28 मई 2016

वैश्या वासवदत्ता

प्राचीनकाल की बात है । मथुरा नगरी में वासवदत्ता नामक एक वेश्या रहती थी । उसका रूप वैभव किसी महारानी से कम न था । देश देशों के राजा उसके दरवाजे पर खाक छानने आते थे । जिस पर वह मुस्कुरा देती वही अपने को धन्य समझने लगता । ऐसी थी वह उर्वशी की अवतार वासवदत्ता ।
एक दिन वह सोने चाँदी से झिलमिलाते हुए रथ में बैठ कर नगर की सैर करने निकली । उसका वैभव कोई साधारण सा थोड़े ही था । जिस बाजार में उसकी दासी भी निकल जाती वह इत्रों की सुगंध से महक जाते । जब उसका झिलमिलाता हुआ रथ निकलता तो नगर निवासी अपना अपना काम छोड़ कर सड़क के किनारे उसकी शोभा देखने खड़े हो जाते । उस दिन वह सैर को निकली थी । दर्शकों की भारी भीड़ सड़क के किनारे पंक्तिबद्ध होकर खड़ी थी । सबके मुख पर उसी के रूप वैभव की चर्चा थी ।
नगर के एक पुराने खंडहर मुहल्ले की एक टूटी झोंपड़ी में एक युवक रहता था । नाम था उसका उपगुप्त । उसने गेरुए कपड़े नहीं पहने, फिर भी वह संन्यासी था । भिक्षा उसने नहीं माँगी, फिर भी आकाशी वृत्ति पर उसका भोजन निर्भर था । प्रेत की तरह घूमता, यक्ष की तरह गाता, बैताल की तरह कार्य करता और जनक की तरह कर्मयोग की साधना करता । जन्म भूमि तो उसकी कहीं दूर देश थी, पर अब रहता यहीं था । बहुत कम लोग उसके बारे में कुछ जानते थे, पर इतना सब जानते थे कि यह आदर्शवादी युवक निर्मल चरित्र का है, ईश्वर भक्ति में लीन रहना और प्रेम का प्रचार करना इसका कार्यक्रम है ।
उस दिन उपगुप्त अपनी झोंपड़ी के दरवाजे पर बैठा हुआ तन्मय होकर कुछ गा रहा था । आत्मविभोर होकर वह कुछ ऐसा कूक रहा था कि सुनने वालों के दिल हिलने लगे । मधुर स्वर के साथ मिली हुई आत्मानुभूति पुष्प के पराग की तरह फैलकर दूर दूर तक के लोगों को मस्त बनाये दे रही थी ।
वासवदत्ता की सवारी सन्ध्या होते होते उस खंडहर मुहल्ले में पहुँची । गोधूलि वेला में उस दरिद्र उपनगर की झोंपड़ियों में दीपक टिमटिमाने लगे थे । वेश्या उन्हें उपेक्षा भाव से देखती जा रही थी कि उसके कानों में संगीत की वह मधुर लहरें जा पहुँची । वह कला की पारखी थी । इतना उच्चकोटि का गायन आज तक उसने न सुना था । उसकी आँखें वह स्थान तलाश करने लगीं । जहाँ से यह ध्वनि आ रही थी । सवारी धीरे 2 आगे बढ़ रही थी । स्वर क्रमशः निकट आ रहा था । आगे चलकर उसने देखा कि फूस की एक जीर्ण शीर्ण झोंपड़ी का सुन्दर युवक आत्मविभोर होकर गा रहा है । वेश्या रथ में से उतर पड़ी, उसने निकट जाकर देखा कि देवताओं जैसे सुन्दर स्वरूप वाला एक भिक्षुक फटे चिथड़े पहने मिट्टी की चबूतरी पर बैठा है और बेसुध होकर गा रहा है । वेश्या ने कुछ कहना चाहा पर देखा कि यहाँ सुनने वाला कौन है । वह उलटे पाँवों वापिस लौट आई ।
वासवदत्ता अपने शयन कक्ष में पड़ी हुई थी । बहुत रात बीत चुकी, पर नींद उसकी आँखों के पास न झाँकी । भिखारी का स्वर और स्वरूप उसके मन में बस गया था । इधर से उधर करवटें बदल रही थी पर चैन कहाँ ? अब तक वह बड़े बड़े कहलाने वाले अनेकों को उंगलियों पर नचा चुकी थी, पर आज जीवन में पहली बार उसने जाना कि जी की जलन क्या होती है । क्षण बीत रहे थे, उसका मन काबू से बाहर हो रहा था । युवक के चरणों पर अपने को समर्पण करने के लिए उसके सामने तड़फने लगे ।
रात के दो बज चुके थे । वेश्या चुपचाप दासी को लेकर घर से बाहर निकल पड़ी । गली कूचों को पार करती हुई वह खंडहर मुहल्ले की उसी टूटी झोंपड़ी में पहुँची । युवक चटाई का फटा टुकड़ा बिछाये हुए जमीन पर सोया हुआ था ।
दासी ने धीरे से उसे जगाया और कहा - इस नगर की वैभवशालिनी अप्सरा वासवदत्ता आपके दर्शनों के लिये आई हैं ।
उपगुप्त ने आँखें मलीं और चटाई पर बैठा हो गया । वासवदत्ता का ऐश्वर्य वह सुन चुका था । मुझ दरिद्र के यहाँ वह वैभवशालिनी आई है ? क्यों आई है ? मुझसे क्या प्रयोजन ? एकबारगी अनेक प्रश्नों का ताँता उसके सामने उपस्थित हो गया ? उसके मन में अविश्वास की भावना आई । कहीं स्वप्न तो नहीं देख रहा हूं ? उपगुप्त बारबार आँखें मल कर सामने खड़ी दो मूर्तियों को देखने लगा ।
वासवदत्ता ने कहा - प्यारे, सन्देह मत करो । बड़े बड़े राजा महाराजा जिसके चरणों पर लोटते हैं, वही वासवदत्ता आपको अपना हृदय समर्पण करने आई है । मेरा सारा वैभव आप के लिए समर्पित है । मैं आपकी दासी बनना चाहती हूँ । मेरे टूटे हुए दिल को जोड़ कर कृत-कृत्य कर दीजिए ।
युवक को मानो साँप सूँघ गया हो, वह सन्न रह गया ।
उसने कहा - माता, तुम यह क्या कह रही हो । तुम्हारे मुख से यह कैसे शब्द निकल रहे हैं । मेरी आँखें स्त्री जाति को माता के ही रूप में देख सकती हैं । आपका पाप प्रस्ताव मुझे स्वीकार नहीं हो सकता ।
वेश्या बोलने में बड़ी पटु थी । नाना प्रकार के तर्क और प्रलोभनों से उपगुप्त को प्रस्ताव स्वीकार कर लेने को समझाने लगी, परन्तु युवक टस से मस भी न हुआ । उसका जीवन एक साधना थी, उसमें इधर उधर हिलने के लिए कोई गुँजाइश न थी । कोई प्रलोभन उसे डिगा न सका । वेश्या खिन्न होती हुई लौट आई ।
एक अरसा बीत गया । वेश्या के शरीर में कोढ़ फूट गया । उसके अंग गल-गल कर गिरने लगे । अतुलित वैभव कुछ ही समय में न जाने कहाँ पलायन कर गया । उस पर मरने वालों में से कोई उधर आँख उठा कर भी नहीं देखता । यह दुरवस्था अधिक बढ़ी । उपचार के अभाव में उसके अंग सड़ने लगे । घावों में से कीड़े झरना आरम्भ हो गया ।
ऐसी अवस्था में कौन उसके पास जाता परन्तु उपगुप्त था, जो उसकी सेवा कर रहा था । दुर्गन्ध के मारे वहाँ जाने में नाक फटती थी, पर वह प्रसन्नता पूर्वक उसके घाव बाँधता, कपड़े धोता, मल-मूत्र उठाता । सगी माता की तरह उसने वेश्या की एकनिष्ठ सेवा की ।
आज बीमारी बहुत बढ़ गई थी । वासवदत्ता मृत्यु के मुख में जा रही थी । उपगुप्त बैठा पंखा झल रहा था । 
रोगिणी ने अधखुले नेत्रों से उपगुप्त की ओर देखा और कहा - पुत्र, तेरा स्वर और संगीत मैंने जैसा परखा था, आज वैसा ही देख लिया । 
उपगुप्त ने उसके चरणों की धूलि मस्तक पर चढ़ाते हुए कहा - माता, तेरा सौंदर्य जैसा मैंने समझा था, आज तेरा पुत्र भाव पाकर वैसा ही पा लिया ।
साभार - अज्ञात ( फ़ेसबुक पेज से )

सूर्पनखा के वंशज

रामायण में सभी राक्षसों का वध हुआ लेकिन सूर्पनखा का वध नहीं हुआ । उसकी नाक और कान काट कर छोड़ दिया गया था । वह कपङे से अपने चेहरे को छुपाकर रहती थी । रावण के मर जाने के बाद वह अपने पति के साथ शुक्राचार्य के पास गयी और जंगल में उनके आश्रम में रहने लगी ।
राक्षसों का वंश ख़त्म न हो इसलिए शुक्राचार्य ने शिव की आराधना की । शिव ने अपना स्वरुप शिवलिंग शुक्राचार्य को देकर कहा कि जिस दिन कोई वैष्णव इस पर गंगाजल चढ़ा देगा । उस दिन राक्षसों का नाश हो जायेगा ।
उस आत्म लिंग को शुक्राचार्य ने वैष्णव मतलब हिन्दुओं से दूर रेगिस्तान में स्थापित किया । जो आज अरब में मक्का मदीना में है ।
सूर्पनखा जो उस समय चेहरा ढक कर रहती थी । वो परंपरा को उसके बच्चों ने पूरा निभाया । आज भी मुस्लिम औरतें चेहरा ढकी रहती हैं । सूर्पनखा के वंशज आज मुसलमान कहलाते हैं । क्योंकि शुक्राचार्य ने इनको जीवनदान दिया । इसलिए ये शुक्रवार को विशेष महत्व देते हैं ।
पूरी जानकारी तथ्यों पर आधारित सच है ।
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जानिए इस्लाम कैसे पैदा हुआ ?
असल में इस्लाम कोई धर्म नहीं है । एक मजहब है । दिनचर्या है । मजहब का मतलब अपने कबीलों के गिरोह को बढ़ाना ।
- यह बात सब जानते हैं कि मोहम्मदी मूलरूप से अरबवासी है । अरब देशो में सिर्फ रेगिस्तान पाया जाता है । वहां जंगल नहीं हैं । पेड़ नहीं है । इसीलिए वहां मरने के बाद जलाने के लिए लकड़ी न होने के कारण ज़मीन में दफ़न कर दिया जाता था ।
- रेगिस्तान में हरियाली नहीं होती । ऐसे में रेगिस्तान में हरा चटक रंग देखकर इंसान चला आता जो कि सूचक का काम करता था ।
- अरब देशो में लोग रेगिस्तान में तेज़ धूप में सफ़र करते थे । इसीलिए वहां के लोग सिर को ढकने के लिए टोपी पहनते थे । जिससे बीमार न पड़ें ।
- अब रेगिस्तान में न खेत थे, न फल । तो खाने के लिए वहाँ अनाज नहीं होता था । इसीलिए वहाँ के लोग जानवरों को काट कर खाते थे । और अपनी भूख मिटाने के लिए इसे क़ुर्बानी का नाम दिया गया ।
- रेगिस्तान में पानी की बहुत कमी रहती थी । इसीलिए लिंग ( मूत्रमार्ग ) साफ़ करने में पानी बर्बाद न हो जाये । इसीलिए लोग खतना ( अगला हिस्सा काट देना ) कराते थे ।
- सब लोग एक ही कबीले के खानाबदोश होते थे । इसलिए आपस में भाई बहन ही निकाह कर लेते थे ।
- रेगिस्तान में मूर्ति बनाने को मिट्टी मिलती नहीं थी । इसलिए मूर्ति पूजा नहीं करते थे ।
- खानाबदोश जीवन होने से एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ता था । इसलिए कम बर्तन रखते थे और एक थाली में पांच लोग खाते थे ।
- कबीले की अधिक से अधिक संख्या बढ़े । इसलिए हर एक को चार बीवी रखने की इज़ाजत दी ।
इस्लाम कोई धर्म नहीं मात्र एक कबीला है । और इसके नियम असल में इनकी दिनचर्या है ।
‎इस्लाम_की_सच्चाई‬
अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती को 90 लाख हिंदुओं को इस्लाम में लाने का गौरव प्राप्त है । मोइनुद्दीन चिश्ती ने ही मोहम्मद गोरी को भारत लूटने के लिए उकसाया और आमंत्रित किया था । ( सन्दर्भ - उर्दू अखबार पाक एक्सप्रेस, न्यूयार्क 14 मई 2012)
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अजमेर दरगाह वाले ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने किस तरह इस्लाम कबूल न करने पर पृथ्वीराज चौहान की पत्नी संयोगिता को मुस्लिम सैनिकों के बीच बलात्कार करने के लिए निर्वस्त्र करके फेंक दिया था और फिर पृथ्वीराज चौहान की वीर पुत्रियों ने आत्मघाती बनकर मोइनुद्दीन चिश्ती को 72 हूरों के पास भेजा था । 
साभार - एक फ़ेसबुक पेज से

केवल दो हाथ न होने से

एक बाग में एक फ़क़ीर रहता था । उस बाग़ में मच्छर बहुत थे । मैंने कई बार देखा उस फ़क़ीर को । उसके दोनों बाज़ू नहीं थे । आवाज़ देकर, माथा झुकाकर वह पैसा माँगता था । 
एक बार मैंने उस फ़क़ीर से पूछा -  पैसे तो माँग लेते हो, रोटी कैसे खाते हो ?
उसने बताया -  जब शाम उतर आती है । तो उस नानबाई को पुकारता हूँ..ओ जुम्मा । आके पैसे ले जा, रोटियाँ दे जा । वह भीख के पैसे उठा ले जाता है, रोटियाँ दे जाता है ।
मैंने पूछा -  खाते कैसे हो बिना हाथों के ?
वह बोला -  खुद तो खा नहीं सकता । आने जाने वालों को आवाज़ देता हूँ..ओ जाने वालों । प्रभु तुम्हारे हाथ बनाए रखे । मेरे ऊपर दया करो । रोटी खिला दो मुझे, मेरे हाथ नहीं हैं । हर कोई तो सुनता नहीं, लेकिन किसी किसी को तरस आ जाता है । वह प्रभु का प्यारा मेरे पास आ बैठता है । ग्रास तोड़कर मेरे मुँह में डालता जाता है, मैं खा लेता हूँ । 
सुनकर मेरा दिल भर आया । मैंने पूछ लिया -  पानी कैसे पीते हो ?
उसने बताया -  इस घड़े को टांग के सहारे झुका देता हूँ । प्याला भर जाता है । तब पशुओं की तरह झुककर पानी पी लेता हूँ ।
मैंने कहा -  यहाँ मच्छर बहुत हैं । यदि मच्छर लड़ जाए तो क्या करते हो ?
वह बोला -  तब शरीर को ज़मीन पर रगड़ता हूँ । पानी से निकली मछली की तरह लोटता और तड़पता हूँ । 
हाय । केवल दो हाथ न होने से कितनी दुर्गति होती है ।
अरे, इस शरीर की निंदा मत करो । यह तो अनमोल रत्न है । शरीर का हर अंग इतना कीमती है कि संसार का कोई भी खज़ाना उसका मोल नहीं चुका सकता । परन्तु यह भी तो सोचो कि यह शरीर मिला किसलिए है ? इसका हर अंग उपयोगी है । इनका उपयोग करो ।
स्मरण रहे कि ये आँखे पापों को ढूँढने के लिए नहीं मिलीं ।
कान निंदा सुनने के लिए नहीं मिले ।
हाथ दूसरों का गला दबाने के लिए नहीं मिले ।
मन अहंकार में डूबने या मोह माया में फंसने को नहीं मिला ।
आँख सच्चे पातशाह वाहेगुरू की खोज के लिये मिली है । जो हमें परमात्मा के बताये मार्ग पर चलने सिखाये ।
हाथ प्राणी मात्र की सेवा करने को मिले हैं ।
पैर उस रास्ते पर चलने को मिले हैं । जो परम पद तक जाता हो ।
कान उस संदेश सुनने को मिले हैं । जिसमें परम पद पाने का मार्ग बताया जाता हो ।
जिह्वा वाहेगुरू का गुणगान करने को मिली है ।
मन उस वाहेगुरू का लगातार शुक्र और सुमिरन करने को मिला है ।

सेवा जप तप से बड़ा कर्म

एक प्रसिद्ध संत मृत्यु के बाद जब स्वर्ग के दरवाजे पर पहुंचे तो चित्रगुप्त उन्हें रोकते हुए बोले - रुकिए महाराज, अंदर जाने से पहले लेखा जोखा देखना पड़ता है । 
चित्रगुप्त की बात संत को अच्छी नहीं लगी ।
वह बोले - आप यह कैसा व्यवहार कर रहे हैं ? बच्चे से लेकर बूढ़े तक सभी मुझे जानते हैं ।
चित्रगुप्त बोले - आपको कितने लोग जानते हैं । इसका लेखा जोखा हमारी बही में नहीं होता । इसमें तो केवल कर्मों का लेखा जोखा होता है । 
इसके बाद वह बही लेकर संत के जीवन का पहला हिस्सा देखने लगे ।
संत बोले - आप मेरे जीवन का दूसरा भाग देखिए । क्योंकि जीवन के पहले हिस्से में तो मैंने लोगों की सेवा की है । उनके दुख दूर किए हैं । जबकि जीवन के दूसरे हिस्से में मैंने जप तप और ईश्वर की आराधना की है । दूसरे हिस्से का लेखा जोखा देखने पर आपको वहां पुण्य की चर्चा अवश्य मिलेगी । 
संत की बात मानकर चित्रगुप्त ने उनके जीवन का दूसरा हिस्सा देखा । तो वहां उन्हें कुछ भी नहीं मिला । सब कुछ कोरा था । वह फिर से उनके जीवन के आरंभ से उनका लेखा जोखा देखने लगे । आरंभ का लेखा जोखा देखकर वह बोले - महाराज, आपका सोचना उल्टा है । आपके अच्छे और पुण्य के कार्यों का लेखा जोखा जीवन के आरंभ में है ।
संत आश्चर्यचकित होकर बोले - यह कैसे संभव है ?
चित्रगुप्त बोले - जीवन के पहले हिस्से में आपने मनुष्य की सेवा की । उनके दुख दर्द कम किए । उन्हीं पुण्य के कार्यों के कारण आपको स्वर्ग में स्थान मिला है । जबकि जप तप और ईश्वर की आराधना आपने अपनी शांति के लिए की है । इसलिए वे पुण्य के कार्य नहीं हैं । यदि केवल आपके जीवन के दूसरे हिस्से पर विचार किया जाए । तो आपको स्वर्ग नहीं मिलेगा ।
चित्रगुप्त की बात सुनकर संत समझ गए कि - जीवन में जप तप से बड़ा कर्म है । सच्चे मन से मनुष्य की सेवा ।

चोर और पुजारी

किसी शिव मंदिर में नित्य एक पंडित और एक चोर आते थे । पंडित अत्यंत भक्तिभाव से शिवलिंग पर फल फूल और दूध चढ़ाकर पूजा करता था । वहीं बैठकर शिवस्तोत्र का पाठ करता और घंटों श्रद्धा से शिव का ध्यान करता । दूसरी ओर उसी शिव मंदिर में एक चोर भी प्रतिदिन आता था । वह आते ही शिवलिंग पर डंडे मारना शुरू कर देता और अपने भाग्य को कोसता हुआ भगवान को अपशब्द कहता । अपनी विपन्नता का सारा दोष वह भगवान शिव पर मढ़ता और उन्हें अन्यायी व पक्षपाती ठहराता ।
एक दिन पंडित और चोर साथ साथ ही मंदिर में आए और अपनी प्रतिदिन की प्रक्रिया दोहराई । काम भी दोनों का साथ ही खत्म हुआ और दोनों का साथ ही बाहर आना हुआ । तभी चोर को द्वार के बाहर सोने की अशर्फियों से भरी थैली मिली और पंडित के पैर में लोहे की कील से गहरा घाव हो गया ।
अशर्फियां मिलने से चोर को अत्यंत प्रसन्नता हुई, लेकिन पैर में गहरा घाव होने के कारण पंडित बड़ा दुखी हुआ और रोने लगा ।
तभी भगवान शिव वहां प्रकट हुए और पंडित से बोले - पंडितजी, आज के दिन आपके भाग्य में फांसी लगनी लिखी थी । किंतु मेरी पूजा करके अपने सत्कर्म से फांसी को आपने केवल एक गहरे घाव में बदल दिया । इस चोर को आज के दिन राजा बनकर राजसिंहासन पर बैठना था । किंतु इसके कर्मो ने इसे केवल स्वर्णमुद्रा का ही अधिकारी बनाया । जाओ अपना कर्म करो ।
वस्तुतः अपना भाग्य निर्माता मनुष्य स्वयं ही होता है । यदि वह अच्छे कर्म करेगा । तो सुपरिणाम के रूप में बेहतर भाग्य पाएगा । और दुष्कर्मो का फल दुर्भाग्य का पात्र बनाता है ।

धनवान होना बुरा नहीं

एक बार महर्षि नारद ज्ञान का प्रचार करते हुए किसी सघन वन में जा पहुँचे । वहाँ उन्होंने एक बहुत बड़ा घनी छाया वाला सेमर का वृक्ष देखा और उसकी छाया में विश्राम करने के लिए ठहर गये । नारद को उसकी शीतल छाया में आराम करके बड़ा आनन्द हुआ । वे उसके वैभव की भूरिभूरि प्रशंसा करने लगे ।
उन्होंने उससे पूछा - वृक्षराज तुम्हारा इतना बड़ा वैभव किस प्रकार सुस्थिर रहता है ? पवन तुम्हें गिराती क्यों नहीं ?
सेमर के वृक्ष ने हंसते हुए ऋषि के प्रश्न का उत्तर दिया - भगवान, बेचारे पवन की कोई सामर्थ्य नहीं कि वह मेरा बाल भी बाँका कर सके । वह मुझे किसी प्रकार गिरा नहीं सकता ।
नारद को लगा कि सेमर का वृक्ष अभिमान के नशे में ऐसे वचन बोल रहा है । उन्हें यह उचित प्रतीत न हुआ और झुँझलाते हुए सुरलोक को चले गये ।
सुरपुर में जाकर नारद ने पवन से कहा - अमुक वृक्ष अभिमान पूर्वक दर्प वचन बोलता हुआ आपकी निन्दा करता है । सो उसका अभिमान दूर करना चाहिए ।
पवन को अपनी निन्दा करने वाले पर बहुत क्रोध आया और वह उस वृक्ष को उखाड़ फेंकने के लिए बड़े प्रबल प्रवाह के साथ आँधी तूफान की तरह चल दिया ।
सेमर का वृक्ष बड़ा तपस्वी परोपकारी और ज्ञानी था । उसे भावी संकट की पूर्व सूचना मिल गई । वृक्ष ने अपने बचने का उपाय तुरन्त ही कर लिया । उसने अपने सारे पत्ते झाड़ डाले और ठूंठ की तरह खड़ा हो गया । पवन आया । उसने बहुत प्रयत्न किया । पर ठूंठ का कुछ भी बिगाड़ न सका । अन्ततः उसे निराश होकर लौट जाना पड़ा ।
कुछ दिन पश्चात नारद उस वृक्ष का परिणाम देखने के लिए उसी वन में फिर पहुँचे । पर वहाँ उन्होंने देखा कि वृक्ष ज्यों का त्यों हरा भरा खड़ा है । नारद को इस पर बड़ा आश्चर्य हुआ ।
उन्होंने सेमर से पूछा - पवन ने सारी शक्ति के साथ तुम्हें उखाड़ने की चेष्टा की थी पर तुम तो अभी तक ज्यों के त्यों खड़े हुए हो । इसका क्या रहस्य है ?
वृक्ष ने नारद को प्रणाम किया और नम्रतापूर्वक निवेदन किया - ऋषिराज, मेरे पास इतना वैभव है पर मैं इसके मोह में बँधा हुआ नहीं हूँ । संसार की सेवा के लिए इतने पत्तों को धारण किये हुए हूँ । परन्तु जब जरूरत समझता हूँ । इस सारे वैभव को बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता हूँ और ठूँठ बन जाता हूँ । मुझे वैभव का गर्व नहीं था । वरन अपने ठूँठ होने का अभिमान था । इसीलिए मैंने पवन की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य को अधिक बताया था । आप देख रहे हैं कि उसी निर्लिप्त कर्मयोग के कारण मैं पवन की प्रचंड टक्कर सहता हुआ भी यथा पूर्व खड़ा हुआ हूँ ।
नारद समझ गये कि संसार में वैभव रखना, धनवान होना कोई बुरी बात नहीं है । इससे तो बहुत से शुभ कार्य हो सकते हैं । बुराई तो धन के अभिमान में डूब जाने और उससे मोह करने में है । यदि कोई व्यक्ति धनी होते हुए भी मन से पवित्र रहे । तो वह एक प्रकार का साधु ही है । ऐसे जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहने वाले कर्मयोगी साधु के लिए घर ही तपोभूमि है ।

सही फैसला

एक कुम्हार माटी से चिलम बनाने जा रहा था । उसने चिलम का आकार दिया । थोड़ी देर में उसने चिलम को बिगाड़ दिया । 
माटी ने पूछा - अरे कुम्हार, तुमने चिलम अच्छी बनाई । फिर बिगाड़ क्यों दिया ?
कुम्हार ने कहा - अरी माटी, पहले मैं चिलम बनाने की सोच रहा था । किन्तु मेरी मति ( दिमाग ) बदली और अब मैं सुराही बनाऊंगा ।
ये सुनकर माटी बोली - रे कुम्हार, मुझे खुशी है । तेरी तो सिर्फ मति ही बदली । मेरी तो जिंदगी ही बदल गयी । चिलम बनती । तो स्वयं भी जलती और दूसरों को भी जलाती । अब सुराही बनूँगी तो स्वयं भी शीतल रहूंगी और दूसरों को भी शीतल रखूंगी ।
यदि जीवन में हम सभी सही फैसला लें । तो हम स्वयं भी खुश रहेंगे । एवं दूसरों को भी खुशियाँ दे सकेंगे ।
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- भोग और रोग साथी है और ब्रह्मचर्य आरोग्य का मूल है । बुद्ध
- जैसे दीपक का तेल-बत्ती के द्वारा ऊपर चढक़र प्रकाश के रूप में परिणित होता है । वैसे ही ब्रह्मचारी के अन्दर का वीर्य सुषमणा नाड़ी द्वारा प्राण बनकर ऊपर चढ़ता हुआ ज्ञान दीप्ति में परिणित हो जाता है । स्वामी रामतीर्थ
पति के वियोग में कामिनी तड़पती है और वीर्यपतन होने पर योगी पश्चाताप करता है ।
- इस ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही मेरी ऐसी महान महिमा हुई है । भगवान शंकर

सन्तोषी सदा सुखी

एक कौआ अपनी जिंदगी से खुश और संतुष्ट था । एक बार वह तालाब पर पानी पीने रुका । वहां पर उसने सफ़ेद रंग के पक्षी हंस को देखा । उसने सोचा मैं बहुत काला हूँ और हंस इतना सुन्दर हैं इसलिए शायद हंस इस दुनियां का सबसे खुश पक्षी होगा ।
कौआ हंस के पास गया और बोला - क्या आप दुनियां के सबसे खुश पक्षी हो ?
हंस बोला - मैं भी यही सोचा करता था कि मैं दुनियां का सबसे खुश पक्षी हूँ । जब तक कि मैंने तोते को न देखा था । तोते को देखने के बाद मुझे लगता हैं कि तोता ही दुनियां का सबसे खुश पक्षी हैं । क्योंकि तोते के दो खूबसूरत रंग होते हैं । इसलिए वही दुनियां का सबसे खुश पक्षी है ।
कौआ तोते के पास गया और बोला - क्या आप ही इस दुनियां के सबसे खुश पक्षी हो ?
तोता ने कहा - मैं पहले बहुत खुश था और सोचा करता था कि मैं ही दुनियां का सबसे खुबसूरत पक्षी हूँ । लेकिन जबसे मैंने मोर को देखा है । मुझे लगता है कि वो ही दुनियां का सबसे खुश पक्षी है । क्योंकि उसके कई तरह के रंग हैं और वह मुझसे भी खूबसूरत है ।
कौआ चिड़ियाघर में मोर के पास गया और देखा कि सैकड़ों लोग मोर को देखने के लिए आए हैं । कौआ मोर के पास गया और बोला - क्या आप दुनियां के सबसे सुन्दर पक्षी हो ?
हजारों लोग आपको देखने के लिए आते हैं । इसलिए आप ही दुनियां के सबसे खुश पक्षी हो सकते हो ।
मोर ने कहा - मैं हमेशा सोचता था कि मैं दुनियां का सबसे खूबसूरत और खुश पक्षी हूँ लेकिन मेरी खूबसूरती के कारण मुझे यहाँ पिंजरे में कैद कर लिया गया है । मैं खुश नहीं हूँ और मैं अब यह चाहता हूँ कि काश मैं भी कौआ होता तो मैं आज आसमान में आजाद उड़ता ।
चिड़ियाघर में आने के बाद मुझे यही लगता हैं कि कौआ ही सबसे खुश पक्षी होता है ।
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हम लोगों की जिंदगी भी कुछ ऐसी ही है । हम अपनी तुलना दूसरों से करते हैं और दूसरों को देखकर हमें लगता है कि वो शायद हमसे अधिक खुश या सुख में है । इस कारण हम दुखी हो जाते हैं ।
हम उनका आनंद नहीं उठा पाते । जो हमारे पास पहले से है । और उन वस्तुओं के पीछे भागने लगते हैं । जो हमारे पास नहीं है । और इसी चक्कर में समय निकलता जाता है । और बाद में हम सोचते हैं कि पहले हम अधिक खुश थे ।
दुनियां में हर व्यक्ति के पास अन्य व्यक्तियों से कुछ वस्तुएँ अधिक और कुछ वस्तुएँ कम होगी ही ।
इसलिए दुनियां में सबसे अधिक खुश वह है । जो अपने आप से सन्तुष्ट हैं ।
कहा भी गया है - सन्तुष्टम परम सुखम । सन्तोषी सदा सुखी । 

आत्महत्या क्यों ?

एक व्यक्ति जीवन में आने वाली परेशानियों से बहुत दुखी था । उसे अपने दुखों के बीच जीने का कोई अर्थ समझ नहीं आ रहा था । वह डूबकर आत्महत्या करने नदी किनारे पहुंच गया । वह नदी में कूदने ही वाला था कि किसी ने उसे पकड़कर पीछे खींच लिया ।
उस व्यक्ति को आत्महत्या से रोकने वाले उस नदी किनारे झोपड़ी में रहने वाले एक साधु थे ।
युवक क्रोधित होते हुए साधु से बोला - आपने मुझे क्यों बचा लिया ? इतने दुखों के बीच मैं जिंदा नहीं रह सकता ।
साधु ने उस व्यक्ति की बात कोई जवाब नहीं दिया और कहा - तुम पानी पियो ।
साधु ने एक कटोरी निकाली । उसमें पानी भरा और एक चुटकी नमक डाल दिया ।
पानी का एक घूंट पीकर युवक ने कहा - यह मैं नहीं पी सकता । इसमें बहुत नमक है ।
साधु ने कहा - चलो, फिर नदी का पानी पी लो । लेकिन जरा ठहरो ।
यह कहकर साधु ने नदी में एक चुटकी नमक डाल दिया ।
युवक ने पानी पिया, साधु ने पूछा - कैसा था पानी ?
युवक बोला - यह तो मीठा है ।
अब साधु ने उसे समझाया - जिन दुखों से डरकर तुम आत्महत्या करने जा रहे थे । वे तो बस चुटकी भर नमक की तरह हैं । लेकिन अभी तुम कटोरी की तरह हो । जिसमें यह नमक ज्यादा लग रहा है ।
जिस दिन तुम नदी बन जाओगे । यह दुखों का नमक तुम्हें नगण्य लगने लगेगा ।
हमें खुद को इतना योग्य और बड़ा बनाना होगा । ताकि दुखों का हमारे ऊपर प्रभाव न पड़ सके ।
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छोटी सी मछली पानी के उल्टे बहाव में भी आगे निकल जाती है । जबकि एक बड़ा हाथी तक उस बहाव में बह जाता है ।
क्योंकि मछली पानी की शरण में है ।
ऐसे ही जो प्रभु की शरण में हैं । वे विपरीत परिस्थिति में भी इस भवसागर से तर जाते हैं।

बुद्ध और देवकन्या

बोधिसत्व एक दिन सुन्दर कमल के तालाब के पास बैठे वायु सेवन कर रहे थे । कमल की मनोहारी छटा ने उन्हें अत्यधिक आकर्षित किया । तो वे चुप बैठे न रह सके उठे और सरोवर में उतरकर निकट से जलज गंध का पान कर तृप्ति लाभ करने लगे ।
तभी किसी देवकन्या का स्वर सुनाई पड़ा -  तुम बिना कुछ दिए ही इन पुष्पों की सुरभि सेवन कर रहे हो । यह चौर कर्म है । तुम गन्ध चोर हो ।
तथागत उसकी बात सुनकर स्तम्भित रह गये । तभी एक व्यक्ति आया और सरोवर में घुसकर निर्दयतापूर्वक कमल पुष्प तोड़ने लगा । बड़ी देर तक उस व्यक्ति ने पुष्पों को तोड़ा मरोड़ा पर रोकना तो दूर किसी ने उसे मना तक भी न किया ।
तब बुद्धदेव ने उस कन्या से कहा -  देवि । मैंने तो केवल गन्धपान ही किया था । पुष्पों का अपहरण तो नहीं किया था । तोड़े भी नहीं । फिर भी तुमने मुझे चोर कहा और यह मनुष्य कितनी निर्दयता के साथ फूलों को तोड़कर तालाब को अस्वच्छ तथा असुन्दर बना रहा है । तुम इससे कुछ नहीं कहतीं ? 
तब वह देवकन्या गम्भीर होकर कहने लगी - तपस्वी, लोभ तथा तृष्णाओं में डूबे संसारी मानव धर्म तथा अधर्म में भेद नहीं कर पाते । अतः उन पर धर्म रक्षा का भार नहीं है । किन्तु जो धर्मरत है । सदअसद का ज्ञाता है । नित्य अधिक से अधिक पवित्रता तथा महानता के लिए सतत प्रयत्नशील है । उसका तनिक सा पथभ्रष्ट होना एक बड़ा पातक बन जाता है ।
1 ज्ञानी के उत्तरदायित्वों की तुलना अज्ञानी के उत्तरदायित्वों से नहीं की जा सकती ।
2 जिनके ऊपर समाज को दिशा और प्रेरणा देने का उत्तरदायित्व है । उनके छोटे से छोटे आचरण भी शुद्धतम होने चाहिए ।

गरीब आदमी की वासना

एक अरबपति महिला ने एक गरीब चित्रकार से अपना चित्र बनवाया, पोट्रट बनवाया । चित्र बन गया तो वह अमीर महिला अपना चित्र लेने आयी । वह बहुत खुश थी । 
चित्रकार से उसने कहा - क्या उसका पुरस्कार दूं ?
चित्रकार गरीब आदमी था । गरीब आदमी वासना भी करे तो कितनी बड़ी करे । मांगे भी तो कितना मांगे ?
हमारी मांग, सब गरीब आदमी की मांग है परमात्मा से । हम जो मांग रहे हैं । वह क्षुद्र है । जिससे मांग रहे हैं । उससे यह बात मांगनी नहीं चाहिए ।
उसने सोचा कि - सौ डालर मांगूं । दो सौ डालर मांगूं । पांच सौ डालर मांगूं । फिर उसकी हिम्मत डिगने लगी । इतना देगी, नहीं देगी । फिर उसने सोचा कि बेहतर यह हो कि इसी पर छोड़ दूं । शायद ज्यादा दे । डर तो लगा मन में कि इस पर छोड़ दूं, पता नहीं दे या न दे, या कहीं कम दे और एक दफा छोड़ दिया तो फिर । तो उसने फिर भी हिम्मत की ।
उसने कहा कि - आपकी जो मर्जी । तो उसके हाथ में जो उसका बैग था, पर्स था । 
उसने कहा - तो अच्छा तो यह पर्स तुम रख लो । यह बडा कीमती पर्स है ।
पर्स तो कीमती था । लेकिन चित्रकार की छाती बैठ गयी कि पर्स को रखकर करूंगा भी क्या ? माना कि कीमती है और सुंदर है, पर इससे कुछ आता जाता नहीं । इससे तो बेहतर था कुछ सौ डालर ही मांग लेते । 
तो उसने कहा, नहीं - नहीं, मैं पर्स का क्या करूंगा । आप कोई सौ डालर दे दें ।
उस महिला ने कहा - तुम्हारी मर्जी ।
उसने पर्स खोला । उसमें एक लाख डालर थे । उसने सौ डालर निकाल कर चित्रकार को दे दिये और पर्स लेकर चली गयी ।
चित्रकार अब तक छाती पीट रहा है और रो रहा है - मर गये, मारे गये, अपने से ही मारे गये ।
आदमी करीब करीब इस हालत में है । परमात्मा ने जो दिया है । वह बंद है । छिपा है । और हम मांगे जा रहे हैं - दो-दो पैसे, दो-दो कौड़ी की बात । और वह जीवन की जो संपदा उसने हमें दी है । उस पर्स को हमने खोलकर भी नहीं देखा है ।
जो मिला है । वह जो आप मांग सकते हैं । उससे अनंत गुना ज्यादा है । लेकिन मांग से फुरसत हो, तो दिखायी पड़े । वह जो मिला है । भिखारी अपने घर आये । तो पता चले कि घर में क्या छिपा है । वह अपना भिक्षापात्र लिये बाजार में ही खड़ा है । वह घर धीरे धीरे भूल ही जाता है । भिक्षा पात्र ही हाथ में रह जाता है । इस भिक्षापात्र को लिये हुए भटकते भटकते जन्मों जन्मों में भी कुछ मिला नहीं । कुछ मिलेगा नहीं ।

भीष्म पितामह के उपदेश

महाभारत में शरशैय्या पर पडे भीष्म पितामह ने पाण्डवों को बहुत ही प्रेरणास्पद धर्मोपदेश किए थे । उनमें से उन्होंने मृत्यु को जीतने के उपाय भी बताए थे । यदि व्यक्ति वेदानुकूल आचरण करे । जीवन को छल कपट और अहिंसा से रहित करे । तो वह मृत्यु को जीत सकता है । इनमें से कुछ उपाय पढें
हिंसा का त्याग - यदि कोई मनुष्य हिंसा का त्याग कर अहिंसा को अपने जीवन में अपना ले । तो वह व्यक्ति अपने सम्पूर्ण जीवन में सदैव सुखी रहेगा । किसी को मारना, अपशब्द कहना, आँखें दिखाना, किसी के साथ मारपीट करना या किसी के साथ हिंसा करना इस प्रकार के व्यक्ति ऐसा कर दूसरों को तो चोट पहुंचाते हैं । साथ ही वे खुद भी इसकी चपेट में आ जाते हैं । और अपने आपको नुकसान पहुंचा बैठते हैं ।
जो व्यक्ति सदैव दूसरे के साथ प्रेम पूर्वक व्यवहार करता है । तथा दूसरों की मदद के लिए सदैव तत्पर रहता है । ऐसे व्यक्ति हमेशा भगवान को प्रिय होते हैं । तथा वे उनकी रक्षा करते हैं । इस प्रकार के गुण को अपनाने वाले व्यक्ति की आयु निश्चित ही लम्बी होती है । 
वेद, पुराणों और अन्य धर्मग्रंथों में अहिंसा को मनुष्य का परम धर्म बताया गया है ।
अहिंसा परमो धर्मः । अतः हमें इन तीनों ( मन, वचन, कर्म ) प्रकार की हिंसा से सदैव बचकर रहना चाहिए । मन से हिंसा का अभिप्राय किसी के बारे में बुरे विचार सोचने से है । वचन से अभिप्राय दूसरे के बारे में बुरा बोलने व कर्म से अभिप्राय किसी को शारीरिक कष्ट पहुंचाने से है ।

कभी झूठ न बोलना - मनुष्य को सदैव सत्य बोलना चाहिए । क्योंकि असत्य के सहारे वह कुछ पल के लिए अपने आपको मुसीबत से बचा तो लेता है । परन्तु आगे चलकर उसको इस झूठ का बहुत भयंकर परिणाम झेलना पड़ता है । समाज के सामने ऐसे व्यक्ति की छवि धूमिल होने के साथ ही साथ वह व्यक्ति अपने परिवार का प्रेम और विश्वास भी खो बैठता है । असत्य बोलने वाला व्यक्ति सदैव भयभीत और बेचैन रहता है । तथा इसका प्रभाव उसके स्वास्थ पर भी पड़ता है । जिस कारण उसकी आयु कम हो जाती है । यदि मनुष्य अपनी लम्बी उम्र चाहता है । तो उसे सदैव सत्य बोलना चाहिए । क्योंकि असत्य का सहारा लेने पर वह सदैव उस असत्य के कारण अंदर से भयभीत रहेगा । तथा उसे बहुत सी बीमारियाँ आ घेरेंगी व अंत में वह अपनी पूर्ण आयु जीये बिना ही मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा ।

छल कपट न करना - जो व्यक्ति सदैव सदाचार का पालन कर अपना जीवन व्यतीत करता है । तथा हमेशा छल कपट की भावना से दूर रहता है । इस प्रकार के व्यक्ति का मन सदैव प्रसन्न रहता है । मनुष्य को छल-कपट की भावना से बचते हुए अपने आपको ईश्वर भक्ति और समाज की भलाई के कार्यो में लगाना चाहिए । ऐसा कर मनुष्य के मन को बहुत शांति महसूस होती है । और शांत मन के कारण मनुष्य को कभी कोई बीमारी नहीं होती । कहा भी है कि शांत मन स्वस्थ शरीर की निशानी होती है । इस गुण का पालन कर मनुष्य अधिक समय तक जीवित रह सकता है ।

क्रोध न करना - क्रोध को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु बताया गया है । क्योंकि क्रोध किसी भी मनुष्य के सोचने समझने की क्षमता को हर लेता है । तथा क्रोध के आवेश में मनुष्य अनेक बार ऐसा कार्य कर देता है । जिसका उसे अपनी पूरी जिंदगी पछतावा होता है । बगैर किसी कारण हर बार गुस्सा करने से मनुष्य के मस्तिष्क ( मन ) में बुरा प्रभाव पड़ता है । और दिन प्रतिदिन उसकी आयु कम होती जाती है ।
क्रोध धीरे धीरे मनुष्य के स्वभाव को हिंसक बना देता है । तथा वह मन और शरीर दोनों प्रकार से अस्वस्थ होने लगता है । क्रोध न करने वाले व्यक्ति का मन सदैव शांत बना रहता है । और उसका स्वास्थ्य उत्तम होता है । उसकी आयु भी बहुत लम्बी होती है ।

सत्यभामा का गर्व

भगवान श्रीकृष्ण की 8 रानियाँ थीं । जिनमें 2 पहली रानियों के नाम सत्यभामा और रुक्मणी थे । दोनों ही भगवान कृष्ण से बहुत प्रेम करते थीं । परन्तु सत्यभामा को अपने पिता के धन पर बहुत घमंड था । उसके पिता के पास स्यमन्तक नामक 1 मणि थी । जो उन्हें सूर्यदेव ने दी थी । वह मणि रोज 1 किलो सोना देती थी । श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा के घमंड को तोड़ने के लिए एक लीला रची ।
एक बार नारद द्वारिका पधारे । सत्यभामा ने उनका खूब आदर सत्कार किया । जब नारद वहाँ से जाने लगे ।
तब सत्यभामा ने नारद को रोकते हुए कहा - आप ब्रह्मचारी हैं, आपको किये दान से असंख्य पुण्यों की प्राप्ति होती है । अतः कृपया मेरे द्वारा दान ग्रहण कीजिये ।
नारद ने सत्यभामा से कहा - देवी आप रहने दीजिये । मेरे द्वारा मांगी गई वस्तु आप दान नहीं कर पाएंगी । 
सत्यभामा को धन का बहुत घमंड था । अतः उन्होंने कहा - ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, जो में दान न कर सकूँ । फिर भी मैं हाथ में जल लेकर आपको वचन देती हूँ । आप जो भी दान मांगोगे । मैं आपको दूंगी
नारद ने तुरंत श्रीकृष्ण को ही दान में मांग लिया । वचन से बंधे होने के कारण सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को दान में दे दिया ।
फिर क्या श्रीकृष्ण और नारद ने अपनी लीला शुरू कर दी । नारद श्रीकृष्ण को जैसा आदेश देते कृष्ण कहे अनुसार ही करते जाते । कभी वे नारद के पैर दबाते । तो कभी उनके लिए भोजन पकाते । नारद के कहे पर वे उठते और बैठते थे । सारी रानियाँ कृष्ण की यह दशा देख दुखी हो गई । अंत में सत्यभामा रोते हुए नारद के चरणों में गई । तथा उनसे श्रीकृष्ण के बदले में कुछ अन्य वस्तु मांगने की प्रार्थना करने लगी । परन्तु नारद ने श्रीकृष्ण को वापस करने के बदले में एक शर्त रखी की । सत्यभामा आपको श्रीकृष्ण के वजन के बराबर स्वर्ण का दान करना होगा ।
तब एक तुला मंगाई गई जिसके एक छोर के पलड़े पर कृष्ण बैठे थे । तथा दूसरे पलड़े पर रानियों ने अपने सभी आभूषण डाले । सत्यभामा ने अपने सभी खजाने खोल दिए । और कृष्ण को उनसे तोलने लगी । परन्तु कृष्ण वाला पलड़ा अपनी पूर्व स्थिति में ही बना रहा । तब रुक्मणी ने भगवान कृष्ण को अपने मन में याद किया । और सारे आभूषणों को हटाकर उसकी जगह 1 तुलसी का पत्ता रखा । रुक्मणी के प्रेम से भरे उस पत्ते के भार से वह तराजू का पलड़ा भारी हो गया । और कृष्ण वाला पलड़ा उपर उठ आया । तब सत्यभामा को अपने घमंड का अहसास हुआ । और उन्होंने रुक्मणी, भगवान कृष्ण और नारद से क्षमा मांगी ।

21 मई 2016

बुद्ध और कबीर

बुद्ध - संसार में सब कुछ परिवर्तनशील है ।
कबीर जो दिन आज है, सो दिन नाहिं काल ।
चेत सके तो चेत ले, सिर ठाडे है काल ।
आज काल दिन एक में, अस्थिर नाहिं शरीर ।
कहै कबीर कस राखियो, काचे बासन नीर ।

बुद्ध - आत्मा किसी लोक से उतरा या किसी ब्रह्म का अंश नहीं है ।
जागृत रुपी जीव है, शब्द सोहागा सेत ।
जर्द बूंद जल कुकही, कहैं कबीर कोई देख ।

बुद्ध - जङ तत्व चार हैं यथा - पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि ।
अग्नि कहे में ई तन जारो, पानी कहै में जरत उबारो ।
धरती कहै मोहि मिली जाए, पवन कहै संग लेऊ उडाई । कबीर

बुद्ध - सुख दुख कर्मों के अनुसार मिलते हैं, किसी भगवान या खुदा द्वारा नहीं ।
तौ लौ तारा जगमगे, जौ लौ उगे न सूर ।
तौ लौ जीव कर्मवश डोले, जौ लौ ज्ञान न पूर । कबीर

बुद्ध - जन्म और मृत्यु दोनों दुखदायी है ।
सुर नर मुनी औ देवता, सात द्वीप नौ खण्ड ।
कहहिं कबीर सब भोगिया, देह धरे का दण्ड ।

बुद्ध - दुख का कारण अज्ञान, द्वेष और मोह है ।
जो तू चाहे मुझ को, छोड सकल की आस ।
मुझ ही जैसा हो रहो, सब सुख तेरै पास । कबीर

बुद्ध - दुख का निराकरण अकुशल संस्कारों को न बनने देना है और यह संभव है विवेक धारण पर ।
मन सायर मनसा लहरी, बूढे बहुत अचेत ।
कहहिं कबीर ते बाचिं है, जाके हृदय विवेक ।

बुद्ध - इच्छाएं कभी स्थिर नहीं रहती है ।
ई मन चंचल ई मन चौर, ई मन शुद्ध ठगहार ।
मन मन करते सुर नर मुनि जहडे, मन के लक्ष द्वार । कबीर

बुद्ध - मन अगर निर्मल हो तो जीव को दुख नहीं होता है ।
यह मन तो निर्मल भया,जैसे गंगा नीर ।
पीछे पीछे हरि फिरे, कहत कबीर कबीर ।

बुद्ध - अज्ञान एवं तृष्णा के रहते मोक्ष संभव नहीं है ।
अमृत वस्तु जाने नहीं, मगन भया सब लोय ।
कहहिं कबीर कामों नहीं, जीव ही मरण न होय ।

20 मई 2016

कामवासना - ओशो

काम ! अंश है प्रेम का, अधिक बड़ी संपूर्णता का । प्रेम उसे सौंदर्य देता है । अन्यथा तो यह सबसे अधिक असुंदर क्रियाओं में से एक है । इसलिए लोग अंधकार में काम की ओर बढ़ते है । वे स्वयं भी इस क्रिया का प्रकाश में संपन्न किया जाना पसंद नहीं करते है । तुम देखते हो कि मनुष्य के अतिरिक्त सभी पशु संभोग करते है दिन में । कोई पशु रात में कष्ट नहीं उठाता । रात विश्राम के लिए होती है । सभी पशु दिन में संभोग करते है । केवल आदमी संभोग करता है रात्रि में । एक तरह का भय होता है कि संभोग की क्रिया थोड़ी असुंदर है । और कोई स्त्री अपनी खुली आंखों सहित कभी संभोग नहीं करती है । क्योंकि उनमें पुरूष की अपेक्षा ज्यादा सुरुचि संवेदना होती है । वे हमेशा मूंदी आंखों सहित संभोग करती है । जिससे कि कोई चीज दिखाई नहीं देती । स्त्रियां अश्लील नहीं होती है, केवल पुरूष होते है ऐसे ।
इसीलिए स्त्रियों के इतने ज्यादा नग्न चित्र विद्यमान रहते है । केवल पुरूषों का रस है देह देखने में । स्त्रियों की रूचि नहीं होती इसमें । उनके पास ज्यादा सुरुचि संवेदना होती है । क्योंकि देह पशु की है । जब तक कि वह दिव्य नहीं होती । उसमें देखने को कुछ है नहीं । प्रेम सेक्स को एक नयी आत्मा दे सकता है । तब सेक्स रूपांतरित हो जाता है । वह सुंदर बन जाता है । वह अब काम का भाव न रहा, उसमें कहीं पार का कुछ होता है । वह सेतु बन जाता है ।
तुम किसी व्यक्ति को प्रेम कर सकते हो । इसलिए क्योंकि वह तुम्हारी ‘कामवासना’ की तृप्ति करता है । यह प्रेम नहीं, मात्र एक सौदा है । तुम किसी व्यक्ति के साथ कामवासना की पूर्ति कर सकते हो इसलिए क्योंकि तुम प्रेम करते हो । तब काम भाव अनुसरण करता है छाया की भांति, प्रेम के अंश की भांति । तब वह सुंदर होता है । तब वह पशु-संसार का नहीं रहता । तब पार की कोई चीज पहले से ही प्रविष्ट हो चुकी होती है । और यदि तुम किसी व्यक्ति से बहुत गहराई से प्रेम किए चले जाते हो, तो धीरे धीरे कामवासना तिरोहित हो जाती है । आत्मीयता इतनी संपूर्ण हो जाती है कि कामवासना की कोई आवश्यकता नहीं रहती । प्रेम स्वयं में पर्याप्त होता है । जब वह घड़ी आती है तब प्रार्थना की संभावना तुम पर उतरती है ।
ऐसा नहीं है कि उसे गिरा दिया गया होता है । ऐसा नहीं है कि उसका दमन किया गया, नहीं । वह तो बस तिरोहित हो जाती है । जब दो प्रेमी इतने गहने प्रेम में होते है कि प्रेम पर्याप्त होता है । और कामवासना बिलकुल गिर जाती है । तब दो प्रेमी समग्र एकत्व में होते है । क्योंकि कामवासना, विभक्त करती है । अंग्रेजी का शब्द ‘सेक्स’ तो आता ही उस मूल से है जिसका अर्थ होता है, विभेद । प्रेम जोड़ता है; कामवासना भेद बनाती है । कामवासना विभेद का मूल कारण है । जब तुम किसी व्यक्ति के साथ कामवासना की पूर्ति करते हो, स्त्री या पुरूष के साथ, तो तुम सोचते हो कि सेक्स तुम्हें जोड़ता है । क्षण भर को तुम्हें भ्रम होता है एकत्व का, और फिर एक विशाल विभेद अचानक बन आता है । इसीलिए प्रत्येक काम क्रिया के पश्चात एक हताशा, एक निराशा आ घेरती है । व्यक्ति अनुभव करता है कि वह प्रिय से बहुत दूर है । कामवासना भेद बना देती है । और जब प्रेम ज्यादा और ज्यादा गहरे में उतर जाता है तो और ज्यादा जोड़ देता है तो कामवासना की आवश्यकता नहीं रहती । तुम इतने एकत्व में रहते हो कि तुम्हारी आंतरिक ऊर्जाऐं बिना काम के मिल सकती है ।
जब दो प्रेमियों की कामवासना तिरोहित हो जाती है तो जो आभा उतरती है तुम देख सकते हो उसे । वह दो शरीरों की भांति एक आत्मा में रहते है । आत्मा उन्हें घेरे रहती है । वह उनके शरीर के चारों और एक प्रदीप्ति बन जाती है । लेकिन ऐसा बहुत कम घटता है । लोग कामवासना पर समाप्त हो जाते है । ज्यादा से ज्यादा जब इकट्ठे रहते है । तो वे एक दूसरे के प्रति स्नेहपूर्ण होने लगते है, ज्यादा से ज्यादा यही होता है । लेकिन प्रेम कोई स्नेह का भाव नहीं है, वह आत्माओं की एकमायता है, दो ऊर्जाऐं मिलती है । और संपूर्ण इकाई हो जाती है । जब ऐसा घटता है, केवल तभी प्रार्थना संभव होती है । तब दोनों प्रेमी अपनी एकमायता में बहुत परितृप्त अनुभव करते है । बहुत संपूर्ण कि एक अनुग्रह का भाव उदित होता है । वे गुनगुनाना शुरू कर देते है प्रार्थना को । - ओशो
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बाधामुक्त होकर धन-पुत्रादि की प्राप्ति के लिये
सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित: ।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय: ॥ ( अ॰ 12, श्लो॰ 13 )

18 मई 2016

बैंक बैलेंस जानना

सभी बैंक ने यह सुविधा शुरू की है.. आपको अपने बैंक खाते के साथ रजिस्टर्ड मोबाइल नंबर से अपने बैंक के नीचे दिए गए मोबाइल नंबर पर कॉल करनी है । कॉल अपने आप कट जाएगी और
आपके बैंक बैलेंस की जानकारी आपके फ़ोन पर SMS में आ जाएगी । अब आपको अपने बैंक बैलेंस जानने के लिए अपने ATM की ट्रानसेक्शन को व्यर्थ करने की जरुरत नहीं है ।
1. Axis Bank – 0 92258 92258
2. Andhra Bank – 0 92230 11300
3. Allahabad Bank – 0 92241 50150
4. Bank of Baroda – 0 92230 11311
5. Bhartiya Mahila Bank – 0 92124 38888
6. Dhanlaxmi Bank – 0 80677 47700
7. IDBI Bank – 0 92129 93399
8. Kotak Mahindra Bank – 18002740110
9. Syndicate Bank – 0 96645 52255
10. Punjab National Bank -18001802222
11. ICICI Bank – 02230256767
12. HDFC Bank – 18002703333
13. Bank of India – 02233598548
14. Canara Bank – 0 92892 92892
15. Central Bank of India – 0 92222 50000
16. Karnataka Bank – 18004251445
17. Indian Bank – 0 92895 92895
18. State Bank of India – Get the balance via IVR
1800112211 and 18004253800
19. Union Bank of India – 0 92230 09292
20. UCO Bank – 0 92787 92787
21. Vijaya Bank – 18002665555
22. Yes Bank – 0 98409 09000
23. South Indian Bank-0 9223 00848
24. Bank of Maharashtra-92222 81818

कुत्ता शकुन

21वीं सदी में शकुन की बात करना पिछड़ापन सा अवश्य लगता है । किन्तु जो परम्परा और रिवाज हमारे समाज में शताब्दियों से चली आ रही है । वे वैज्ञानिक मान्यता के बिना भी अपना वजूद कायम रखे हैं । हमारे देश में ज्योतिष को बहुत महत्व दिया जाता है । किन्तु महिलाओं में ‘सूण-सायण’ एक अलग ही महत्व का शास्त्र है । त्यौहार की पूर्व सन्ध्या को मेहंदी लगाना । जिस दिन कन्या ससुराल जाए । उस दिन विदा करने के बाद कोई स्त्री सिर नहीं धोयेगी । ऐसे अनेक रिवाज हैं । जिनके पीछे कोई वैज्ञानिक तर्क नहीं है । किन्तु फिर भी वे प्रचलित हैं । इन रिवाजों-परम्पराओं की भाँति ही शगुन भी एक ऐसा ही शास्त्र है । जो ज्योतिष के सामुद्रिक शास्त्र का समवर्ती माना गया है । हम शगुन का शास्त्रीय स्वरुप ही जान पाते हैं । अशास्त्रीय अथवा ग्राम्य सिद्धान्त हमारे लिए सुलभ नहीं है । जबकि ये असंस्कृत सिद्धान्त भी व्यवहार सिद्ध हैं और निरन्तर के परीक्षण से प्रमाणित हैं ।
शकुन-शास्त्र के ज्ञाता ऋषियों ने लोक-ज्ञान को भी सम्मान देते हुए कहा है  - 
यं बुध्यते योऽस्ति च यत्र देशे यत्रानुरागो नुमवो थवा स्यात । 
अर्थात जिसे लोग जानते समझते हैं । जो जिस देश में हैं । जिसमें व्यक्ति या समाज का अनुराग है अथवा उसके निरन्तर परीक्षण अनुभव से किसी निश्चित परिणाम पर पहुँच सकते हैं । वे भी शकुन सार्थक रहते हैं । शकुन शास्त्री कहते हैं कि इस शास्त्र का उपदेश स्वयं त्रिनेत्र शंकर ने किया है । अतः शिव शकुन शास्त्र के उपदेष्टा रहे हैं और यह ज्ञान ऋषि परम्परा द्वारा पोषित परिवर्धित-परिमार्जित होता रहा है । इसके प्रवर्तकों में अत्रि, गर्ग, बृहस्पति, व्यास, शुक्राचार्य, वशिष्ठ, कौत्स, भृगु, गौतम आदि ऋषि प्रमुख रहे हैं । भविष्य का संसूचक होने के कारण यह शास्त्र ज्योतिष का ही उपांग बन गया है ।
शकुन शास्त्र हमारे समाज एवं क्रियाकलापों पर आधारित होता है । सामाजिक स्थिति, पशु-पक्षी आदि सभी इसके माध्यम हैं । कुत्ता सभी पालतू पशुओं में महत्वपूर्ण माना जाता है । वफादारी में इसका कोई सानी संसार में दूसरा नहीं है । कुत्ते का शकुन-शास्त्र में भी महत्वपूर्ण स्थान है ।
यहाँ प्रस्तुत है कुत्ते से जुड़े कुछ शकुन -
- बलि ग्रहण करने के बाद यदि कुत्ता दाहिने पैर से दाहिने अंग खुजाता है । तो उसका फल उत्तम रहता है । किन्तु यदि बाँये पैर से दाहिना अथवा बाँया अंग खुजलाता है । तो वह विपरीत फलदायक होता है ।
- यदि कुत्ता दाहिना पैर उठाकर किसी घड़े अथवा गागर पर पेशाब करता है । तो शकुनार्थी का अथवा उसके घर-परिवार में शीघ्र ही कोई विवाह होता है और दोनों का जीवन सुखी रहता है साथ ही उत्तम संतान का योग भी बनता है ।
- कन्या के विवाह अथवा विवाह की बात करते समय यदि कुत्ता बाँये अंग को फड़फड़ाता हुआ अंदर आता है । तो उस कन्या से विवाह नहीं करना चाहिए । क्योंकि वह दुराचारी होने के कारण परिवार को नष्ट करने वाली होती है ।
- यदि कुत्ता अपनी दाहिनी आँख खोलकर नाभि चाटता है और छत पर जाकर सोता है तो वर्षा आने की सम्भावना होती है ।
- वर्षा ऋतु में कुत्ता यदि वर्षा के जल में चक्कर लगाता है । तो तीव्र वृष्टि का सूचक है । किन्तु यदि अपने शरीर को कंपाकर सारा पानी झाड़ देता है । तो वर्षा अन्यत्र कहीं होती है ।
- ऊँची जगह पर चढ़कर सूरज को देखते हुए कुत्ता भौंकता है । तो अत्यन्त तीव्र वर्षा होती है ।
- कुत्ता यदि दाहिने अंग चाटता है, तो शुभ-सिद्धि की सूचना देता है ।
- यदि व्यक्ति परेशानी में कुत्ते का शकुन लेता है और कुत्ता उसके सामने विष्ठा कर देता है अथवा जम्हाई लेता है । तो उसका संकट टल जाता है । किन्तु शुभ परिस्थिति में ऐसा होता है । तो उसके लिए अशुभ होता है ।
- गर्भवती के दाहिने जाकर यदि कुत्ता अच्छे स्थान पर पेशाब करता है । तो पुत्र तथा बाँये पेशाब करता है । तो पुत्री होने के योग होते हैं ।
- व्यवसायी के दाहिने जाकर दाहिने पैर से दाहिने अंग खुजाता है । तो धन लाभ होता है ।
- नौकरी के लिए जाते व्यक्ति के दाहिने ओर यदि कुत्ता प्रसन्नता से खेलता मिले या पलंग, आसन, छाता आदि पर कुत्ता पेशाब करता है । तो नौकरी अवश्य मिलती है ।
- अपने ही स्थान पर बैठा रहकर यदि जाने वाले व्यक्ति को कुत्ता गर्दन उठाकर देखता है । तो शुभ होता है । किन्तु कान फड़फड़ाता है या गर्दन हिलाता है तो अशुभ होता है ।
- यात्रा पर जाने वाले व्यक्ति के सामने मुँह में हड्डी दबाकर आता कुत्ता और भौंकता कुत्ता घोर अशुभ की सूचना देता है ।
- कान या पूँछ कटा कुत्ता यदि बहुत कमजोर है और जाते हुए व्यक्ति को बारबार देखता है । तो बहुत अशुभ होता है ।
- कुत्ता पानी में नहाकर यदि अपने शरीर को फड़फड़ाता है । तो चोट की सूचना देता है ।
- यदि अनेक कुत्ते एक स्थान पर एकत्र होकर सूर्य की ओर देखकर भौंकते हैं । सिर हिलाते हैं । रोते हैं या वमन करते हैं । तो उस स्थान पर घोर विपदा आने वाली है ।
- कुत्ता पंजों से दरवाजा खुजाए अथवा दरवाजे पर बैठ जाए । तो कोई प्रियजन आता है ।
- कुत्ता दौड़कर आकर यदि खम्बे से लिपटता हो या चूल्हे पर चढ़ जाता है । तो कोई प्रियजन अवश्य आता है । 
- रहस्य ज्ञाताओं का मत है कि यदि कुत्ता धरती पर अपना सिर रगड़ता है । तो वहाँ धन गड़ा हो सकता है । 
- गोबर से लिपे-पुते चौक पर यदि कुत्ता जोड़ा केली करता है या रति-क्रिया करता है । तो विपुल धन की प्राप्ति होती है । इसके विपरीत यदि वह पैरों से गढ्ढा खोदता है । तो अनर्थ की सूचना देता है । 
- बीमार व्यक्ति के हाथ के पृष्ठ भाग को यदि कुत्ता चाटता है । तो उस व्यक्ति की मृत्यु निश्चित है ।
- रोगी के स्वस्थ होने के सम्बन्ध में प्रश्न करने पर यदि कुत्ता कानों को फड़फड़ाकर शरीर को फेर कर सोने जैसी मुद्रा बनाता है । तो रोगी की मृत्यु निश्चित है ।
- यात्रा पर जा रहे व्यक्ति के सामने कुत्ता हरी दूब, फल लेकर आता हो । तो मनोरथ पूर्ण हुआ मानना चाहिए ।
- यात्रा के समय ताजी खून से सनी हड्डी मुँह में लेकर कुत्ता सामने आता है । तो शुभ होता है । पुरानी हड्डी लेकर आता है । तो अशुभ होता है । 
- कुत्ता जूता मुँह में लेकर सामने आकर खड़ा हो जाता है । तो धन प्राप्ति होती है ।
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साभार - कापी पेस्ट ( अज्ञात )