30 नवंबर 2011

राम नाम सत्य है सत्य बोलो मुक्त है

मैंने कहीं पढा था । बिना गुरू से आज्ञा लेकर जो मंत्र को प्रयोग में लाता है । वह निगुरा कहलाता है । तथा उसको कोई भी मंत्र सिद्ध नहीं होता । क्या पुस्तकों में लिखे गए सभी मंत्र कीलित Locked होते हैं । बिना वांछित दाम दिये ( मतलब बिना गुरू की दीक्षा लिये । बिना गुरू की आज्ञा लिये ) वह मन्त्र प्रयोग में नही लाया जा सकता । यहां तक कि गायत्री जैसे महामंत्र को भी गुरूमुख में ग्रहण किया जाता है । जरा खुल कर इस बारे में बताएं ?
अगर इस बात में सच्चाई है । तो टीवी । पत्र पत्रिकाओं । अखबारों । सतसंग संकीर्तन आदि में बताये गये मंत्रो के जप से कोई लाभ नहीं होता । मंदिर में मैंने अकसर लोगों को किन्हीं मंत्रो का जप करते देखा है । उनसे पूछो । तो कहते हैं कि घर पर मंत्र जपने से ज्यादा महत्व मंदिर में भगवान के समक्ष जप ही कर लेना । क्या इस जप से कोई लाभ भी मिलता है ।
ans - इस सम्बन्ध में सन्तमत में एक बङा रोचक दृष्टांत है । एक बार एक राजा को भी किसी सन्त से मन्त्र लेने की इच्छा हुयी । वह सन्त के पास पहुँचा । निवेदन किया । सन्त बोला - ठीक है । वह मन्त्र है - राम । ( ध्यान रहे । सन्तमत में या धार्मिक ग्रन्थों में अधिकांश " नाम " या मन्त्र के स्थान पर राम शब्द का ही प्रयोग किया है । ऐसा विषय के विस्तार में जाने से बचने हेतु किया गया है । क्योंकि एक ही स्थान पर सभी व्याख्या संभव नहीं है । यदि जिज्ञासु आगे भी इच्छुक होगा । तब उसके प्रसंग अनुसार वह भेद भी पता चल ही जायेगा । क्योंकि राम शब्द समस्त जीवधारियों में वास्तविक अर्थों में रमता अर्थात चेतन (  धारा भी ) या श्वांस को ही ध्वनित करता है ।
इसमें कोई विशेष माथापच्ची की आवश्यकता नहीं है । श्वांस के बिना ये शरीर और मन दोनों ही जङ हैं । शरीर में रमता श्वांस ही राम है । )
राजा बोला - कमाल है । इसमें भला ऐसी कौन सी बात है । जिसके लिये इसे सन्त से लेने की आवश्यकता हो ? ये

तो मेरे विचार से मामूली ज्ञान रखने वाले भी जानते सुनते हैं । और प्राय कभी कभी नाम लेते ( जपते ) भी रहते हैं । फ़िर आपके बताने ( देने ) से क्या अन्तर हुआ ?
सन्त बोले - इसका प्रमाणिक उत्तर कल देंगे ।
राजा बैचेनी से प्रतीक्षा करता रहा । दूसरे दिन साधु राज दरबार पहुँचा । राजा ने ससम्मान उसे आसन दिया । अभी राजा उत्तर की प्रतीक्षा में ही था कि सन्त उठकर खङा हो गया । और आदेश भरे स्वर में बोला - सैनिकों इस राजा को गिरफ़्तार कर कारागार में डाल दो ।
सब भौंचक्का रह गये । राजा भी आश्चर्यचकित । सोचा । शायद साधु मजाक कर रहा है । कोई भी सैनिक आदि अपने स्थान से हिला तक नहीं । पर सन्त मजाक नहीं कर रहा था । उसने दोबारा कङकते स्वर में आदेश दिया - सैनिकों इस राजा को गिरफ़्तार कर कारागार में डाल दो ।
फ़िर भी सब निष्क्रिय बैठे रहे । और राजा की प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगे । पर सन्त कुछ ठान कर ही आये थे । उन्होंने फ़िर तीसरी बार आदेश दिया - गिरफ़्तार कर लो इस राजा को ।
अब राजा के बर्दाश्त के बाहर था । यह कोई सन्त नहीं । धूर्त पाखण्डी ही है । वह क्रोधित होकर बोला - गिरफ़्तार कर लो । इस साधु को ।
क्षण मात्र में आदेश का पालन हुआ । और साधु को हथकङियाँ लगा दी गयी । तब साधु बोला - यही है । तेरी बात का उत्तर । मगर ये उत्तर कैसा था ? राजा को कुछ भी पल्ले नहीं पङा । उसने असमंजस से साधु को देखा ।

साधु बोला - मैंने तीन बार तुम्हें गिरफ़्तार करने का आदेश दिया । पर कोई टस से मस नहीं हुआ । क्योंकि ये राज्य और उसके कर्मचारी तुम्हारे अधीन हैं । तुम्हारा आदेश चलता है यहाँ । और तुम्हारे मुँह से निकलते ही तुरन्त आदेश का पालन हुआ । क्योंकि इसकी कमाई तुम्हारी है । तुम मालिक हो इसके । ये राज्य तुम्हें सिद्ध हुआ है ।
इसी तरह कोई साधु विधिवत निरन्तर मन्त्र जाप करके उसमें निहित - शक्ति । ऊर्जा । उपयोग । फ़ल आदि को सिद्ध यानी अधिकृत करके उसका अधिकारी हो जाता है । तब जब वह कान में वह मन्त्र फ़ूँकता है । वह मन्त्र ( साधक ) उसकी चेतना में समाहित होकर क्रियाशील हो जाता है । और सिर्फ़ क्रियारहित बौद्धिक स्तर से जाने गये साधु द्वारा दिया गया मन्त्र मुर्दा होता है ।
निगुरा उसे कहते हैं । जो किसी सच्चे गुरु का शिष्य नहीं होता ।
गायत्री जैसे महामंत्र को - तमाम प्रसंशको ने । अनुयाईयों ने । अपने अपने इष्ट को । उनके मन्त्र को । अज्ञानता वश उसके साथ महामन्त्र शब्द जोङकर लोगों को भृमित किया है । आप गौर करें । विभिन्न लोगों द्वारा अनेक मन्त्रों को महामन्त्र बताया गया है - ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । इसको द्वादशाक्षर मन्त्र कहते हैं । ये भी महामन्त्र कहा गया है । महामृत्युंजय मन्त्र को भी महामन्त्र कहते हैं । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । इसको भी महामन्त्र बताते हैं । गायत्री मन्त्र को भी महामन्त्र बताते हैं । कुछ अशिक्षित टायप लोगों में - ॐ नमः शिवाय.. इसको भी महामन्त्र कहा है । इस तरह सभी टीकाओं के मूल अर्थ से इतर आप उस पर विद्वानों की टीका देखेंगे । तो महामन्त्रों का ढेर लग जायेगा । सभी महा हैं ।
लेकिन गोस्वामी तुलसीदास ने दो लाइन में ही सब स्पष्ट कर दिया - मन्त्र परम लघु जासु वश विधि हरि हर सुर सर्व । मदमत्त गजराज को अंकुश कर ले खर्व । रामचरित मानस । बालकाण्ड ।
यानी वह मन्त्र बहुत छोटा है । जिसके वश में विधि ( बृह्मा ) हरि ( विष्णु ) हर ( शंकर ) सुर सर्व ( सभी देवता ) रहते हैं । जैसे किसी मतवाले हाथी ( गजराज ) को एक छोटा सा अंकुश ( महावत द्वारा छेदने वाला त्रिशूल सा )

वश में रखता है । उसी तरह सभी महाशक्तियाँ इस परम लघु मन्त्र ( निर्वाणी । ध्वनि स्वरूप । अक्षर ) के वश में हैं । और ऊपर के दृष्टांत अनुसार वह निर्वाणी मन्त्र प्रत्येक शरीर की चेतन धारा में स्वतः अखण्ड गूँज रहा है । सच्चे समर्थ गुरु इसको क्रियाशील करके । जीव की बहिर्मुखी चेतना को ऊर्ध्वगति कर देते हैं । उसे सनातन से जोङ देते हैं ।
घर पर मंत्र जपने से ज्यादा महत्व मंदिर में - सभी घरों में । और घर से जुङे बहुत से घरों में । संस्कारी वासनाओं की तरंगों का जाल सा हमेशा फ़ैला रहता है । क्योंकि घर परिवार का मतलव ही विभिन्न वासनाओं का आकार रूप हो जाना है ।
इसके विपरीत मन्दिर में जाते ही सभी मनुष्यों के भाव स्वतः पवित्र और भक्तियुक्त हो जाते हैं । अतः वहाँ की तरंगे आध्यात्मिक । देवत्व आदि अन्य गुणों से स्थिति अनुसार होती हैं । इसलिये ऐसा फ़र्क महसूस होता है । बाकी संक्षेप में । चाहे घर पर जपो । या मन्दिर में । टीवी । पत्र पत्रिकाओं । अखबारों । सतसंग संकीर्तन आदि कहीं से लिया गया हो । रिजल्ट एक ही है । 0/0 ।
इससे सिर्फ़ कुछ समय के लिये भाव शुद्धता होती है । यह लाभ है । बाकी जिस आशा से प्रायः लोग जपते हैं । वह लाभ नहीं होता । सही लाभ विधिवत तरीके से ही होता है ।

28 नवंबर 2011

भटकती आत्माओं का रहस्य

अक्सर लोगों के मुख से यह सुनने में आया है कि - चुङैल के पैर उलटे होते है । क्या ये सच है ? इसका सिद्धांत मुझे समझ नहीं आता । क्या ये इसलिए कहा जाता है कि सृष्टि कृमानुसार उनकी गति नहीं होती ।
ans - जैसा कि नीचे के प्रश्नों में कुछ बात स्पष्ट हो चुकी है । सूक्ष्म शरीर ठीक ऐसा ही शरीर होता है । बस उसका स्थूल आवरण उतर जाता है । और सामान्यतः वह अदृश्य होता है । और वह पूर्णत नग्न होता है । यदि मेरी तरह आप प्रेतों को देख पाये । तो वो आपको ठीक वैसे ही नजर आयेंगे । जैसे वे अपने जीवन में थे । बस फ़र्क नग्नता का होगा । लेकिन यहाँ दो अलग स्थितियाँ बहुत सी नयी बातों को जन्म देती हैं । एक तो विभिन्न लोगों का निज भावना अनुसार दृष्टि दोष हो जाना । यानी जैसी सुनी हुयी या अपनी कल्पना अनुसार वे भावना जोङ देते हैं । वह प्रेत उन्हें वैसा ही दिखायी देता है । जैसे अंधेरे में अजीव आकृतियाँ दिखती है । पर होता कुछ भी नहीं । ये लोगों की तरफ़ से बात हुयी । दूसरी हुयी बन्दर घुङकी । यानी प्रेतत्व की असहाय स्थिति में प्रेत को भी मजा आता है कि लोगों को मौका मिलने पर थोङा

हैरान कर ले । तब वह उसे भासित शरीर छाया दिखाता है । यानी जब वह किसी को खुद से भयभीत या प्रभावित या आकर्षित देखता है । तो उसके कमजोर दिमाग को एक सम्मोहित टायप कर देता है । और तब वह खुद को जैसा दिखाना चाहता है । प्रभावित इंसान को वह वैसा ही नजर आता है । लेकिन इनकी आँखे स्थिर होती है । सम्विद विध्या को जानने वाले । और भासित शरीर को प्रकट कर लेने वाली विभिन्न आत्मायें मनचाहा शरीर प्रकट कर सकती हैं । अब इसमें प्रेत से लेकर बहुत किस्म की योनियाँ आ जाती हैं ।
तिर्यक योनि के अंतर्गत कौन आते हैं ?
ans - तिर्यक योनि के अंतर्गत तमाम निकृष्ट योनियाँ आती हैं । जिनमें कीट पतंगे भी शामिल हैं ।
जीव जब निद्रावस्था में होता है । तो बुद्धि कहां चली जाती है ?
ans - जीव की तीन ज्ञात अवस्थायें होती है । जागृत । स्वपन । सुषुप्ति । जागृत अवस्था में यह ह्रदय पर स्थिति  होता है । और सांसारिक कार्य करता है । स्वपन अवस्था में यह कण्ठ पर होता है । और चित्रा नाङी से सपने देखता है । सुषुप्ति यानी निद्रावस्था में यह " कारण " में चला जाता है । ये तीनों अवस्थायें तुरिया अवस्था कहलाती हैं । चौथी अवस्था तुरियातीत अवस्था है । जिसमें गहरी नींद आती है । इसमें यह एक तरह से अपने में स्थिति होता है । तीन अवस्थायें इंसान को भली प्रकार ज्ञात होती है । बाकी सभी रहस्य चौथी अवस्था तुरियातीत 


में छिपे होते हैं । इसी में जागना अलौकिक ज्ञान या योग है । यानी तब हम कहाँ होते हैं । हमारी स्थिति क्या होती है । वहाँ क्या होता है आदि ।
क्या भटकती आत्माओं का निर्धारित क्षेत्रफल भी होता है ? या फ़िर वे स्वतंत्र ही विचरण करती हैं ।
ans - दुनियाँ को देखकर कभी कभी ऐसा लगता है । भगवान नाम की कोई चीज ही नहीं है । पर मैंने कई बार कहा है । सिर्फ़ भूत प्रेत ही नहीं । देवी देवताओं तक में एक ही खेल । एक ही  नियम चलता है । अमीरी गरीबी । सबल निर्बल । यानी धन और शक्ति का ही बोलबाला है । तब स्थूल शरीर छूट जाने के बाद इंसान असहाय ही हो जाता है । लेकिन सूक्ष्म शरीर अंतकरण से ही निर्मित होता है । अतः पूरी ताकत बुद्धि उसी अनुसार होती है । जैसी जीवित होने पर थी । तो अब ये इस बात पर निर्भर है कि अपने उस जीवन में जीव क्या स्थिति को प्राप्त कर पाता है । क्योंकि दादागीरी वहाँ भी है । इसलिये ठीक मनुष्य की तरह ही प्रेत जीवन के अनेकानेक ऊँच नीच स्तर बनते हैं । कोई अकाल मरा भिखारी टायप जीव प्लेटफ़ार्म या उसके आसपास भी भटकता रह सकता है । या फ़िर स्वेच्छा होने पर किसी प्रेत क्षेत्र में भी जा सकता है । कोई दाता दयावान मिल गया । तो उसे अच्छा मुकाम भी दिलवा सकता है । जो इस जीवन की कहानी है । वही उस जीवन की भी । बस स्थूल और सूक्ष्म शरीर का अंतर है ।
जिस व्यक्ति की सडक दुर्घटना में मौत हो जाती है । तो कुछ आत्मा भटकती रहती हैं । क्या वे वही चौराहे आदि वृक्ष पर अपना डेरा डाल देती हैं ?
ans - भोजन । उचित आवास । और स्वभाव अनुसार जीवन की आकांक्षा मोक्ष की स्थिति से पहले हरेक की होती

है । ये बात चीटीं जैसे तुच्छ जीव से महाशक्तियों पर भी लागू होती है । लेकिन इच्छा होने से ही तो सब कुछ नहीं हो जाता है । मुख्य बात तो स्व स्थिति पर निर्भर है । तब ये सैटलमेंट होता है । रिफ़्यूजी ( शरीर छूटने के बाद ) होने पर कहाँ जगह मिलती है । ये उस वक्त की स्थिति पर निर्भर करता है । मौत चाहे कैसे भी हो । जैसे किरायेदार अपना निजी मकान न होने तक । निजी आर्थिक स्थिति अनुसार डेरा तम्बू लगाते उखाङते रहते हैं । वही बात प्रेतों पर भी लागू होती है । मुख्य बात वही है । उस वक्त क्या है । उसकी निज स्थिति ।
भटकती आत्माओं का भोजन क्या होता है ? उनका दैनिक क्रियाकलाप कैसे होता है ?
ans  - पहले तो यही समझें कि भटकती आत्मायें क्या होती हैं । भटकती आत्माओं का नाम सुनते ही अक्सर खतरनाक भूत प्रेत हा हा हू हू टायप हँसते विचित्र शरीर धारी का ख्याल बनता है । ये बात पूरी तरह सच भी है । और पूरी तरह झूठ भी । भूत का नाम आते ही जेहन में हउआ अपने आप बन जाता है । पर वास्तविकता ये है कि छोटे बच्चे से लेकर हर इंसान ने भूत प्रेत खूब देखे होते हैं । आप स्वपन आदि स्थिति में जो सूक्ष्म शरीर और उसके तमाम व्यवहार देखते हैं । वह सब भूत प्रेत ही हैं । पर बात ये होती है कि तब आप भी सूक्ष्म हुये भूत प्रेत ही होते हैं । और वासना शरीर में होते हैं । अगर उन स्थितियों को आप ठीक से समझ लें । तो बस यही भूतिया जीवन होता है । इसमें भूख प्यास डर निडरता कामवासना मरना मारना आदि सब होता है । अब इसी धारणा पर आप खाने पीने का विचार कर सकते हैं । आपने भी स्वपनवत बहुत बार खाया पिया होगा ।
ये तो थी । परिस्थितिजन्य अचानक बात । पर प्रेत हो चुके इंसान की तो ये दिन रात स्थिति हो जाती है । तब ये सार गृहण करते हैं । जैसे किसी भी प्रकार के भोजन की खुशबू । अब इसको आप जीवन में भी सिद्ध करें । जैसे आपने देखा होगा । कोई गृहणी या हलवाई आदि जब कोई मिष्ठान या खुशबूदार भोजन काफ़ी देर तक बनायें । या कोई अन्य इंसान उस समय वहाँ मौजूद रहे । तो उसकी निरन्तर खुशबू से वे एक तरह से तृप्त हो जाते हैं । और यकायक तुरन्त वही चीज खाने से उन्हें अरुचि सी महसूस होती है । कारण यही है कि अंतकरण ने बहुत देर तक उससे जुङे रहने के कारण एक वासनात्मक भूख मिटा ली है । अब बताईये । भोजन का एक तिनका भी नहीं खाया । पर उससे अधिकतम जुङे रहने से वासना पेट के स्तर पर तृप्त हो गयी । ठीक यही बात । सूक्ष्म शरीरी प्रेतों पर लागू होती है । उनकी शरीर की भूख नहीं होती । बल्कि अंतकरण की वासना भूख होती है । जैसे रोटी आदि का स्थूल भाग पेट शरीर को तृप्ति दे रहा है । और उसका स्वाद महक आदि अंतकरण को । भोजन के सार का भी सार अंतकरण गृहण करता है । यही प्रेतों का भोजन है । जो उन्हें आसानी से प्राप्त हो जाता है । बाकी नहाना धोना मल मूत्र आदि की उन्हें आवश्यकता नहीं होती । सूक्ष्म शरीर के तकनीकी ज्ञान रहस्य पर मैं स्वतः एक लेख लिखने वाला था । उसमें और भी विस्तार से आ जायेगा ।

24 नवंबर 2011

असंख्य बृह्मा विष्णु महेश मेरे सामने उत्पन्न और नष्ट हो चुके हैं

जय गुरुदेव ! गुरुदेव तथा आपको बहुत बहुत धन्यवाद । जो मुझे जीवन का लक्ष्य बताया ।  मैंने " अनुराग सागर " पढना चालू किया है । मेरे मन में इसको लेकर कुछ प्रश्न है । कृपा करके इनका उत्तर दे ।
1 - अनुराग सागर  में पेज नंबर 86 में चौपाई नंबर - 4 के अनुसार आदि भवानी अष्टांगी ने 3 कन्याओं को उत्पन्न किया । व पहली कन्या का नाम सावित्री को बृह्मा को प्रदान किया । पेज 101 व 102 में अनुसार गायत्री ने अपने शरीर के मैल में अपना अंश मिलाकर एक कन्या उत्पन्न की । उसका नाम भी सावित्री ( पहुपावती ) था । तो वास्तव में सावित्री पहले वाली थी । या बाद वाली । और दुनिया सावित्री के नाम से किसे जानती है ।
2 -  पेज 80 व 81 के अनुसार काल निरंजन ने अपना मन सत्य पुरुष की सेवा भक्ति में लगा दिया । व जीवों की शून्य 0 गुफा में निवास किया । उन्होंने अष्टांगी से कहा - कि मेरा दर्शन तीनों पुत्र कभी नहीं कर सकेंगे । चाहे खोजते खोजते सारी जिन्दगी ही क्यों न लगा दे । पेज 113 व 114 के अनुसार अष्टांगी ने विष्णु जी से कहा -

अन्तर्मुखी हो जाओ । व अपनी सुरती व दृष्टि को पलटकर भृकुटी के मध्य आज्ञा चक्र या ह्रदय के शून्य 0 में ज्योति को देखो । जब विष्णु ने ये किया । तो अनहद की आवाज सुनी । उसमें 5 रंग देखे । व ज्योति प्रकाश को देखा ।  सत्यपुरुष को छिपा के काल निरंजन को दिखाया ।
> जब काल पुरुष ने मना किया था । तो विष्णु जी ने उनके दर्शन कैसे किये ?
> जब भृकुटी के मध्य आज्ञा चक्र में ध्यान लगाने से काल निरंजन मिलते हैं । तो सत्यपुरुष के लिए कहाँ ध्यान लगाये । एक साधक । नवीन दीक्षित ।
***************
आध्यात्मिक स्तर पर राम कथा कृष्ण कथा आदि कोई भी अलौकिक पात्र हों । या उनके जीवन की घटनाओं की बात हो । ये उतनी स्थूल नहीं होती । जितनी एक रोचक कहानी सी लगती हैं । वास्तव में इनके नामों से लेकर एक एक बात में बेहद गहनता और गूढ रहस्य छिपे होते हैं । अगर सिर्फ़ इनके नामों का ही चिंतन करें । राम । लक्ष्मण । अयोध्या । दशरथ । रावण । कुम्भकरण । दुर्योधन । कृष्ण । नकुल । सहदेव आदि ।  तो ये यूँ ही नामकरण नहीं कर दिया गया । बल्कि इस नाम के पीछे भी पूरा रहस्य छिपा होता है । वर्णमाला के अक्षरों की धातुयें होती हैं । जो व्याकरण ज्ञान से जानी जाती हैं । फ़िर इनकी उत्पत्ति स्थल । धातु की परिपूर्णता । लयता । गति आदि से गुण व्यक्तितत्व आदि बनते हैं । जैसे लक्ष्मण शब्द का गूढ अर्थ जीव है ।

अब इसको समझें । लक्ष्य मन । यानी वह जो मन के लक्ष्य अनुसार चलता हो । वह जीव है । राम का अर्थ रमता चेतन या भगवान है । सीता का गूढ अर्थ माया है ।
अब एक बात पर विशेष गौर करें । पूरी कथा में जहाँ भी इन तीनों के चलने का वर्णन आता है । उसका कृम इस प्रकार है । आगे राम । बीच में सीता । पीछे लक्ष्मण । देखने में ये साधारण बात लगती है । परन्तु इसका बहुत ठोस रहस्य है । जीव और भगवान के बीच में माया रूपी पर्दा । और यही गति जन्म जन्मांतरों  तक बनी रहती है । जब तक ज्ञान से माया का पर्दा हट न जाय । जब से रघुनायक मोहे अपनाया । तब से मोहि न व्यापे माया । ये सिर्फ़ एक छोटी बात का उदाहरण है । वरना एक ही शब्द पर पूरी किताब लिख सकते हैं ।
और इसी दृष्टिकोण में आपके इन प्रश्न या किसी भी अल्पज्ञ जीव के प्रश्नों का रहस्य भी समाया है । क्योंकि अनुराग सागर या कोई भी धर्म गृंथ आप स्थूलता के आधार पर ही पढना शुरू करते हो । जबकि उनमें बहुत सूक्ष्मता और गहनता निहित है ।
इसलिये सत्यता के आधार पर इनका सही विश्लेषण थोङे शब्दों में संभव नहीं है । बृह्मा गायत्री सावित्री या

कालपुरुष अष्टांगी आदि की घटनायें किसी मानवीय जीवन के समान कोई संस्कारी भाव नहीं है । बल्कि विराट के परदे पर प्रकूति की आंतरिक हलचल है । जबकि पढने में ये मनुष्य जीवन की कहानी सी प्रतीत होती है ।
2 - विष्णु ने कालपुरुष के ज्योति रूप दर्शन किये थे । अन्य स्थिति में यह मन रूप है । कालपुरुष  ने यह बात सिर्फ़ तीनों पुत्रों के लिये ही नहीं । बल्कि त्रिलोकी सत्ता के अधीन आने वाले सभी छोटे बङे जीव देवी देवताओं के लिये भी कही थी । और ये सच है कि अष्टांगी को छोङकर कोई भी उसे नहीं देखता । आपने ध्यान नहीं दिया । तीनों पुत्र उसके काया रूप का दर्शन करने के इच्छुक थे । न कि ज्योति ( दृश्य रूपा ) के । न कि अक्षर ( ध्वनि रूपा ) के । अब यहाँ इसका तकनीकी दृष्टिकोण ये है कि बृह्मा विष्णु महेश का निराकारी रूप तीन गुण सत रज तम है । और अक्षर की स्थिति तीन गुणों से परे है । जाहिर है । असंख्य युग बीत जायें । ये मिलन हो ही नहीं सकता । इसको एक उदाहरण से समझाता हूँ । मान लो मिट्टी को पता चले कि उससे बना हुआ रंगीन खिलौना आकर्षक होता है । और वह अपने कुम्हार ( निर्माता या माध्यम ) से कहे कि वह अपनी ही बाद स्थिति खिलौना देखना चाहती है । तो ये कैसे संभव है ? निर्मित खिलौना अपनी पूर्व स्थिति मिट्टी को नहीं देख सकता । और मिट्टी अपनी बदली स्थिति खिलौने को

नहीं देख सकती । तब यही हो सकता है कि उसे अभी अलग रंगों की एक झलक दिखा दी जाये । ऐसा भी नहीं कि नहीं देख पाते । उसके दूसरे अवतार रूपों को न सिर्फ़ देखते है । बल्कि साथ भी रहते हैं । पर उसके मूल रूप को नहीं देख पाते । लेकिन बृह्माण्डी चोटी से पार जाने वाले इनको आराम से देखते हैं । बल्कि एक झगङे की स्थिति ही होती है । बाकी - सत्यपुरुष को छिपा के काल निरंजन को दिखाया ? जैसा कि मैंने कहा । सभी धार्मिक स्थितियाँ गूढ हैं । इनमें महज संकेत भर दिये हैं । असली रहस्य कहीं नहीं लिखे जाते ।
सत्यपुरुष के लिए कहाँ ध्यान - एक बात बताईये । एक उच्च वर्गीय परिवार ( यहाँ मण्डल या ज्ञान ) का  बच्चा हो । जिसके घर में सभी डाक्टर इंजीनियर वैज्ञानिक आदि उच्च पदस्थ लोग हों । और उसे पता भी हो कि कोई MBBS करके । कोई इंजीनियरिंग डिप्लोमा । कोई विज्ञान का अध्ययन करके । यह सब बने हैं । तो वह कहे - मैं ये ABCD या बेसिक नालेज क्यों पढूँ । मैं सीधी बङी किताबें पढूँगा । ये कैसे संभव है ?
जीव की स्थिति दोनों आँखों से नीचे पिण्ड में हैं । दोनों भोंहों के मध्य आसमान बृह्माण्ड आदि जाने के लिये लाक्ड रास्ता है । पहली बहुत स्थितियों में विशाल बृह्माण्ड ही पार करना होता है । उसमें कालपुरुष या निरंजन या अक्षर या ज्योति एक बहुत ऊँची स्थिति है । रैदास कबीर दादू पलटू आदि ने एक साधक स्थिति अनुसार वहाँ ( पहुँचकर ) वन्दना भी की है । स्थिति अनुसार ही आलोचना भी की है । और आगे जाकर स्थिति अनुसार ही कबीर ने कहा है - मेरी उमृ इतनी है कि असंख्य कालपुरुष । असंख्य राम कृष्ण । असंख्य बृह्मा विष्णु महेश मेरे सामने उत्पन्न और नष्ट हो चुके हैं ।
इसलिये अति महत्वाकांक्षी होना भी ठीक नहीं । क्योंकि फ़िर वांछित न होने से निराशा होगी । एक प्रतिष्ठित विधालय में पढने वालों के भी अंतिम परिणाम समान नहीं होते ।  सब कुछ विधार्थी की मेहनत लगन और उसकी भाग्य परिस्थितियों पर भी निर्भर है । इसलिये रास्ता और तरीका यही है । अक्षर को पार करने के बाद ( अक्षरातीत  हो जाने पर ) । खुद ही सत्य सीमा आरम्भ हो जायेगी । सत्यपुरुष के दर्शन आसान बात नहीं है । इसके लिये विरला कहा जाता है । इसलिये कोई यदि विरला हो पाता है । तो फ़िर बहुत कुछ संभव है । मेरे सुझाव अनुसार । अभी आप अपनी प्रारम्भिक स्थिति में नाम कमाई । और तदुपरान्त ध्यान की गहराई को मजबूत 


करने की कोशिश करें । ये पात्रता पैदा होने पर ही आगे बात बनती है ।
सावित्री पहले वाली या बाद वाली - सही कहूँ । तो अपूज्य बृह्मा और उसकी पत्नियों के बारे में मुझे प्रमाणिक तौर पर अभी जानकारी नहीं है । पर गायत्री सावित्री उसकी दो पत्नियाँ हैं । और दोनों ही महत्वपूर्ण हैं । खैर..कभी समय मिलने पर । इसको भी स्पष्ट बताने की कोशिश करूँगा । आगे । इस प्रकरण से सम्बन्धित अंश । फ़िर से दोहराता हूँ कि इन उत्तर को व्यक्तिगत न समझें । जिज्ञासा आपकी व्यक्तिगत है । पर उत्तर समग्र के दृष्टिकोण से हैं ।
**************
फ़िर अष्टांगी ने गायत्री को शाप दिया - हे गायत्री ! बृह्मा के साथ काम भावना से हो जाने से मनुष्य जन्म में तेरे पाँच पति होंगे । हे गायत्री ! तेरे गाय रूपी शरीर में वैल पति होंगे । और वे सात पाँच से भी अधिक होंगे । पशु योनि में तू गाय बनकर जन्म लेगी । और न खाने योग्य पदार्थ खायेगी । तुमने अपने स्वार्थ के लिये मुझसे झूठ बोला । और झूठे वचन कहे । क्या सोचकर तुमने झूठी गवाही दी ?
गायत्री ने अपनी गलती मानकर शाप को स्वीकार कर लिया । इसके बाद अष्टांगी ने सावित्री की ओर देखा । और बोली - तुमने अपना नाम तो सुन्दर पुहुपावती रखवा लिया । परन्तु झूठ बोलकर तुमने अपने जन्म का नाश कर लिया ।  हे पुहुपावती ! सुन । तुम्हारे विश्वास पर । तुमसे कोई आशा रखकर कोई तुम्हें नहीं पूजेगा । अब दुर्गंध के स्थान पर तुम्हारा वास होगा । काम विषय की आशा लेकर अब नरक की यातना भोगो । जान बूझकर जो तुम्हें सींचकर लगायेगा । उसके वंश की हानि होगी । अब तुम जाओ । और वृक्ष बनकर जन्मों । तुम्हारा नाम केवङा केतकी होगा ।
****************
फ़िर अष्टांगी ने विष्णु को दुलारते हुये कहा - हे पुत्र ! तुम मेरी बात सुनो । सच सच बताओ । जब तुम पिता के चरण स्पर्श करने गये । तब क्या हुआ ? पहले तो तुम्हारा शरीर गोरा था । तुम श्याम रंग कैसे हो गये ?
विष्णु ने कहा - हे माता ! पिता के दर्शन हेतु जब मैं पाताललोक पहुँचा । तो शेषनाग के पास पहुँच गया । वहां उसके विष के तेज से मैं सुस्त ( अचेत सा ) हो गया । मेरे शरीर में उसके विष का तेज समा गया । जिससे वह श्याम हो गया ।
तब एक आवाज हुयी - हे विष्णु ! तुम माता के पास लौट जाओ । यह मेरा सत्य वचन है कि जैसे ही सतयुग त्रेतायुग बीत जायेंगे । तब द्वापर में तुम्हारा कृष्ण अवतार होगा । उस समय तुम शेषनाग से अपना बदला लोगे । तब तुम यमुना नदी पर जाकर नाग का मान मर्दन करोगे । यह मेरा नियम है कि जो भी ऊँचा नीचे वाले को सताता है । उसका बदला वह मुझसे पाता है । जो जीव दूसरे को दुख देता है । उसे मैं दुख देता हूँ । हे माता ! उस आवाज को सुनकर मैं तुम्हारे पास आ गया । यही सत्य है । मुझे पिता के श्री चरण नहीं मिले ।
भवानी यह सुनकर प्रसन्न हो गयी । और बोली - हे पुत्र सुनो ! मैं तुम्हें तुम्हारे पिता से मिलाती हूँ । और तुम्हारे मन का भृम मिटाती हूँ । पहले तुम बाहर की स्थूल दृष्टि ( शरीर की आँखें ) छोङकर । भीतर की ग्यान दृष्टि ( अन्तर की आँख । तीसरी आँख  ) से देखो । और अपने ह्रदय में मेरा वचन परखो ।
स्थूल देह के भीतर सूक्ष्म मन के स्वरूप को ही कर्ता समझो । मन के अलावा दूसरा और किसी को कर्ता न मानों । यह मन बहुत ही चंचल और गतिशील है । यह क्षण भर में स्वर्ग पाताल की दौङ लगाता है । और स्वछन्द होकर सब ओर विचरता है । मन एक क्षण में अनन्त कला दिखाता है । और इस मन को कोई नहीं देख पाता । मन को ही निराकार कहो । मन के ही सहारे दिन रात रहो ।
हे विष्णु ! बाहरी दुनियाँ से ध्यान हटाकर अंतर्मुखी हो जाओ । और अपनी सुरति और दृष्टि को पलटकर भृकुटि के मध्य ( भोहों के बीच आज्ञा चक्र ) पर या ह्रदय के शून्य में ज्योति को देखो । जहाँ ज्योति झिलमिल झालर सी प्रकाशित होती है ।
तब विष्णु ने अपनी स्वांस को घुमाकर भीतर आकाश की ओर दौङाया । और ( अंतर ) आकाश मार्ग में ध्यान लगाया । विष्णु ने ह्रदय गुफ़ा में प्रवेश कर ध्यान लगाया । ध्यान प्रकिया में विष्णु ने पहले स्वांस का संयम प्राणायाम से किया । कुम्भक में जब उन्होंने स्वांस को रोका । तो प्राण ऊपर उठकर ध्यान के केन्द्र शून्य 0 में आया । वहाँ विष्णु को अनहद नाद की गर्जना सुनाई दी । यह अनहद बाजा सुनते हुये विष्णु प्रसन्न हो गये । तब मन ने उन्हें सफ़ेद लाल काला पीला आदि रंगीन प्रकाश दिखाया ।
हे धर्मदास ! इसके बाद विष्णु को ..मन ने अपने आपको दिखाया । और ज्योति प्रकाश किया । जिसे देखकर वह प्रसन्न हो गये । और बोले - हे माता ! आपकी कृपा से आज मैंने ईश्वर को देखा ।
तब धर्मदास चौंककर बोले - हे सदगुरु कबीर साहब !  यह सुनकर मेरे भीतर एक भृम उत्पन्न हुआ है । अष्टांगी कन्या ने जो मन का ध्यान ? बताया । इससे तो समस्त जीव भरमा गये हैं ? यानी भृम में पङ गये हैं ?? ( इस बात पर विशेष गौर करें )
तब कबीर साहिब बोले - हे धर्मदास ! यह काल निरंजन का स्वभाव ही है कि इसके चक्कर में पङने से विष्णु सत्यपुरुष का भेद नहीं जान पाये । ( निरंजन ने अष्टांगी को पहले ही सचेत कर आदेश दे दिया था कि सत्यपुरुष का कोई भेद जानने न पाये । ऐसी माया फ़ैलाना  ) अब उस कामिनी अष्टांगी की यह चाल देखो कि उसने अमृतस्वरूप सत्यपुरुष को छुपाकर विष रूप काल निरंजन को दिखाया ।
जिस ज्योति का ध्यान अष्टांगी ने बताया । उस ज्योति से काल निरंजन को दूसरा न समझो । हे धर्मदास ! अब तुम यह विलक्षण गूढ सत्य सुनो । ज्योति का जैसा प्रकट रूप होता है । वैसा ही गुप्त रूप भी है । जो ह्रदय के भीतर है । वह ही बाहर देखने में भी आता है ।
जब कोई मनुष्य दीपक जलाता है । तो उस ज्योति के भाव स्वभाव को देखो । और निर्णय करो । उस ज्योति को देखकर पतंगा बहुत खुश होता है । और प्रेमवश अपना भला जानकर उसके पास आता है । लेकिन ज्योति को स्पर्श करते ही पतंगा भस्म हो जाता है । इस प्रकार अग्यानता में मतबाला हुआ वह पतंगा उसमें जल मरता है । ज्योति स्वरूप काल निरंजन भी ऐसा ही है । जो भी जीवात्मा उसके चक्कर में
आ जाता है । क्रूर काल उसे छोङता नहीं ।

20 नवंबर 2011

अष्टावक्र गीता वाणी ध्वनि स्वरूप - 30

जनक उवाच -  कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति । वैराग्य च कथं प्राप्तमेतद ब्रूहि मम प्रभो । 1-1
वयोवृद्ध राजा जनक बालक अष्टावक्र से पूछते हैं - हे प्रभु ! ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है ? मुक्ति कैसे प्राप्त होती है ? वैराग्य कैसे प्राप्त किया जाता है ? ये सब मुझे बतायें । 1
अष्टावक्र उवाच - मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान विषवत्त्यज । क्षमार्जवदयातोष सत्यं पीयूषवद्भज । 1-2
अष्टावक्र बोले - यदि आप मुक्ति चाहते हैं । तो अपने मन से विषयों ( वस्तुओं के उपभोग की इच्छा ) को विष की तरह त्याग दीजिये । क्षमा । सरलता । दया । संतोष तथा सत्य का अमृत की तरह सेवन कीजिये । 2
न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुर्द्यौर्न वा भवान । एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये । 1-3
आप न पृथ्वी हैं । न जल । न अग्नि । न वायु । अथवा । आकाश ही हैं । मुक्ति के लिये । इन तत्त्वों के । साक्षी । चैतन्यरूप । आत्मा को जानिये । 3
यदि देहं पृथक् कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि । अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि । 1-4
यदि आप । स्वयं को । इस शरीर से । अलग करके । चेतना में । विश्राम करें । तो तत्काल ही । सुख । शांति । और बंधन मुक्त । अवस्था को । प्राप्त होंगे । 4
न त्वं विप्रादिको वर्ण: नाश्रमी नाक्षगोचर: । असङगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव । 1-5
आप ब्राह्मण आदि । सभी जातियों । अथवा बृह्मचर्य आदि । सभी आश्रमों । से परे हैं । तथा आँखों से । दिखाई न पड़ने वाले हैं । आप निर्लिप्त । निराकार । और इस विश्व के । साक्षी हैं । ऐसा जान कर । सुखी हो जाएँ । 5
धर्माधर्मौ सुखं दुखं मानसानि न ते विभो । न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा । 1-6
धर्म । अधर्म । सुख । दुःख । मस्तिष्क से । जुड़ें हैं । सर्व व्यापक । आपसे नहीं । न आप । करने वाले हैं । और न । भोगने वाले हैं । आप सदा । मुक्त ही हैं । 6
अष्टावक्र त्रेता युग के महान आत्मज्ञानी सन्त हुये । जिन्होंने जनक को कुछ ही क्षणों में आत्म साक्षात्कार कराया । आप भी  इस दुर्लभ गूढ रहस्य को इस वाणी द्वारा आसानी से जान सकते हैं । इस वाणी को सुनने के लिये नीचे बने नीले रंग के प्लेयर के प्ले > निशान पर क्लिक करें । और लगभग 3-4 सेकेंड का इंतजार करें । गीता वाणी सुनने में आपके इंटरनेट कनेक्शन की स्पीड पर उसकी स्पष्टता निर्भर है । और कम्प्यूटर के स्पीकर की ध्वनि क्षमता पर भी । प्रत्येक वाणी 1 घण्टे से भी अधिक की है । इस प्लेयर में आटोमेटिक ही वाल्यूम 50% यानी आधा होता है । जिसे वाल्यूम लाइन पर क्लिक करके बढा सकते हैं । इस वाणी को आप डाउनलोड भी कर सकते हैं । इसके लिये प्लेयर के अन्त में स्पीकर के निशान के आगे एक कङी का निशान या लेटे हुये  8 जैसे निशान पर क्लिक करेंगे । तो इसकी लिंक बेवसाइट खुल जायेगी । वहाँ डाउनलोड आप्शन पर क्लिक करके आप इस वाणी को अपने कम्प्यूटर में डाउनलोड कर सकते हैं । ये वाणी न सिर्फ़ आपके दिमाग में अब तक घूमते रहे कई प्रश्नों का उत्तर देगी । बल्कि एक  मुक्तता का अहसास भी करायेगी । और तब हर कोई अपने को बेहद हल्का और आनन्द युक्त महसूस करेगा ।

अष्टावक्र गीता वाणी ध्वनि स्वरूप - 29

एको द्रष्टासि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा । अयमेव हि ते बन्धो द्रष्टारं पश्यसीतरम । 1-7
आप । समस्त विश्व के । एकमात्र दृष्टा हैं । सदा मुक्त ही हैं । आपका बंधन । केवल इतना है कि आप । दृष्टा किसी और को । समझते हैं । 7
अहं कर्तेत्यहंमानमहाकृष्णाहिदंशितः । नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखं भव । 1-8
अहंकार रूपी । महा सर्प के । प्रभाव वश । आप - मैं कर्ता हूँ । ऐसा मान लेते हैं । मैं कर्ता नहीं हूँ । इस विश्वास रूपी । अमृत को । पीकर सुखी हो जाइये । 8
एको विशुद्धबोधोऽहं इति निश्चयवह्निना । प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकः सुखी भव । 1-9
मैं एक । विशुद्ध । ज्ञान हूँ । इस निश्चय रूपी । अग्नि से । गहन अज्ञान वन को । जला दें । इस प्रकार शोक रहित होकर । सुखी हो जाएँ । 9
यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत । आनंदपरमानन्दः स बोधस्त्वं सुखं चर । 1-10
जहाँ । ये विश्व । रस्सी में । सर्प की तरह । अवास्तविक लगे । उस आनंद । परम आनंद की । अनुभूति करके । सुख से रहें । 10
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि । किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत । 1-11
स्वयं को । मुक्त मानने वाला । मुक्त ही है । और बद्ध मानने वाला । बंधा हुआ ही है । यह कहावत । सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है । वैसी ही गति होती है । 11
आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः । असंगो निःस्पृहः शान्तो भृमात्संसारवानिव । 1-12
आत्मा । साक्षी । सर्वव्यापी । पूर्ण । एक । मुक्त । चेतन । अक्रिय । असंग । इच्छा रहित । एवं शांत है । भृमवश ही ये । सांसारिक । प्रतीत होती है । 12
कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय । आभासोऽहं भृमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम । 1-13
अपरिवर्तनीय । चेतन । व अद्वैत । आत्मा का । चिंतन करें । और मैं के । भृम रूपी । आभास से । मुक्त होकर । बाह्य विश्व की । अपने अन्दर ही भावना करें । 13
अष्टावक्र त्रेता युग के महान आत्मज्ञानी सन्त हुये । जिन्होंने जनक को कुछ ही क्षणों में आत्म साक्षात्कार कराया । आप भी  इस दुर्लभ गूढ रहस्य को इस वाणी द्वारा आसानी से जान सकते हैं । इस वाणी को सुनने के लिये नीचे बने नीले रंग के प्लेयर के प्ले > निशान पर क्लिक करें । और लगभग 3-4 सेकेंड का इंतजार करें । गीता वाणी सुनने में आपके इंटरनेट कनेक्शन की स्पीड पर उसकी स्पष्टता निर्भर है । और कम्प्यूटर के स्पीकर की ध्वनि क्षमता पर भी । प्रत्येक वाणी 1 घण्टे से भी अधिक की है । इस प्लेयर में आटोमेटिक ही वाल्यूम 50% यानी आधा होता है । जिसे वाल्यूम लाइन पर क्लिक करके बढा सकते हैं । इस वाणी को आप डाउनलोड भी कर सकते हैं । इसके लिये प्लेयर के अन्त में स्पीकर के निशान के आगे एक कङी का निशान या लेटे हुये  8 जैसे निशान पर क्लिक करेंगे । तो इसकी लिंक बेवसाइट खुल जायेगी । वहाँ डाउनलोड आप्शन पर क्लिक करके आप इस वाणी को अपने कम्प्यूटर में डाउनलोड कर सकते हैं । ये वाणी न सिर्फ़ आपके दिमाग में अब तक घूमते रहे कई प्रश्नों का उत्तर देगी । बल्कि एक  मुक्तता का अहसास भी करायेगी । और तब हर कोई अपने को बेहद हल्का और आनन्द युक्त महसूस करेगा ।

अष्टावक्र गीता वाणी ध्वनि स्वरूप - 28

देहाभिमानपाशेन चिरं बद्धोऽसि पुत्रक । बोधोऽहं ज्ञानखंगेन तन्निष्कृत्य सुखी भव । 1-14
हे पुत्र ! बहुत समय से । आप - मैं शरीर हूँ । इस भाव बंधन से । बंधे हैं । स्वयं को । अनुभव कर । ज्ञान रूपी तलवार से । इस बंधन को । काटकर सुखी हो जाएँ । 14
निःसंगो निष्क्रियोऽसि त्वं स्वप्रकाशो निरंजनः । अयमेव हि ते बन्धः समाधिमनुतिष्ठति । 1-15
आप । असंग । अक्रिय । स्वयं प्रकाशवान । तथा सर्वथा । दोषमुक्त हैं । आपका ध्यान द्वारा । मस्तिष्क को । शांत रखने का । प्रयत्न ही बंधन है । 15
त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः । शुद्धबुद्धस्वरुपस्त्वं मा गमः क्षुद्रचित्तताम । 1-16
यह विश्व । तुम्हारे द्वारा । व्याप्त किया । हुआ है । वास्तव में । तुमने इसे । व्याप्त किया हुआ है । तुम शुद्ध और । ज्ञानस्वरुप हो । छोटेपन की । भावना से गृस्त मत हो । 16
निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः । अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासन: । 1-17
आप । इच्छा रहित । विकार रहित । घन ( ठोस )  शीतलता के धाम । अगाध बुद्धिमान हैं । शांत होकर । केवल । चैतन्य की इच्छा वाले । हो जाइये । 17
साकारमनृतं विद्धि निराकारं तु निश्चलं । एतत्तत्त्वोपदेशेन न पुनर्भवसंभव: । 1-18
आकार को । असत्य जानकर । निराकार को ही । चिर स्थायी । मानिये । इस तत्त्व को । समझ लेने के बाद । पुनः जन्म लेना । संभव नहीं है । 18
यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तः परितस्तु सः । तथैवाऽस्मिन् शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः । 1-19जिस प्रकार । दर्पण में । प्रतिबिंबित रूप । उसके अन्दर भी है । और बाहर भी । उसी प्रकार । परमात्मा । इस शरीर के । भीतर भी । निवास करता है । और उसके बाहर भी । 19
एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे । नित्यं निरन्तरं बृह्म सर्वभूतगणे तथा । 1-20
जिस प्रकार । एक ही आकाश । पात्र के भीतर । और बाहर । व्याप्त है । उसी प्रकार । शाश्वत और । सतत परमात्मा । समस्त प्राणियों में । विद्यमान है । 20
अष्टावक्र त्रेता युग के महान आत्मज्ञानी सन्त हुये । जिन्होंने जनक को कुछ ही क्षणों में आत्म साक्षात्कार कराया । आप भी  इस दुर्लभ गूढ रहस्य को इस वाणी द्वारा आसानी से जान सकते हैं । इस वाणी को सुनने के लिये नीचे बने नीले रंग के प्लेयर के प्ले > निशान पर क्लिक करें । और लगभग 3-4 सेकेंड का इंतजार करें । गीता वाणी सुनने में आपके इंटरनेट कनेक्शन की स्पीड पर उसकी स्पष्टता निर्भर है । और कम्प्यूटर के स्पीकर की ध्वनि क्षमता पर भी । प्रत्येक वाणी 1 घण्टे से भी अधिक की है । इस प्लेयर में आटोमेटिक ही वाल्यूम 50% यानी आधा होता है । जिसे वाल्यूम लाइन पर क्लिक करके बढा सकते हैं । इस वाणी को आप डाउनलोड भी कर सकते हैं । इसके लिये प्लेयर के अन्त में स्पीकर के निशान के आगे एक कङी का निशान या लेटे हुये  8 जैसे निशान पर क्लिक करेंगे । तो इसकी लिंक बेवसाइट खुल जायेगी । वहाँ डाउनलोड आप्शन पर क्लिक करके आप इस वाणी को अपने कम्प्यूटर में डाउनलोड कर सकते हैं । ये वाणी न सिर्फ़ आपके दिमाग में अब तक घूमते रहे कई प्रश्नों का उत्तर देगी । बल्कि एक  मुक्तता का अहसास भी करायेगी । और तब हर कोई अपने को बेहद हल्का और आनन्द युक्त महसूस करेगा ।

अष्टावक्र गीता वाणी ध्वनि स्वरूप - 27

जनक उवाच - अहो निरंजनः शान्तो बोधोऽहं प्रकृतेः परः । एतावन्तमहं कालं मोहेनैव विडंबितः । 2-1
जनक बोले - आश्चर्य । मैं निष्कलंक । शांत । प्रकृति से परे । ज्ञान स्वरुप हूँ । इतने समय तक मैं मोह से संतप्त किया गया । 1
यथा प्रकाशयाम्येको देहमेनं तथा जगत । अतो मम जगत्सर्वमथवा न च किंचन । 2-2
जिस प्रकार । मैं इस शरीर को । प्रकाशित करता हूँ । उसी प्रकार । इस विश्व को भी । अतः मैं । यह समस्त विश्व ही हूँ । अथवा कुछ भी नहीं । 2
स शरीरमहो विश्वं परित्यज्य मयाधुना । कुतश्चित कौशलाद एव परमात्मा विलोक्यते । 2-3
अब शरीर सहित । इस विश्व को । त्याग कर । किसी कौशल द्वारा ही । मेरे द्वारा । परमात्मा का दर्शन किया जाता है । 3
यथा न तोयतो भिन्नास्तरंगाः फेनबुदबुदाः । आत्मनो न तथा भिन्नं विश्वमात्मविनिर्गतम । 2-4
जिस प्रकार । पानी लहर । फेन और बुलबुलों से । पृथक नहीं है । उसी प्रकार । आत्मा भी । स्वयं से निकले । इस विश्व से अलग नहीं है । 4
तन्तुमात्रो भवेद एव पटो यद्वद विचारितः । आत्मतन्मात्रमेवेदं तद्वद विश्वं विचारितम । 2-5
जिस प्रकार । विचार करने पर । वस्त्र तंतु ( धागा ) मात्र ही । ज्ञात होता है । उसी प्रकार । यह समस्त विश्व । आत्मा मात्र ही है । 5
यथैवेक्षुरसे क्लृप्ता तेन व्याप्तैव शर्करा । तथा विश्वं मयि क्लृप्तं मया व्याप्तं निरन्तरम । 2-6
जिस प्रकार । गन्ने के रस से बनी शक्कर । उससे ही व्याप्त होती है । उसी प्रकार । यह विश्व । मुझसे ही बना है । और निरंतर । मुझसे ही व्याप्त है । 6
आत्मज्ञानाज्जगद भाति आत्मज्ञानान्न भासते । रज्वज्ञानादहिर्भाति तज्ज्ञानाद भासते न हि । 2-7
आत्मा । अज्ञानवश ही । विश्व के रूप में । दिखाई देती है । आत्म ज्ञान होने पर । यह विश्व । दिखाई नहीं देता । रस्सी अज्ञानवश । सर्प जैसी । दिखाई देती है । रस्सी का ज्ञान हो जाने पर । सर्प दिखाई नहीं देता है  । 7
अष्टावक्र त्रेता युग के महान आत्मज्ञानी सन्त हुये । जिन्होंने जनक को कुछ ही क्षणों में आत्म साक्षात्कार कराया । आप भी  इस दुर्लभ गूढ रहस्य को इस वाणी द्वारा आसानी से जान सकते हैं । इस वाणी को सुनने के लिये नीचे बने नीले रंग के प्लेयर के प्ले > निशान पर क्लिक करें । और लगभग 3-4 सेकेंड का इंतजार करें । गीता वाणी सुनने में आपके इंटरनेट कनेक्शन की स्पीड पर उसकी स्पष्टता निर्भर है । और कम्प्यूटर के स्पीकर की ध्वनि क्षमता पर भी । प्रत्येक वाणी 1 घण्टे से भी अधिक की है । इस प्लेयर में आटोमेटिक ही वाल्यूम 50% यानी आधा होता है । जिसे वाल्यूम लाइन पर क्लिक करके बढा सकते हैं । इस वाणी को आप डाउनलोड भी कर सकते हैं । इसके लिये प्लेयर के अन्त में स्पीकर के निशान के आगे एक कङी का निशान या लेटे हुये  8 जैसे निशान पर क्लिक करेंगे । तो इसकी लिंक बेवसाइट खुल जायेगी । वहाँ डाउनलोड आप्शन पर क्लिक करके आप इस वाणी को अपने कम्प्यूटर में डाउनलोड कर सकते हैं । ये वाणी न सिर्फ़ आपके दिमाग में अब तक घूमते रहे कई प्रश्नों का उत्तर देगी । बल्कि एक  मुक्तता का अहसास भी करायेगी । और तब हर कोई अपने को बेहद हल्का और आनन्द युक्त महसूस करेगा ।

12 नवंबर 2011

तो परमात्मा ने ये लगन ही क्यों लगाई

जय गुरूदेव की ! राजीव जी ! आपकी बातें कुछ समझ में आई । और कुछ नहीं । आपने लिखा है कि बीमारी गँभीर है । दवा अपना असर देर से दिखायेगी । लेकिन राजीव जी मरीज को लगना तो चाहिये । ना कि दवा ने अपना असर करना शुरू कर दिया है । और रहा मैं करता नही । सब अपने आप ही होता है । ये सोच तो मेरी बचपन से ही रही है । मैं मानता हूँ कि जब से मैं सतसंग में जाने लगा । और आज तक आपका ब्लाग पढा । तो ज्ञान में बहुत वृद्धि हुई है । पर है तो किताबी ज्ञान ही । बात तो प्रक्टीकल की है ।
राजीव जी ! आपने कहा - अगले जन्म में मिलेंगे । अब अगला जन्म किसने देखा है । आप कहेंगे मैंने देखा है । तो मैं कैसे आपकी बात मान लूँ । आप ही ने पिछले लेख में कहा कि किसी की भी बात बिना जाने बिना देखे नहीं माननी चाहिये । पिछले जन्म के सँस्कार से ये जन्म मिला है । और इस जन्म के सँस्कारो से अगला जन्म अच्छा मिलेगा । ये बातें रही तो किताबी बातें ही पढने वाले के लिये । जब तक कि वो कुछ भी अगला पिछला देख ना ले । मान लेता हूँ कि मेरे सँस्कार नहीं है । और मैं इस जन्म में भक्ति में कोई मुकाम हासिल नहीं कर सकता । तो परमात्मा ने ये लगन ही क्यों लगाई । और जो लगन लगाई । तो पूर्ति करने वाला भी तो वो ही है । अगला पिछला किसने देखा है । राजीव जी ! कुछ बताईये ।
जय गुरूदेव की ! राजीव जी ! कुछ बातें लिखना भूल गया । मेरा दोस्त मिला था । जिसका जिक्र मैंने लेख में किया था । अब बताईये । उसके समर्पण में कोई कमी दिखी आपको । जिस आदमी ने मुँहमाँगी वस्तु अपने गुरू को सौंप दी हो । क्या उसके समर्पण में कोई कमी रह जाती है । कह रहा था कि अब तो गुरू शब्द पर ही विश्वास करने का मन नहीं करता । अब शायद आप कहेंगे कि वो गुरू ही नहीं था ? जिसने आपके दोस्त के साथ ऐसा किया । पर उसका विश्वास तो सत्य था । और ना भी हो । तो ये कैसे पता चले कि गुरू पूर्ण था । या अधूरा था ? हालाँकि मेरा ये मानना है कि गुरू शब्द ही अपने आप में पूर्ण ही होता है ? गुरू कभी अधूरा नहीं होता । कुछ प्रकाश डालिये ।
- पर वो मुझे कहते थे कि जब शिष्य समर्पण कर देता है । तो फिर गुरू सुरति को सहारा देकर ले जाते हैं । और ये 


गुरू के लिये मामूली बात है । अब राजीव जी ! मुझे तो उनसे कोई शिकायत नहीं है । क्या ये सुरति को सहारा देने वाली बात सही है । मैं पूर्ण समर्पित शिष्य हूँ । ऐसा तो मैं नही कहता । पर गुरूदेव जी के लिये आदर भाव में तो कोई कमी नहीं है मेरे मन में । राजीव जी ! इस विषय पर कुछ बताना ।
*********************
बीमारी गँभीर है । दवा अपना असर देर से दिखायेगी - सभी गृंथों में संसार को भवरोग कहा गया है । भव यानी संसार । अतः ये बात मैंने सिर्फ़ आपके लिये न कहकर एक सामान्य बात कही थी । राजा जनक जैसे महाज्ञानी वृद्धावस्था में आकर । पूर्व में हजारों ज्ञानियों द्वारा सतसंग पाकर । तब अन्त में चेतन ज्ञान को बालक अष्टावक्र द्वारा जान पाते हैं । राजा वीर सिंह कबीर के यहाँ झाङू पोंछा करता है । और फ़िर कई महीनों बाद उसके ऊपर मल फ़ेंकने पर । और तब भी उसे बुरा न लगने पर । कबीर द्वारा हँसदीक्षा दी जाती है । वास्तव में सही दीक्षा का तरीका ही यही है कि इच्छुक व्यक्ति 6 महीने गुरु की सेवा में रहकर उनका सतसंग सुने । भले ही उसने वैसा ही सतसंग पूर्व में क्यों न सुन रखा हो । इससे पूर्वकाल की सभी छाप अंतर्मन से हट जाती है । जो ज्ञान में बहुत बाधक होती है । तब उचित समय आने पर ( जब गुरु उचित समझें ) जमीन के अन्दर अंडरग्राउण्ड बनी गुफ़ा में । जहाँ सुई के गिरने की भी आवाज न हो । और बाहरी प्रकाश न हो । शिष्य को दीक्षा दी जाती है । दूसरे जहाँ कोई सन्त या बहुत से महात्मा भजन ध्यान करते हैं । वह स्थान सिद्ध हो जाता है । इससे वहाँ की तरंगों में दिव्यता और अलौकिकता होती है । जो पूर्ण दीक्षा हेतु बहुत आवश्यक होती है । अब आराम से समझा जा सकता है कि 6 महीने का साधुई जीवन और सन्तों की सेवा ही व्यक्ति में बहुत बदलाव ला देती है । वह स्वतः अन्दर से साधु ही हो जाता है । तब दीक्षा एकदम पूर्णरूपेण होती है । और कुछ ही दिनों के ध्यान अभ्यास में वह सहज ऊँचाई प्राप्त कर लेता है । अगर इस सब में 1 साल भी लग जाये । तो भी ये 84 की तुलना में बहुत सस्ता सौदा हुआ 


। इसी से आप अन्दाजा लगा सकते हैं कि सही मायनों में तो आपकी दीक्षा अभी हुयी भी नहीं । पर न होने से तो ये  अच्छा है कि व्यक्ति आज की आपाधापी परिस्थिति में जो भी प्राप्त कर ले । इस हेतु साधारण दीक्षा भी कर दी जाती है । अब यदि आपके पास समय है । और प्राप्त करना चाहते हैं । तो ठीक यही व्यवस्था हमारे यहाँ कुछ ही दिनों में आरम्भ हो रही है ।
मरीज को लगना तो चाहिये ना कि दवा ने अपना असर करना शुरू कर दिया है - एक बार आत्मनिरीक्षण करके देखो । दवा बराबर अपना असर कर रही है । आप दिन पर दिन स्वस्थ हो रहे हैं । पर आप विपरीत सोच रहे हैं । आप सोच रहे हैं कि कुछ होगा । वास्तविकता में ये कुछ होना बन्द हो जायेगा । तब फ़िर वह - है । और वह होता नहीं । बल्कि - है ।
ये सोच तो मेरी बचपन से ही रही है - आपकी कोई भी कैसी भी सोच रही हो । सिस्टम अपना काम अपने तरीके से ही करता है । इंसान 100 वर्ष की जीवन सोच लेकर चलता है । जबकि सिस्टम को मालूम है कि आगे क्या होना है । अतः उसे कोई जल्दी नहीं होती । वह अपना काम अनादि से ही करता आ रहा है ।
पर है तो किताबी ज्ञान ही । बात तो प्रक्टीकल की है - अपने अंतर में व्यापक बदलाव भी प्रक्टीकल ही है । बाकी अलौकिक प्रयोगों हेतु उसी नियम में आना होगा ।
अब अगला जन्म किसने देखा है - मैं या गुरुदेव किसी से कोई फ़ीस तो लेते नहीं । जो झूठ मूठ बातों का हमें कोई कैसा भी लाभ होता हो । आपके अपने ही दूसरे सदस्य उस क्रिया से सफ़लता से गुजर रहे हैं । यही विश्वास करने का कारण बनता है । तब आप उतना अच्छा नहीं कर पा रहे । तो कमी आपकी आंतरिकता में ही हुयी ना । मैंने उसके भी उपाय बताये ही हैं ।
मान लेता हूँ कि मेरे सँस्कार नहीं है । और मैं इस जन्म में भक्ति में कोई मुकाम हासिल नहीं कर सकता - जैसे आपने अब तक की यात्रा में सब कुछ मान लिया । ये भी सिर्फ़ मान ही रहे हो । और ये मानना ही हानिकारक होता है । सब कुछ मानना छोङ दो । आपको क्या पता । आगे क्या है ।


उसके समर्पण में कोई कमी दिखी आपको - ये समर्पण नहीं । बस दोनों तरफ़ का संस्कार था ।
कह रहा था कि अब तो गुरू शब्द पर ही विश्वास करने का मन नहीं करता । हालाँकि मेरा ये मानना है कि गुरू शब्द ही अपने आप में पूर्ण ही होता है - बहुत से लोग जिन्दगी से ऊब जाते हैं । जिन्दगी उनके लिये हताशा निराशा भरी होती है । जबकि बहुत से इसको आनन्द से जीते हैं । ये सभी अपनी अपनी अवस्थायें ही तो हैं । आप जागते हुये । सोते हुये । स्वपन देखते हुये । कैसे भी जिन्दगी गुजार दो । ये अपने तरह से ही चलेगी । चाहे आप इससे सहमत हों । अथवा न हों । गु का अर्थ अँधकार होता है । और रु का अर्थ प्रकाश होता है । अज्ञानता के अँधकार से ज्ञान के प्रकाश की और ले जाने वाले को गुरु कहते हैं । शाश्वत सत्य से परिचय कराने वाले को सतगुरु कहा जाता है । जिन व्यक्तियों से आपको ऐसा आभास होता है । वे इस परिभाषा में आते हैं । बस शर्त यही है कि आप शिष्यता के नियमों का पालन और पढाई कर रहे हों तो ।
क्या ये सुरति को सहारा देने वाली बात सही है - एकदम सही है । पर इसके कई नियम होते हैं । क्या ? मन । बुद्धि । चित्त । अहम । अंतकरण के ये चारों छिद्र मिलकर जब एक हो जाते हैं । तब उसको सुरति कहा जाता है । ये निरंतर ध्यान अभ्यास से होता है । पहचान ये है । उस स्थिति में विचार शून्यता हो जाती है । दूसरे गुरु द्वारा दिये नाम में रमण करने से सूक्ष्मता आती है । जितनी सूक्ष्मता साधक के अन्दर आ जायेगी । उतना ही वह ऊपर उठेगा । पर संसारी कामों में व्यस्त इंसान ध्यान द्वारा जितना सूक्ष्म होता है । उतना ही संसार फ़िर उसके अन्दर समा जाता है । अतः मोटापन उतना ही रहता है । और इसीलिये अनुभव नहीं हो पाते । दोनों टाइम त्रिकुटी स्नान इसमें बेहद सहायक है ।
मैं पूर्ण समर्पित शिष्य हूँ । ऐसा तो मैं नही कहता - सच कहा जाय । तो अभी आप शिष्य भी नहीं हो । आप प्राइवेट पढाई या पत्राचार कोर्स कर रहे हो । तब जैसा और जितना आपने ज्ञान गृहण कर लिया है । उतना आपको लाभ होगा । शिष्य होना क्या है । इस बारे में जल्दी ही लेख प्रकाशित होगा । वास्तव में आप नाम सुमरन की कमाई और असली पूजा कर रहे हैं । शिष्य होकर असली साधना करना एकदम अलग बात है । और वह पूरा पूरा समय चाहती है । जब तक लक्ष्य हासिल न हो जाये । गौर से देखें । यही बात जिन्दगी के हर क्षेत्र में लागू होती है । 100 रुपये कमाने में इंसान का पसीना निकल जाता है । सोचिये उतनी भी मेहनत इंसान भक्ति के क्षेत्र में नहीं करता ।

10 नवंबर 2011

पुनर्जन्म के कुछ उदाहरण

प्राचीन काल से ही हमारे गृंथो में पुनर्जन्मवाद के सूत्र मिलते हैं । किन्तु आज जिस अर्थ में पुनर्जन्म की जो घटनाएं हमें देखने सुनने को मिलती हैं । हमारे गृंथों में उस प्रकार की घटनाओं का चित्रण नहीं मिलता । पुनर्जन्म की अवस्था में व्यक्ति को पूर्व जन्म की कई बातें याद रहती हैं । किसी अबोध बालक या किसी युवती द्वारा अपने पूर्व जन्म की बातें बताने के जो वृतांत पढने सुनने में आते हैं । कुछ ऐसे ही उदहारण मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं ।
1 पूर्वजन्म की कहानी - उत्तर प्रदेश के कानपुर नगर में एक विशाल ताप विधुत परियोजना है । वहीं कार्यरत एक कर्मचारी का 4 वर्षीय पुत्र दिन में जब साइरन की आवाज सुनता है । तो एकदम बेचैन हो जाता है । और बाहर की ओर निकल पडता है । जब उसे कई दिन ऐसा करते देखा गया । तो उसकी मां ने उससे पूछा कि - आखिर तू कहां चल देता हैं ?
उसने अस्पष्ट सी भाषा में जो कुछ बताया । उससे उसके परिवार वाले हतप्रभ रह गए । उसके कहने का तात्पर्य था - लंच का समय हो गया है । घर पर मेरी पत्नी और दोनों बच्चे मेरे साथ खाना खाने के लिये बैठे मेरी राह देख रहे होंगे ।  4 वर्ष का वह बालक स्थान तो भलीभांति नहीं बता पाया । लेकिन वह ज्यों ज्यों बडा होता गया । त्यों त्यों परिवार के विषय में और अधिक चिंताएं प्रकट करता गया । 6 वर्ष तक उसकी यह स्थिति हो गई कि वह घर छोडकर निकल जाता था । पूर्व जन्म में उसकी मृत्यु कैसे हुई ? यह उसे स्पष्ट याद नहीं रह गया था । इस द्वंद्वात्मक स्थिति में उसका मानसिक विकास अवरूद्ध होने लगा था । तभी उस क्षेत्र के एक प्रख्यात तांत्रिक ने किन्हीं विशिष्ट उपायों से उसे पूर्व जीवन का विस्मरण कराया । तब कहीं जाकर वह सहज जीवन जी सका ।
2 पूर्वजन्म की कहानी - 9 वर्ष पूर्व छत्तीसगढ के रायगढ जिले के समीप के एक गांव का 10-11 वर्ष का एक बालक किसी दूसरे गांव में पढता था । एक दिन जब वह स्कूल से आ रहा था । तो अचानक उसे पूर्व जन्म की कुछ स्मृतियाँ हो आईं । और वह उन दोनों गांवों के बीच में ही अपने सहपाठियों को यह कहकर कि - अब मैं यहां से नहीं जाऊंगा । समाधि में बैठ गया । तबसे वह आज तक उस स्थान पर समाधिस्थ है । और पता नहीं । कब तक समाधिस्थ रहेगा । दूर दूर से उसे देखने के लिये प्रतिदिन बहुत से लोग आते जाते रहते हैं । जिंदल फ़ैक्टरी के मालिक ने उसके लिए वहां चबूतरा भी बना दिया है । कभी कभी वहां मेला सा भी लगता है ।
3 पूर्वजन्म की कहानी - यह घटना अंबाला के श्रीकृष्ण स्वरूप जी के साथ की है । जो एक व्यवसायी हैं । एक दिन दिल्ली आते समय उनकी कार एक ट्रक से जा टकराई थी । कार का हाल इतना बुरा हो गया कि आरी से काट काटकर उन्हें निकाला गया था । तब तक उनकी सांसें हल्की हल्की चल रहीं थी । बीच में एक ऐसा समय आया । जब इलेक्ट्रो कार्डियो ग्राम में ह्रदय की धडकनों की स्थिति बताने वाला पर्दा सीधी सपाट रेखा देने लगा था । यह

स्थिति लगभग 4 से 5 मिनट तक रही । और फ़िर सामान्य हो गई । लगभग 6 महीने इन्टेंसिव केयर यूनिट में रहने के बाद जब वह पूर्ण स्वस्थ होकर घर वापस आए । तब उनके आचार विचार में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ चुके थे । पहले की शराबखोरी । रासरंग । पार्टियों में आना जाना सब छूट गया । वे देर देर तक कमरे में चुपचाप ध्यानमग्न बैठे रहने लगे । उनके परिवार के सदस्य उनके अंदर आए इस परिवर्तन से हैरान थे । बाद में उन्होंने अपने धनिष्ठ मित्रों को यह रहस्य बताया कि दुर्घटना के पश्चात उन्होंने अनुभव कर लिया कि मृत्यु क्या होती है । उन्होंने अपना अनुभव इस प्रकार बताया - अचानक उनकी देह । उनका अस्तित्व । किसी अंधकार में खो गया है । जहां से निकलने में उन्हें बहुत अधिक छटपटाहट और वेदना हो रही है । अचानक उन्हें ऐसा लगा कि जैसे कोई उन्हें अपनी बांह के स्पर्श से किसी खुले स्थान पर तैराकर ले गया हो । सामने उन्होंने नीली आभा देखी । और नीली आभा से परे हटकर उन्हें एक विचित्र और काली आकृति दिखाई दी । जिसने अपनी मुख मुद्रा को अमरीकी आदिवासी की तरह रंगों और पंखों से सजा रखा था । वह हाथ में भाला तानकर अनजानी और अस्पष्ट सी भाषा में कुछ कह रही थे । और धमका रही थी । या वापस भेजने के संकेत दे रही थी । इसी अवस्था में उन्हें अपनी वायु के समान हल्की देह में पुन: एकदम से गुरूत्वाकर्षण का आभास हुआ । और अचानक वे जीवित हो उठे ।
4 पूर्व जन्म की कहानी - यह कथा उत्तर प्रदेश के जिला सुल्तानपुर के कादीपुर क्षेत्र की है । एक सामान्य ईश्वर भक्त गृहस्थ था । वह पेशे से कृषक था । और उसका एक भरापूरा परिवार था । उसकी एक दिन लगभग 60 वर्ष की आयु में सामान्य रूप से मृत्यु हो गई । सामान्य घटना समझकर परिवार वालों ने अन्त्येष्टि का प्रबन्ध किया । और थोडी दूर स्थित शमशान ले चले । श्मशान स्थल पहुंचकर जब तक लकडी आदि का प्रबंध हो । तब तक शव को एक वृक्ष के नीचे रखकर सगे संबंधी भी विश्राम करने बैठ गए । अचानक वृद्ध के सबसे छोटे पुत्र की निगाह अपने मृत पिता के चेहरे की ओर गई । जिस पर मक्खियां आ रही थीं । उसने उन्हें अपने गमछे से शोक विहवल हो हवा करते हुए पाया कि उसके पिता के होंठ कुछ फ़डक रहे हैं । उसे सहसा अपने आंखों पर विश्वास नहीं हुआ । उनका फ़डकना जारी ही रहा । फ़िर उनके पलकों में भी गति आना आरंभ हो गई । यह देखकर उसने अपने बडे भाइयों को आवाज दी । यह एक असामान्य घटना थी । सभी लोग उसके पास चले गए । तभी किसी रिश्तेदार ने उनके बंधन खोल देने की सलाह दी । ऐसा करने के कुछ देर बार उनके पूरे शरीर में हलचल प्रारंभ हो गई । और लगभग आधे घंटे बाद वह वृद्ध यों उठ बैठा । जैसे उसे कुछ हुआ ही नहीं हो । उसने बताया कि जिस क्षण उसकी मृत्यु हुई । उसी क्षण उसने अपने शरीर से निकलकर और सूक्ष्म शरीर के पास पाया । वह सभी लोगों को भलीभांति देख सुन रहा था । जो उसकी मृत्यु पर शोक कर रहे थे । उसे अपने सभी संबंधी प्रिय तो लग रहे थे । लेकिन अपने इस नए शरीर से वह इतना प्रसन्न था कि उसे किसी के प्रति मोह ममता नहीं रह गई । उसे वहीं खडे

खडे सामने प्रकाश का अनंत पुंज दिखाई दे रहा था । और ऐसी शीतलता अनुभव हो रही थी । जैसी उसने पूरे जीवन में अनुभव नहीं की थी । वह अपने शरीर में लौटना भी नहीं चाह रहा था । उसे ऐसी इच्छा हो रही थी कि वह ऊपर उडता चला जाए । इसी आनंद में उसे अचेतनावस्था आ गई । तभी उसे ध्वनि सुनाई दी कि उसका बहनोई कह रहा है कि इनकी रस्सियां तो ढीली कर दो । और तब भान हुआ कि वह पुन: अपनी देह में वापस आ गया है । उसे लगा जैसे उसका कुछ भाग शेष रह गया हो । और ईश्वर ने उसे पुन: धरती पर भेज दिया हो ।
5 पूर्व जन्म की कहानी -  सीतामढी । बिहार के शिवहर जिले के महुअरिया गांव में 4 वर्षीय आयुष को अपनी पूर्वजन्म की सभी बाते बखूबी याद हैं । उसकी बातों को सुनकर परिजन ही नहीं । बल्कि पूरा इलाका हैरत में है । उदय चंद द्विवेदी को द्वितीय पुत्र आयुष बीते एक सप्ताह से पूर्व जन्म की बातों को धडल्ले से बखान कर रहा है । उसकी मां सुमन देवी बताती है कि पत्र पत्रिकाओं में पढा था कि कुछ लोगों को पूर्व जन्म की बातें याद रहती हैं । परन्तु अब उनके माथे पर ही यह पड गया । वे किसी अनहोनी की आशंका व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जो भी हो रहा है । वह उनके परिवार के लिए अच्छा नहीं है ।
इधर 4 वर्षीय आयुष ने बताया कि पूर्व जन्म में उसका नाम उज्जैन सिंह था । तथा उसकी पत्नी का नाम बेबी सिंह और माता वीणा देवी थी । वे 3 भाई थे । जिनका नाम धीरज । नीरज व धर्मेन्द्र था । उसका दिल्ली के एलमाल चौक के रोड नं - 4 में भव्य आवास है । तथा चांदनी चौक की गली नं - 5 में भी एक मकान है । जहां उसके बडे भाई नीरज सिंह रहते हैं । उसके पास दो मारूति कार । एक लाइसेंसी बंदूक । तथा एक पिस्टल । एवं कई मोबाईल फ़ोन थे । उसकी तीन बहनें थीं । और ससुराल बिहार के औरंगाबाद जिले में थी । आयुष का दावा है कि उसकी शादी का जोडा आज भी उसकी अलमारी में सजाकर रखा हुआ है । सोने वाले कमरे में उसका और उसकी पत्नी बेबी सिंह का संयुक्त फ़ोटो टंगा हुआ है । आयुष का कहना है कि वह पूर्व जन्म में भवन निर्माण विभाग में ठेकेदारी का कार्य करता था । और सरकारी भवन बनवाता था । उसका कहना है कि उसने बाबा रामदेव का योग भी त्रिकुट गांव में सीखा था । जो आज भी याद है । 4 वर्ष की उमृ में ही आयुष अच्छी तरह से योग भी कर लेता है । वह कहता है कि एक बार उसका एक्सीडेन्ट हो गया था । जिसमें वह बुरी तरह घायल हो गया था । 21 सितंबर 2006 की सुबह उसे सांप ने काट लिया । जिसके बाद परिजनों ने इलाज कराया । और वह बेहोश हो गया । जिसके बाद उसे कुछ भी याद नहीं है । आयुष की माँ सुमन देवी का कहना है कि यदि आयुष का कहना सत्य है । तो इसकी मौत सांप के काटने से हुई है । और 21 सितंबर 2006 के दोपहर में ही आयुष का जन्म हुआ था । हालांकि उसके बताये गये जगह का सत्यापन कराया जा रहा है । ( दैनिक भास्कर )
6 पूर्व जन्म की कहानी - जय निरंजन के अनुसार - करीब 1990 के आसपास की बात है । मैं कक्षा 7 में पढता था । मेरे गांव महरहा में डाँ. राकेश शुक्ला के 4 वर्षीय बेटे भीम ने अपने माता पिता से यह कहना शुरू कर दिया कि उसका नाम भीम नहीं है । और न ही यह उसका घर है । उसके द्वारा रोज रोज ऐसा कहने पर एक दिन उन्होंने पूछा कि - बेटा ! तुम्हारा नाम भीम नहीं है । तो क्या है ? और तुम्हारा घर यहां नहीं है । तो कहां है ? इस पर भीम ने जो उत्तर दिया । उससे डाँ. शुक्ला आश्चर्यचकित रह गए । उसने जबाब दिया कि - उसका असली नाम सुक्खू है । वह जाति का चमार है । एवं उसका घर बिन्दकी के पास मुरादपुर गांव में है । उसके परिवार में पत्नी एवं दो बच्चे हैं । बडे बेटे का नाम उसने मानचंद भी बताया । आगे उसने यह भी बताया कि वह खेती किसानी करता था । एक बार खेतों पर सिंचाई करते समय उसके चचेरे भाइयों से विवाद हो गया । जिस पर उसके चचेरे भाइयों ने उसे फ़ावडे से काटकर मार डाला था । भीम ने अपने पिता डाँ. राकेश शुक्ला से अपनी पूर्वजन्म की पत्नी और बच्चों से मिलने की इच्छा भी जतायी । मुरादपुर । महरहा से 3-4 किलोमीटर की दूरी पर ही है । इसलिए डाँ. शुक्ला ने एक दिन उस गांव में जाकर लोगों से सुक्खू चमार और उसके परिजनों के बारे में पूछताछ की । तो उन्हें भीम द्वारा बतायी गयी सारी जानकारी सही मिली । डाँ. शुक्ला के मुरादपुर से लौटने के बाद एक दिन सुक्खू चमार की पत्नी अपने दोनों बच्चों तथा कुछ अन्य परिजनों के साथ डाँ. शुक्ला के घर भीम को देखने आयी । यहां पर भीम ने अपने पूर्व जन्म के सभी परिजनों को पहचाना । एवं उन्हें उनके नाम से संबोधित भी किया । पत्नी के द्वारा पैर छूने एवं रोने पर उसने उसे ढाढस भी बंधाया । और उसके सिर पर हाथ फ़ेरा । जब वे लोग भीम से घर चलने के लिए बोले । तो वह सहर्ष तैयार हो गया । लेकिन डाँ. शुकला एवं उनकी पत्नी ने उसे नहीं जाने दिया । इस घटना के बाद भीम अक्सर अपनी पूर्व पत्नी एवं बच्चों से मिलने की बात करता रहता था । इससे डाँ. शुक्ला काफ़ी परेशान भी हुए । बाद में उन्होने भीम की पूर्वजन्म की स्मृति को समाप्त करने के लिए किसी तांत्रिक की सहायता ली । जिसके बाद में भीम की पूर्वजन्म की स्मृति समाप्त हो गयी । वर्तमान में भीम शुक्ला बी.टेक कर रहा है ।
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राजीव जी ! पिछला लेख - पुनर्जन्म विचार काफ़ी बडा हो जाने के कारण कुछ और उदाहरण जो मै देना चाहता था । वो इस मेल के जरिय लिख रहा हूँ । अब अगला मेल आपसे कुछ प्रश्नों के उत्तर हेतु ही लिखूंगा । एक बात तो बतायें जरा - सन्तजनों का आपके आवास पर आवागमन होना । बात कुछ समझ नहीं आयी । आप अपने बारे में तो पहले ही बहुत कुछ बता चुके हैं । तो ये गुत्थी भी सुलझा दीजिये । धन्यवाद । राजू ।
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एकमत या विचारधारा के सन्त आपस में अक्सर मिलते रहते हैं । एक दूसरे के स्थानों पर आना जाना भी होता रहता है । गत 9 वर्ष से मैं अद्वैत सन्तों के सम्पर्क में हूँ । इससे पूर्व द्वैत वालों के सम्पर्क में रहा । इन सभी का ही एक दूसरे के यहाँ आना जाना होता रहता है । लोग सतसंग का आयोजन कराते हैं । अथवा विभिन्न कार्यकृमों में भी सन्त एकत्र होते हैं । खोजयुक्त और अच्छे विषय पर जानकारी युक्त लेख हेतु आपका धन्यवाद ।

पुनर्जन्म विचार

भारतीय संस्कृति की " जैसी करनी वैसी भरनी " उक्ति को चरितार्थ करने वाली कहावत तो सभी ने सुनी ही होगी । यदि इस कहावत में एक पंक्ति और जोङ दी जाये - इस जन्म नहीं तो अगले जन्म सही.. तो यह पूर्ण हो जायेगी । परलोक के बनने बिगडने के भय से । पाप पुण्य के डर से लोग परंपरागत नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों का पालन किया करते हैं । पुनर्जन्म कष्टदायी होने का । नरकवास का । परलोक में दुर्गति आदि का भय मनुष्य को अपने धर्माचरण में पूर्ण आस्था एवं निष्ठा बनाये रखने में परम सहायक हुआ करता है ।
चलिए पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर प्रकाश डालते है । प्रत्येक व्यक्ति में जन्म से ही कुछ विचित्र व्यवहार होते हैं । और वे आमरण बने रहते हैं । इन विचित्रताओं का समाधान पुनर्जन्म के सिद्धान्त से संतोषपूर्वक हो सकता है । जब 12 वर्षीय शुकदेव ने वेद ऋचाओं के गहन अभ्यास का परिचय दिया । या 8 वर्षीय ज्ञानदेव ने शास्त्रार्थ द्वारा अपनी अलौकिक प्रतिभा का परिचय दिया । तो उनकी इस अलौकिकता का समाधान पूर्वजन्म के संस्कारों से ही होता है ।
पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानना एक बात है । और उसमें पूर्ण आस्था होना दूसरी । एक उदाहरण लीजिये - यहां कोई व्यक्ति किसी एक आदमी की हत्या करता है । तो उसे फ़ांसी की सजा दी जाती है । और यदि वह 10 आदमियों की हत्या करे । तो भी उसे फ़ांसी ही दी जाती है । और यदि 50 आदमियों की हत्या करे । तो भी उसे फ़ांसी ही दी जाती है । 1 आदमी की हत्या से 50 आदमियों की हत्या का पाप अधिक है । अपराध बडा है । परन्तु यहाँ सभी की सजा एक जैसी फ़ांसी ही सुनाई जा सकती है । जो वस्तुत: देखा जाए तो न्याय नहीं हुआ । अत: इसके न्याय हेतु अवश्य ही नरकादि गतियों में पुनर्जन्म का अस्तित्व मानना होगा ।
पुनर्जन्म से सम्बन्धित अनेक बातें सुनने और अखबारों में पढने को मिलती हैं । 6 जनवरी 2008 को नई दिल्ली से प्रकाशित नवभारत टाइम्स में प्रकाशित एक उदाहरण देखिए - UP के कस्बे जट्टारी की 7 साल की आरती कहती है कि - मेरा पुनर्जन्म हुआ है । उसका दावा है कि पिछले जन्म में वह नजदीक के गांव फ़ुलवाडी में रहती
थी । और उसका नाम रिसाली था । इस बच्ची को देखने के लिए लोगों का तांता लगा हुआ है । आरती के पिता हरिकृष्ण कहते हैं कि जब से बेटी ने होश संभाला है । वह खुद को रिसाली बताती है । जब 7 साल की हुई । तो फ़ुलवाडी खबर भेजी । पता चला कि वहां रिसाली नाम की वृद्धा की 11 साल पहले 85 की उम्र में मौत हो गई थी ।
सन्देश पाकर उनका रंजीत घर आया । और आरती ने पहचान लिया । और घर परिवर की बातें करने लगी । आरती को फ़ुलवाडी गांव लाया गया । उसे घर से काफ़ी पहले ही छोड दिया गया । लेकिन उसने पुराना घर पहचान लिया ।
अब इसे क्या कहेंगे आप ? पूर्वजन्म का इस जन्म से कुछ तो जुडाव होगा ही । शायद ये यात्रा ही हो । जो एक

जन्म से दूसरे जन्म । और फ़िर तीसरे जन्म । इस तरह ये सिलसिला चलता ही रहेगा । पूर्वजन्म और परलोक की घटनाओं और बातों में परिवर्तन और फ़ेरफ़ार की गुंजाइश तो है ही नहीं । तब फ़िर हम उसे जानकर क्या कर सकेंगे ?
हाँ यह अवश्य कहा जा सकता है कि पूर्वजन्म को तो हम सुधार नहीं सकते । परन्तु परलोक को तो बिगडने से सुधारा जा सकता है । मनुष्य के अच्छे बुरे कर्मों का फ़ल उसे भोगना पडता है । इसी जन्म में अथवा जन्मान्तर में । वाल्मीकी रामायण में कहा गया है कि - कर्म ही समस्त कारणों का । सुख दुख के साधनों का मूल प्रयोजन है । स्वकर्म से मनुष्य बच नहीं सकता । कहा भी गया है -  स्वंय किये जो कर्म शुभाशुभ । फ़ल निश्चय ही वे देते । मनुष्य के अच्छे बुरे कर्म उसे नहीं छोडते ।
पुनर्जन्म की मान्यता को मानने से ही यह गुत्थी सुलझ सकती है कि अनेक बार " पुण्यवान व्यक्ति दुख का " एवं " दुराचारी सुख का जीवन " क्यों बिताते है ? भले ही एक पुण्य का काम इस जन्म में सुख उत्पन्न न करे । किन्तु वह किसी न किसी अगले जन्म में ऐसा करेगा अवश्य । और यह कि यदि कोई पापी व्यक्ति आज सुख का जीवन बिता रहा है । तो उसने अवश्य किसी पिछले जन्म में पुण्य का काम किया होगा । जबकि उसे आज के पापों का फ़ल यदि इस जन्म में नहीं तो किसी अगले जन्म में उसे मिलेगा अवश्य ।
आखिरी पलों का हाले बयां एवं पुनर्जन्म - मनुष्य अंतिम क्षण में क्या देखता है ? कोई ऐसी अलौकिक शक्ति अवश्य है । जो मृत्यु की बेला में व्यक्ति के लिए ताना बाना बुनती हैं । जिससे उसकी प्रक्रिया ही बदल जाती है । जिस मृत्यु से वह कभी भय खाता था । उसका आलिंगन करने के लिए प्रसन्नतापूर्वक तैयार हो जाता है । कोई वृद्ध व्यक्ति कहता है कि - कई वर्ष पहले मरी हुई उसकी पत्नी उससे मिलने आयी थी । वह बोली । अब मेरे साथ चलो । मेरा अकेले मन नहीं लगता । और उसके थोडी देर बाद उसका देहांत हो जाता है ।
- किसी स्त्री ने अपने दिवंगत पति को देखा । और वह उसके साथ जाने को तैयार हो गई । और थोडी देर बाद उसकी मृत्यु हो गई ।
मृत्यु के समय के अनुभव का सबसे महत्वपूर्ण भाग है - एक अलैकिक तीव्र प्रकाश का दिखाई देना । प्रारंभ में यह प्रकाश धुंधला होता है । फ़िर शीघ्र उसमें एक अलौकिक शक्तिशाली तेज आ जाता है । भुक्तभोगी कहते हैं कि - उसका रंग अत्यंत धवल या स्फ़टिक के समान पारदर्शक होता है । यह प्रकाश अत्यंत तीव्र होता है । फ़िर भी इसमें नेत्रों के सामने चकाचौंध नहीं होती । उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता । प्रकाश जीव से भेंट हो जाने के पश्चात दिवंगत अपने शरीर में लौटना नहीं चाहता । वहां उसे अत्यंत सुख और शांति मिलती है ।
एक घटना के अनुसार एक रोगी के पेट का आपरेशन किया जा रहा था । तभी उसकी मौत हो गई । और वह 20 मिनट तक इसी स्थिति में रहा । इसके बाद उसमें फ़िर से जीवन लौट आया । पुनजीर्वित होने के बाद उसने बताया कि जब उसकी मृत्यु हुई । तो उसे लगा जैसे उसके सिर से भिनभिनाने की तेज आवाज निकल रही है । एक स्त्री ने भी मृत्यु के समय इसी प्रकार की ध्वनि का उल्लेख किया है । एक और व्यक्ति ने जिसे मृत्यु का अनुभव हो चुका था । बताया कि - उसे लगा कि जैसे वह अचानक ही किसी गहरी अंधेरी खाई में चला गया है । जिसमें एक मार्ग है । और वह उस पर तेजी से चला जा रहा है ।
इसी प्रकार एक स्त्री ने बताया कि कुछ वर्ष पूर्व जब मैं ह्रदय रोग से पीडित होकर अस्पताल में दाखिल हुई थी । तो मेरे ह्रदय में असहनीय पीडा हो रही थी । तभी मुझ लगा । जैसे मेरी सांस रूक गई है । और ह्रदय ने धडकना बंद कर दिया है । मैने अनुभव किया कि मैं शरीर से निकलकर पलंग की पाटी पर आ गई हूं । इसके बाद फ़र्श पर चली गई हूं । फ़िर धीरे धीरे उठना शुरू हुआ । मैं कागज के टुकडे की तरह उडकर ऊपर उठ रही थी । और छत की तरफ़ जा रही थी । वहां पहुंच कर मैं काफ़ी समय तक डाक्टरों को कार्य करते देखती रही । मेरा शरीर बिस्तर पर सीधा पडा था । और डांक्टर उसके चारों ओर खडे उसे जीवित करने का प्रयास कर रहे थे । तभी उन्होंने एक मशीन से मेरी छाती पर झटके देने शुरू किये । उन झटकों से मेरा शरीर उछल रहा था । और मैं अपनी हड्डियों की चटख साफ़ सुन रही थी । इसके बाद मैंने अपने शरीर में कैसे प्रवेश किया । इसका ज्ञान मुझे नहीं है ।
ऐसी बहुत सी घटनायें देखी गई हैं । जब मरने वालों को मरने से पहले ही अजीब से अनुभव होने लगते हैं । इसलिए कहा जाता है कि मरने वाले को पहले ही मौत का आभास हो जाता है । एक घटनानुसार एक व्यक्ति को मरने से एक दो दिन पहले ही अपनी स्वर्गीय मां और बाप दिखने लगे थे । जो बार बार उसके कमरे के दरवाजे पर आकर खडे हो जाते । और उसे बुलाते । कभी उसे 2 सफ़ेद घोडे दिखाई देते । जो उसे ले जाने के लिये आसमान से उडते हुए आ रहे थे । ऐसी अनेकानेक घटनायें देखने और सुननें में आयी हैं । जब मरने वालों को अजीब अनुभव होते हैं ।
बहुत से लोगों को मरते समय तरह तरह की आवाजें सुनाई देती हैं । कई बार यह ध्वनि असहय हो जाती है । लोगों ने इस धवनि की तुलना सागर के गर्जन । हथौडे से ठोक पीट की आवाज । आरी से लकडी काटते समय होने वाली आवाज । तूफ़ान की आवाज आदि से की है । धवनि सुनते समय बहुत से व्यक्तियों को ऐसा प्रतीत होता है । मानो उन्हें अंधकारपूर्ण अंतरिक्ष में ले जाया जा रहा है । इस अंधकारमय स्थान के लिए उन्होंने अंतरिक्ष । सुरंग । गुफ़ा । कुआं । खाई आदि शब्दों का प्रयोग किया है ।
इसी प्रकार की अंतिम यात्रा करने वाले एक व्यक्ति का अनुभव इस प्रकार है । इस घटना के समय मैं 9 वर्ष का था । पर 27 साल बाद आज भी मुझे वह घटना पूरी तरह से याद है । उस समय मैं गंभीर रूप से बीमार था । इसलिए मुझे दोपहर को अस्पताल ले जाया गया । वहां डाक्टरों ने मुझे बेहोश करने का निर्णय लिया । इस काम के लिये उस समय ईथर का प्रयोग किया जाता था । मुझे बाद में पता चला कि ईथर का प्रयोग करते ही ह्रदय की गति रूक गई । अर्थात उस समय मुझे इसका ज्ञान नहीं था । परंतु उस समय मैं एक असाधारण अनुभव हुआ । मैं एक अंधेरे अन्तरिक्ष में खिंचने लगा ।
जब व्यक्ति अपने अंतिम समय में होता है । तो एक क्षण ऐसा आता है । जब वह तंद्रा में चला जाता है । और चित्रगुप्त के द्वारा उसके जीवन का सारा लेखा जोखा उसकी आंखों के सामने चलचित्र की भांति तैर जाता है । वे गोपनीय घटनाएं भी । जो उसके सिवा किसी और को नहीं पता होती है । उस चित्र में स्पष्ट हो जाती है । और इन विभिन्न कर्मों में से वह अगले जीवन के लिये कर्म चयन करता है । व्यक्ति अधिकतर छ्ल । झूठ । कपट । काम । भय । ईर्ष्या आदि से प्रभावित होता हुआ ही शरीर त्यागता है ।
कर्म और पुनर्जन्म एक दूसरे से जुडे हुए हैं । कर्मों के फ़ल के भोग के लिए ही पुनर्जन्म होता है । तथा पुनर्जन्म के कारण फ़िर नये कर्म संग्रहीत होते हैं । इस प्रकार पुनर्जन्म के 2 उद्देश्य हैं । पहला यह कि मनुष्य अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के फ़ल का भोग करता है । जिससे वह उनसे मुक्त हो जाता है । दूसरा यह कि इन भोगों से अनुभव प्राप्त करके नये जीवन में इनके सुधार का उपाय करता है । जिससे बार बार जन्म लेकर जीवात्मा विकास की ओर निरंतर बढती जाती है । तथा अंत में अपने संपूर्ण कर्मों द्वारा जीवन का क्षय करके मुक्तावस्था को प्राप्त होती है । एक जन्म में एक वर्ष में मनुष्य का पूर्ण विकास नहीं हो सकता । व्यक्ति का जीवन कई कडियों में बंधा है । और प्रत्येक कडी दूसरी कडी से जुडी है । इसीलिए एक जन्म के कार्यों का प्रभाव दूसरे जन्म के कार्यों पर पडता है । इस जन्म के संस्कार सूक्ष्म रूप से हमारे अंदर प्रविष्ट होकर अगले जन्म तक साथ जाते हैं । जिस प्रकार हम कई जानी अनजानी प्रवृतियों को अपने साथ लेकर इस जीवन में चल रहे होते हैं । उसी प्रकार पूर्व जन्मों या अगले जन्मों में भी कई जानी अनजानी प्रवृतियों को साथ लेकर उन जन्मों में चल रहे होते हैं ।
अपने पूर्व जीवन के स्मृति सूक्ष्म रूप में प्रत्येक व्यक्ति के मनोमस्तिष्क में रहती ही है । भले ही वह उसके सामने कभी निद्रावस्था में स्वप्न के माध्यम से प्रकट हो । या जाग्रतावस्था में ही बैठे बैठे उसके मानस में किसी विचार अथवा किसी बिंब के माध्यम से प्रकट हो । कई साधकों ने इस ध्यानावस्था में भांति भांति के विचार आकर घेर लेते हैं । उनके पीछे जहां एक ओर व्यक्ति के मन में वर्तमान समय में चल रहा कोई द्वंद्व होता है । वहीं उनका एक सूत्र पूर्व जीवन में भी छुपा होता है । प्राय इसी कारण कई साधकों को विचित्र विचित्र अनुभव होते रहते हैं । मनुष्य की आंतरिक खोज और बाह्य खोज । अर्थात आधुनिक विज्ञान की खोज दोनों से यह तो सिद्ध हो चुका है कि मृत्यु के पश्चात भी मनुष्य का अस्तित्व होता है । और यदि मृत्यु के बाद उसका अस्तित्व है । तो जन्म से पूर्व भी उसका अस्तित्व होना ही चाहिए । जब आत्मा जन्म लेती है । तो वह अपने अनुरूप विश्व के अनेक लोकों से मन । प्राण और शरीर को चुनती है । देह धारण के लिए शरीर को चुनती है । देह धारण के लिए उसे इन्हीं चीजों की आवश्यकता पडती है । मृत्यु के पश्चात शरीर पंच तत्वों में विलीन हो जाता है । शरीर । मन और आत्मा को बांधने वाला डोरी रूप प्राण सबसे पहले प्राण लोक में जाता है । मन मन: लोक में । और अंत में आत्मा चैत्यलोक में पहुंच जाती है । और वहीं अगले जन्म की प्रतीक्षा करती है । सामान्य मनुष्यों में ही ऐसा घटित होता है । योगी पुरूषों में ऐसा नहीं होता । चूंकि प्राण और मन अत्यधिक विकसित अवस्था में होते हैं । अत: ये अंतरात्मा अपने जन्म के समय मन । प्राण के अनुभवों के मुख्य तत्वों को साथ लाती है । ताकि नए जीवन में वह और अधिक प्राप्त करने में समर्थ हो सके ।
पुनर्जन्म वस्तुत: जीवन यात्रा का अगला चरण है । सतत गतिशीलता का अगला आयाम है । मरणासन्न मनुष्य को बडी बैचेनी । पीडा और छटपटाहट होती है । क्योंकि सब नाडियों से प्राण खिंच कर एक जगह एकत्रित होता है । प्राण निकलने का समय जब बिलकुल पास आ जाता है । तो व्यक्ति मूर्छित हो जाता है । अचेतन अवस्था में ही प्राण उसके शरीर से बाहर निकलते हैं । मरते समय वाणी आदि इंद्रियां मन में स्थित होती हैं । मन प्राण में और प्राण तेज में तथा तेज परमदेव जीवात्मा में स्थित होता है । जीवात्मा सूक्ष्म शरीर के साथ इस स्थूल शरीर से निकल जाती है । आकाश । वायु । जल । अग्नि और पृथ्वी शरीर के बीजभूत पांचो तत्वों का सूक्ष्म शरीर कहा गया है । सूक्ष्म शरीर का रंग शुभ्र ज्योति स्वरूप ( सफ़ेद ) होता है ।
साधारण मनुष्य के प्राण मुख । आंख । कान । या नाक से और पापी लोगों के प्राण मल मूत्र मार्ग से बाहर निकलते हैं । वह प्राण उदानवायु के सहारे जीवात्मा को उसके संकल्पानुसार भिन्न भिन्न लोकों मे ले जाता है । जीव अपने साथ धन दौलत तो नहीं । किंतु ज्ञान । पाप । पुण्य कर्मों के संस्कार अवश्य ही ले जाता है ।
यह सूक्ष्म शरीर ठीक स्थूल शरीर की ही बनावट का होता है । वायु रूप होने के कारण भारहीन होता है । मृतक को बडा आश्चर्य लगता है कि मेरा शरीर कितना हल्का हो गया है । कभी कभी स्थूल शरीर छोडने के बाद सूक्ष्म शरीर अंत्येष्टि क्रिया होने तक उसके आसपास ही मंडराता रहता है । कई विशिष्ट व्यक्ति 6 महीने में ही पुनर्जन्म ग्रहण कर लेते हैं । बहुतों को 5 वर्ष लग जाते हैं । प्रेतों की आयु अधिकतम 12 वर्ष समझी जाती है । जीव जितने समय तक परलोक में ठहरता है । उसका प्रथम एक तिहाई भाग निद्रा में व्यतीत होता है । क्योंकि पूर्वजन्म की थकान के कारण वह अचेतन सा हो जाता है । भौतिक शरीर की समाप्ति के बाद भी उसका अंतर्मन तो जीवित रहता है । इसी मन से वह अपने अच्छे बुरे कर्म के फ़लों का अनुभव करता है ।
संसार के 84 लाख योनियों को 3 मुख्य भागों में बांटा गया है । 1 - देव ।  2 - मनुष्य । 3 - तिर्यक । देव और तिर्यक भोग योनियां है । जबकि मनुष्य कर्म योनि है ।
पुनर्जन्म का सिद्धांत तो यह कहता है कि हमारा यह जन्म हमारे पूर्व जन्मों में किये हुए कर्मों के आधार पर ही हमें मिलता है । तथा इस जन्म में किये जाने वाले कर्मों के आधार पर ही हमें अगला जन्म अर्थात पुनर्जन्म मिलता है । अथवा प्राप्त होता है ।
पुनर्जन्म का एक कारण है । अपने पूर्व जन्मों में किए गए स्थूल कर्मों का भोग । ये स्थूल कर्म स्थूल लोक में ही भोगे जा सकते हैं । इसलिए उन समस्त स्थूल कर्मों का फ़ल अंश संचित कोश में विधमान रहता है । जिसका थोडा सा अंश एक जन्म में भोग हेतु निर्धारित किया जाता है । जिसे ’प्रारब्ध’ कहा जाता है । यह प्रारब्ध अवश्य भोगना पडता है । भोगे बिना इससे मुक्ति नहीं होती । किंतु इस संचित कोश में कई ऐसे कर्म हैं । जो एक ही जन्म में नहीं भोगे जा सकते हैं । एक कर्म एक ही स्थान या पद से भोगा जा सकता है । किंतु दूसरा इसके विपरीत ऐसा कर्म है । जिसके लिये मनुष्य को दूसरा जन्म लेना पडेगा । संचित कर्म का कितना अंश एक जन्म में भोगना है । इसका निर्णय कर्म के अधिकारी देवता करते हैं । इसी भोग कर्म के अनुसार उसे कुल । देश । स्थान । वातावरण । शरीरादि मिलते हैं । ये कर्म कितने समय में मुक्त हो जाएंगे । इसके अनुसार उसकी आयु का निर्धारण होता है । कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति के शरीर में ऐसे चिह्न प्रकट होते हैं । जिनके आधार पर हस्त सामुद्रिक का विकास हुआ । इसी प्रारब्ध भोग के अनुसार उसके ज्ञान तंतुओं का विकास एवं मस्तिष्क की रचना होती है । जिससे वह मानसिक गुणों एवं अवगुणों को प्रकट कर सके ।
यदि कर्म नियम और पुनर्जन्म को नहीं माना जाए । तो ईश्वर उसे सुख दुख क्यों देता है । जबकि पूर्व के उसके बुरे कर्म हैं ही नहीं । ईश्वर ने बिना कारण किसी को दीन हीन व किसी को संपन्न क्यों बनाया । किसी को मूढ । व किसी को प्रतिभाशाली । किसी को ईमानदार । व किसी को बेईमान । किसी को परोपकारी । व किसी को अत्याचारी आदि क्यों बनाया ? ऐसे अनेक प्रश्नों का उत्तर एक जन्म मानने वाले नहीं दे सकते । जबकि इन सबका उत्तर कर्म नियम और पुनर्जन्म से ही मिलता है । अन्य कोई कारण ज्ञात नहीं हैं । जब पूर्वजन्म का कोई कर्म ही नहीं है । तो वह किसके भोग भोग रहा है ? यदि कर्मों का फ़ल एवं भोग नहीं है । तो कर्म अर्थहीन हो जाते हैं । फ़िर अच्छे और बुरे कर्म का औचित्य ही नहीं रहता । फ़िर तो कर्म पेट भरने का साधन मात्र रह जाते हैं । ऐसे में नैतिकता । सदाचार । प्रेम । दया । करूणा आदि गुण अर्थहीन हो जाएंगे । मनुष्य की भविष्य की सारी आशाएं तथा उसकी उन्नति का आधार ही समाप्त हो जाएगा ।
पंच महाभूतों से निर्मित इस स्थूल शरीर के अंदर एक सूक्ष्म शरीर भी होता है । तथा इन दोनों को चेष्टा जीवात्मा कराती है । जिसे कारण शरीर भी कहते हैं । यही कारण शरीर जीव मृत्यु होने पर स्थूल देह को यहीं छोडकर सूक्ष्म शरीर के साथ दूसरी नई स्थूल देह में निर्माण की प्रारंभिक स्थिति में ही प्रवेश कर जाता है । वह गर्भ में बढता हुआ निश्चित समय पर गर्भ से बाहर आकर धीरे-धीरे एक विकसित भिन्न स्वभावयुक्त मानव या कोई अन्य प्राणी बन जाता है । सूक्ष्म शरीर को अपने सामान्य नेत्रों से नहीं देखा जा सकता । इसी सूक्ष्म शरीर की आकृति के स्थूल शरीर की आकृति में पुन: प्रकट होने की क्रिया को पुनर्जन्म का नियम कहते हैं ।
किसी स्थान के प्रति प्रथम दृष्टि में ही अनुराग जागृत होने का कारण । पूर्व जीवन में उस स्थान पर रहने की भावना है । इसी प्रकार पहली बार ही किसी से मिलने पर प्रेम जागरण का कारण भी पूर्व जन्म में एक साथ व्यतीत किया जीवन या कुछ काल ही है । इसका तात्पर्य यह है कि इन दोनों जीवात्माओं में इससे पूर्व भी प्रेम था । तथा एक दूसरे से मिले थे । इस प्रकार के प्रेम का कदाचित ही विच्छेदन होता है ।
विकासवाद के सिद्धांत के समान ही पुनर्जन्म का सिद्धात है । विज्ञान कहता है कि मनुष्य अपने मस्तिष्क के 15 ‍% भाग का ही उपयोग कर रहा है । सामान्य व्यक्ति तो उसके ढाई % का ही उपयोग कर जी रहा है । बाकी का अंश सुप्त पडा है । यदि इसे विकसित किया जा सके । तो प्रतिभा के विकास की अनंत संभावनाएं प्रकट हो सकती हैं । अध्यात्म भी सहस्त्राब्दियों से कहता आ रहा है कि मनुष्य में सभी ईश्वरीय शक्तियां विधमान हैं । जिन्हें जाग्रत करके मनुष्य ईश्वर तुल्य बनने की क्षमता प्राप्त कर सकता है ।
जब जीव अपने जन्म की तैयारी कर रहा होता है । तब दूसरी ओर उसके योग्य स्थूल शरीर बनाने की तैयारी दूसरों द्वारा की जा रही होती है । उस जीव के पूर्व जन्मों के संस्कारों के अनुसार उसके जन्म के स्थान । समय । कुल एवं वातावरण का तथा उसकी कामनाओं के अनुसार नये शरीर का निर्धारण होता है । योग्य शरीर का निर्धारण कर्मों के अधिकारी देवता करते हैं । सभी योग्यताओं वाला शरीर मिलना कठिन है । इसलिए एक शरीर से उसके थोडे से गुण ही प्रकट हो सकते हैं । अन्य गुणों के विकास के लिए उसे दूसरा जन्म लेना पडेगा । यह सारा कार्य कर्म के अधिकारी देव करते हैं । जीवात्मा के विकास की यह स्वभाविक प्रक्रिया है । जिसे यदि मनुष्य अपने दुराग्रह एवं अहंकार के कारण बाधा उपस्थित न करे । तो प्रक्रति के नियम के अनुसार चलकर वह स्वभाविक रूप से उन्नति करता हुआ कई जन्मों में जाकर पूर्णत्व की प्राप्ति कर सकता है ।
मनुष्य को निश्चय ही मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच में स्वर्ग नरक का अनुभव प्राप्त करना पडता है । स्वर्ग में जाने के बाद जब मनुष्य के पुण्य कर्मों का फ़ल समाप्त हो जाता है । तो उसे पुन: जन्म ग्रहण करना पडता है । इसी प्रकार नरक लोक में पाप कर्मों का फ़ल भुगत लेने के बाद जब व्यक्ति अपनी बुराईयों को दूर करके पवित्र हो जाता है । तब उसका पुनर्जन्म होता है । प्रेतयोनि में जाने के बाद पुनर्जन्म हेतु लगभग 12 वर्ष लग जाते हैं । हर जन्म में भोगों को भोगना । तथा उनसे होने वाले परिणामों से दुख उठाना । इससे मनुष्य कई जन्म में जाकर यह शिक्षा ग्रहण करता है कि इन वासनाओं के कारण ही आसक्ति होती है । तथा यही आसक्ति बंधन का कारण बनती है । इसी आसक्ति के कारण मनुष्य की इच्छा भोगों की ओर जाती है । किंतु सभी भोग अंत में दुखदायी ही सिद्ध होते हैं । इसके बाद उसकी भोगों के प्रति अरूचि हो जाती है । यही उसका ’वैराग्य’ है । यह उच्च चेतना प्राप्त व्यक्तियों का अनुभव है । जो उन ग्यानियों के वचन मानकर विरक्त हो जाता है । उसकी प्रगति शीघ्र होती है । अन्यथा स्वयं अनुभव प्राप्त करने में कई जन्म गंवाने पडते हैं । सृष्टि का नियम ही ऐसा है कि कर्म का फ़ल अवश्य होता है । तथा सभी भोग अंत में दुखदायी होते हैं । यह त्याग आंतरिक प्रेरणा से होता है । तभी सच्चा वैराग्य है ।
माया । भृम । अज्ञान के अनेक मार्ग हैं । किन्तु सत्य का एक ही मार्ग है । जब वासना एवं कामना से व्यक्ति ऊपर उठ जाता है । तभी उसे ईश्वर के सामीप्य का अनुभव होता है । जब तक मुक्ति न हो जाए । तब तक इस जन्म मृत्यु के चक्र से गुजरना पडेगा । ईश्वर और आत्मा को जान लेने मात्र से कुछ लाभ नहीं होता । इनका उपरोक्ष अनुभव ही अन्तिम सुख प्रदान करता है । राज ।

07 नवंबर 2011

मेरी बुद्धि या दिमाग कैसा है - सोहन

राजीव जी ! आज मैं अपना सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न आपसे पूछना चाहता हूँ । मैंने आपसे बहुत बार फोन पर बात की । और कई मेल भी कर चुका हूँ । मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ । आपकी मेरे बारे में क्या सोच है । यानि मेरी बुद्धि या दिमाग कैसा है ? और भक्ति मार्ग में कितना कामयाब हो सकता हूँ । क्योंकि मेरे हिसाब से आज तक मैं जितने भी लोगों से । या यूँ कहिये । ज्ञानी लोगों से मिला हूँ । आप जितना ज्ञानी और विवेकी मुझे कोई नहीं मिला । मैं सच कह रहा हूँ । इस बात को आप अन्यथा मत लेना । और कौन कितना पानी में है । ये जान लेना आपके लिये मामूली बात है । ये भी मैं जानता हूँ । मुझे सही मार्गदर्शन मिले । तो मैं कहाँ तक पहुँच सकता हूँ । ऐसा मैं इसलिये आपसे पूछ रहा हूँ । राजीव जी कि आपके पास इन सवालों के जवाब हैं । मुझे पूरा यकीन है । धन्यवाद । आपका - सोहन ।
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सन्तमत या सचखण्ड ज्ञान की सबसे बङी खासियत यही होती है कि इसमें सत्य वाणी से नहीं बताना होता । बल्कि अपने आप प्रकट होता है । बस थोङा समय अवश्य लगता है । आपको हमसे जुङे हुये लगभग 6 महीने हो गये । मैंने शुरू में ही कहा - 6 महीने बाद आपकी स्थिति में बदलाव शुरू हो जायेगा । रोग गम्भीर है । दवा का असर देर में दिखाई देगा । जबकि आपके घर में ही सदस्यों की स्थिति में ज्ञान स्तर में काफ़ी अन्तर है । आपके साथ जो थे । वो कमाल कर रहे हैं ।
तभी मैंने ये भी कहा था । आपका अगला जन्म भक्त और धनी रूप में होगा । आपकी पत्नी का फ़ोन पर बताऊँगा । अभी कुछ दिन पहले फ़ोन वार्ता में आपने कहा था - मैं कुछ करता नहीं । सब अपने आप हो जाता है । इसी से आप अन्दाजा लगा लीजिये । ज्यों ज्यों कर्ता भाव मरता जायेगा । लक्ष्य और खेल आसान हो जायेगा । सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में । अब जीत तुम्हारे हाथों में । और हार तुम्हारे हाथों में ।
ये इत्तफ़ाक की ही बात है । ये लिखने से कुछ ही समय पहले श्री महाराज जी से आपके यहाँ की ही विस्त्रत चर्चा हो रही थी । वो बातें भी व्यक्तिगत हैं । इसलिये फ़ोन पर । बाकी इसमें बुद्धि दिमाग काम नहीं करता । जितना भक्त समर्पण होता जाता है । मंजिल उतनी ही आसान और करीब होती जाती है - यह फ़ल साधन से नहि होई । तुम्हरी कृपा पाये कोई कोई । इसलिये चिन्ता मत करिये । अगले जन्म में फ़िर मुलाकात होगी । तब आप अच्छे भक्त होंगे । और भक्त संस्कार वाले होंगे । अभी जीव संस्कार अधिक हैं ।
( इससे आगे का हिस्सा मैंने पहले फ़ुरसत में लिख लिया था । ये ऊपर का अभी जोङा है । पर निम्नलिखित बातों का गहराई से विचार करने पर बहुत कुछ समझ में आ जायेगा । )
देखिये एक मामूली सा कमजोर असहाय बच्चा भी कैसे पैदा होता है - शायद आपने कभी इस बात पर गौर न किया हो । और माया आवरित बेख्याली में आपको ऐसा लगता हो कि एक स्त्री पुरुष ने काम सम्बन्ध किये ।

उनके अण्डाणु शुक्राणु का परस्पर निषेचन हुआ । गर्भ ठहर गया । भ्रूण बना । गर्भाशय में पोषित  हुआ । और समय पर उसका जन्म हो गया । बस ज्यादातर लोग इससे अधिक नहीं सोचते । और इसे 100 वर्षीय जीवन चक्र की एक सामान्य घटना मानते हैं । पर क्या ये सत्य है ? इस पर गौर करते हैं ।
फ़्लैश बैक - जिस स्त्री पुरुष के संयोग से आज 1 बच्चा उत्पन्न हुआ । उस स्त्री और पुरुष का अपने अपने वर्तमान परिवारों में मनुष्य जन्म सामान्य नियम के तहत भी न्यूनतम साढे 12 लाख साल पूर्व के जन्म संस्कार वश हुआ । अगर इसमें नरक आदि अवधि की और स्थितियाँ जोङी जायें । तो अवधि काफ़ी हो जायेगी । लेकिन बहुत पीछे न जाकर ( जबकि हकीकत में और अधिक ही हो जाता है ) सिर्फ़ एक 84 पूर्व स्थिति को ही मान लेते हैं । तब आज जो पति पत्नी हुये । वह उस जन्म की काम भावना + अन्य मिश्रित लेन देन संस्कार से युक्त होकर हुये । आज जो उनका शिशु रूप जीवात्मा जन्मा । वह भी कम से कम उसी जन्म या उससे और भी पूर्व जन्म के लेन देन संस्कार बीज से अंकुरित हुआ ।  84 हो या मनुष्य । ये अलग अलग शरीर भूमि है । भूमि और अनुकूल मौसम खाद पानी मिलते ही बीज अंकुरित हुआ । सोचने वाली बात है । स्त्री के । पुरुष के । बच्चे के । इनके परिवारों के । तथा इनसे जुङने वाले अन्य सांसारिक सम्बन्धों की कितनी विकट संस्कार बेल फ़ैल रही है । तब ये सब मिलकर इस पर 1 कर्म फ़ल लग रहा है ।
तब हर जीवात्मा अपने और अपने से जुङे दूसरों के विभिन्न संस्कारों के साथ शरीर और उसका धर्म धारण कर रही है । है ना चौंकाने वाली बात । आज एक बच्चे के मामूली जन्म की घटना के तार अतीत में लाख वर्ष पूर्व के जुङे हुये हैं । यही बात भक्ति यात्रा पर भी लागू होती है ।
ये सब हो रहा है - ये सव स्वतः हो रहा है । यह महावाक्य है । अगर इंसान इस सरल सी बात को समझ लें । तो तमाम समस्याओं का हल हो जाता है । आप कर्ता बनों । या मत बनो । जिसके द्वारा जो होना है । वह जबरदस्ती उससे करा लिया जायेगा । उमा दारु जोषित की नाई । सबै नचावे राम गुसाई । बस भूल इतनी ही है कि आप मायावश खुद को कर्ता मान लेते हो । और फ़िर - करता सो भरता..वाली बात हो जाती है । व्यर्थ ही आप दण्ड के भागी हो जाते हो । जबकि आपने खूब अनुभव किया होगा । हानि लाभ । दुख सुख । मान अपमान । इन परिस्थितियों पर आपका कोई जोर नहीं होता । फ़िर भी खुद को कर्ता मानने की जिद सी बन गयी है ।
एक मजेदार बात याद आती है । श्रीकृष्ण का समय था । एक छोटे बच्चे की अकाल मौत हो गयी है । श्रीकृष्ण उपाय बताते हैं कि - यदि कोई पूर्ण सत्यवादी इस बच्चे के ऊपर हाथ रख दें । जिसने जीवन में एक बार भी झूठ न बोला हो । तो बच्चा जी उठेगा । लेकिन एक बङी तगङी शर्त है । हाथ झूठा या सच्चा एक ही बार रखा जा सकता है । अगर झूठा रख गया । फ़िर उपाय काम नहीं करेगा । सबकी निगाह तुरन्त ही युधिष्ठर की ओर जाती है । लेकिन युधिष्ठर खुद अपने प्रति स्वयँ से सन्तुष्ट नहीं है - अश्वत्थामा हतो । नरो वा कुंजरो वा । अपने परिजनों की भलाई के लिये सत्य से डिग गये थे युधिष्ठर । अपना सत्य अपने से अधिक कोई नहीं जानता । मना कर देते हैं । पूरे संसार में सत्यवादी की तलाश होती है । बात मामूली नहीं है । अगर बच्चा न जीवित हुआ । तो हत्या जैसा कलंक लगेगा । पूरी उम्मीद ही समाप्त । सब मना कर देते हैं । एक बार नहीं । कई बार झूठ बोला है हमने । पूरे संसार में कोई 1 नहीं मिलता ।
तब श्रीकृष्ण सबसे अन्त में कहते हैं - अब कोई नहीं मिल रहा । तब मैं ही आजमाता हूँ ।
सब चौंक जाते हैं । हँसने तक लगते हैं । कहते हैं - श्रीकृष्ण ! दुनियाँ जानती हैं । आपसे बङा झूठा कोई नहीं है । आप तो मामूली बातों पर झूठ बोल देते हो । कृपया आप हाथ मत रखो । बच्चा फ़िर नहीं जियेगा ।
श्रीकृष्ण हाथ रख देते हैं । बच्चा जीवित हो जाता है । अब सबको घोर आश्चर्य है - श्रीकृष्ण उपाय आपने ही बताया । सब जानते हैं । आपने अनगिनत झूठ बोले हैं । फ़िर ये कैसा आश्चर्य ।
- मैं ! श्रीकृष्ण कहते हैं - सत्य झूठ से ऊपर हूँ । पाप पुण्य से ऊपर हूँ । मेरे अन्दर कर्ता भाव नहीं है । इसलिये कोई भी बात मुझे लगती नहीं है । मैं इन सबसे परे हूँ ।
अब फ़िर - हो रहा है की बात करते हैं - महाभारत युद्ध की रणभेरी बज उठी है । सजी हुयी सेनायें आमने सामने खङी हैं । अर्जुन को विषाद मोह उत्पन्न होता है । तब श्रीकृष्ण युद्ध शुरू होने से पहले ही युद्ध का परिणाम दिखा देते हैं - देख अर्जुन ! तू जिनको मारने के प्रति शोकाकुल हो रहा है । वे सब पहले ही मारे जा चुके हैं । देख सबके क्षत विक्षत शव पङे हुये हैं । जबकि अभी तूने गाण्डीव उठाया तक नहीं । इसलिये तू कर्ता मत बन ।
युद्ध में एक से एक धुरंधर मौजूद हैं । सब जानते भी हैं । श्रीकृष्ण जिसके साथ है । विजय उसी की होगी । पाण्डव सत्य मार्ग पर है । विजय उन्हीं की होगी । धृतराष्ट्र । भीष्म पितामह । दुर्योधन । विदुर । सभी महारथी जानते हैं । सही क्या है । गलत क्या है ? उन्हें अपनी गलती पता है । उसका परिणाम भी पता है । पर फ़िर भी परिस्थितियों के हाथों विवश हैं । जानते हैं । गलती पर हैं । पर विवश हैं । भीषण युद्ध हो रहा है । महारथी हुंकार भर रहे हैं । मैं उसको मार डालूँगा । आज ये करो । कल ये व्यूह रचना करो । सारे प्रयत्न जीत के लिये हैं ।
युद्धभूमि के एक बङे वृक्ष पर एक खोपङी लटकी हुयी यह सब देख रही है । उसने पूरा युद्ध शान्ति से ज्यों का त्यों देखा है । पूर्ण प्रत्यक्षदर्शी है । युद्ध के बाद में सब अपने अपने कौशल का बखान करते हैं । मैंने ये किया । मैंने वो किया । एक जिज्ञासु उस खोपङी से सही बात पूछता हूँ । खोपङी अट्टहास करती है । कहती है - मैंने तो सिर्फ़ मैदान के ऊपर सुदर्शन चक्र ही घूमते देखा । जो कुछ हो रहा था । उसी के द्वारा हो रहा था । वही किसी को मार रहा था । और वही किसी को बचा भी रहा था ।
- यदि न प्रणयेद्राजा दण्डं दण्ड्येष्वतन्द्रितः । शूले मत्स्यानिवापक्ष्यन्दुर्बलान्बलवत्तराः । मनु स्मृति ।
यदि न प्रणयेत राजा दण्डम दण्ड्येषु अतन्द्रितः शूले मत्स्यान इव अपक्ष्यन दुर्बलान बलवत्तराः ।
- यदि राजा दण्डित किये जाने योग्य दुर्जनों के ऊपर दण्ड का प्रयोग नहीं करता है । तो बलशाली व्यक्ति दुर्बल लोगों को वैसे ही पकायेंगे । जैसे शूल अथवा सींक की मदद से मछली पकाई जाती है ।
शब्द सम्हार बोलिये । शब्द के हाथ न पाँव । 1 शब्द औषधि करे । 1 शब्द करे घाव ।
कोई व्यक्ति कितना ही महान क्यों न हो । आंखे मूँदकर उसके पीछे न चलिये । यदि ईश्वर की ऐसी ही इच्छा होती । तो वह हर प्राणी को आँख । नाक । कान । मुँह । मस्तिष्क आदि क्यों देता  - विवेकानंद
- बिगरी बात बने नहीं । लाख करो किन कोय । रहिमन बिगरे दूध को । मथे न माखन होय । रहीम
- 20 वर्ष की आयु में व्यक्ति का जो चेहरा होता है । वह प्रकृति की देन है । 30 वर्ष की आयु का चेहरा जिंदगी के उतार चढ़ाव की देन है । लेकिन 50 वर्ष की आयु का चेहरा व्यक्ति की अपनी कमाई है - अष्टावक्र