भारतीय संस्कृति की " जैसी करनी वैसी भरनी " उक्ति को चरितार्थ करने वाली कहावत तो सभी ने सुनी ही होगी । यदि इस कहावत में एक पंक्ति और जोङ दी जाये - इस जन्म नहीं तो अगले जन्म सही.. तो यह पूर्ण हो जायेगी । परलोक के बनने बिगडने के भय से । पाप पुण्य के डर से लोग परंपरागत नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों का पालन किया करते हैं । पुनर्जन्म कष्टदायी होने का । नरकवास का । परलोक में दुर्गति आदि का भय मनुष्य को अपने धर्माचरण में पूर्ण आस्था एवं निष्ठा बनाये रखने में परम सहायक हुआ करता है ।
चलिए पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर प्रकाश डालते है । प्रत्येक व्यक्ति में जन्म से ही कुछ विचित्र व्यवहार होते हैं । और वे आमरण बने रहते हैं । इन विचित्रताओं का समाधान पुनर्जन्म के सिद्धान्त से संतोषपूर्वक हो सकता है । जब 12 वर्षीय शुकदेव ने वेद ऋचाओं के गहन अभ्यास का परिचय दिया । या 8 वर्षीय ज्ञानदेव ने शास्त्रार्थ द्वारा अपनी अलौकिक प्रतिभा का परिचय दिया । तो उनकी इस अलौकिकता का समाधान पूर्वजन्म के संस्कारों से ही होता है ।
पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानना एक बात है । और उसमें पूर्ण आस्था होना दूसरी । एक उदाहरण लीजिये - यहां कोई व्यक्ति किसी एक आदमी की हत्या करता है । तो उसे फ़ांसी की सजा दी जाती है । और यदि वह 10 आदमियों की हत्या करे । तो भी उसे फ़ांसी ही दी जाती है । और यदि 50 आदमियों की हत्या करे । तो भी उसे फ़ांसी ही दी जाती है । 1 आदमी की हत्या से 50 आदमियों की हत्या का पाप अधिक है । अपराध बडा है । परन्तु यहाँ सभी की सजा एक जैसी फ़ांसी ही सुनाई जा सकती है । जो वस्तुत: देखा जाए तो न्याय नहीं हुआ । अत: इसके न्याय हेतु अवश्य ही नरकादि गतियों में पुनर्जन्म का अस्तित्व मानना होगा ।
पुनर्जन्म से सम्बन्धित अनेक बातें सुनने और अखबारों में पढने को मिलती हैं । 6 जनवरी 2008 को नई दिल्ली से प्रकाशित नवभारत टाइम्स में प्रकाशित एक उदाहरण देखिए - UP के कस्बे जट्टारी की 7 साल की आरती कहती है कि - मेरा पुनर्जन्म हुआ है । उसका दावा है कि पिछले जन्म में वह नजदीक के गांव फ़ुलवाडी में रहती
थी । और उसका नाम रिसाली था । इस बच्ची को देखने के लिए लोगों का तांता लगा हुआ है । आरती के पिता हरिकृष्ण कहते हैं कि जब से बेटी ने होश संभाला है । वह खुद को रिसाली बताती है । जब 7 साल की हुई । तो फ़ुलवाडी खबर भेजी । पता चला कि वहां रिसाली नाम की वृद्धा की 11 साल पहले 85 की उम्र में मौत हो गई थी ।
सन्देश पाकर उनका रंजीत घर आया । और आरती ने पहचान लिया । और घर परिवर की बातें करने लगी । आरती को फ़ुलवाडी गांव लाया गया । उसे घर से काफ़ी पहले ही छोड दिया गया । लेकिन उसने पुराना घर पहचान लिया ।
अब इसे क्या कहेंगे आप ? पूर्वजन्म का इस जन्म से कुछ तो जुडाव होगा ही । शायद ये यात्रा ही हो । जो एक
जन्म से दूसरे जन्म । और फ़िर तीसरे जन्म । इस तरह ये सिलसिला चलता ही रहेगा । पूर्वजन्म और परलोक की घटनाओं और बातों में परिवर्तन और फ़ेरफ़ार की गुंजाइश तो है ही नहीं । तब फ़िर हम उसे जानकर क्या कर सकेंगे ?
हाँ यह अवश्य कहा जा सकता है कि पूर्वजन्म को तो हम सुधार नहीं सकते । परन्तु परलोक को तो बिगडने से सुधारा जा सकता है । मनुष्य के अच्छे बुरे कर्मों का फ़ल उसे भोगना पडता है । इसी जन्म में अथवा जन्मान्तर में । वाल्मीकी रामायण में कहा गया है कि - कर्म ही समस्त कारणों का । सुख दुख के साधनों का मूल प्रयोजन है । स्वकर्म से मनुष्य बच नहीं सकता । कहा भी गया है - स्वंय किये जो कर्म शुभाशुभ । फ़ल निश्चय ही वे देते । मनुष्य के अच्छे बुरे कर्म उसे नहीं छोडते ।
पुनर्जन्म की मान्यता को मानने से ही यह गुत्थी सुलझ सकती है कि अनेक बार " पुण्यवान व्यक्ति दुख का " एवं " दुराचारी सुख का जीवन " क्यों बिताते है ? भले ही एक पुण्य का काम इस जन्म में सुख उत्पन्न न करे । किन्तु वह किसी न किसी अगले जन्म में ऐसा करेगा अवश्य । और यह कि यदि कोई पापी व्यक्ति आज सुख का जीवन बिता रहा है । तो उसने अवश्य किसी पिछले जन्म में पुण्य का काम किया होगा । जबकि उसे आज के पापों का फ़ल यदि इस जन्म में नहीं तो किसी अगले जन्म में उसे मिलेगा अवश्य ।
आखिरी पलों का हाले बयां एवं पुनर्जन्म - मनुष्य अंतिम क्षण में क्या देखता है ? कोई ऐसी अलौकिक शक्ति अवश्य है । जो मृत्यु की बेला में व्यक्ति के लिए ताना बाना बुनती हैं । जिससे उसकी प्रक्रिया ही बदल जाती है । जिस मृत्यु से वह कभी भय खाता था । उसका आलिंगन करने के लिए प्रसन्नतापूर्वक तैयार हो जाता है । कोई वृद्ध व्यक्ति कहता है कि - कई वर्ष पहले मरी हुई उसकी पत्नी उससे मिलने आयी थी । वह बोली । अब मेरे साथ चलो । मेरा अकेले मन नहीं लगता । और उसके थोडी देर बाद उसका देहांत हो जाता है ।
- किसी स्त्री ने अपने दिवंगत पति को देखा । और वह उसके साथ जाने को तैयार हो गई । और थोडी देर बाद उसकी मृत्यु हो गई ।
मृत्यु के समय के अनुभव का सबसे महत्वपूर्ण भाग है - एक अलैकिक तीव्र प्रकाश का दिखाई देना । प्रारंभ में यह प्रकाश धुंधला होता है । फ़िर शीघ्र उसमें एक अलौकिक शक्तिशाली तेज आ जाता है । भुक्तभोगी कहते हैं कि - उसका रंग अत्यंत धवल या स्फ़टिक के समान पारदर्शक होता है । यह प्रकाश अत्यंत तीव्र होता है । फ़िर भी इसमें नेत्रों के सामने चकाचौंध नहीं होती । उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता । प्रकाश जीव से भेंट हो जाने के पश्चात दिवंगत अपने शरीर में लौटना नहीं चाहता । वहां उसे अत्यंत सुख और शांति मिलती है ।
एक घटना के अनुसार एक रोगी के पेट का आपरेशन किया जा रहा था । तभी उसकी मौत हो गई । और वह 20 मिनट तक इसी स्थिति में रहा । इसके बाद उसमें फ़िर से जीवन लौट आया । पुनजीर्वित होने के बाद उसने बताया कि जब उसकी मृत्यु हुई । तो उसे लगा जैसे उसके सिर से भिनभिनाने की तेज आवाज निकल रही है । एक स्त्री ने भी मृत्यु के समय इसी प्रकार की ध्वनि का उल्लेख किया है । एक और व्यक्ति ने जिसे मृत्यु का अनुभव हो चुका था । बताया कि - उसे लगा कि जैसे वह अचानक ही किसी गहरी अंधेरी खाई में चला गया है । जिसमें एक मार्ग है । और वह उस पर तेजी से चला जा रहा है ।
इसी प्रकार एक स्त्री ने बताया कि कुछ वर्ष पूर्व जब मैं ह्रदय रोग से पीडित होकर अस्पताल में दाखिल हुई थी । तो मेरे ह्रदय में असहनीय पीडा हो रही थी । तभी मुझ लगा । जैसे मेरी सांस रूक गई है । और ह्रदय ने धडकना बंद कर दिया है । मैने अनुभव किया कि मैं शरीर से निकलकर पलंग की पाटी पर आ गई हूं । इसके बाद फ़र्श पर चली गई हूं । फ़िर धीरे धीरे उठना शुरू हुआ । मैं कागज के टुकडे की तरह उडकर ऊपर उठ रही थी । और छत की तरफ़ जा रही थी । वहां पहुंच कर मैं काफ़ी समय तक डाक्टरों को कार्य करते देखती रही । मेरा शरीर बिस्तर पर सीधा पडा था । और डांक्टर उसके चारों ओर खडे उसे जीवित करने का प्रयास कर रहे थे । तभी उन्होंने एक मशीन से मेरी छाती पर झटके देने शुरू किये । उन झटकों से मेरा शरीर उछल रहा था । और मैं अपनी हड्डियों की चटख साफ़ सुन रही थी । इसके बाद मैंने अपने शरीर में कैसे प्रवेश किया । इसका ज्ञान मुझे नहीं है ।
ऐसी बहुत सी घटनायें देखी गई हैं । जब मरने वालों को मरने से पहले ही अजीब से अनुभव होने लगते हैं । इसलिए कहा जाता है कि मरने वाले को पहले ही मौत का आभास हो जाता है । एक घटनानुसार एक व्यक्ति को मरने से एक दो दिन पहले ही अपनी स्वर्गीय मां और बाप दिखने लगे थे । जो बार बार उसके कमरे के दरवाजे पर आकर खडे हो जाते । और उसे बुलाते । कभी उसे 2 सफ़ेद घोडे दिखाई देते । जो उसे ले जाने के लिये आसमान से उडते हुए आ रहे थे । ऐसी अनेकानेक घटनायें देखने और सुननें में आयी हैं । जब मरने वालों को अजीब अनुभव होते हैं ।
बहुत से लोगों को मरते समय तरह तरह की आवाजें सुनाई देती हैं । कई बार यह ध्वनि असहय हो जाती है । लोगों ने इस धवनि की तुलना सागर के गर्जन । हथौडे से ठोक पीट की आवाज । आरी से लकडी काटते समय होने वाली आवाज । तूफ़ान की आवाज आदि से की है । धवनि सुनते समय बहुत से व्यक्तियों को ऐसा प्रतीत होता है । मानो उन्हें अंधकारपूर्ण अंतरिक्ष में ले जाया जा रहा है । इस अंधकारमय स्थान के लिए उन्होंने अंतरिक्ष । सुरंग । गुफ़ा । कुआं । खाई आदि शब्दों का प्रयोग किया है ।
इसी प्रकार की अंतिम यात्रा करने वाले एक व्यक्ति का अनुभव इस प्रकार है । इस घटना के समय मैं 9 वर्ष का था । पर 27 साल बाद आज भी मुझे वह घटना पूरी तरह से याद है । उस समय मैं गंभीर रूप से बीमार था । इसलिए मुझे दोपहर को अस्पताल ले जाया गया । वहां डाक्टरों ने मुझे बेहोश करने का निर्णय लिया । इस काम के लिये उस समय ईथर का प्रयोग किया जाता था । मुझे बाद में पता चला कि ईथर का प्रयोग करते ही ह्रदय की गति रूक गई । अर्थात उस समय मुझे इसका ज्ञान नहीं था । परंतु उस समय मैं एक असाधारण अनुभव हुआ । मैं एक अंधेरे अन्तरिक्ष में खिंचने लगा ।
जब व्यक्ति अपने अंतिम समय में होता है । तो एक क्षण ऐसा आता है । जब वह तंद्रा में चला जाता है । और चित्रगुप्त के द्वारा उसके जीवन का सारा लेखा जोखा उसकी आंखों के सामने चलचित्र की भांति तैर जाता है । वे गोपनीय घटनाएं भी । जो उसके सिवा किसी और को नहीं पता होती है । उस चित्र में स्पष्ट हो जाती है । और इन विभिन्न कर्मों में से वह अगले जीवन के लिये कर्म चयन करता है । व्यक्ति अधिकतर छ्ल । झूठ । कपट । काम । भय । ईर्ष्या आदि से प्रभावित होता हुआ ही शरीर त्यागता है ।
कर्म और पुनर्जन्म एक दूसरे से जुडे हुए हैं । कर्मों के फ़ल के भोग के लिए ही पुनर्जन्म होता है । तथा पुनर्जन्म के कारण फ़िर नये कर्म संग्रहीत होते हैं । इस प्रकार पुनर्जन्म के 2 उद्देश्य हैं । पहला यह कि मनुष्य अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के फ़ल का भोग करता है । जिससे वह उनसे मुक्त हो जाता है । दूसरा यह कि इन भोगों से अनुभव प्राप्त करके नये जीवन में इनके सुधार का उपाय करता है । जिससे बार बार जन्म लेकर जीवात्मा विकास की ओर निरंतर बढती जाती है । तथा अंत में अपने संपूर्ण कर्मों द्वारा जीवन का क्षय करके मुक्तावस्था को प्राप्त होती है । एक जन्म में एक वर्ष में मनुष्य का पूर्ण विकास नहीं हो सकता । व्यक्ति का जीवन कई कडियों में बंधा है । और प्रत्येक कडी दूसरी कडी से जुडी है । इसीलिए एक जन्म के कार्यों का प्रभाव दूसरे जन्म के कार्यों पर पडता है । इस जन्म के संस्कार सूक्ष्म रूप से हमारे अंदर प्रविष्ट होकर अगले जन्म तक साथ जाते हैं । जिस प्रकार हम कई जानी अनजानी प्रवृतियों को अपने साथ लेकर इस जीवन में चल रहे होते हैं । उसी प्रकार पूर्व जन्मों या अगले जन्मों में भी कई जानी अनजानी प्रवृतियों को साथ लेकर उन जन्मों में चल रहे होते हैं ।
अपने पूर्व जीवन के स्मृति सूक्ष्म रूप में प्रत्येक व्यक्ति के मनोमस्तिष्क में रहती ही है । भले ही वह उसके सामने कभी निद्रावस्था में स्वप्न के माध्यम से प्रकट हो । या जाग्रतावस्था में ही बैठे बैठे उसके मानस में किसी विचार अथवा किसी बिंब के माध्यम से प्रकट हो । कई साधकों ने इस ध्यानावस्था में भांति भांति के विचार आकर घेर लेते हैं । उनके पीछे जहां एक ओर व्यक्ति के मन में वर्तमान समय में चल रहा कोई द्वंद्व होता है । वहीं उनका एक सूत्र पूर्व जीवन में भी छुपा होता है । प्राय इसी कारण कई साधकों को विचित्र विचित्र अनुभव होते रहते हैं । मनुष्य की आंतरिक खोज और बाह्य खोज । अर्थात आधुनिक विज्ञान की खोज दोनों से यह तो सिद्ध हो चुका है कि मृत्यु के पश्चात भी मनुष्य का अस्तित्व होता है । और यदि मृत्यु के बाद उसका अस्तित्व है । तो जन्म से पूर्व भी उसका अस्तित्व होना ही चाहिए । जब आत्मा जन्म लेती है । तो वह अपने अनुरूप विश्व के अनेक लोकों से मन । प्राण और शरीर को चुनती है । देह धारण के लिए शरीर को चुनती है । देह धारण के लिए उसे इन्हीं चीजों की आवश्यकता पडती है । मृत्यु के पश्चात शरीर पंच तत्वों में विलीन हो जाता है । शरीर । मन और आत्मा को बांधने वाला डोरी रूप प्राण सबसे पहले प्राण लोक में जाता है । मन मन: लोक में । और अंत में आत्मा चैत्यलोक में पहुंच जाती है । और वहीं अगले जन्म की प्रतीक्षा करती है । सामान्य मनुष्यों में ही ऐसा घटित होता है । योगी पुरूषों में ऐसा नहीं होता । चूंकि प्राण और मन अत्यधिक विकसित अवस्था में होते हैं । अत: ये अंतरात्मा अपने जन्म के समय मन । प्राण के अनुभवों के मुख्य तत्वों को साथ लाती है । ताकि नए जीवन में वह और अधिक प्राप्त करने में समर्थ हो सके ।
पुनर्जन्म वस्तुत: जीवन यात्रा का अगला चरण है । सतत गतिशीलता का अगला आयाम है । मरणासन्न मनुष्य को बडी बैचेनी । पीडा और छटपटाहट होती है । क्योंकि सब नाडियों से प्राण खिंच कर एक जगह एकत्रित होता है । प्राण निकलने का समय जब बिलकुल पास आ जाता है । तो व्यक्ति मूर्छित हो जाता है । अचेतन अवस्था में ही प्राण उसके शरीर से बाहर निकलते हैं । मरते समय वाणी आदि इंद्रियां मन में स्थित होती हैं । मन प्राण में और प्राण तेज में तथा तेज परमदेव जीवात्मा में स्थित होता है । जीवात्मा सूक्ष्म शरीर के साथ इस स्थूल शरीर से निकल जाती है । आकाश । वायु । जल । अग्नि और पृथ्वी शरीर के बीजभूत पांचो तत्वों का सूक्ष्म शरीर कहा गया है । सूक्ष्म शरीर का रंग शुभ्र ज्योति स्वरूप ( सफ़ेद ) होता है ।
साधारण मनुष्य के प्राण मुख । आंख । कान । या नाक से और पापी लोगों के प्राण मल मूत्र मार्ग से बाहर निकलते हैं । वह प्राण उदानवायु के सहारे जीवात्मा को उसके संकल्पानुसार भिन्न भिन्न लोकों मे ले जाता है । जीव अपने साथ धन दौलत तो नहीं । किंतु ज्ञान । पाप । पुण्य कर्मों के संस्कार अवश्य ही ले जाता है ।
यह सूक्ष्म शरीर ठीक स्थूल शरीर की ही बनावट का होता है । वायु रूप होने के कारण भारहीन होता है । मृतक को बडा आश्चर्य लगता है कि मेरा शरीर कितना हल्का हो गया है । कभी कभी स्थूल शरीर छोडने के बाद सूक्ष्म शरीर अंत्येष्टि क्रिया होने तक उसके आसपास ही मंडराता रहता है । कई विशिष्ट व्यक्ति 6 महीने में ही पुनर्जन्म ग्रहण कर लेते हैं । बहुतों को 5 वर्ष लग जाते हैं । प्रेतों की आयु अधिकतम 12 वर्ष समझी जाती है । जीव जितने समय तक परलोक में ठहरता है । उसका प्रथम एक तिहाई भाग निद्रा में व्यतीत होता है । क्योंकि पूर्वजन्म की थकान के कारण वह अचेतन सा हो जाता है । भौतिक शरीर की समाप्ति के बाद भी उसका अंतर्मन तो जीवित रहता है । इसी मन से वह अपने अच्छे बुरे कर्म के फ़लों का अनुभव करता है ।
संसार के 84 लाख योनियों को 3 मुख्य भागों में बांटा गया है । 1 - देव । 2 - मनुष्य । 3 - तिर्यक । देव और तिर्यक भोग योनियां है । जबकि मनुष्य कर्म योनि है ।
पुनर्जन्म का सिद्धांत तो यह कहता है कि हमारा यह जन्म हमारे पूर्व जन्मों में किये हुए कर्मों के आधार पर ही हमें मिलता है । तथा इस जन्म में किये जाने वाले कर्मों के आधार पर ही हमें अगला जन्म अर्थात पुनर्जन्म मिलता है । अथवा प्राप्त होता है ।
पुनर्जन्म का एक कारण है । अपने पूर्व जन्मों में किए गए स्थूल कर्मों का भोग । ये स्थूल कर्म स्थूल लोक में ही भोगे जा सकते हैं । इसलिए उन समस्त स्थूल कर्मों का फ़ल अंश संचित कोश में विधमान रहता है । जिसका थोडा सा अंश एक जन्म में भोग हेतु निर्धारित किया जाता है । जिसे ’प्रारब्ध’ कहा जाता है । यह प्रारब्ध अवश्य भोगना पडता है । भोगे बिना इससे मुक्ति नहीं होती । किंतु इस संचित कोश में कई ऐसे कर्म हैं । जो एक ही जन्म में नहीं भोगे जा सकते हैं । एक कर्म एक ही स्थान या पद से भोगा जा सकता है । किंतु दूसरा इसके विपरीत ऐसा कर्म है । जिसके लिये मनुष्य को दूसरा जन्म लेना पडेगा । संचित कर्म का कितना अंश एक जन्म में भोगना है । इसका निर्णय कर्म के अधिकारी देवता करते हैं । इसी भोग कर्म के अनुसार उसे कुल । देश । स्थान । वातावरण । शरीरादि मिलते हैं । ये कर्म कितने समय में मुक्त हो जाएंगे । इसके अनुसार उसकी आयु का निर्धारण होता है । कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति के शरीर में ऐसे चिह्न प्रकट होते हैं । जिनके आधार पर हस्त सामुद्रिक का विकास हुआ । इसी प्रारब्ध भोग के अनुसार उसके ज्ञान तंतुओं का विकास एवं मस्तिष्क की रचना होती है । जिससे वह मानसिक गुणों एवं अवगुणों को प्रकट कर सके ।
यदि कर्म नियम और पुनर्जन्म को नहीं माना जाए । तो ईश्वर उसे सुख दुख क्यों देता है । जबकि पूर्व के उसके बुरे कर्म हैं ही नहीं । ईश्वर ने बिना कारण किसी को दीन हीन व किसी को संपन्न क्यों बनाया । किसी को मूढ । व किसी को प्रतिभाशाली । किसी को ईमानदार । व किसी को बेईमान । किसी को परोपकारी । व किसी को अत्याचारी आदि क्यों बनाया ? ऐसे अनेक प्रश्नों का उत्तर एक जन्म मानने वाले नहीं दे सकते । जबकि इन सबका उत्तर कर्म नियम और पुनर्जन्म से ही मिलता है । अन्य कोई कारण ज्ञात नहीं हैं । जब पूर्वजन्म का कोई कर्म ही नहीं है । तो वह किसके भोग भोग रहा है ? यदि कर्मों का फ़ल एवं भोग नहीं है । तो कर्म अर्थहीन हो जाते हैं । फ़िर अच्छे और बुरे कर्म का औचित्य ही नहीं रहता । फ़िर तो कर्म पेट भरने का साधन मात्र रह जाते हैं । ऐसे में नैतिकता । सदाचार । प्रेम । दया । करूणा आदि गुण अर्थहीन हो जाएंगे । मनुष्य की भविष्य की सारी आशाएं तथा उसकी उन्नति का आधार ही समाप्त हो जाएगा ।
पंच महाभूतों से निर्मित इस स्थूल शरीर के अंदर एक सूक्ष्म शरीर भी होता है । तथा इन दोनों को चेष्टा जीवात्मा कराती है । जिसे कारण शरीर भी कहते हैं । यही कारण शरीर जीव मृत्यु होने पर स्थूल देह को यहीं छोडकर सूक्ष्म शरीर के साथ दूसरी नई स्थूल देह में निर्माण की प्रारंभिक स्थिति में ही प्रवेश कर जाता है । वह गर्भ में बढता हुआ निश्चित समय पर गर्भ से बाहर आकर धीरे-धीरे एक विकसित भिन्न स्वभावयुक्त मानव या कोई अन्य प्राणी बन जाता है । सूक्ष्म शरीर को अपने सामान्य नेत्रों से नहीं देखा जा सकता । इसी सूक्ष्म शरीर की आकृति के स्थूल शरीर की आकृति में पुन: प्रकट होने की क्रिया को पुनर्जन्म का नियम कहते हैं ।
किसी स्थान के प्रति प्रथम दृष्टि में ही अनुराग जागृत होने का कारण । पूर्व जीवन में उस स्थान पर रहने की भावना है । इसी प्रकार पहली बार ही किसी से मिलने पर प्रेम जागरण का कारण भी पूर्व जन्म में एक साथ व्यतीत किया जीवन या कुछ काल ही है । इसका तात्पर्य यह है कि इन दोनों जीवात्माओं में इससे पूर्व भी प्रेम था । तथा एक दूसरे से मिले थे । इस प्रकार के प्रेम का कदाचित ही विच्छेदन होता है ।
विकासवाद के सिद्धांत के समान ही पुनर्जन्म का सिद्धात है । विज्ञान कहता है कि मनुष्य अपने मस्तिष्क के 15 % भाग का ही उपयोग कर रहा है । सामान्य व्यक्ति तो उसके ढाई % का ही उपयोग कर जी रहा है । बाकी का अंश सुप्त पडा है । यदि इसे विकसित किया जा सके । तो प्रतिभा के विकास की अनंत संभावनाएं प्रकट हो सकती हैं । अध्यात्म भी सहस्त्राब्दियों से कहता आ रहा है कि मनुष्य में सभी ईश्वरीय शक्तियां विधमान हैं । जिन्हें जाग्रत करके मनुष्य ईश्वर तुल्य बनने की क्षमता प्राप्त कर सकता है ।
जब जीव अपने जन्म की तैयारी कर रहा होता है । तब दूसरी ओर उसके योग्य स्थूल शरीर बनाने की तैयारी दूसरों द्वारा की जा रही होती है । उस जीव के पूर्व जन्मों के संस्कारों के अनुसार उसके जन्म के स्थान । समय । कुल एवं वातावरण का तथा उसकी कामनाओं के अनुसार नये शरीर का निर्धारण होता है । योग्य शरीर का निर्धारण कर्मों के अधिकारी देवता करते हैं । सभी योग्यताओं वाला शरीर मिलना कठिन है । इसलिए एक शरीर से उसके थोडे से गुण ही प्रकट हो सकते हैं । अन्य गुणों के विकास के लिए उसे दूसरा जन्म लेना पडेगा । यह सारा कार्य कर्म के अधिकारी देव करते हैं । जीवात्मा के विकास की यह स्वभाविक प्रक्रिया है । जिसे यदि मनुष्य अपने दुराग्रह एवं अहंकार के कारण बाधा उपस्थित न करे । तो प्रक्रति के नियम के अनुसार चलकर वह स्वभाविक रूप से उन्नति करता हुआ कई जन्मों में जाकर पूर्णत्व की प्राप्ति कर सकता है ।
मनुष्य को निश्चय ही मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच में स्वर्ग नरक का अनुभव प्राप्त करना पडता है । स्वर्ग में जाने के बाद जब मनुष्य के पुण्य कर्मों का फ़ल समाप्त हो जाता है । तो उसे पुन: जन्म ग्रहण करना पडता है । इसी प्रकार नरक लोक में पाप कर्मों का फ़ल भुगत लेने के बाद जब व्यक्ति अपनी बुराईयों को दूर करके पवित्र हो जाता है । तब उसका पुनर्जन्म होता है । प्रेतयोनि में जाने के बाद पुनर्जन्म हेतु लगभग 12 वर्ष लग जाते हैं । हर जन्म में भोगों को भोगना । तथा उनसे होने वाले परिणामों से दुख उठाना । इससे मनुष्य कई जन्म में जाकर यह शिक्षा ग्रहण करता है कि इन वासनाओं के कारण ही आसक्ति होती है । तथा यही आसक्ति बंधन का कारण बनती है । इसी आसक्ति के कारण मनुष्य की इच्छा भोगों की ओर जाती है । किंतु सभी भोग अंत में दुखदायी ही सिद्ध होते हैं । इसके बाद उसकी भोगों के प्रति अरूचि हो जाती है । यही उसका ’वैराग्य’ है । यह उच्च चेतना प्राप्त व्यक्तियों का अनुभव है । जो उन ग्यानियों के वचन मानकर विरक्त हो जाता है । उसकी प्रगति शीघ्र होती है । अन्यथा स्वयं अनुभव प्राप्त करने में कई जन्म गंवाने पडते हैं । सृष्टि का नियम ही ऐसा है कि कर्म का फ़ल अवश्य होता है । तथा सभी भोग अंत में दुखदायी होते हैं । यह त्याग आंतरिक प्रेरणा से होता है । तभी सच्चा वैराग्य है ।
माया । भृम । अज्ञान के अनेक मार्ग हैं । किन्तु सत्य का एक ही मार्ग है । जब वासना एवं कामना से व्यक्ति ऊपर उठ जाता है । तभी उसे ईश्वर के सामीप्य का अनुभव होता है । जब तक मुक्ति न हो जाए । तब तक इस जन्म मृत्यु के चक्र से गुजरना पडेगा । ईश्वर और आत्मा को जान लेने मात्र से कुछ लाभ नहीं होता । इनका उपरोक्ष अनुभव ही अन्तिम सुख प्रदान करता है । राज ।
चलिए पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर प्रकाश डालते है । प्रत्येक व्यक्ति में जन्म से ही कुछ विचित्र व्यवहार होते हैं । और वे आमरण बने रहते हैं । इन विचित्रताओं का समाधान पुनर्जन्म के सिद्धान्त से संतोषपूर्वक हो सकता है । जब 12 वर्षीय शुकदेव ने वेद ऋचाओं के गहन अभ्यास का परिचय दिया । या 8 वर्षीय ज्ञानदेव ने शास्त्रार्थ द्वारा अपनी अलौकिक प्रतिभा का परिचय दिया । तो उनकी इस अलौकिकता का समाधान पूर्वजन्म के संस्कारों से ही होता है ।
पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानना एक बात है । और उसमें पूर्ण आस्था होना दूसरी । एक उदाहरण लीजिये - यहां कोई व्यक्ति किसी एक आदमी की हत्या करता है । तो उसे फ़ांसी की सजा दी जाती है । और यदि वह 10 आदमियों की हत्या करे । तो भी उसे फ़ांसी ही दी जाती है । और यदि 50 आदमियों की हत्या करे । तो भी उसे फ़ांसी ही दी जाती है । 1 आदमी की हत्या से 50 आदमियों की हत्या का पाप अधिक है । अपराध बडा है । परन्तु यहाँ सभी की सजा एक जैसी फ़ांसी ही सुनाई जा सकती है । जो वस्तुत: देखा जाए तो न्याय नहीं हुआ । अत: इसके न्याय हेतु अवश्य ही नरकादि गतियों में पुनर्जन्म का अस्तित्व मानना होगा ।
पुनर्जन्म से सम्बन्धित अनेक बातें सुनने और अखबारों में पढने को मिलती हैं । 6 जनवरी 2008 को नई दिल्ली से प्रकाशित नवभारत टाइम्स में प्रकाशित एक उदाहरण देखिए - UP के कस्बे जट्टारी की 7 साल की आरती कहती है कि - मेरा पुनर्जन्म हुआ है । उसका दावा है कि पिछले जन्म में वह नजदीक के गांव फ़ुलवाडी में रहती
थी । और उसका नाम रिसाली था । इस बच्ची को देखने के लिए लोगों का तांता लगा हुआ है । आरती के पिता हरिकृष्ण कहते हैं कि जब से बेटी ने होश संभाला है । वह खुद को रिसाली बताती है । जब 7 साल की हुई । तो फ़ुलवाडी खबर भेजी । पता चला कि वहां रिसाली नाम की वृद्धा की 11 साल पहले 85 की उम्र में मौत हो गई थी ।
सन्देश पाकर उनका रंजीत घर आया । और आरती ने पहचान लिया । और घर परिवर की बातें करने लगी । आरती को फ़ुलवाडी गांव लाया गया । उसे घर से काफ़ी पहले ही छोड दिया गया । लेकिन उसने पुराना घर पहचान लिया ।
अब इसे क्या कहेंगे आप ? पूर्वजन्म का इस जन्म से कुछ तो जुडाव होगा ही । शायद ये यात्रा ही हो । जो एक
जन्म से दूसरे जन्म । और फ़िर तीसरे जन्म । इस तरह ये सिलसिला चलता ही रहेगा । पूर्वजन्म और परलोक की घटनाओं और बातों में परिवर्तन और फ़ेरफ़ार की गुंजाइश तो है ही नहीं । तब फ़िर हम उसे जानकर क्या कर सकेंगे ?
हाँ यह अवश्य कहा जा सकता है कि पूर्वजन्म को तो हम सुधार नहीं सकते । परन्तु परलोक को तो बिगडने से सुधारा जा सकता है । मनुष्य के अच्छे बुरे कर्मों का फ़ल उसे भोगना पडता है । इसी जन्म में अथवा जन्मान्तर में । वाल्मीकी रामायण में कहा गया है कि - कर्म ही समस्त कारणों का । सुख दुख के साधनों का मूल प्रयोजन है । स्वकर्म से मनुष्य बच नहीं सकता । कहा भी गया है - स्वंय किये जो कर्म शुभाशुभ । फ़ल निश्चय ही वे देते । मनुष्य के अच्छे बुरे कर्म उसे नहीं छोडते ।
पुनर्जन्म की मान्यता को मानने से ही यह गुत्थी सुलझ सकती है कि अनेक बार " पुण्यवान व्यक्ति दुख का " एवं " दुराचारी सुख का जीवन " क्यों बिताते है ? भले ही एक पुण्य का काम इस जन्म में सुख उत्पन्न न करे । किन्तु वह किसी न किसी अगले जन्म में ऐसा करेगा अवश्य । और यह कि यदि कोई पापी व्यक्ति आज सुख का जीवन बिता रहा है । तो उसने अवश्य किसी पिछले जन्म में पुण्य का काम किया होगा । जबकि उसे आज के पापों का फ़ल यदि इस जन्म में नहीं तो किसी अगले जन्म में उसे मिलेगा अवश्य ।
आखिरी पलों का हाले बयां एवं पुनर्जन्म - मनुष्य अंतिम क्षण में क्या देखता है ? कोई ऐसी अलौकिक शक्ति अवश्य है । जो मृत्यु की बेला में व्यक्ति के लिए ताना बाना बुनती हैं । जिससे उसकी प्रक्रिया ही बदल जाती है । जिस मृत्यु से वह कभी भय खाता था । उसका आलिंगन करने के लिए प्रसन्नतापूर्वक तैयार हो जाता है । कोई वृद्ध व्यक्ति कहता है कि - कई वर्ष पहले मरी हुई उसकी पत्नी उससे मिलने आयी थी । वह बोली । अब मेरे साथ चलो । मेरा अकेले मन नहीं लगता । और उसके थोडी देर बाद उसका देहांत हो जाता है ।
- किसी स्त्री ने अपने दिवंगत पति को देखा । और वह उसके साथ जाने को तैयार हो गई । और थोडी देर बाद उसकी मृत्यु हो गई ।
मृत्यु के समय के अनुभव का सबसे महत्वपूर्ण भाग है - एक अलैकिक तीव्र प्रकाश का दिखाई देना । प्रारंभ में यह प्रकाश धुंधला होता है । फ़िर शीघ्र उसमें एक अलौकिक शक्तिशाली तेज आ जाता है । भुक्तभोगी कहते हैं कि - उसका रंग अत्यंत धवल या स्फ़टिक के समान पारदर्शक होता है । यह प्रकाश अत्यंत तीव्र होता है । फ़िर भी इसमें नेत्रों के सामने चकाचौंध नहीं होती । उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता । प्रकाश जीव से भेंट हो जाने के पश्चात दिवंगत अपने शरीर में लौटना नहीं चाहता । वहां उसे अत्यंत सुख और शांति मिलती है ।
एक घटना के अनुसार एक रोगी के पेट का आपरेशन किया जा रहा था । तभी उसकी मौत हो गई । और वह 20 मिनट तक इसी स्थिति में रहा । इसके बाद उसमें फ़िर से जीवन लौट आया । पुनजीर्वित होने के बाद उसने बताया कि जब उसकी मृत्यु हुई । तो उसे लगा जैसे उसके सिर से भिनभिनाने की तेज आवाज निकल रही है । एक स्त्री ने भी मृत्यु के समय इसी प्रकार की ध्वनि का उल्लेख किया है । एक और व्यक्ति ने जिसे मृत्यु का अनुभव हो चुका था । बताया कि - उसे लगा कि जैसे वह अचानक ही किसी गहरी अंधेरी खाई में चला गया है । जिसमें एक मार्ग है । और वह उस पर तेजी से चला जा रहा है ।
इसी प्रकार एक स्त्री ने बताया कि कुछ वर्ष पूर्व जब मैं ह्रदय रोग से पीडित होकर अस्पताल में दाखिल हुई थी । तो मेरे ह्रदय में असहनीय पीडा हो रही थी । तभी मुझ लगा । जैसे मेरी सांस रूक गई है । और ह्रदय ने धडकना बंद कर दिया है । मैने अनुभव किया कि मैं शरीर से निकलकर पलंग की पाटी पर आ गई हूं । इसके बाद फ़र्श पर चली गई हूं । फ़िर धीरे धीरे उठना शुरू हुआ । मैं कागज के टुकडे की तरह उडकर ऊपर उठ रही थी । और छत की तरफ़ जा रही थी । वहां पहुंच कर मैं काफ़ी समय तक डाक्टरों को कार्य करते देखती रही । मेरा शरीर बिस्तर पर सीधा पडा था । और डांक्टर उसके चारों ओर खडे उसे जीवित करने का प्रयास कर रहे थे । तभी उन्होंने एक मशीन से मेरी छाती पर झटके देने शुरू किये । उन झटकों से मेरा शरीर उछल रहा था । और मैं अपनी हड्डियों की चटख साफ़ सुन रही थी । इसके बाद मैंने अपने शरीर में कैसे प्रवेश किया । इसका ज्ञान मुझे नहीं है ।
ऐसी बहुत सी घटनायें देखी गई हैं । जब मरने वालों को मरने से पहले ही अजीब से अनुभव होने लगते हैं । इसलिए कहा जाता है कि मरने वाले को पहले ही मौत का आभास हो जाता है । एक घटनानुसार एक व्यक्ति को मरने से एक दो दिन पहले ही अपनी स्वर्गीय मां और बाप दिखने लगे थे । जो बार बार उसके कमरे के दरवाजे पर आकर खडे हो जाते । और उसे बुलाते । कभी उसे 2 सफ़ेद घोडे दिखाई देते । जो उसे ले जाने के लिये आसमान से उडते हुए आ रहे थे । ऐसी अनेकानेक घटनायें देखने और सुननें में आयी हैं । जब मरने वालों को अजीब अनुभव होते हैं ।
बहुत से लोगों को मरते समय तरह तरह की आवाजें सुनाई देती हैं । कई बार यह ध्वनि असहय हो जाती है । लोगों ने इस धवनि की तुलना सागर के गर्जन । हथौडे से ठोक पीट की आवाज । आरी से लकडी काटते समय होने वाली आवाज । तूफ़ान की आवाज आदि से की है । धवनि सुनते समय बहुत से व्यक्तियों को ऐसा प्रतीत होता है । मानो उन्हें अंधकारपूर्ण अंतरिक्ष में ले जाया जा रहा है । इस अंधकारमय स्थान के लिए उन्होंने अंतरिक्ष । सुरंग । गुफ़ा । कुआं । खाई आदि शब्दों का प्रयोग किया है ।
इसी प्रकार की अंतिम यात्रा करने वाले एक व्यक्ति का अनुभव इस प्रकार है । इस घटना के समय मैं 9 वर्ष का था । पर 27 साल बाद आज भी मुझे वह घटना पूरी तरह से याद है । उस समय मैं गंभीर रूप से बीमार था । इसलिए मुझे दोपहर को अस्पताल ले जाया गया । वहां डाक्टरों ने मुझे बेहोश करने का निर्णय लिया । इस काम के लिये उस समय ईथर का प्रयोग किया जाता था । मुझे बाद में पता चला कि ईथर का प्रयोग करते ही ह्रदय की गति रूक गई । अर्थात उस समय मुझे इसका ज्ञान नहीं था । परंतु उस समय मैं एक असाधारण अनुभव हुआ । मैं एक अंधेरे अन्तरिक्ष में खिंचने लगा ।
जब व्यक्ति अपने अंतिम समय में होता है । तो एक क्षण ऐसा आता है । जब वह तंद्रा में चला जाता है । और चित्रगुप्त के द्वारा उसके जीवन का सारा लेखा जोखा उसकी आंखों के सामने चलचित्र की भांति तैर जाता है । वे गोपनीय घटनाएं भी । जो उसके सिवा किसी और को नहीं पता होती है । उस चित्र में स्पष्ट हो जाती है । और इन विभिन्न कर्मों में से वह अगले जीवन के लिये कर्म चयन करता है । व्यक्ति अधिकतर छ्ल । झूठ । कपट । काम । भय । ईर्ष्या आदि से प्रभावित होता हुआ ही शरीर त्यागता है ।
कर्म और पुनर्जन्म एक दूसरे से जुडे हुए हैं । कर्मों के फ़ल के भोग के लिए ही पुनर्जन्म होता है । तथा पुनर्जन्म के कारण फ़िर नये कर्म संग्रहीत होते हैं । इस प्रकार पुनर्जन्म के 2 उद्देश्य हैं । पहला यह कि मनुष्य अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के फ़ल का भोग करता है । जिससे वह उनसे मुक्त हो जाता है । दूसरा यह कि इन भोगों से अनुभव प्राप्त करके नये जीवन में इनके सुधार का उपाय करता है । जिससे बार बार जन्म लेकर जीवात्मा विकास की ओर निरंतर बढती जाती है । तथा अंत में अपने संपूर्ण कर्मों द्वारा जीवन का क्षय करके मुक्तावस्था को प्राप्त होती है । एक जन्म में एक वर्ष में मनुष्य का पूर्ण विकास नहीं हो सकता । व्यक्ति का जीवन कई कडियों में बंधा है । और प्रत्येक कडी दूसरी कडी से जुडी है । इसीलिए एक जन्म के कार्यों का प्रभाव दूसरे जन्म के कार्यों पर पडता है । इस जन्म के संस्कार सूक्ष्म रूप से हमारे अंदर प्रविष्ट होकर अगले जन्म तक साथ जाते हैं । जिस प्रकार हम कई जानी अनजानी प्रवृतियों को अपने साथ लेकर इस जीवन में चल रहे होते हैं । उसी प्रकार पूर्व जन्मों या अगले जन्मों में भी कई जानी अनजानी प्रवृतियों को साथ लेकर उन जन्मों में चल रहे होते हैं ।
अपने पूर्व जीवन के स्मृति सूक्ष्म रूप में प्रत्येक व्यक्ति के मनोमस्तिष्क में रहती ही है । भले ही वह उसके सामने कभी निद्रावस्था में स्वप्न के माध्यम से प्रकट हो । या जाग्रतावस्था में ही बैठे बैठे उसके मानस में किसी विचार अथवा किसी बिंब के माध्यम से प्रकट हो । कई साधकों ने इस ध्यानावस्था में भांति भांति के विचार आकर घेर लेते हैं । उनके पीछे जहां एक ओर व्यक्ति के मन में वर्तमान समय में चल रहा कोई द्वंद्व होता है । वहीं उनका एक सूत्र पूर्व जीवन में भी छुपा होता है । प्राय इसी कारण कई साधकों को विचित्र विचित्र अनुभव होते रहते हैं । मनुष्य की आंतरिक खोज और बाह्य खोज । अर्थात आधुनिक विज्ञान की खोज दोनों से यह तो सिद्ध हो चुका है कि मृत्यु के पश्चात भी मनुष्य का अस्तित्व होता है । और यदि मृत्यु के बाद उसका अस्तित्व है । तो जन्म से पूर्व भी उसका अस्तित्व होना ही चाहिए । जब आत्मा जन्म लेती है । तो वह अपने अनुरूप विश्व के अनेक लोकों से मन । प्राण और शरीर को चुनती है । देह धारण के लिए शरीर को चुनती है । देह धारण के लिए उसे इन्हीं चीजों की आवश्यकता पडती है । मृत्यु के पश्चात शरीर पंच तत्वों में विलीन हो जाता है । शरीर । मन और आत्मा को बांधने वाला डोरी रूप प्राण सबसे पहले प्राण लोक में जाता है । मन मन: लोक में । और अंत में आत्मा चैत्यलोक में पहुंच जाती है । और वहीं अगले जन्म की प्रतीक्षा करती है । सामान्य मनुष्यों में ही ऐसा घटित होता है । योगी पुरूषों में ऐसा नहीं होता । चूंकि प्राण और मन अत्यधिक विकसित अवस्था में होते हैं । अत: ये अंतरात्मा अपने जन्म के समय मन । प्राण के अनुभवों के मुख्य तत्वों को साथ लाती है । ताकि नए जीवन में वह और अधिक प्राप्त करने में समर्थ हो सके ।
पुनर्जन्म वस्तुत: जीवन यात्रा का अगला चरण है । सतत गतिशीलता का अगला आयाम है । मरणासन्न मनुष्य को बडी बैचेनी । पीडा और छटपटाहट होती है । क्योंकि सब नाडियों से प्राण खिंच कर एक जगह एकत्रित होता है । प्राण निकलने का समय जब बिलकुल पास आ जाता है । तो व्यक्ति मूर्छित हो जाता है । अचेतन अवस्था में ही प्राण उसके शरीर से बाहर निकलते हैं । मरते समय वाणी आदि इंद्रियां मन में स्थित होती हैं । मन प्राण में और प्राण तेज में तथा तेज परमदेव जीवात्मा में स्थित होता है । जीवात्मा सूक्ष्म शरीर के साथ इस स्थूल शरीर से निकल जाती है । आकाश । वायु । जल । अग्नि और पृथ्वी शरीर के बीजभूत पांचो तत्वों का सूक्ष्म शरीर कहा गया है । सूक्ष्म शरीर का रंग शुभ्र ज्योति स्वरूप ( सफ़ेद ) होता है ।
साधारण मनुष्य के प्राण मुख । आंख । कान । या नाक से और पापी लोगों के प्राण मल मूत्र मार्ग से बाहर निकलते हैं । वह प्राण उदानवायु के सहारे जीवात्मा को उसके संकल्पानुसार भिन्न भिन्न लोकों मे ले जाता है । जीव अपने साथ धन दौलत तो नहीं । किंतु ज्ञान । पाप । पुण्य कर्मों के संस्कार अवश्य ही ले जाता है ।
यह सूक्ष्म शरीर ठीक स्थूल शरीर की ही बनावट का होता है । वायु रूप होने के कारण भारहीन होता है । मृतक को बडा आश्चर्य लगता है कि मेरा शरीर कितना हल्का हो गया है । कभी कभी स्थूल शरीर छोडने के बाद सूक्ष्म शरीर अंत्येष्टि क्रिया होने तक उसके आसपास ही मंडराता रहता है । कई विशिष्ट व्यक्ति 6 महीने में ही पुनर्जन्म ग्रहण कर लेते हैं । बहुतों को 5 वर्ष लग जाते हैं । प्रेतों की आयु अधिकतम 12 वर्ष समझी जाती है । जीव जितने समय तक परलोक में ठहरता है । उसका प्रथम एक तिहाई भाग निद्रा में व्यतीत होता है । क्योंकि पूर्वजन्म की थकान के कारण वह अचेतन सा हो जाता है । भौतिक शरीर की समाप्ति के बाद भी उसका अंतर्मन तो जीवित रहता है । इसी मन से वह अपने अच्छे बुरे कर्म के फ़लों का अनुभव करता है ।
संसार के 84 लाख योनियों को 3 मुख्य भागों में बांटा गया है । 1 - देव । 2 - मनुष्य । 3 - तिर्यक । देव और तिर्यक भोग योनियां है । जबकि मनुष्य कर्म योनि है ।
पुनर्जन्म का सिद्धांत तो यह कहता है कि हमारा यह जन्म हमारे पूर्व जन्मों में किये हुए कर्मों के आधार पर ही हमें मिलता है । तथा इस जन्म में किये जाने वाले कर्मों के आधार पर ही हमें अगला जन्म अर्थात पुनर्जन्म मिलता है । अथवा प्राप्त होता है ।
पुनर्जन्म का एक कारण है । अपने पूर्व जन्मों में किए गए स्थूल कर्मों का भोग । ये स्थूल कर्म स्थूल लोक में ही भोगे जा सकते हैं । इसलिए उन समस्त स्थूल कर्मों का फ़ल अंश संचित कोश में विधमान रहता है । जिसका थोडा सा अंश एक जन्म में भोग हेतु निर्धारित किया जाता है । जिसे ’प्रारब्ध’ कहा जाता है । यह प्रारब्ध अवश्य भोगना पडता है । भोगे बिना इससे मुक्ति नहीं होती । किंतु इस संचित कोश में कई ऐसे कर्म हैं । जो एक ही जन्म में नहीं भोगे जा सकते हैं । एक कर्म एक ही स्थान या पद से भोगा जा सकता है । किंतु दूसरा इसके विपरीत ऐसा कर्म है । जिसके लिये मनुष्य को दूसरा जन्म लेना पडेगा । संचित कर्म का कितना अंश एक जन्म में भोगना है । इसका निर्णय कर्म के अधिकारी देवता करते हैं । इसी भोग कर्म के अनुसार उसे कुल । देश । स्थान । वातावरण । शरीरादि मिलते हैं । ये कर्म कितने समय में मुक्त हो जाएंगे । इसके अनुसार उसकी आयु का निर्धारण होता है । कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति के शरीर में ऐसे चिह्न प्रकट होते हैं । जिनके आधार पर हस्त सामुद्रिक का विकास हुआ । इसी प्रारब्ध भोग के अनुसार उसके ज्ञान तंतुओं का विकास एवं मस्तिष्क की रचना होती है । जिससे वह मानसिक गुणों एवं अवगुणों को प्रकट कर सके ।
यदि कर्म नियम और पुनर्जन्म को नहीं माना जाए । तो ईश्वर उसे सुख दुख क्यों देता है । जबकि पूर्व के उसके बुरे कर्म हैं ही नहीं । ईश्वर ने बिना कारण किसी को दीन हीन व किसी को संपन्न क्यों बनाया । किसी को मूढ । व किसी को प्रतिभाशाली । किसी को ईमानदार । व किसी को बेईमान । किसी को परोपकारी । व किसी को अत्याचारी आदि क्यों बनाया ? ऐसे अनेक प्रश्नों का उत्तर एक जन्म मानने वाले नहीं दे सकते । जबकि इन सबका उत्तर कर्म नियम और पुनर्जन्म से ही मिलता है । अन्य कोई कारण ज्ञात नहीं हैं । जब पूर्वजन्म का कोई कर्म ही नहीं है । तो वह किसके भोग भोग रहा है ? यदि कर्मों का फ़ल एवं भोग नहीं है । तो कर्म अर्थहीन हो जाते हैं । फ़िर अच्छे और बुरे कर्म का औचित्य ही नहीं रहता । फ़िर तो कर्म पेट भरने का साधन मात्र रह जाते हैं । ऐसे में नैतिकता । सदाचार । प्रेम । दया । करूणा आदि गुण अर्थहीन हो जाएंगे । मनुष्य की भविष्य की सारी आशाएं तथा उसकी उन्नति का आधार ही समाप्त हो जाएगा ।
पंच महाभूतों से निर्मित इस स्थूल शरीर के अंदर एक सूक्ष्म शरीर भी होता है । तथा इन दोनों को चेष्टा जीवात्मा कराती है । जिसे कारण शरीर भी कहते हैं । यही कारण शरीर जीव मृत्यु होने पर स्थूल देह को यहीं छोडकर सूक्ष्म शरीर के साथ दूसरी नई स्थूल देह में निर्माण की प्रारंभिक स्थिति में ही प्रवेश कर जाता है । वह गर्भ में बढता हुआ निश्चित समय पर गर्भ से बाहर आकर धीरे-धीरे एक विकसित भिन्न स्वभावयुक्त मानव या कोई अन्य प्राणी बन जाता है । सूक्ष्म शरीर को अपने सामान्य नेत्रों से नहीं देखा जा सकता । इसी सूक्ष्म शरीर की आकृति के स्थूल शरीर की आकृति में पुन: प्रकट होने की क्रिया को पुनर्जन्म का नियम कहते हैं ।
किसी स्थान के प्रति प्रथम दृष्टि में ही अनुराग जागृत होने का कारण । पूर्व जीवन में उस स्थान पर रहने की भावना है । इसी प्रकार पहली बार ही किसी से मिलने पर प्रेम जागरण का कारण भी पूर्व जन्म में एक साथ व्यतीत किया जीवन या कुछ काल ही है । इसका तात्पर्य यह है कि इन दोनों जीवात्माओं में इससे पूर्व भी प्रेम था । तथा एक दूसरे से मिले थे । इस प्रकार के प्रेम का कदाचित ही विच्छेदन होता है ।
विकासवाद के सिद्धांत के समान ही पुनर्जन्म का सिद्धात है । विज्ञान कहता है कि मनुष्य अपने मस्तिष्क के 15 % भाग का ही उपयोग कर रहा है । सामान्य व्यक्ति तो उसके ढाई % का ही उपयोग कर जी रहा है । बाकी का अंश सुप्त पडा है । यदि इसे विकसित किया जा सके । तो प्रतिभा के विकास की अनंत संभावनाएं प्रकट हो सकती हैं । अध्यात्म भी सहस्त्राब्दियों से कहता आ रहा है कि मनुष्य में सभी ईश्वरीय शक्तियां विधमान हैं । जिन्हें जाग्रत करके मनुष्य ईश्वर तुल्य बनने की क्षमता प्राप्त कर सकता है ।
जब जीव अपने जन्म की तैयारी कर रहा होता है । तब दूसरी ओर उसके योग्य स्थूल शरीर बनाने की तैयारी दूसरों द्वारा की जा रही होती है । उस जीव के पूर्व जन्मों के संस्कारों के अनुसार उसके जन्म के स्थान । समय । कुल एवं वातावरण का तथा उसकी कामनाओं के अनुसार नये शरीर का निर्धारण होता है । योग्य शरीर का निर्धारण कर्मों के अधिकारी देवता करते हैं । सभी योग्यताओं वाला शरीर मिलना कठिन है । इसलिए एक शरीर से उसके थोडे से गुण ही प्रकट हो सकते हैं । अन्य गुणों के विकास के लिए उसे दूसरा जन्म लेना पडेगा । यह सारा कार्य कर्म के अधिकारी देव करते हैं । जीवात्मा के विकास की यह स्वभाविक प्रक्रिया है । जिसे यदि मनुष्य अपने दुराग्रह एवं अहंकार के कारण बाधा उपस्थित न करे । तो प्रक्रति के नियम के अनुसार चलकर वह स्वभाविक रूप से उन्नति करता हुआ कई जन्मों में जाकर पूर्णत्व की प्राप्ति कर सकता है ।
मनुष्य को निश्चय ही मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच में स्वर्ग नरक का अनुभव प्राप्त करना पडता है । स्वर्ग में जाने के बाद जब मनुष्य के पुण्य कर्मों का फ़ल समाप्त हो जाता है । तो उसे पुन: जन्म ग्रहण करना पडता है । इसी प्रकार नरक लोक में पाप कर्मों का फ़ल भुगत लेने के बाद जब व्यक्ति अपनी बुराईयों को दूर करके पवित्र हो जाता है । तब उसका पुनर्जन्म होता है । प्रेतयोनि में जाने के बाद पुनर्जन्म हेतु लगभग 12 वर्ष लग जाते हैं । हर जन्म में भोगों को भोगना । तथा उनसे होने वाले परिणामों से दुख उठाना । इससे मनुष्य कई जन्म में जाकर यह शिक्षा ग्रहण करता है कि इन वासनाओं के कारण ही आसक्ति होती है । तथा यही आसक्ति बंधन का कारण बनती है । इसी आसक्ति के कारण मनुष्य की इच्छा भोगों की ओर जाती है । किंतु सभी भोग अंत में दुखदायी ही सिद्ध होते हैं । इसके बाद उसकी भोगों के प्रति अरूचि हो जाती है । यही उसका ’वैराग्य’ है । यह उच्च चेतना प्राप्त व्यक्तियों का अनुभव है । जो उन ग्यानियों के वचन मानकर विरक्त हो जाता है । उसकी प्रगति शीघ्र होती है । अन्यथा स्वयं अनुभव प्राप्त करने में कई जन्म गंवाने पडते हैं । सृष्टि का नियम ही ऐसा है कि कर्म का फ़ल अवश्य होता है । तथा सभी भोग अंत में दुखदायी होते हैं । यह त्याग आंतरिक प्रेरणा से होता है । तभी सच्चा वैराग्य है ।
माया । भृम । अज्ञान के अनेक मार्ग हैं । किन्तु सत्य का एक ही मार्ग है । जब वासना एवं कामना से व्यक्ति ऊपर उठ जाता है । तभी उसे ईश्वर के सामीप्य का अनुभव होता है । जब तक मुक्ति न हो जाए । तब तक इस जन्म मृत्यु के चक्र से गुजरना पडेगा । ईश्वर और आत्मा को जान लेने मात्र से कुछ लाभ नहीं होता । इनका उपरोक्ष अनुभव ही अन्तिम सुख प्रदान करता है । राज ।
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