काम ! अंश है प्रेम का, अधिक बड़ी संपूर्णता का । प्रेम उसे सौंदर्य देता है । अन्यथा तो यह सबसे अधिक असुंदर क्रियाओं में से एक है । इसलिए लोग अंधकार में काम की ओर बढ़ते है । वे स्वयं भी इस क्रिया का प्रकाश में संपन्न किया जाना पसंद नहीं करते है । तुम देखते हो कि मनुष्य के अतिरिक्त सभी पशु संभोग करते है दिन में । कोई पशु रात में कष्ट नहीं उठाता । रात विश्राम के लिए होती है । सभी पशु दिन में संभोग करते है । केवल आदमी संभोग करता है रात्रि में । एक तरह का भय होता है कि संभोग की क्रिया थोड़ी असुंदर है । और कोई स्त्री अपनी खुली आंखों सहित कभी संभोग नहीं करती है । क्योंकि उनमें पुरूष की अपेक्षा ज्यादा सुरुचि संवेदना होती है । वे हमेशा मूंदी आंखों सहित संभोग करती है । जिससे कि कोई चीज दिखाई नहीं देती । स्त्रियां अश्लील नहीं होती है, केवल पुरूष होते है ऐसे ।
इसीलिए स्त्रियों के इतने ज्यादा नग्न चित्र विद्यमान रहते है । केवल पुरूषों का रस है देह देखने में । स्त्रियों की रूचि नहीं होती इसमें । उनके पास ज्यादा सुरुचि संवेदना होती है । क्योंकि देह पशु की है । जब तक कि वह दिव्य नहीं होती । उसमें देखने को कुछ है नहीं । प्रेम सेक्स को एक नयी आत्मा दे सकता है । तब सेक्स रूपांतरित हो जाता है । वह सुंदर बन जाता है । वह अब काम का भाव न रहा, उसमें कहीं पार का कुछ होता है । वह सेतु बन जाता है ।
तुम किसी व्यक्ति को प्रेम कर सकते हो । इसलिए क्योंकि वह तुम्हारी ‘कामवासना’ की तृप्ति करता है । यह प्रेम नहीं, मात्र एक सौदा है । तुम किसी व्यक्ति के साथ कामवासना की पूर्ति कर सकते हो इसलिए क्योंकि तुम प्रेम करते हो । तब काम भाव अनुसरण करता है छाया की भांति, प्रेम के अंश की भांति । तब वह सुंदर होता है । तब वह पशु-संसार का नहीं रहता । तब पार की कोई चीज पहले से ही प्रविष्ट हो चुकी होती है । और यदि तुम किसी व्यक्ति से बहुत गहराई से प्रेम किए चले जाते हो, तो धीरे धीरे कामवासना तिरोहित हो जाती है । आत्मीयता इतनी संपूर्ण हो जाती है कि कामवासना की कोई आवश्यकता नहीं रहती । प्रेम स्वयं में पर्याप्त होता है । जब वह घड़ी आती है तब प्रार्थना की संभावना तुम पर उतरती है ।
ऐसा नहीं है कि उसे गिरा दिया गया होता है । ऐसा नहीं है कि उसका दमन किया गया, नहीं । वह तो बस तिरोहित हो जाती है । जब दो प्रेमी इतने गहने प्रेम में होते है कि प्रेम पर्याप्त होता है । और कामवासना बिलकुल गिर जाती है । तब दो प्रेमी समग्र एकत्व में होते है । क्योंकि कामवासना, विभक्त करती है । अंग्रेजी का शब्द ‘सेक्स’ तो आता ही उस मूल से है जिसका अर्थ होता है, विभेद । प्रेम जोड़ता है; कामवासना भेद बनाती है । कामवासना विभेद का मूल कारण है । जब तुम किसी व्यक्ति के साथ कामवासना की पूर्ति करते हो, स्त्री या पुरूष के साथ, तो तुम सोचते हो कि सेक्स तुम्हें जोड़ता है । क्षण भर को तुम्हें भ्रम होता है एकत्व का, और फिर एक विशाल विभेद अचानक बन आता है । इसीलिए प्रत्येक काम क्रिया के पश्चात एक हताशा, एक निराशा आ घेरती है । व्यक्ति अनुभव करता है कि वह प्रिय से बहुत दूर है । कामवासना भेद बना देती है । और जब प्रेम ज्यादा और ज्यादा गहरे में उतर जाता है तो और ज्यादा जोड़ देता है तो कामवासना की आवश्यकता नहीं रहती । तुम इतने एकत्व में रहते हो कि तुम्हारी आंतरिक ऊर्जाऐं बिना काम के मिल सकती है ।
जब दो प्रेमियों की कामवासना तिरोहित हो जाती है तो जो आभा उतरती है तुम देख सकते हो उसे । वह दो शरीरों की भांति एक आत्मा में रहते है । आत्मा उन्हें घेरे रहती है । वह उनके शरीर के चारों और एक प्रदीप्ति बन जाती है । लेकिन ऐसा बहुत कम घटता है । लोग कामवासना पर समाप्त हो जाते है । ज्यादा से ज्यादा जब इकट्ठे रहते है । तो वे एक दूसरे के प्रति स्नेहपूर्ण होने लगते है, ज्यादा से ज्यादा यही होता है । लेकिन प्रेम कोई स्नेह का भाव नहीं है, वह आत्माओं की एकमायता है, दो ऊर्जाऐं मिलती है । और संपूर्ण इकाई हो जाती है । जब ऐसा घटता है, केवल तभी प्रार्थना संभव होती है । तब दोनों प्रेमी अपनी एकमायता में बहुत परितृप्त अनुभव करते है । बहुत संपूर्ण कि एक अनुग्रह का भाव उदित होता है । वे गुनगुनाना शुरू कर देते है प्रार्थना को । - ओशो
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बाधामुक्त होकर धन-पुत्रादि की प्राप्ति के लिये
सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित: ।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय: ॥ ( अ॰ 12, श्लो॰ 13 )
इसीलिए स्त्रियों के इतने ज्यादा नग्न चित्र विद्यमान रहते है । केवल पुरूषों का रस है देह देखने में । स्त्रियों की रूचि नहीं होती इसमें । उनके पास ज्यादा सुरुचि संवेदना होती है । क्योंकि देह पशु की है । जब तक कि वह दिव्य नहीं होती । उसमें देखने को कुछ है नहीं । प्रेम सेक्स को एक नयी आत्मा दे सकता है । तब सेक्स रूपांतरित हो जाता है । वह सुंदर बन जाता है । वह अब काम का भाव न रहा, उसमें कहीं पार का कुछ होता है । वह सेतु बन जाता है ।
तुम किसी व्यक्ति को प्रेम कर सकते हो । इसलिए क्योंकि वह तुम्हारी ‘कामवासना’ की तृप्ति करता है । यह प्रेम नहीं, मात्र एक सौदा है । तुम किसी व्यक्ति के साथ कामवासना की पूर्ति कर सकते हो इसलिए क्योंकि तुम प्रेम करते हो । तब काम भाव अनुसरण करता है छाया की भांति, प्रेम के अंश की भांति । तब वह सुंदर होता है । तब वह पशु-संसार का नहीं रहता । तब पार की कोई चीज पहले से ही प्रविष्ट हो चुकी होती है । और यदि तुम किसी व्यक्ति से बहुत गहराई से प्रेम किए चले जाते हो, तो धीरे धीरे कामवासना तिरोहित हो जाती है । आत्मीयता इतनी संपूर्ण हो जाती है कि कामवासना की कोई आवश्यकता नहीं रहती । प्रेम स्वयं में पर्याप्त होता है । जब वह घड़ी आती है तब प्रार्थना की संभावना तुम पर उतरती है ।
ऐसा नहीं है कि उसे गिरा दिया गया होता है । ऐसा नहीं है कि उसका दमन किया गया, नहीं । वह तो बस तिरोहित हो जाती है । जब दो प्रेमी इतने गहने प्रेम में होते है कि प्रेम पर्याप्त होता है । और कामवासना बिलकुल गिर जाती है । तब दो प्रेमी समग्र एकत्व में होते है । क्योंकि कामवासना, विभक्त करती है । अंग्रेजी का शब्द ‘सेक्स’ तो आता ही उस मूल से है जिसका अर्थ होता है, विभेद । प्रेम जोड़ता है; कामवासना भेद बनाती है । कामवासना विभेद का मूल कारण है । जब तुम किसी व्यक्ति के साथ कामवासना की पूर्ति करते हो, स्त्री या पुरूष के साथ, तो तुम सोचते हो कि सेक्स तुम्हें जोड़ता है । क्षण भर को तुम्हें भ्रम होता है एकत्व का, और फिर एक विशाल विभेद अचानक बन आता है । इसीलिए प्रत्येक काम क्रिया के पश्चात एक हताशा, एक निराशा आ घेरती है । व्यक्ति अनुभव करता है कि वह प्रिय से बहुत दूर है । कामवासना भेद बना देती है । और जब प्रेम ज्यादा और ज्यादा गहरे में उतर जाता है तो और ज्यादा जोड़ देता है तो कामवासना की आवश्यकता नहीं रहती । तुम इतने एकत्व में रहते हो कि तुम्हारी आंतरिक ऊर्जाऐं बिना काम के मिल सकती है ।
जब दो प्रेमियों की कामवासना तिरोहित हो जाती है तो जो आभा उतरती है तुम देख सकते हो उसे । वह दो शरीरों की भांति एक आत्मा में रहते है । आत्मा उन्हें घेरे रहती है । वह उनके शरीर के चारों और एक प्रदीप्ति बन जाती है । लेकिन ऐसा बहुत कम घटता है । लोग कामवासना पर समाप्त हो जाते है । ज्यादा से ज्यादा जब इकट्ठे रहते है । तो वे एक दूसरे के प्रति स्नेहपूर्ण होने लगते है, ज्यादा से ज्यादा यही होता है । लेकिन प्रेम कोई स्नेह का भाव नहीं है, वह आत्माओं की एकमायता है, दो ऊर्जाऐं मिलती है । और संपूर्ण इकाई हो जाती है । जब ऐसा घटता है, केवल तभी प्रार्थना संभव होती है । तब दोनों प्रेमी अपनी एकमायता में बहुत परितृप्त अनुभव करते है । बहुत संपूर्ण कि एक अनुग्रह का भाव उदित होता है । वे गुनगुनाना शुरू कर देते है प्रार्थना को । - ओशो
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बाधामुक्त होकर धन-पुत्रादि की प्राप्ति के लिये
सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित: ।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय: ॥ ( अ॰ 12, श्लो॰ 13 )
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