मैंने कहीं पढा था । बिना गुरू से आज्ञा लेकर जो मंत्र को प्रयोग में लाता है । वह निगुरा कहलाता है । तथा उसको कोई भी मंत्र सिद्ध नहीं होता । क्या पुस्तकों में लिखे गए सभी मंत्र कीलित Locked होते हैं । बिना वांछित दाम दिये ( मतलब बिना गुरू की दीक्षा लिये । बिना गुरू की आज्ञा लिये ) वह मन्त्र प्रयोग में नही लाया जा सकता । यहां तक कि गायत्री जैसे महामंत्र को भी गुरूमुख में ग्रहण किया जाता है । जरा खुल कर इस बारे में बताएं ?
अगर इस बात में सच्चाई है । तो टीवी । पत्र पत्रिकाओं । अखबारों । सतसंग संकीर्तन आदि में बताये गये मंत्रो के जप से कोई लाभ नहीं होता । मंदिर में मैंने अकसर लोगों को किन्हीं मंत्रो का जप करते देखा है । उनसे पूछो । तो कहते हैं कि घर पर मंत्र जपने से ज्यादा महत्व मंदिर में भगवान के समक्ष जप ही कर लेना । क्या इस जप से कोई लाभ भी मिलता है ।
ans - इस सम्बन्ध में सन्तमत में एक बङा रोचक दृष्टांत है । एक बार एक राजा को भी किसी सन्त से मन्त्र लेने की इच्छा हुयी । वह सन्त के पास पहुँचा । निवेदन किया । सन्त बोला - ठीक है । वह मन्त्र है - राम । ( ध्यान रहे । सन्तमत में या धार्मिक ग्रन्थों में अधिकांश " नाम " या मन्त्र के स्थान पर राम शब्द का ही प्रयोग किया है । ऐसा विषय के विस्तार में जाने से बचने हेतु किया गया है । क्योंकि एक ही स्थान पर सभी व्याख्या संभव नहीं है । यदि जिज्ञासु आगे भी इच्छुक होगा । तब उसके प्रसंग अनुसार वह भेद भी पता चल ही जायेगा । क्योंकि राम शब्द समस्त जीवधारियों में वास्तविक अर्थों में रमता अर्थात चेतन ( धारा भी ) या श्वांस को ही ध्वनित करता है ।
इसमें कोई विशेष माथापच्ची की आवश्यकता नहीं है । श्वांस के बिना ये शरीर और मन दोनों ही जङ हैं । शरीर में रमता श्वांस ही राम है । )
राजा बोला - कमाल है । इसमें भला ऐसी कौन सी बात है । जिसके लिये इसे सन्त से लेने की आवश्यकता हो ? ये
तो मेरे विचार से मामूली ज्ञान रखने वाले भी जानते सुनते हैं । और प्राय कभी कभी नाम लेते ( जपते ) भी रहते हैं । फ़िर आपके बताने ( देने ) से क्या अन्तर हुआ ?
सन्त बोले - इसका प्रमाणिक उत्तर कल देंगे ।
राजा बैचेनी से प्रतीक्षा करता रहा । दूसरे दिन साधु राज दरबार पहुँचा । राजा ने ससम्मान उसे आसन दिया । अभी राजा उत्तर की प्रतीक्षा में ही था कि सन्त उठकर खङा हो गया । और आदेश भरे स्वर में बोला - सैनिकों इस राजा को गिरफ़्तार कर कारागार में डाल दो ।
सब भौंचक्का रह गये । राजा भी आश्चर्यचकित । सोचा । शायद साधु मजाक कर रहा है । कोई भी सैनिक आदि अपने स्थान से हिला तक नहीं । पर सन्त मजाक नहीं कर रहा था । उसने दोबारा कङकते स्वर में आदेश दिया - सैनिकों इस राजा को गिरफ़्तार कर कारागार में डाल दो ।
फ़िर भी सब निष्क्रिय बैठे रहे । और राजा की प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगे । पर सन्त कुछ ठान कर ही आये थे । उन्होंने फ़िर तीसरी बार आदेश दिया - गिरफ़्तार कर लो इस राजा को ।
अब राजा के बर्दाश्त के बाहर था । यह कोई सन्त नहीं । धूर्त पाखण्डी ही है । वह क्रोधित होकर बोला - गिरफ़्तार कर लो । इस साधु को ।
क्षण मात्र में आदेश का पालन हुआ । और साधु को हथकङियाँ लगा दी गयी । तब साधु बोला - यही है । तेरी बात का उत्तर । मगर ये उत्तर कैसा था ? राजा को कुछ भी पल्ले नहीं पङा । उसने असमंजस से साधु को देखा ।
साधु बोला - मैंने तीन बार तुम्हें गिरफ़्तार करने का आदेश दिया । पर कोई टस से मस नहीं हुआ । क्योंकि ये राज्य और उसके कर्मचारी तुम्हारे अधीन हैं । तुम्हारा आदेश चलता है यहाँ । और तुम्हारे मुँह से निकलते ही तुरन्त आदेश का पालन हुआ । क्योंकि इसकी कमाई तुम्हारी है । तुम मालिक हो इसके । ये राज्य तुम्हें सिद्ध हुआ है ।
इसी तरह कोई साधु विधिवत निरन्तर मन्त्र जाप करके उसमें निहित - शक्ति । ऊर्जा । उपयोग । फ़ल आदि को सिद्ध यानी अधिकृत करके उसका अधिकारी हो जाता है । तब जब वह कान में वह मन्त्र फ़ूँकता है । वह मन्त्र ( साधक ) उसकी चेतना में समाहित होकर क्रियाशील हो जाता है । और सिर्फ़ क्रियारहित बौद्धिक स्तर से जाने गये साधु द्वारा दिया गया मन्त्र मुर्दा होता है ।
निगुरा उसे कहते हैं । जो किसी सच्चे गुरु का शिष्य नहीं होता ।
गायत्री जैसे महामंत्र को - तमाम प्रसंशको ने । अनुयाईयों ने । अपने अपने इष्ट को । उनके मन्त्र को । अज्ञानता वश उसके साथ महामन्त्र शब्द जोङकर लोगों को भृमित किया है । आप गौर करें । विभिन्न लोगों द्वारा अनेक मन्त्रों को महामन्त्र बताया गया है - ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । इसको द्वादशाक्षर मन्त्र कहते हैं । ये भी महामन्त्र कहा गया है । महामृत्युंजय मन्त्र को भी महामन्त्र कहते हैं । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । इसको भी महामन्त्र बताते हैं । गायत्री मन्त्र को भी महामन्त्र बताते हैं । कुछ अशिक्षित टायप लोगों में - ॐ नमः शिवाय.. इसको भी महामन्त्र कहा है । इस तरह सभी टीकाओं के मूल अर्थ से इतर आप उस पर विद्वानों की टीका देखेंगे । तो महामन्त्रों का ढेर लग जायेगा । सभी महा हैं ।
लेकिन गोस्वामी तुलसीदास ने दो लाइन में ही सब स्पष्ट कर दिया - मन्त्र परम लघु जासु वश विधि हरि हर सुर सर्व । मदमत्त गजराज को अंकुश कर ले खर्व । रामचरित मानस । बालकाण्ड ।
यानी वह मन्त्र बहुत छोटा है । जिसके वश में विधि ( बृह्मा ) हरि ( विष्णु ) हर ( शंकर ) सुर सर्व ( सभी देवता ) रहते हैं । जैसे किसी मतवाले हाथी ( गजराज ) को एक छोटा सा अंकुश ( महावत द्वारा छेदने वाला त्रिशूल सा )
वश में रखता है । उसी तरह सभी महाशक्तियाँ इस परम लघु मन्त्र ( निर्वाणी । ध्वनि स्वरूप । अक्षर ) के वश में हैं । और ऊपर के दृष्टांत अनुसार वह निर्वाणी मन्त्र प्रत्येक शरीर की चेतन धारा में स्वतः अखण्ड गूँज रहा है । सच्चे समर्थ गुरु इसको क्रियाशील करके । जीव की बहिर्मुखी चेतना को ऊर्ध्वगति कर देते हैं । उसे सनातन से जोङ देते हैं ।
घर पर मंत्र जपने से ज्यादा महत्व मंदिर में - सभी घरों में । और घर से जुङे बहुत से घरों में । संस्कारी वासनाओं की तरंगों का जाल सा हमेशा फ़ैला रहता है । क्योंकि घर परिवार का मतलव ही विभिन्न वासनाओं का आकार रूप हो जाना है ।
इसके विपरीत मन्दिर में जाते ही सभी मनुष्यों के भाव स्वतः पवित्र और भक्तियुक्त हो जाते हैं । अतः वहाँ की तरंगे आध्यात्मिक । देवत्व आदि अन्य गुणों से स्थिति अनुसार होती हैं । इसलिये ऐसा फ़र्क महसूस होता है । बाकी संक्षेप में । चाहे घर पर जपो । या मन्दिर में । टीवी । पत्र पत्रिकाओं । अखबारों । सतसंग संकीर्तन आदि कहीं से लिया गया हो । रिजल्ट एक ही है । 0/0 ।
इससे सिर्फ़ कुछ समय के लिये भाव शुद्धता होती है । यह लाभ है । बाकी जिस आशा से प्रायः लोग जपते हैं । वह लाभ नहीं होता । सही लाभ विधिवत तरीके से ही होता है ।
अगर इस बात में सच्चाई है । तो टीवी । पत्र पत्रिकाओं । अखबारों । सतसंग संकीर्तन आदि में बताये गये मंत्रो के जप से कोई लाभ नहीं होता । मंदिर में मैंने अकसर लोगों को किन्हीं मंत्रो का जप करते देखा है । उनसे पूछो । तो कहते हैं कि घर पर मंत्र जपने से ज्यादा महत्व मंदिर में भगवान के समक्ष जप ही कर लेना । क्या इस जप से कोई लाभ भी मिलता है ।
ans - इस सम्बन्ध में सन्तमत में एक बङा रोचक दृष्टांत है । एक बार एक राजा को भी किसी सन्त से मन्त्र लेने की इच्छा हुयी । वह सन्त के पास पहुँचा । निवेदन किया । सन्त बोला - ठीक है । वह मन्त्र है - राम । ( ध्यान रहे । सन्तमत में या धार्मिक ग्रन्थों में अधिकांश " नाम " या मन्त्र के स्थान पर राम शब्द का ही प्रयोग किया है । ऐसा विषय के विस्तार में जाने से बचने हेतु किया गया है । क्योंकि एक ही स्थान पर सभी व्याख्या संभव नहीं है । यदि जिज्ञासु आगे भी इच्छुक होगा । तब उसके प्रसंग अनुसार वह भेद भी पता चल ही जायेगा । क्योंकि राम शब्द समस्त जीवधारियों में वास्तविक अर्थों में रमता अर्थात चेतन ( धारा भी ) या श्वांस को ही ध्वनित करता है ।
इसमें कोई विशेष माथापच्ची की आवश्यकता नहीं है । श्वांस के बिना ये शरीर और मन दोनों ही जङ हैं । शरीर में रमता श्वांस ही राम है । )
राजा बोला - कमाल है । इसमें भला ऐसी कौन सी बात है । जिसके लिये इसे सन्त से लेने की आवश्यकता हो ? ये
तो मेरे विचार से मामूली ज्ञान रखने वाले भी जानते सुनते हैं । और प्राय कभी कभी नाम लेते ( जपते ) भी रहते हैं । फ़िर आपके बताने ( देने ) से क्या अन्तर हुआ ?
सन्त बोले - इसका प्रमाणिक उत्तर कल देंगे ।
राजा बैचेनी से प्रतीक्षा करता रहा । दूसरे दिन साधु राज दरबार पहुँचा । राजा ने ससम्मान उसे आसन दिया । अभी राजा उत्तर की प्रतीक्षा में ही था कि सन्त उठकर खङा हो गया । और आदेश भरे स्वर में बोला - सैनिकों इस राजा को गिरफ़्तार कर कारागार में डाल दो ।
सब भौंचक्का रह गये । राजा भी आश्चर्यचकित । सोचा । शायद साधु मजाक कर रहा है । कोई भी सैनिक आदि अपने स्थान से हिला तक नहीं । पर सन्त मजाक नहीं कर रहा था । उसने दोबारा कङकते स्वर में आदेश दिया - सैनिकों इस राजा को गिरफ़्तार कर कारागार में डाल दो ।
फ़िर भी सब निष्क्रिय बैठे रहे । और राजा की प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगे । पर सन्त कुछ ठान कर ही आये थे । उन्होंने फ़िर तीसरी बार आदेश दिया - गिरफ़्तार कर लो इस राजा को ।
अब राजा के बर्दाश्त के बाहर था । यह कोई सन्त नहीं । धूर्त पाखण्डी ही है । वह क्रोधित होकर बोला - गिरफ़्तार कर लो । इस साधु को ।
क्षण मात्र में आदेश का पालन हुआ । और साधु को हथकङियाँ लगा दी गयी । तब साधु बोला - यही है । तेरी बात का उत्तर । मगर ये उत्तर कैसा था ? राजा को कुछ भी पल्ले नहीं पङा । उसने असमंजस से साधु को देखा ।
साधु बोला - मैंने तीन बार तुम्हें गिरफ़्तार करने का आदेश दिया । पर कोई टस से मस नहीं हुआ । क्योंकि ये राज्य और उसके कर्मचारी तुम्हारे अधीन हैं । तुम्हारा आदेश चलता है यहाँ । और तुम्हारे मुँह से निकलते ही तुरन्त आदेश का पालन हुआ । क्योंकि इसकी कमाई तुम्हारी है । तुम मालिक हो इसके । ये राज्य तुम्हें सिद्ध हुआ है ।
इसी तरह कोई साधु विधिवत निरन्तर मन्त्र जाप करके उसमें निहित - शक्ति । ऊर्जा । उपयोग । फ़ल आदि को सिद्ध यानी अधिकृत करके उसका अधिकारी हो जाता है । तब जब वह कान में वह मन्त्र फ़ूँकता है । वह मन्त्र ( साधक ) उसकी चेतना में समाहित होकर क्रियाशील हो जाता है । और सिर्फ़ क्रियारहित बौद्धिक स्तर से जाने गये साधु द्वारा दिया गया मन्त्र मुर्दा होता है ।
निगुरा उसे कहते हैं । जो किसी सच्चे गुरु का शिष्य नहीं होता ।
गायत्री जैसे महामंत्र को - तमाम प्रसंशको ने । अनुयाईयों ने । अपने अपने इष्ट को । उनके मन्त्र को । अज्ञानता वश उसके साथ महामन्त्र शब्द जोङकर लोगों को भृमित किया है । आप गौर करें । विभिन्न लोगों द्वारा अनेक मन्त्रों को महामन्त्र बताया गया है - ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । इसको द्वादशाक्षर मन्त्र कहते हैं । ये भी महामन्त्र कहा गया है । महामृत्युंजय मन्त्र को भी महामन्त्र कहते हैं । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । इसको भी महामन्त्र बताते हैं । गायत्री मन्त्र को भी महामन्त्र बताते हैं । कुछ अशिक्षित टायप लोगों में - ॐ नमः शिवाय.. इसको भी महामन्त्र कहा है । इस तरह सभी टीकाओं के मूल अर्थ से इतर आप उस पर विद्वानों की टीका देखेंगे । तो महामन्त्रों का ढेर लग जायेगा । सभी महा हैं ।
लेकिन गोस्वामी तुलसीदास ने दो लाइन में ही सब स्पष्ट कर दिया - मन्त्र परम लघु जासु वश विधि हरि हर सुर सर्व । मदमत्त गजराज को अंकुश कर ले खर्व । रामचरित मानस । बालकाण्ड ।
यानी वह मन्त्र बहुत छोटा है । जिसके वश में विधि ( बृह्मा ) हरि ( विष्णु ) हर ( शंकर ) सुर सर्व ( सभी देवता ) रहते हैं । जैसे किसी मतवाले हाथी ( गजराज ) को एक छोटा सा अंकुश ( महावत द्वारा छेदने वाला त्रिशूल सा )
वश में रखता है । उसी तरह सभी महाशक्तियाँ इस परम लघु मन्त्र ( निर्वाणी । ध्वनि स्वरूप । अक्षर ) के वश में हैं । और ऊपर के दृष्टांत अनुसार वह निर्वाणी मन्त्र प्रत्येक शरीर की चेतन धारा में स्वतः अखण्ड गूँज रहा है । सच्चे समर्थ गुरु इसको क्रियाशील करके । जीव की बहिर्मुखी चेतना को ऊर्ध्वगति कर देते हैं । उसे सनातन से जोङ देते हैं ।
घर पर मंत्र जपने से ज्यादा महत्व मंदिर में - सभी घरों में । और घर से जुङे बहुत से घरों में । संस्कारी वासनाओं की तरंगों का जाल सा हमेशा फ़ैला रहता है । क्योंकि घर परिवार का मतलव ही विभिन्न वासनाओं का आकार रूप हो जाना है ।
इसके विपरीत मन्दिर में जाते ही सभी मनुष्यों के भाव स्वतः पवित्र और भक्तियुक्त हो जाते हैं । अतः वहाँ की तरंगे आध्यात्मिक । देवत्व आदि अन्य गुणों से स्थिति अनुसार होती हैं । इसलिये ऐसा फ़र्क महसूस होता है । बाकी संक्षेप में । चाहे घर पर जपो । या मन्दिर में । टीवी । पत्र पत्रिकाओं । अखबारों । सतसंग संकीर्तन आदि कहीं से लिया गया हो । रिजल्ट एक ही है । 0/0 ।
इससे सिर्फ़ कुछ समय के लिये भाव शुद्धता होती है । यह लाभ है । बाकी जिस आशा से प्रायः लोग जपते हैं । वह लाभ नहीं होता । सही लाभ विधिवत तरीके से ही होता है ।