नित नित सैल सुरति चढ चीन्हा । तब मन सुरति भया यकीना ।
लख लख परा पदम पद न्यारा । तब भाखो जिनि सुरति पारा ।
जग वैराट बना विधि सारा । अंस सिध से आन संवारा ।
उठे बैराट बैराट विधाना । मन तन साथ बंधा सोइ जाना ।
पश्चिम दिशा धाम मन के री । सो नहि सुपनेहू मन हेरी ।
जगत देख दूषन में आया । मन बनिया सुन सेठ कहाया ।
कर्म बंध बिच कीन्ह दुकाना । भर सुभ असुभ माल सोइ जाना ।
बंधन वेद जाल जग माहीं । भौ भृम जील जंजीर चढाई ।
नित नित परे काल का डाका । जग जग घेरि कर्म के नाका ।
चौकी पाँच पचीस बसाई । तीन गुनन बिच नाम गुसाई ।
जो कछु माल कर्म का लादा । डाका परा सेठ पर जादा ।
भये कैद बस सेठ बेचारे । बिना सन्त कहो कौन उबारे ।
भूले सेठ सार घर अपने । बिनु सतगुरु छूटे नहिं सुपने ।
सन्त कृपा कोउ राह बतावे । बूझे बाट समझ घर आवे ।
बिन बूझे नहिं लगे ठिकाना । जुग जुग भरम खानि भरमाना ।
जब सतगुरु ने शबद सुनाया । पश्चिम से दक्खिन को आया ।
कर दुकान दुनियाँ ने लूटा । माल लुटे पर फ़िर नहिं छूटा ।
चर और अचर खानि ढंग चारा । मन सोइ सेठ बन्द बिच डारा ।
सज्जन साध करे निरवारा । उतरे भौ सागर के पारा ।
सुरति चढे शब्द निरवारा । नहिं तो रहे काल को जारा ।
कर्म काल ने माल डराया । जग जम जाल खरीदन आया ।
जा को रमज रेखता गाई । बूझे साध समझ जिन पाई ।
बेहोशी जग फ़ाँस फ़ँसाना । निज घर अपना आदि न जाना ।
सन्त दयाल शब्द दरसावे । ये मन बिच सुपने नहि पावे ।
निस दिन फ़िरे अचेत अयाना । जुग जुग भरमे चारों खाना ।
अब चित बिच कछु चेत कराई । दुरलभ तन नर देही पाई ।
दृग से देख चेत चित माहीं । ये जग जाल बहा औ माहीं ।
मन घर बार बाट बिच रोका । व्यापे नित नित संशय शोका ।
अब या का इक शबद सुनाऊँ । सन्त साध की साखि बताऊँ ।
दृग देखो रै चित चेतो रे ये जग जात बहयो । ये घट बार घाट घट रोके धोखे धार बहावे ।
नौका नाव घाइ घसि पैठे । बैठे मन थिर लावे । बाट बटाऊ लेतो रै ।
सुर नर मुनि गंधर्व अरु देवा । बृह्मा विष्नु करत मन सेवा ।
बिनु घट भेद न जानत भेया । नारद व्यास न पावे छेया ।
वेद पुकारत नेतो रे ।
ये तन तोर तलैया सूखे । कांच महल कूकर कृत भूसे ।
आसा आस पास पद चूके । बार बार विष धर धर टूके ।
भटक अटक भृम लेखो रे ।
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