बुद्ध - संसार में सब कुछ परिवर्तनशील है ।
कबीर जो दिन आज है, सो दिन नाहिं काल ।
चेत सके तो चेत ले, सिर ठाडे है काल ।
आज काल दिन एक में, अस्थिर नाहिं शरीर ।
कहै कबीर कस राखियो, काचे बासन नीर ।
बुद्ध - आत्मा किसी लोक से उतरा या किसी ब्रह्म का अंश नहीं है ।
जागृत रुपी जीव है, शब्द सोहागा सेत ।
जर्द बूंद जल कुकही, कहैं कबीर कोई देख ।
बुद्ध - जङ तत्व चार हैं यथा - पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि ।
अग्नि कहे में ई तन जारो, पानी कहै में जरत उबारो ।
धरती कहै मोहि मिली जाए, पवन कहै संग लेऊ उडाई । कबीर
बुद्ध - सुख दुख कर्मों के अनुसार मिलते हैं, किसी भगवान या खुदा द्वारा नहीं ।
तौ लौ तारा जगमगे, जौ लौ उगे न सूर ।
तौ लौ जीव कर्मवश डोले, जौ लौ ज्ञान न पूर । कबीर
बुद्ध - जन्म और मृत्यु दोनों दुखदायी है ।
सुर नर मुनी औ देवता, सात द्वीप नौ खण्ड ।
कहहिं कबीर सब भोगिया, देह धरे का दण्ड ।
बुद्ध - दुख का कारण अज्ञान, द्वेष और मोह है ।
जो तू चाहे मुझ को, छोड सकल की आस ।
मुझ ही जैसा हो रहो, सब सुख तेरै पास । कबीर
बुद्ध - दुख का निराकरण अकुशल संस्कारों को न बनने देना है और यह संभव है विवेक धारण पर ।
मन सायर मनसा लहरी, बूढे बहुत अचेत ।
कहहिं कबीर ते बाचिं है, जाके हृदय विवेक ।
बुद्ध - इच्छाएं कभी स्थिर नहीं रहती है ।
ई मन चंचल ई मन चौर, ई मन शुद्ध ठगहार ।
मन मन करते सुर नर मुनि जहडे, मन के लक्ष द्वार । कबीर
बुद्ध - मन अगर निर्मल हो तो जीव को दुख नहीं होता है ।
यह मन तो निर्मल भया,जैसे गंगा नीर ।
पीछे पीछे हरि फिरे, कहत कबीर कबीर ।
बुद्ध - अज्ञान एवं तृष्णा के रहते मोक्ष संभव नहीं है ।
अमृत वस्तु जाने नहीं, मगन भया सब लोय ।
कहहिं कबीर कामों नहीं, जीव ही मरण न होय ।
कबीर जो दिन आज है, सो दिन नाहिं काल ।
चेत सके तो चेत ले, सिर ठाडे है काल ।
आज काल दिन एक में, अस्थिर नाहिं शरीर ।
कहै कबीर कस राखियो, काचे बासन नीर ।
बुद्ध - आत्मा किसी लोक से उतरा या किसी ब्रह्म का अंश नहीं है ।
जागृत रुपी जीव है, शब्द सोहागा सेत ।
जर्द बूंद जल कुकही, कहैं कबीर कोई देख ।
बुद्ध - जङ तत्व चार हैं यथा - पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि ।
अग्नि कहे में ई तन जारो, पानी कहै में जरत उबारो ।
धरती कहै मोहि मिली जाए, पवन कहै संग लेऊ उडाई । कबीर
बुद्ध - सुख दुख कर्मों के अनुसार मिलते हैं, किसी भगवान या खुदा द्वारा नहीं ।
तौ लौ तारा जगमगे, जौ लौ उगे न सूर ।
तौ लौ जीव कर्मवश डोले, जौ लौ ज्ञान न पूर । कबीर
बुद्ध - जन्म और मृत्यु दोनों दुखदायी है ।
सुर नर मुनी औ देवता, सात द्वीप नौ खण्ड ।
कहहिं कबीर सब भोगिया, देह धरे का दण्ड ।
बुद्ध - दुख का कारण अज्ञान, द्वेष और मोह है ।
जो तू चाहे मुझ को, छोड सकल की आस ।
मुझ ही जैसा हो रहो, सब सुख तेरै पास । कबीर
बुद्ध - दुख का निराकरण अकुशल संस्कारों को न बनने देना है और यह संभव है विवेक धारण पर ।
मन सायर मनसा लहरी, बूढे बहुत अचेत ।
कहहिं कबीर ते बाचिं है, जाके हृदय विवेक ।
बुद्ध - इच्छाएं कभी स्थिर नहीं रहती है ।
ई मन चंचल ई मन चौर, ई मन शुद्ध ठगहार ।
मन मन करते सुर नर मुनि जहडे, मन के लक्ष द्वार । कबीर
बुद्ध - मन अगर निर्मल हो तो जीव को दुख नहीं होता है ।
यह मन तो निर्मल भया,जैसे गंगा नीर ।
पीछे पीछे हरि फिरे, कहत कबीर कबीर ।
बुद्ध - अज्ञान एवं तृष्णा के रहते मोक्ष संभव नहीं है ।
अमृत वस्तु जाने नहीं, मगन भया सब लोय ।
कहहिं कबीर कामों नहीं, जीव ही मरण न होय ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें