जय गुरुदेव ! गुरुदेव तथा आपको बहुत बहुत धन्यवाद । जो मुझे जीवन का लक्ष्य बताया । मैंने " अनुराग सागर " पढना चालू किया है । मेरे मन में इसको लेकर कुछ प्रश्न है । कृपा करके इनका उत्तर दे ।
1 - अनुराग सागर में पेज नंबर 86 में चौपाई नंबर - 4 के अनुसार आदि भवानी अष्टांगी ने 3 कन्याओं को उत्पन्न किया । व पहली कन्या का नाम सावित्री को बृह्मा को प्रदान किया । पेज 101 व 102 में अनुसार गायत्री ने अपने शरीर के मैल में अपना अंश मिलाकर एक कन्या उत्पन्न की । उसका नाम भी सावित्री ( पहुपावती ) था । तो वास्तव में सावित्री पहले वाली थी । या बाद वाली । और दुनिया सावित्री के नाम से किसे जानती है ।
2 - पेज 80 व 81 के अनुसार काल निरंजन ने अपना मन सत्य पुरुष की सेवा भक्ति में लगा दिया । व जीवों की शून्य 0 गुफा में निवास किया । उन्होंने अष्टांगी से कहा - कि मेरा दर्शन तीनों पुत्र कभी नहीं कर सकेंगे । चाहे खोजते खोजते सारी जिन्दगी ही क्यों न लगा दे । पेज 113 व 114 के अनुसार अष्टांगी ने विष्णु जी से कहा -
अन्तर्मुखी हो जाओ । व अपनी सुरती व दृष्टि को पलटकर भृकुटी के मध्य आज्ञा चक्र या ह्रदय के शून्य 0 में ज्योति को देखो । जब विष्णु ने ये किया । तो अनहद की आवाज सुनी । उसमें 5 रंग देखे । व ज्योति प्रकाश को देखा । सत्यपुरुष को छिपा के काल निरंजन को दिखाया ।
> जब काल पुरुष ने मना किया था । तो विष्णु जी ने उनके दर्शन कैसे किये ?
> जब भृकुटी के मध्य आज्ञा चक्र में ध्यान लगाने से काल निरंजन मिलते हैं । तो सत्यपुरुष के लिए कहाँ ध्यान लगाये । एक साधक । नवीन दीक्षित ।
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आध्यात्मिक स्तर पर राम कथा कृष्ण कथा आदि कोई भी अलौकिक पात्र हों । या उनके जीवन की घटनाओं की बात हो । ये उतनी स्थूल नहीं होती । जितनी एक रोचक कहानी सी लगती हैं । वास्तव में इनके नामों से लेकर एक एक बात में बेहद गहनता और गूढ रहस्य छिपे होते हैं । अगर सिर्फ़ इनके नामों का ही चिंतन करें । राम । लक्ष्मण । अयोध्या । दशरथ । रावण । कुम्भकरण । दुर्योधन । कृष्ण । नकुल । सहदेव आदि । तो ये यूँ ही नामकरण नहीं कर दिया गया । बल्कि इस नाम के पीछे भी पूरा रहस्य छिपा होता है । वर्णमाला के अक्षरों की धातुयें होती हैं । जो व्याकरण ज्ञान से जानी जाती हैं । फ़िर इनकी उत्पत्ति स्थल । धातु की परिपूर्णता । लयता । गति आदि से गुण व्यक्तितत्व आदि बनते हैं । जैसे लक्ष्मण शब्द का गूढ अर्थ जीव है ।
अब इसको समझें । लक्ष्य मन । यानी वह जो मन के लक्ष्य अनुसार चलता हो । वह जीव है । राम का अर्थ रमता चेतन या भगवान है । सीता का गूढ अर्थ माया है ।
अब एक बात पर विशेष गौर करें । पूरी कथा में जहाँ भी इन तीनों के चलने का वर्णन आता है । उसका कृम इस प्रकार है । आगे राम । बीच में सीता । पीछे लक्ष्मण । देखने में ये साधारण बात लगती है । परन्तु इसका बहुत ठोस रहस्य है । जीव और भगवान के बीच में माया रूपी पर्दा । और यही गति जन्म जन्मांतरों तक बनी रहती है । जब तक ज्ञान से माया का पर्दा हट न जाय । जब से रघुनायक मोहे अपनाया । तब से मोहि न व्यापे माया । ये सिर्फ़ एक छोटी बात का उदाहरण है । वरना एक ही शब्द पर पूरी किताब लिख सकते हैं ।
और इसी दृष्टिकोण में आपके इन प्रश्न या किसी भी अल्पज्ञ जीव के प्रश्नों का रहस्य भी समाया है । क्योंकि अनुराग सागर या कोई भी धर्म गृंथ आप स्थूलता के आधार पर ही पढना शुरू करते हो । जबकि उनमें बहुत सूक्ष्मता और गहनता निहित है ।
इसलिये सत्यता के आधार पर इनका सही विश्लेषण थोङे शब्दों में संभव नहीं है । बृह्मा गायत्री सावित्री या
कालपुरुष अष्टांगी आदि की घटनायें किसी मानवीय जीवन के समान कोई संस्कारी भाव नहीं है । बल्कि विराट के परदे पर प्रकूति की आंतरिक हलचल है । जबकि पढने में ये मनुष्य जीवन की कहानी सी प्रतीत होती है ।
2 - विष्णु ने कालपुरुष के ज्योति रूप दर्शन किये थे । अन्य स्थिति में यह मन रूप है । कालपुरुष ने यह बात सिर्फ़ तीनों पुत्रों के लिये ही नहीं । बल्कि त्रिलोकी सत्ता के अधीन आने वाले सभी छोटे बङे जीव देवी देवताओं के लिये भी कही थी । और ये सच है कि अष्टांगी को छोङकर कोई भी उसे नहीं देखता । आपने ध्यान नहीं दिया । तीनों पुत्र उसके काया रूप का दर्शन करने के इच्छुक थे । न कि ज्योति ( दृश्य रूपा ) के । न कि अक्षर ( ध्वनि रूपा ) के । अब यहाँ इसका तकनीकी दृष्टिकोण ये है कि बृह्मा विष्णु महेश का निराकारी रूप तीन गुण सत रज तम है । और अक्षर की स्थिति तीन गुणों से परे है । जाहिर है । असंख्य युग बीत जायें । ये मिलन हो ही नहीं सकता । इसको एक उदाहरण से समझाता हूँ । मान लो मिट्टी को पता चले कि उससे बना हुआ रंगीन खिलौना आकर्षक होता है । और वह अपने कुम्हार ( निर्माता या माध्यम ) से कहे कि वह अपनी ही बाद स्थिति खिलौना देखना चाहती है । तो ये कैसे संभव है ? निर्मित खिलौना अपनी पूर्व स्थिति मिट्टी को नहीं देख सकता । और मिट्टी अपनी बदली स्थिति खिलौने को
नहीं देख सकती । तब यही हो सकता है कि उसे अभी अलग रंगों की एक झलक दिखा दी जाये । ऐसा भी नहीं कि नहीं देख पाते । उसके दूसरे अवतार रूपों को न सिर्फ़ देखते है । बल्कि साथ भी रहते हैं । पर उसके मूल रूप को नहीं देख पाते । लेकिन बृह्माण्डी चोटी से पार जाने वाले इनको आराम से देखते हैं । बल्कि एक झगङे की स्थिति ही होती है । बाकी - सत्यपुरुष को छिपा के काल निरंजन को दिखाया ? जैसा कि मैंने कहा । सभी धार्मिक स्थितियाँ गूढ हैं । इनमें महज संकेत भर दिये हैं । असली रहस्य कहीं नहीं लिखे जाते ।
सत्यपुरुष के लिए कहाँ ध्यान - एक बात बताईये । एक उच्च वर्गीय परिवार ( यहाँ मण्डल या ज्ञान ) का बच्चा हो । जिसके घर में सभी डाक्टर इंजीनियर वैज्ञानिक आदि उच्च पदस्थ लोग हों । और उसे पता भी हो कि कोई MBBS करके । कोई इंजीनियरिंग डिप्लोमा । कोई विज्ञान का अध्ययन करके । यह सब बने हैं । तो वह कहे - मैं ये ABCD या बेसिक नालेज क्यों पढूँ । मैं सीधी बङी किताबें पढूँगा । ये कैसे संभव है ?
जीव की स्थिति दोनों आँखों से नीचे पिण्ड में हैं । दोनों भोंहों के मध्य आसमान बृह्माण्ड आदि जाने के लिये लाक्ड रास्ता है । पहली बहुत स्थितियों में विशाल बृह्माण्ड ही पार करना होता है । उसमें कालपुरुष या निरंजन या अक्षर या ज्योति एक बहुत ऊँची स्थिति है । रैदास कबीर दादू पलटू आदि ने एक साधक स्थिति अनुसार वहाँ ( पहुँचकर ) वन्दना भी की है । स्थिति अनुसार ही आलोचना भी की है । और आगे जाकर स्थिति अनुसार ही कबीर ने कहा है - मेरी उमृ इतनी है कि असंख्य कालपुरुष । असंख्य राम कृष्ण । असंख्य बृह्मा विष्णु महेश मेरे सामने उत्पन्न और नष्ट हो चुके हैं ।
इसलिये अति महत्वाकांक्षी होना भी ठीक नहीं । क्योंकि फ़िर वांछित न होने से निराशा होगी । एक प्रतिष्ठित विधालय में पढने वालों के भी अंतिम परिणाम समान नहीं होते । सब कुछ विधार्थी की मेहनत लगन और उसकी भाग्य परिस्थितियों पर भी निर्भर है । इसलिये रास्ता और तरीका यही है । अक्षर को पार करने के बाद ( अक्षरातीत हो जाने पर ) । खुद ही सत्य सीमा आरम्भ हो जायेगी । सत्यपुरुष के दर्शन आसान बात नहीं है । इसके लिये विरला कहा जाता है । इसलिये कोई यदि विरला हो पाता है । तो फ़िर बहुत कुछ संभव है । मेरे सुझाव अनुसार । अभी आप अपनी प्रारम्भिक स्थिति में नाम कमाई । और तदुपरान्त ध्यान की गहराई को मजबूत
करने की कोशिश करें । ये पात्रता पैदा होने पर ही आगे बात बनती है ।
सावित्री पहले वाली या बाद वाली - सही कहूँ । तो अपूज्य बृह्मा और उसकी पत्नियों के बारे में मुझे प्रमाणिक तौर पर अभी जानकारी नहीं है । पर गायत्री सावित्री उसकी दो पत्नियाँ हैं । और दोनों ही महत्वपूर्ण हैं । खैर..कभी समय मिलने पर । इसको भी स्पष्ट बताने की कोशिश करूँगा । आगे । इस प्रकरण से सम्बन्धित अंश । फ़िर से दोहराता हूँ कि इन उत्तर को व्यक्तिगत न समझें । जिज्ञासा आपकी व्यक्तिगत है । पर उत्तर समग्र के दृष्टिकोण से हैं ।
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फ़िर अष्टांगी ने गायत्री को शाप दिया - हे गायत्री ! बृह्मा के साथ काम भावना से हो जाने से मनुष्य जन्म में तेरे पाँच पति होंगे । हे गायत्री ! तेरे गाय रूपी शरीर में वैल पति होंगे । और वे सात पाँच से भी अधिक होंगे । पशु योनि में तू गाय बनकर जन्म लेगी । और न खाने योग्य पदार्थ खायेगी । तुमने अपने स्वार्थ के लिये मुझसे झूठ बोला । और झूठे वचन कहे । क्या सोचकर तुमने झूठी गवाही दी ?
गायत्री ने अपनी गलती मानकर शाप को स्वीकार कर लिया । इसके बाद अष्टांगी ने सावित्री की ओर देखा । और बोली - तुमने अपना नाम तो सुन्दर पुहुपावती रखवा लिया । परन्तु झूठ बोलकर तुमने अपने जन्म का नाश कर लिया । हे पुहुपावती ! सुन । तुम्हारे विश्वास पर । तुमसे कोई आशा रखकर कोई तुम्हें नहीं पूजेगा । अब दुर्गंध के स्थान पर तुम्हारा वास होगा । काम विषय की आशा लेकर अब नरक की यातना भोगो । जान बूझकर जो तुम्हें सींचकर लगायेगा । उसके वंश की हानि होगी । अब तुम जाओ । और वृक्ष बनकर जन्मों । तुम्हारा नाम केवङा केतकी होगा ।
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फ़िर अष्टांगी ने विष्णु को दुलारते हुये कहा - हे पुत्र ! तुम मेरी बात सुनो । सच सच बताओ । जब तुम पिता के चरण स्पर्श करने गये । तब क्या हुआ ? पहले तो तुम्हारा शरीर गोरा था । तुम श्याम रंग कैसे हो गये ?
विष्णु ने कहा - हे माता ! पिता के दर्शन हेतु जब मैं पाताललोक पहुँचा । तो शेषनाग के पास पहुँच गया । वहां उसके विष के तेज से मैं सुस्त ( अचेत सा ) हो गया । मेरे शरीर में उसके विष का तेज समा गया । जिससे वह श्याम हो गया ।
तब एक आवाज हुयी - हे विष्णु ! तुम माता के पास लौट जाओ । यह मेरा सत्य वचन है कि जैसे ही सतयुग त्रेतायुग बीत जायेंगे । तब द्वापर में तुम्हारा कृष्ण अवतार होगा । उस समय तुम शेषनाग से अपना बदला लोगे । तब तुम यमुना नदी पर जाकर नाग का मान मर्दन करोगे । यह मेरा नियम है कि जो भी ऊँचा नीचे वाले को सताता है । उसका बदला वह मुझसे पाता है । जो जीव दूसरे को दुख देता है । उसे मैं दुख देता हूँ । हे माता ! उस आवाज को सुनकर मैं तुम्हारे पास आ गया । यही सत्य है । मुझे पिता के श्री चरण नहीं मिले ।
भवानी यह सुनकर प्रसन्न हो गयी । और बोली - हे पुत्र सुनो ! मैं तुम्हें तुम्हारे पिता से मिलाती हूँ । और तुम्हारे मन का भृम मिटाती हूँ । पहले तुम बाहर की स्थूल दृष्टि ( शरीर की आँखें ) छोङकर । भीतर की ग्यान दृष्टि ( अन्तर की आँख । तीसरी आँख ) से देखो । और अपने ह्रदय में मेरा वचन परखो ।
स्थूल देह के भीतर सूक्ष्म मन के स्वरूप को ही कर्ता समझो । मन के अलावा दूसरा और किसी को कर्ता न मानों । यह मन बहुत ही चंचल और गतिशील है । यह क्षण भर में स्वर्ग पाताल की दौङ लगाता है । और स्वछन्द होकर सब ओर विचरता है । मन एक क्षण में अनन्त कला दिखाता है । और इस मन को कोई नहीं देख पाता । मन को ही निराकार कहो । मन के ही सहारे दिन रात रहो ।
हे विष्णु ! बाहरी दुनियाँ से ध्यान हटाकर अंतर्मुखी हो जाओ । और अपनी सुरति और दृष्टि को पलटकर भृकुटि के मध्य ( भोहों के बीच आज्ञा चक्र ) पर या ह्रदय के शून्य में ज्योति को देखो । जहाँ ज्योति झिलमिल झालर सी प्रकाशित होती है ।
तब विष्णु ने अपनी स्वांस को घुमाकर भीतर आकाश की ओर दौङाया । और ( अंतर ) आकाश मार्ग में ध्यान लगाया । विष्णु ने ह्रदय गुफ़ा में प्रवेश कर ध्यान लगाया । ध्यान प्रकिया में विष्णु ने पहले स्वांस का संयम प्राणायाम से किया । कुम्भक में जब उन्होंने स्वांस को रोका । तो प्राण ऊपर उठकर ध्यान के केन्द्र शून्य 0 में आया । वहाँ विष्णु को अनहद नाद की गर्जना सुनाई दी । यह अनहद बाजा सुनते हुये विष्णु प्रसन्न हो गये । तब मन ने उन्हें सफ़ेद लाल काला पीला आदि रंगीन प्रकाश दिखाया ।
हे धर्मदास ! इसके बाद विष्णु को ..मन ने अपने आपको दिखाया । और ज्योति प्रकाश किया । जिसे देखकर वह प्रसन्न हो गये । और बोले - हे माता ! आपकी कृपा से आज मैंने ईश्वर को देखा ।
तब धर्मदास चौंककर बोले - हे सदगुरु कबीर साहब ! यह सुनकर मेरे भीतर एक भृम उत्पन्न हुआ है । अष्टांगी कन्या ने जो मन का ध्यान ? बताया । इससे तो समस्त जीव भरमा गये हैं ? यानी भृम में पङ गये हैं ?? ( इस बात पर विशेष गौर करें )
तब कबीर साहिब बोले - हे धर्मदास ! यह काल निरंजन का स्वभाव ही है कि इसके चक्कर में पङने से विष्णु सत्यपुरुष का भेद नहीं जान पाये । ( निरंजन ने अष्टांगी को पहले ही सचेत कर आदेश दे दिया था कि सत्यपुरुष का कोई भेद जानने न पाये । ऐसी माया फ़ैलाना ) अब उस कामिनी अष्टांगी की यह चाल देखो कि उसने अमृतस्वरूप सत्यपुरुष को छुपाकर विष रूप काल निरंजन को दिखाया ।
जिस ज्योति का ध्यान अष्टांगी ने बताया । उस ज्योति से काल निरंजन को दूसरा न समझो । हे धर्मदास ! अब तुम यह विलक्षण गूढ सत्य सुनो । ज्योति का जैसा प्रकट रूप होता है । वैसा ही गुप्त रूप भी है । जो ह्रदय के भीतर है । वह ही बाहर देखने में भी आता है ।
जब कोई मनुष्य दीपक जलाता है । तो उस ज्योति के भाव स्वभाव को देखो । और निर्णय करो । उस ज्योति को देखकर पतंगा बहुत खुश होता है । और प्रेमवश अपना भला जानकर उसके पास आता है । लेकिन ज्योति को स्पर्श करते ही पतंगा भस्म हो जाता है । इस प्रकार अग्यानता में मतबाला हुआ वह पतंगा उसमें जल मरता है । ज्योति स्वरूप काल निरंजन भी ऐसा ही है । जो भी जीवात्मा उसके चक्कर में
आ जाता है । क्रूर काल उसे छोङता नहीं ।
1 - अनुराग सागर में पेज नंबर 86 में चौपाई नंबर - 4 के अनुसार आदि भवानी अष्टांगी ने 3 कन्याओं को उत्पन्न किया । व पहली कन्या का नाम सावित्री को बृह्मा को प्रदान किया । पेज 101 व 102 में अनुसार गायत्री ने अपने शरीर के मैल में अपना अंश मिलाकर एक कन्या उत्पन्न की । उसका नाम भी सावित्री ( पहुपावती ) था । तो वास्तव में सावित्री पहले वाली थी । या बाद वाली । और दुनिया सावित्री के नाम से किसे जानती है ।
2 - पेज 80 व 81 के अनुसार काल निरंजन ने अपना मन सत्य पुरुष की सेवा भक्ति में लगा दिया । व जीवों की शून्य 0 गुफा में निवास किया । उन्होंने अष्टांगी से कहा - कि मेरा दर्शन तीनों पुत्र कभी नहीं कर सकेंगे । चाहे खोजते खोजते सारी जिन्दगी ही क्यों न लगा दे । पेज 113 व 114 के अनुसार अष्टांगी ने विष्णु जी से कहा -
अन्तर्मुखी हो जाओ । व अपनी सुरती व दृष्टि को पलटकर भृकुटी के मध्य आज्ञा चक्र या ह्रदय के शून्य 0 में ज्योति को देखो । जब विष्णु ने ये किया । तो अनहद की आवाज सुनी । उसमें 5 रंग देखे । व ज्योति प्रकाश को देखा । सत्यपुरुष को छिपा के काल निरंजन को दिखाया ।
> जब काल पुरुष ने मना किया था । तो विष्णु जी ने उनके दर्शन कैसे किये ?
> जब भृकुटी के मध्य आज्ञा चक्र में ध्यान लगाने से काल निरंजन मिलते हैं । तो सत्यपुरुष के लिए कहाँ ध्यान लगाये । एक साधक । नवीन दीक्षित ।
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आध्यात्मिक स्तर पर राम कथा कृष्ण कथा आदि कोई भी अलौकिक पात्र हों । या उनके जीवन की घटनाओं की बात हो । ये उतनी स्थूल नहीं होती । जितनी एक रोचक कहानी सी लगती हैं । वास्तव में इनके नामों से लेकर एक एक बात में बेहद गहनता और गूढ रहस्य छिपे होते हैं । अगर सिर्फ़ इनके नामों का ही चिंतन करें । राम । लक्ष्मण । अयोध्या । दशरथ । रावण । कुम्भकरण । दुर्योधन । कृष्ण । नकुल । सहदेव आदि । तो ये यूँ ही नामकरण नहीं कर दिया गया । बल्कि इस नाम के पीछे भी पूरा रहस्य छिपा होता है । वर्णमाला के अक्षरों की धातुयें होती हैं । जो व्याकरण ज्ञान से जानी जाती हैं । फ़िर इनकी उत्पत्ति स्थल । धातु की परिपूर्णता । लयता । गति आदि से गुण व्यक्तितत्व आदि बनते हैं । जैसे लक्ष्मण शब्द का गूढ अर्थ जीव है ।
अब इसको समझें । लक्ष्य मन । यानी वह जो मन के लक्ष्य अनुसार चलता हो । वह जीव है । राम का अर्थ रमता चेतन या भगवान है । सीता का गूढ अर्थ माया है ।
अब एक बात पर विशेष गौर करें । पूरी कथा में जहाँ भी इन तीनों के चलने का वर्णन आता है । उसका कृम इस प्रकार है । आगे राम । बीच में सीता । पीछे लक्ष्मण । देखने में ये साधारण बात लगती है । परन्तु इसका बहुत ठोस रहस्य है । जीव और भगवान के बीच में माया रूपी पर्दा । और यही गति जन्म जन्मांतरों तक बनी रहती है । जब तक ज्ञान से माया का पर्दा हट न जाय । जब से रघुनायक मोहे अपनाया । तब से मोहि न व्यापे माया । ये सिर्फ़ एक छोटी बात का उदाहरण है । वरना एक ही शब्द पर पूरी किताब लिख सकते हैं ।
और इसी दृष्टिकोण में आपके इन प्रश्न या किसी भी अल्पज्ञ जीव के प्रश्नों का रहस्य भी समाया है । क्योंकि अनुराग सागर या कोई भी धर्म गृंथ आप स्थूलता के आधार पर ही पढना शुरू करते हो । जबकि उनमें बहुत सूक्ष्मता और गहनता निहित है ।
इसलिये सत्यता के आधार पर इनका सही विश्लेषण थोङे शब्दों में संभव नहीं है । बृह्मा गायत्री सावित्री या
कालपुरुष अष्टांगी आदि की घटनायें किसी मानवीय जीवन के समान कोई संस्कारी भाव नहीं है । बल्कि विराट के परदे पर प्रकूति की आंतरिक हलचल है । जबकि पढने में ये मनुष्य जीवन की कहानी सी प्रतीत होती है ।
2 - विष्णु ने कालपुरुष के ज्योति रूप दर्शन किये थे । अन्य स्थिति में यह मन रूप है । कालपुरुष ने यह बात सिर्फ़ तीनों पुत्रों के लिये ही नहीं । बल्कि त्रिलोकी सत्ता के अधीन आने वाले सभी छोटे बङे जीव देवी देवताओं के लिये भी कही थी । और ये सच है कि अष्टांगी को छोङकर कोई भी उसे नहीं देखता । आपने ध्यान नहीं दिया । तीनों पुत्र उसके काया रूप का दर्शन करने के इच्छुक थे । न कि ज्योति ( दृश्य रूपा ) के । न कि अक्षर ( ध्वनि रूपा ) के । अब यहाँ इसका तकनीकी दृष्टिकोण ये है कि बृह्मा विष्णु महेश का निराकारी रूप तीन गुण सत रज तम है । और अक्षर की स्थिति तीन गुणों से परे है । जाहिर है । असंख्य युग बीत जायें । ये मिलन हो ही नहीं सकता । इसको एक उदाहरण से समझाता हूँ । मान लो मिट्टी को पता चले कि उससे बना हुआ रंगीन खिलौना आकर्षक होता है । और वह अपने कुम्हार ( निर्माता या माध्यम ) से कहे कि वह अपनी ही बाद स्थिति खिलौना देखना चाहती है । तो ये कैसे संभव है ? निर्मित खिलौना अपनी पूर्व स्थिति मिट्टी को नहीं देख सकता । और मिट्टी अपनी बदली स्थिति खिलौने को
नहीं देख सकती । तब यही हो सकता है कि उसे अभी अलग रंगों की एक झलक दिखा दी जाये । ऐसा भी नहीं कि नहीं देख पाते । उसके दूसरे अवतार रूपों को न सिर्फ़ देखते है । बल्कि साथ भी रहते हैं । पर उसके मूल रूप को नहीं देख पाते । लेकिन बृह्माण्डी चोटी से पार जाने वाले इनको आराम से देखते हैं । बल्कि एक झगङे की स्थिति ही होती है । बाकी - सत्यपुरुष को छिपा के काल निरंजन को दिखाया ? जैसा कि मैंने कहा । सभी धार्मिक स्थितियाँ गूढ हैं । इनमें महज संकेत भर दिये हैं । असली रहस्य कहीं नहीं लिखे जाते ।
सत्यपुरुष के लिए कहाँ ध्यान - एक बात बताईये । एक उच्च वर्गीय परिवार ( यहाँ मण्डल या ज्ञान ) का बच्चा हो । जिसके घर में सभी डाक्टर इंजीनियर वैज्ञानिक आदि उच्च पदस्थ लोग हों । और उसे पता भी हो कि कोई MBBS करके । कोई इंजीनियरिंग डिप्लोमा । कोई विज्ञान का अध्ययन करके । यह सब बने हैं । तो वह कहे - मैं ये ABCD या बेसिक नालेज क्यों पढूँ । मैं सीधी बङी किताबें पढूँगा । ये कैसे संभव है ?
जीव की स्थिति दोनों आँखों से नीचे पिण्ड में हैं । दोनों भोंहों के मध्य आसमान बृह्माण्ड आदि जाने के लिये लाक्ड रास्ता है । पहली बहुत स्थितियों में विशाल बृह्माण्ड ही पार करना होता है । उसमें कालपुरुष या निरंजन या अक्षर या ज्योति एक बहुत ऊँची स्थिति है । रैदास कबीर दादू पलटू आदि ने एक साधक स्थिति अनुसार वहाँ ( पहुँचकर ) वन्दना भी की है । स्थिति अनुसार ही आलोचना भी की है । और आगे जाकर स्थिति अनुसार ही कबीर ने कहा है - मेरी उमृ इतनी है कि असंख्य कालपुरुष । असंख्य राम कृष्ण । असंख्य बृह्मा विष्णु महेश मेरे सामने उत्पन्न और नष्ट हो चुके हैं ।
इसलिये अति महत्वाकांक्षी होना भी ठीक नहीं । क्योंकि फ़िर वांछित न होने से निराशा होगी । एक प्रतिष्ठित विधालय में पढने वालों के भी अंतिम परिणाम समान नहीं होते । सब कुछ विधार्थी की मेहनत लगन और उसकी भाग्य परिस्थितियों पर भी निर्भर है । इसलिये रास्ता और तरीका यही है । अक्षर को पार करने के बाद ( अक्षरातीत हो जाने पर ) । खुद ही सत्य सीमा आरम्भ हो जायेगी । सत्यपुरुष के दर्शन आसान बात नहीं है । इसके लिये विरला कहा जाता है । इसलिये कोई यदि विरला हो पाता है । तो फ़िर बहुत कुछ संभव है । मेरे सुझाव अनुसार । अभी आप अपनी प्रारम्भिक स्थिति में नाम कमाई । और तदुपरान्त ध्यान की गहराई को मजबूत
करने की कोशिश करें । ये पात्रता पैदा होने पर ही आगे बात बनती है ।
सावित्री पहले वाली या बाद वाली - सही कहूँ । तो अपूज्य बृह्मा और उसकी पत्नियों के बारे में मुझे प्रमाणिक तौर पर अभी जानकारी नहीं है । पर गायत्री सावित्री उसकी दो पत्नियाँ हैं । और दोनों ही महत्वपूर्ण हैं । खैर..कभी समय मिलने पर । इसको भी स्पष्ट बताने की कोशिश करूँगा । आगे । इस प्रकरण से सम्बन्धित अंश । फ़िर से दोहराता हूँ कि इन उत्तर को व्यक्तिगत न समझें । जिज्ञासा आपकी व्यक्तिगत है । पर उत्तर समग्र के दृष्टिकोण से हैं ।
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फ़िर अष्टांगी ने गायत्री को शाप दिया - हे गायत्री ! बृह्मा के साथ काम भावना से हो जाने से मनुष्य जन्म में तेरे पाँच पति होंगे । हे गायत्री ! तेरे गाय रूपी शरीर में वैल पति होंगे । और वे सात पाँच से भी अधिक होंगे । पशु योनि में तू गाय बनकर जन्म लेगी । और न खाने योग्य पदार्थ खायेगी । तुमने अपने स्वार्थ के लिये मुझसे झूठ बोला । और झूठे वचन कहे । क्या सोचकर तुमने झूठी गवाही दी ?
गायत्री ने अपनी गलती मानकर शाप को स्वीकार कर लिया । इसके बाद अष्टांगी ने सावित्री की ओर देखा । और बोली - तुमने अपना नाम तो सुन्दर पुहुपावती रखवा लिया । परन्तु झूठ बोलकर तुमने अपने जन्म का नाश कर लिया । हे पुहुपावती ! सुन । तुम्हारे विश्वास पर । तुमसे कोई आशा रखकर कोई तुम्हें नहीं पूजेगा । अब दुर्गंध के स्थान पर तुम्हारा वास होगा । काम विषय की आशा लेकर अब नरक की यातना भोगो । जान बूझकर जो तुम्हें सींचकर लगायेगा । उसके वंश की हानि होगी । अब तुम जाओ । और वृक्ष बनकर जन्मों । तुम्हारा नाम केवङा केतकी होगा ।
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फ़िर अष्टांगी ने विष्णु को दुलारते हुये कहा - हे पुत्र ! तुम मेरी बात सुनो । सच सच बताओ । जब तुम पिता के चरण स्पर्श करने गये । तब क्या हुआ ? पहले तो तुम्हारा शरीर गोरा था । तुम श्याम रंग कैसे हो गये ?
विष्णु ने कहा - हे माता ! पिता के दर्शन हेतु जब मैं पाताललोक पहुँचा । तो शेषनाग के पास पहुँच गया । वहां उसके विष के तेज से मैं सुस्त ( अचेत सा ) हो गया । मेरे शरीर में उसके विष का तेज समा गया । जिससे वह श्याम हो गया ।
तब एक आवाज हुयी - हे विष्णु ! तुम माता के पास लौट जाओ । यह मेरा सत्य वचन है कि जैसे ही सतयुग त्रेतायुग बीत जायेंगे । तब द्वापर में तुम्हारा कृष्ण अवतार होगा । उस समय तुम शेषनाग से अपना बदला लोगे । तब तुम यमुना नदी पर जाकर नाग का मान मर्दन करोगे । यह मेरा नियम है कि जो भी ऊँचा नीचे वाले को सताता है । उसका बदला वह मुझसे पाता है । जो जीव दूसरे को दुख देता है । उसे मैं दुख देता हूँ । हे माता ! उस आवाज को सुनकर मैं तुम्हारे पास आ गया । यही सत्य है । मुझे पिता के श्री चरण नहीं मिले ।
भवानी यह सुनकर प्रसन्न हो गयी । और बोली - हे पुत्र सुनो ! मैं तुम्हें तुम्हारे पिता से मिलाती हूँ । और तुम्हारे मन का भृम मिटाती हूँ । पहले तुम बाहर की स्थूल दृष्टि ( शरीर की आँखें ) छोङकर । भीतर की ग्यान दृष्टि ( अन्तर की आँख । तीसरी आँख ) से देखो । और अपने ह्रदय में मेरा वचन परखो ।
स्थूल देह के भीतर सूक्ष्म मन के स्वरूप को ही कर्ता समझो । मन के अलावा दूसरा और किसी को कर्ता न मानों । यह मन बहुत ही चंचल और गतिशील है । यह क्षण भर में स्वर्ग पाताल की दौङ लगाता है । और स्वछन्द होकर सब ओर विचरता है । मन एक क्षण में अनन्त कला दिखाता है । और इस मन को कोई नहीं देख पाता । मन को ही निराकार कहो । मन के ही सहारे दिन रात रहो ।
हे विष्णु ! बाहरी दुनियाँ से ध्यान हटाकर अंतर्मुखी हो जाओ । और अपनी सुरति और दृष्टि को पलटकर भृकुटि के मध्य ( भोहों के बीच आज्ञा चक्र ) पर या ह्रदय के शून्य में ज्योति को देखो । जहाँ ज्योति झिलमिल झालर सी प्रकाशित होती है ।
तब विष्णु ने अपनी स्वांस को घुमाकर भीतर आकाश की ओर दौङाया । और ( अंतर ) आकाश मार्ग में ध्यान लगाया । विष्णु ने ह्रदय गुफ़ा में प्रवेश कर ध्यान लगाया । ध्यान प्रकिया में विष्णु ने पहले स्वांस का संयम प्राणायाम से किया । कुम्भक में जब उन्होंने स्वांस को रोका । तो प्राण ऊपर उठकर ध्यान के केन्द्र शून्य 0 में आया । वहाँ विष्णु को अनहद नाद की गर्जना सुनाई दी । यह अनहद बाजा सुनते हुये विष्णु प्रसन्न हो गये । तब मन ने उन्हें सफ़ेद लाल काला पीला आदि रंगीन प्रकाश दिखाया ।
हे धर्मदास ! इसके बाद विष्णु को ..मन ने अपने आपको दिखाया । और ज्योति प्रकाश किया । जिसे देखकर वह प्रसन्न हो गये । और बोले - हे माता ! आपकी कृपा से आज मैंने ईश्वर को देखा ।
तब धर्मदास चौंककर बोले - हे सदगुरु कबीर साहब ! यह सुनकर मेरे भीतर एक भृम उत्पन्न हुआ है । अष्टांगी कन्या ने जो मन का ध्यान ? बताया । इससे तो समस्त जीव भरमा गये हैं ? यानी भृम में पङ गये हैं ?? ( इस बात पर विशेष गौर करें )
तब कबीर साहिब बोले - हे धर्मदास ! यह काल निरंजन का स्वभाव ही है कि इसके चक्कर में पङने से विष्णु सत्यपुरुष का भेद नहीं जान पाये । ( निरंजन ने अष्टांगी को पहले ही सचेत कर आदेश दे दिया था कि सत्यपुरुष का कोई भेद जानने न पाये । ऐसी माया फ़ैलाना ) अब उस कामिनी अष्टांगी की यह चाल देखो कि उसने अमृतस्वरूप सत्यपुरुष को छुपाकर विष रूप काल निरंजन को दिखाया ।
जिस ज्योति का ध्यान अष्टांगी ने बताया । उस ज्योति से काल निरंजन को दूसरा न समझो । हे धर्मदास ! अब तुम यह विलक्षण गूढ सत्य सुनो । ज्योति का जैसा प्रकट रूप होता है । वैसा ही गुप्त रूप भी है । जो ह्रदय के भीतर है । वह ही बाहर देखने में भी आता है ।
जब कोई मनुष्य दीपक जलाता है । तो उस ज्योति के भाव स्वभाव को देखो । और निर्णय करो । उस ज्योति को देखकर पतंगा बहुत खुश होता है । और प्रेमवश अपना भला जानकर उसके पास आता है । लेकिन ज्योति को स्पर्श करते ही पतंगा भस्म हो जाता है । इस प्रकार अग्यानता में मतबाला हुआ वह पतंगा उसमें जल मरता है । ज्योति स्वरूप काल निरंजन भी ऐसा ही है । जो भी जीवात्मा उसके चक्कर में
आ जाता है । क्रूर काल उसे छोङता नहीं ।
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