जय गुरूदेव की ! राजीव जी ! आपकी बातें कुछ समझ में आई । और कुछ नहीं । आपने लिखा है कि बीमारी गँभीर है । दवा अपना असर देर से दिखायेगी । लेकिन राजीव जी मरीज को लगना तो चाहिये । ना कि दवा ने अपना असर करना शुरू कर दिया है । और रहा मैं करता नही । सब अपने आप ही होता है । ये सोच तो मेरी बचपन से ही रही है । मैं मानता हूँ कि जब से मैं सतसंग में जाने लगा । और आज तक आपका ब्लाग पढा । तो ज्ञान में बहुत वृद्धि हुई है । पर है तो किताबी ज्ञान ही । बात तो प्रक्टीकल की है ।
राजीव जी ! आपने कहा - अगले जन्म में मिलेंगे । अब अगला जन्म किसने देखा है । आप कहेंगे मैंने देखा है । तो मैं कैसे आपकी बात मान लूँ । आप ही ने पिछले लेख में कहा कि किसी की भी बात बिना जाने बिना देखे नहीं माननी चाहिये । पिछले जन्म के सँस्कार से ये जन्म मिला है । और इस जन्म के सँस्कारो से अगला जन्म अच्छा मिलेगा । ये बातें रही तो किताबी बातें ही पढने वाले के लिये । जब तक कि वो कुछ भी अगला पिछला देख ना ले । मान लेता हूँ कि मेरे सँस्कार नहीं है । और मैं इस जन्म में भक्ति में कोई मुकाम हासिल नहीं कर सकता । तो परमात्मा ने ये लगन ही क्यों लगाई । और जो लगन लगाई । तो पूर्ति करने वाला भी तो वो ही है । अगला पिछला किसने देखा है । राजीव जी ! कुछ बताईये ।
जय गुरूदेव की ! राजीव जी ! कुछ बातें लिखना भूल गया । मेरा दोस्त मिला था । जिसका जिक्र मैंने लेख में किया था । अब बताईये । उसके समर्पण में कोई कमी दिखी आपको । जिस आदमी ने मुँहमाँगी वस्तु अपने गुरू को सौंप दी हो । क्या उसके समर्पण में कोई कमी रह जाती है । कह रहा था कि अब तो गुरू शब्द पर ही विश्वास करने का मन नहीं करता । अब शायद आप कहेंगे कि वो गुरू ही नहीं था ? जिसने आपके दोस्त के साथ ऐसा किया । पर उसका विश्वास तो सत्य था । और ना भी हो । तो ये कैसे पता चले कि गुरू पूर्ण था । या अधूरा था ? हालाँकि मेरा ये मानना है कि गुरू शब्द ही अपने आप में पूर्ण ही होता है ? गुरू कभी अधूरा नहीं होता । कुछ प्रकाश डालिये ।
- पर वो मुझे कहते थे कि जब शिष्य समर्पण कर देता है । तो फिर गुरू सुरति को सहारा देकर ले जाते हैं । और ये
गुरू के लिये मामूली बात है । अब राजीव जी ! मुझे तो उनसे कोई शिकायत नहीं है । क्या ये सुरति को सहारा देने वाली बात सही है । मैं पूर्ण समर्पित शिष्य हूँ । ऐसा तो मैं नही कहता । पर गुरूदेव जी के लिये आदर भाव में तो कोई कमी नहीं है मेरे मन में । राजीव जी ! इस विषय पर कुछ बताना ।
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बीमारी गँभीर है । दवा अपना असर देर से दिखायेगी - सभी गृंथों में संसार को भवरोग कहा गया है । भव यानी संसार । अतः ये बात मैंने सिर्फ़ आपके लिये न कहकर एक सामान्य बात कही थी । राजा जनक जैसे महाज्ञानी वृद्धावस्था में आकर । पूर्व में हजारों ज्ञानियों द्वारा सतसंग पाकर । तब अन्त में चेतन ज्ञान को बालक अष्टावक्र द्वारा जान पाते हैं । राजा वीर सिंह कबीर के यहाँ झाङू पोंछा करता है । और फ़िर कई महीनों बाद उसके ऊपर मल फ़ेंकने पर । और तब भी उसे बुरा न लगने पर । कबीर द्वारा हँसदीक्षा दी जाती है । वास्तव में सही दीक्षा का तरीका ही यही है कि इच्छुक व्यक्ति 6 महीने गुरु की सेवा में रहकर उनका सतसंग सुने । भले ही उसने वैसा ही सतसंग पूर्व में क्यों न सुन रखा हो । इससे पूर्वकाल की सभी छाप अंतर्मन से हट जाती है । जो ज्ञान में बहुत बाधक होती है । तब उचित समय आने पर ( जब गुरु उचित समझें ) जमीन के अन्दर अंडरग्राउण्ड बनी गुफ़ा में । जहाँ सुई के गिरने की भी आवाज न हो । और बाहरी प्रकाश न हो । शिष्य को दीक्षा दी जाती है । दूसरे जहाँ कोई सन्त या बहुत से महात्मा भजन ध्यान करते हैं । वह स्थान सिद्ध हो जाता है । इससे वहाँ की तरंगों में दिव्यता और अलौकिकता होती है । जो पूर्ण दीक्षा हेतु बहुत आवश्यक होती है । अब आराम से समझा जा सकता है कि 6 महीने का साधुई जीवन और सन्तों की सेवा ही व्यक्ति में बहुत बदलाव ला देती है । वह स्वतः अन्दर से साधु ही हो जाता है । तब दीक्षा एकदम पूर्णरूपेण होती है । और कुछ ही दिनों के ध्यान अभ्यास में वह सहज ऊँचाई प्राप्त कर लेता है । अगर इस सब में 1 साल भी लग जाये । तो भी ये 84 की तुलना में बहुत सस्ता सौदा हुआ
। इसी से आप अन्दाजा लगा सकते हैं कि सही मायनों में तो आपकी दीक्षा अभी हुयी भी नहीं । पर न होने से तो ये अच्छा है कि व्यक्ति आज की आपाधापी परिस्थिति में जो भी प्राप्त कर ले । इस हेतु साधारण दीक्षा भी कर दी जाती है । अब यदि आपके पास समय है । और प्राप्त करना चाहते हैं । तो ठीक यही व्यवस्था हमारे यहाँ कुछ ही दिनों में आरम्भ हो रही है ।
मरीज को लगना तो चाहिये ना कि दवा ने अपना असर करना शुरू कर दिया है - एक बार आत्मनिरीक्षण करके देखो । दवा बराबर अपना असर कर रही है । आप दिन पर दिन स्वस्थ हो रहे हैं । पर आप विपरीत सोच रहे हैं । आप सोच रहे हैं कि कुछ होगा । वास्तविकता में ये कुछ होना बन्द हो जायेगा । तब फ़िर वह - है । और वह होता नहीं । बल्कि - है ।
ये सोच तो मेरी बचपन से ही रही है - आपकी कोई भी कैसी भी सोच रही हो । सिस्टम अपना काम अपने तरीके से ही करता है । इंसान 100 वर्ष की जीवन सोच लेकर चलता है । जबकि सिस्टम को मालूम है कि आगे क्या होना है । अतः उसे कोई जल्दी नहीं होती । वह अपना काम अनादि से ही करता आ रहा है ।
पर है तो किताबी ज्ञान ही । बात तो प्रक्टीकल की है - अपने अंतर में व्यापक बदलाव भी प्रक्टीकल ही है । बाकी अलौकिक प्रयोगों हेतु उसी नियम में आना होगा ।
अब अगला जन्म किसने देखा है - मैं या गुरुदेव किसी से कोई फ़ीस तो लेते नहीं । जो झूठ मूठ बातों का हमें कोई कैसा भी लाभ होता हो । आपके अपने ही दूसरे सदस्य उस क्रिया से सफ़लता से गुजर रहे हैं । यही विश्वास करने का कारण बनता है । तब आप उतना अच्छा नहीं कर पा रहे । तो कमी आपकी आंतरिकता में ही हुयी ना । मैंने उसके भी उपाय बताये ही हैं ।
मान लेता हूँ कि मेरे सँस्कार नहीं है । और मैं इस जन्म में भक्ति में कोई मुकाम हासिल नहीं कर सकता - जैसे आपने अब तक की यात्रा में सब कुछ मान लिया । ये भी सिर्फ़ मान ही रहे हो । और ये मानना ही हानिकारक होता है । सब कुछ मानना छोङ दो । आपको क्या पता । आगे क्या है ।
उसके समर्पण में कोई कमी दिखी आपको - ये समर्पण नहीं । बस दोनों तरफ़ का संस्कार था ।
कह रहा था कि अब तो गुरू शब्द पर ही विश्वास करने का मन नहीं करता । हालाँकि मेरा ये मानना है कि गुरू शब्द ही अपने आप में पूर्ण ही होता है - बहुत से लोग जिन्दगी से ऊब जाते हैं । जिन्दगी उनके लिये हताशा निराशा भरी होती है । जबकि बहुत से इसको आनन्द से जीते हैं । ये सभी अपनी अपनी अवस्थायें ही तो हैं । आप जागते हुये । सोते हुये । स्वपन देखते हुये । कैसे भी जिन्दगी गुजार दो । ये अपने तरह से ही चलेगी । चाहे आप इससे सहमत हों । अथवा न हों । गु का अर्थ अँधकार होता है । और रु का अर्थ प्रकाश होता है । अज्ञानता के अँधकार से ज्ञान के प्रकाश की और ले जाने वाले को गुरु कहते हैं । शाश्वत सत्य से परिचय कराने वाले को सतगुरु कहा जाता है । जिन व्यक्तियों से आपको ऐसा आभास होता है । वे इस परिभाषा में आते हैं । बस शर्त यही है कि आप शिष्यता के नियमों का पालन और पढाई कर रहे हों तो ।
क्या ये सुरति को सहारा देने वाली बात सही है - एकदम सही है । पर इसके कई नियम होते हैं । क्या ? मन । बुद्धि । चित्त । अहम । अंतकरण के ये चारों छिद्र मिलकर जब एक हो जाते हैं । तब उसको सुरति कहा जाता है । ये निरंतर ध्यान अभ्यास से होता है । पहचान ये है । उस स्थिति में विचार शून्यता हो जाती है । दूसरे गुरु द्वारा दिये नाम में रमण करने से सूक्ष्मता आती है । जितनी सूक्ष्मता साधक के अन्दर आ जायेगी । उतना ही वह ऊपर उठेगा । पर संसारी कामों में व्यस्त इंसान ध्यान द्वारा जितना सूक्ष्म होता है । उतना ही संसार फ़िर उसके अन्दर समा जाता है । अतः मोटापन उतना ही रहता है । और इसीलिये अनुभव नहीं हो पाते । दोनों टाइम त्रिकुटी स्नान इसमें बेहद सहायक है ।
मैं पूर्ण समर्पित शिष्य हूँ । ऐसा तो मैं नही कहता - सच कहा जाय । तो अभी आप शिष्य भी नहीं हो । आप प्राइवेट पढाई या पत्राचार कोर्स कर रहे हो । तब जैसा और जितना आपने ज्ञान गृहण कर लिया है । उतना आपको लाभ होगा । शिष्य होना क्या है । इस बारे में जल्दी ही लेख प्रकाशित होगा । वास्तव में आप नाम सुमरन की कमाई और असली पूजा कर रहे हैं । शिष्य होकर असली साधना करना एकदम अलग बात है । और वह पूरा पूरा समय चाहती है । जब तक लक्ष्य हासिल न हो जाये । गौर से देखें । यही बात जिन्दगी के हर क्षेत्र में लागू होती है । 100 रुपये कमाने में इंसान का पसीना निकल जाता है । सोचिये उतनी भी मेहनत इंसान भक्ति के क्षेत्र में नहीं करता ।
राजीव जी ! आपने कहा - अगले जन्म में मिलेंगे । अब अगला जन्म किसने देखा है । आप कहेंगे मैंने देखा है । तो मैं कैसे आपकी बात मान लूँ । आप ही ने पिछले लेख में कहा कि किसी की भी बात बिना जाने बिना देखे नहीं माननी चाहिये । पिछले जन्म के सँस्कार से ये जन्म मिला है । और इस जन्म के सँस्कारो से अगला जन्म अच्छा मिलेगा । ये बातें रही तो किताबी बातें ही पढने वाले के लिये । जब तक कि वो कुछ भी अगला पिछला देख ना ले । मान लेता हूँ कि मेरे सँस्कार नहीं है । और मैं इस जन्म में भक्ति में कोई मुकाम हासिल नहीं कर सकता । तो परमात्मा ने ये लगन ही क्यों लगाई । और जो लगन लगाई । तो पूर्ति करने वाला भी तो वो ही है । अगला पिछला किसने देखा है । राजीव जी ! कुछ बताईये ।
जय गुरूदेव की ! राजीव जी ! कुछ बातें लिखना भूल गया । मेरा दोस्त मिला था । जिसका जिक्र मैंने लेख में किया था । अब बताईये । उसके समर्पण में कोई कमी दिखी आपको । जिस आदमी ने मुँहमाँगी वस्तु अपने गुरू को सौंप दी हो । क्या उसके समर्पण में कोई कमी रह जाती है । कह रहा था कि अब तो गुरू शब्द पर ही विश्वास करने का मन नहीं करता । अब शायद आप कहेंगे कि वो गुरू ही नहीं था ? जिसने आपके दोस्त के साथ ऐसा किया । पर उसका विश्वास तो सत्य था । और ना भी हो । तो ये कैसे पता चले कि गुरू पूर्ण था । या अधूरा था ? हालाँकि मेरा ये मानना है कि गुरू शब्द ही अपने आप में पूर्ण ही होता है ? गुरू कभी अधूरा नहीं होता । कुछ प्रकाश डालिये ।
- पर वो मुझे कहते थे कि जब शिष्य समर्पण कर देता है । तो फिर गुरू सुरति को सहारा देकर ले जाते हैं । और ये
गुरू के लिये मामूली बात है । अब राजीव जी ! मुझे तो उनसे कोई शिकायत नहीं है । क्या ये सुरति को सहारा देने वाली बात सही है । मैं पूर्ण समर्पित शिष्य हूँ । ऐसा तो मैं नही कहता । पर गुरूदेव जी के लिये आदर भाव में तो कोई कमी नहीं है मेरे मन में । राजीव जी ! इस विषय पर कुछ बताना ।
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बीमारी गँभीर है । दवा अपना असर देर से दिखायेगी - सभी गृंथों में संसार को भवरोग कहा गया है । भव यानी संसार । अतः ये बात मैंने सिर्फ़ आपके लिये न कहकर एक सामान्य बात कही थी । राजा जनक जैसे महाज्ञानी वृद्धावस्था में आकर । पूर्व में हजारों ज्ञानियों द्वारा सतसंग पाकर । तब अन्त में चेतन ज्ञान को बालक अष्टावक्र द्वारा जान पाते हैं । राजा वीर सिंह कबीर के यहाँ झाङू पोंछा करता है । और फ़िर कई महीनों बाद उसके ऊपर मल फ़ेंकने पर । और तब भी उसे बुरा न लगने पर । कबीर द्वारा हँसदीक्षा दी जाती है । वास्तव में सही दीक्षा का तरीका ही यही है कि इच्छुक व्यक्ति 6 महीने गुरु की सेवा में रहकर उनका सतसंग सुने । भले ही उसने वैसा ही सतसंग पूर्व में क्यों न सुन रखा हो । इससे पूर्वकाल की सभी छाप अंतर्मन से हट जाती है । जो ज्ञान में बहुत बाधक होती है । तब उचित समय आने पर ( जब गुरु उचित समझें ) जमीन के अन्दर अंडरग्राउण्ड बनी गुफ़ा में । जहाँ सुई के गिरने की भी आवाज न हो । और बाहरी प्रकाश न हो । शिष्य को दीक्षा दी जाती है । दूसरे जहाँ कोई सन्त या बहुत से महात्मा भजन ध्यान करते हैं । वह स्थान सिद्ध हो जाता है । इससे वहाँ की तरंगों में दिव्यता और अलौकिकता होती है । जो पूर्ण दीक्षा हेतु बहुत आवश्यक होती है । अब आराम से समझा जा सकता है कि 6 महीने का साधुई जीवन और सन्तों की सेवा ही व्यक्ति में बहुत बदलाव ला देती है । वह स्वतः अन्दर से साधु ही हो जाता है । तब दीक्षा एकदम पूर्णरूपेण होती है । और कुछ ही दिनों के ध्यान अभ्यास में वह सहज ऊँचाई प्राप्त कर लेता है । अगर इस सब में 1 साल भी लग जाये । तो भी ये 84 की तुलना में बहुत सस्ता सौदा हुआ
। इसी से आप अन्दाजा लगा सकते हैं कि सही मायनों में तो आपकी दीक्षा अभी हुयी भी नहीं । पर न होने से तो ये अच्छा है कि व्यक्ति आज की आपाधापी परिस्थिति में जो भी प्राप्त कर ले । इस हेतु साधारण दीक्षा भी कर दी जाती है । अब यदि आपके पास समय है । और प्राप्त करना चाहते हैं । तो ठीक यही व्यवस्था हमारे यहाँ कुछ ही दिनों में आरम्भ हो रही है ।
मरीज को लगना तो चाहिये ना कि दवा ने अपना असर करना शुरू कर दिया है - एक बार आत्मनिरीक्षण करके देखो । दवा बराबर अपना असर कर रही है । आप दिन पर दिन स्वस्थ हो रहे हैं । पर आप विपरीत सोच रहे हैं । आप सोच रहे हैं कि कुछ होगा । वास्तविकता में ये कुछ होना बन्द हो जायेगा । तब फ़िर वह - है । और वह होता नहीं । बल्कि - है ।
ये सोच तो मेरी बचपन से ही रही है - आपकी कोई भी कैसी भी सोच रही हो । सिस्टम अपना काम अपने तरीके से ही करता है । इंसान 100 वर्ष की जीवन सोच लेकर चलता है । जबकि सिस्टम को मालूम है कि आगे क्या होना है । अतः उसे कोई जल्दी नहीं होती । वह अपना काम अनादि से ही करता आ रहा है ।
पर है तो किताबी ज्ञान ही । बात तो प्रक्टीकल की है - अपने अंतर में व्यापक बदलाव भी प्रक्टीकल ही है । बाकी अलौकिक प्रयोगों हेतु उसी नियम में आना होगा ।
अब अगला जन्म किसने देखा है - मैं या गुरुदेव किसी से कोई फ़ीस तो लेते नहीं । जो झूठ मूठ बातों का हमें कोई कैसा भी लाभ होता हो । आपके अपने ही दूसरे सदस्य उस क्रिया से सफ़लता से गुजर रहे हैं । यही विश्वास करने का कारण बनता है । तब आप उतना अच्छा नहीं कर पा रहे । तो कमी आपकी आंतरिकता में ही हुयी ना । मैंने उसके भी उपाय बताये ही हैं ।
मान लेता हूँ कि मेरे सँस्कार नहीं है । और मैं इस जन्म में भक्ति में कोई मुकाम हासिल नहीं कर सकता - जैसे आपने अब तक की यात्रा में सब कुछ मान लिया । ये भी सिर्फ़ मान ही रहे हो । और ये मानना ही हानिकारक होता है । सब कुछ मानना छोङ दो । आपको क्या पता । आगे क्या है ।
उसके समर्पण में कोई कमी दिखी आपको - ये समर्पण नहीं । बस दोनों तरफ़ का संस्कार था ।
कह रहा था कि अब तो गुरू शब्द पर ही विश्वास करने का मन नहीं करता । हालाँकि मेरा ये मानना है कि गुरू शब्द ही अपने आप में पूर्ण ही होता है - बहुत से लोग जिन्दगी से ऊब जाते हैं । जिन्दगी उनके लिये हताशा निराशा भरी होती है । जबकि बहुत से इसको आनन्द से जीते हैं । ये सभी अपनी अपनी अवस्थायें ही तो हैं । आप जागते हुये । सोते हुये । स्वपन देखते हुये । कैसे भी जिन्दगी गुजार दो । ये अपने तरह से ही चलेगी । चाहे आप इससे सहमत हों । अथवा न हों । गु का अर्थ अँधकार होता है । और रु का अर्थ प्रकाश होता है । अज्ञानता के अँधकार से ज्ञान के प्रकाश की और ले जाने वाले को गुरु कहते हैं । शाश्वत सत्य से परिचय कराने वाले को सतगुरु कहा जाता है । जिन व्यक्तियों से आपको ऐसा आभास होता है । वे इस परिभाषा में आते हैं । बस शर्त यही है कि आप शिष्यता के नियमों का पालन और पढाई कर रहे हों तो ।
क्या ये सुरति को सहारा देने वाली बात सही है - एकदम सही है । पर इसके कई नियम होते हैं । क्या ? मन । बुद्धि । चित्त । अहम । अंतकरण के ये चारों छिद्र मिलकर जब एक हो जाते हैं । तब उसको सुरति कहा जाता है । ये निरंतर ध्यान अभ्यास से होता है । पहचान ये है । उस स्थिति में विचार शून्यता हो जाती है । दूसरे गुरु द्वारा दिये नाम में रमण करने से सूक्ष्मता आती है । जितनी सूक्ष्मता साधक के अन्दर आ जायेगी । उतना ही वह ऊपर उठेगा । पर संसारी कामों में व्यस्त इंसान ध्यान द्वारा जितना सूक्ष्म होता है । उतना ही संसार फ़िर उसके अन्दर समा जाता है । अतः मोटापन उतना ही रहता है । और इसीलिये अनुभव नहीं हो पाते । दोनों टाइम त्रिकुटी स्नान इसमें बेहद सहायक है ।
मैं पूर्ण समर्पित शिष्य हूँ । ऐसा तो मैं नही कहता - सच कहा जाय । तो अभी आप शिष्य भी नहीं हो । आप प्राइवेट पढाई या पत्राचार कोर्स कर रहे हो । तब जैसा और जितना आपने ज्ञान गृहण कर लिया है । उतना आपको लाभ होगा । शिष्य होना क्या है । इस बारे में जल्दी ही लेख प्रकाशित होगा । वास्तव में आप नाम सुमरन की कमाई और असली पूजा कर रहे हैं । शिष्य होकर असली साधना करना एकदम अलग बात है । और वह पूरा पूरा समय चाहती है । जब तक लक्ष्य हासिल न हो जाये । गौर से देखें । यही बात जिन्दगी के हर क्षेत्र में लागू होती है । 100 रुपये कमाने में इंसान का पसीना निकल जाता है । सोचिये उतनी भी मेहनत इंसान भक्ति के क्षेत्र में नहीं करता ।
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