भगवान श्रीकृष्ण की 8 रानियाँ थीं । जिनमें 2 पहली रानियों के नाम सत्यभामा और रुक्मणी थे । दोनों ही भगवान कृष्ण से बहुत प्रेम करते थीं । परन्तु सत्यभामा को अपने पिता के धन पर बहुत घमंड था । उसके पिता के पास स्यमन्तक नामक 1 मणि थी । जो उन्हें सूर्यदेव ने दी थी । वह मणि रोज 1 किलो सोना देती थी । श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा के घमंड को तोड़ने के लिए एक लीला रची ।
एक बार नारद द्वारिका पधारे । सत्यभामा ने उनका खूब आदर सत्कार किया । जब नारद वहाँ से जाने लगे ।
तब सत्यभामा ने नारद को रोकते हुए कहा - आप ब्रह्मचारी हैं, आपको किये दान से असंख्य पुण्यों की प्राप्ति होती है । अतः कृपया मेरे द्वारा दान ग्रहण कीजिये ।
नारद ने सत्यभामा से कहा - देवी आप रहने दीजिये । मेरे द्वारा मांगी गई वस्तु आप दान नहीं कर पाएंगी ।
सत्यभामा को धन का बहुत घमंड था । अतः उन्होंने कहा - ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, जो में दान न कर सकूँ । फिर भी मैं हाथ में जल लेकर आपको वचन देती हूँ । आप जो भी दान मांगोगे । मैं आपको दूंगी ।
नारद ने तुरंत श्रीकृष्ण को ही दान में मांग लिया । वचन से बंधे होने के कारण सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को दान में दे दिया ।
फिर क्या श्रीकृष्ण और नारद ने अपनी लीला शुरू कर दी । नारद श्रीकृष्ण को जैसा आदेश देते कृष्ण कहे अनुसार ही करते जाते । कभी वे नारद के पैर दबाते । तो कभी उनके लिए भोजन पकाते । नारद के कहे पर वे उठते और बैठते थे । सारी रानियाँ कृष्ण की यह दशा देख दुखी हो गई । अंत में सत्यभामा रोते हुए नारद के चरणों में गई । तथा उनसे श्रीकृष्ण के बदले में कुछ अन्य वस्तु मांगने की प्रार्थना करने लगी । परन्तु नारद ने श्रीकृष्ण को वापस करने के बदले में एक शर्त रखी की । सत्यभामा आपको श्रीकृष्ण के वजन के बराबर स्वर्ण का दान करना होगा ।
तब एक तुला मंगाई गई जिसके एक छोर के पलड़े पर कृष्ण बैठे थे । तथा दूसरे पलड़े पर रानियों ने अपने सभी आभूषण डाले । सत्यभामा ने अपने सभी खजाने खोल दिए । और कृष्ण को उनसे तोलने लगी । परन्तु कृष्ण वाला पलड़ा अपनी पूर्व स्थिति में ही बना रहा । तब रुक्मणी ने भगवान कृष्ण को अपने मन में याद किया । और सारे आभूषणों को हटाकर उसकी जगह 1 तुलसी का पत्ता रखा । रुक्मणी के प्रेम से भरे उस पत्ते के भार से वह तराजू का पलड़ा भारी हो गया । और कृष्ण वाला पलड़ा उपर उठ आया । तब सत्यभामा को अपने घमंड का अहसास हुआ । और उन्होंने रुक्मणी, भगवान कृष्ण और नारद से क्षमा मांगी ।
एक बार नारद द्वारिका पधारे । सत्यभामा ने उनका खूब आदर सत्कार किया । जब नारद वहाँ से जाने लगे ।
तब सत्यभामा ने नारद को रोकते हुए कहा - आप ब्रह्मचारी हैं, आपको किये दान से असंख्य पुण्यों की प्राप्ति होती है । अतः कृपया मेरे द्वारा दान ग्रहण कीजिये ।
नारद ने सत्यभामा से कहा - देवी आप रहने दीजिये । मेरे द्वारा मांगी गई वस्तु आप दान नहीं कर पाएंगी ।
सत्यभामा को धन का बहुत घमंड था । अतः उन्होंने कहा - ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, जो में दान न कर सकूँ । फिर भी मैं हाथ में जल लेकर आपको वचन देती हूँ । आप जो भी दान मांगोगे । मैं आपको दूंगी ।
नारद ने तुरंत श्रीकृष्ण को ही दान में मांग लिया । वचन से बंधे होने के कारण सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को दान में दे दिया ।
फिर क्या श्रीकृष्ण और नारद ने अपनी लीला शुरू कर दी । नारद श्रीकृष्ण को जैसा आदेश देते कृष्ण कहे अनुसार ही करते जाते । कभी वे नारद के पैर दबाते । तो कभी उनके लिए भोजन पकाते । नारद के कहे पर वे उठते और बैठते थे । सारी रानियाँ कृष्ण की यह दशा देख दुखी हो गई । अंत में सत्यभामा रोते हुए नारद के चरणों में गई । तथा उनसे श्रीकृष्ण के बदले में कुछ अन्य वस्तु मांगने की प्रार्थना करने लगी । परन्तु नारद ने श्रीकृष्ण को वापस करने के बदले में एक शर्त रखी की । सत्यभामा आपको श्रीकृष्ण के वजन के बराबर स्वर्ण का दान करना होगा ।
तब एक तुला मंगाई गई जिसके एक छोर के पलड़े पर कृष्ण बैठे थे । तथा दूसरे पलड़े पर रानियों ने अपने सभी आभूषण डाले । सत्यभामा ने अपने सभी खजाने खोल दिए । और कृष्ण को उनसे तोलने लगी । परन्तु कृष्ण वाला पलड़ा अपनी पूर्व स्थिति में ही बना रहा । तब रुक्मणी ने भगवान कृष्ण को अपने मन में याद किया । और सारे आभूषणों को हटाकर उसकी जगह 1 तुलसी का पत्ता रखा । रुक्मणी के प्रेम से भरे उस पत्ते के भार से वह तराजू का पलड़ा भारी हो गया । और कृष्ण वाला पलड़ा उपर उठ आया । तब सत्यभामा को अपने घमंड का अहसास हुआ । और उन्होंने रुक्मणी, भगवान कृष्ण और नारद से क्षमा मांगी ।
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