शिव आज भी गुरु हैं । श्री शर्मा जी द्वारा भेजी गयी इस फ़ोटो से मुझे एक कहानी याद आ गयी । जो वास्तव में हकीकत है । और इस हकीकत से जनमानस में तमाम कहानियों का जन्म हुआ । आदि शंकराचार्य जब हिमालय गये । और वहाँ उन्होंने दिव्यता महसूस की । स्थान का महत्व समझा । तब उस दिव्यता से आम आदमी को जोङने हेतु उन्होंने वहाँ एक मन्दिर का निर्माण कराया । क्योंकि मन्दिर के सहारे इंसान खिंचा चला आयेगा । और कुछ न कुछ अलौकिकता लाभ प्राप्त करेगा । आप भी जानिये । इस घटना को । उसके पीछे छिपे रहस्य को । वास्तव में आध्यात्म की अधिकतर घटनाओं के पीछे ऐसी ही कोई असली कहानी छिपी हुयी है । इस घटना से अभी तक अपरिचित रहे लोगों के लिये घटना का विवरण ।
1 बार आदि शंकराचार्य अपने शिष्यों के साथ हिमालय पर गये । उनका निवास 1 उच्च पर्वत शिखर पर बहती मंदाकिनी के किनारे था । वहाँ से बर्फ से ढँकी हिमालय पर्वतमाला का अप्रतिम दृश्य बिना किसी बाधा के दिखता था । क्योंकि शंकर जन्म से जिज्ञासु थे । लिहाज़ा उन्होंने सोचा कि वे मंदाकिनी के उदगम का पता लगायेंगे । वह अपने शिष्यों के साथ जरूरत का सामान लेकर मन्दाकिनी के मूल स्थान का पता लगाने के लिये निकल पड़े । यात्रा नदी के किनारे किनारे शुरू हुयी । उन्होंने मन्दाकिनी को अनेक विस्मयकारी रूपों में देखा । नदी कही सौम्य शांत बहती थी । और कहीं उफनती रौद्र शेरनी के तरह हिंसक । ये सिलसिला कई दिनों तक चला । तब वे 1 ऐसे स्थान पर पहुंचे । जहाँ नदी के किनारे चलना सम्भव न था ।
यहाँ नदी 2 विशाल चट्टानों के बीच बह रही थी । मानो सदियों के बहाव ने उन चट्टानों को बीचों बीच से काट दिया हो । अब नदी के किनारे चलना सम्भव न था । शंकर ने तय किया के वे 1 चक्करदार मार्ग से चट्टानों को पार कर नदी के किनारे पहुंचेंगे । परन्तु ये काम आसान न था । क्योंकि चट्टान के चारों तरफ़ बहुत घना जंगल था ।
कोई और चारा न देख उन्होंने जंगल में प्रवेश किया । जंगल बेहद घना होने के कारण उनका आगे बढ़ना मुश्किल हो रहा था । जगह जगह टहनियों को काट छांट कर आगे बढ़ना पड़ता था । काफी देर चलने के बाद वे अचानक 1 खुले स्थान पर आ गये । यह 1 विचित्र जगह थी । 1 बड़ा सा घेरा हरी मखमल से घास और चारों तरफ़ घना जंगल । खुले स्थान के बीचों बीच 1 नाला बह रहा था । लेकिन पानी शीशे की तरह पारदर्शी । दल अब थक कर चूर हो गया । शंकर ने उन्हें वहीं आराम करने को कहा । जल्द ही कुछ शिष्यों ने आसपास के वृक्षों से फल, कंदमूल इत्यादि इकठ्ठा कर भोजन किया । तथा नाले से पानी पीने के बाद वहीं विश्राम करने लगे । शंकर
ने गौर किया कि नाले के साथ साथ वे जंगल से आसानी से बाहर निकल सकते हैं । कुछ देर विश्राम के बाद । जब वे चलने जो हुये । तो उन्होंने देखा । 1 महाकाय रीछ एकदम नाले के साथ निकलने वाले रास्ते पर खड़ा है ।
भालू के असामान्य बङे आकार से शंकर आश्चर्यचकित रह गये । जबकि उनके शिष्य भयभीत हो गये । कुछ देर सोच विचार के बाद शंकर ने भयभीत शिष्यों को देखा । और उन्हें अपने पीछे आने का इशारा किया । फ़िर वे शांत भाव से धीरे धीरे भालू के पास से गुजर गये । उनके पीछे पीछे डरे हुए शिष्य भी निकल गये । जब सबके सब भालू के पास से गुज़र गये ।
तो भालू ज़ोर से बोला - हे महान आचार्य ! तुम सफल भी होओगे । और असफल भी ।
भालू की बात सुनकर सब आश्चर्य चकित रह गये । शंकराचार्य ने मुड कर देखा । और बोले - आप ऐसा क्यों कह रहे हैं ? महान रीछ ।
वह बोला - हे आचार्य ! तुम ज्ञानी हो । और तीक्ष्ण दृष्टि रखते हो । तुमने मेरे अप्राकृतिक आकार को देखा । और जल्दी से निष्कर्ष निकाला कि - मैं कोई साधारण भालू नहीं हूँ । तुमने मेरे भावों को पढ़ा । और ठीक अंदाज़ा
लगाया कि मैं कोई नुकसान पहुँचाने का इरादा नहीं रखता । तुम बेवजह के जिज्ञासु भी नहीं हो । इसलिए मेरी उपस्थित से सर्वथा उदासीन रहे । मेरी यहाँ उपस्थिति का तुम्हारे उद्देश्य से कोई सरोकार नहीं । इसलिए तुमने मुझे नज़र अन्दाज़ कर दिया । तुम्हारा यही गुण । यानी अपने लक्ष्य पर पूर्ण दृष्टि तुम्हें सफल बनायेगा । लेकिन विचित्र और असामान्य परिस्थिति को विस्तार से न जानने की तुम्हारी उदासीनता अंततः तुम्हे असफल भी कर देगी ।
ऐसा कहकर भालू मुडा़ । और अदृश्य हो गया । आदि शंकर कुछ देर विचारमग्न और विस्मित से भालू को जाता देखते रहे । फिर आगे बढ़ गये । जल्द ही उन्हें नदी का किनारा मिल गया । लेकिन अब मार्ग अत्यधिक दुर्गम और चुनौतीपूर्ण चढाई वाला था । अब उनकी गति बहुत ही धीमी तथा थकान से कमर तोड़ने वाली हो गई थी । लेकिन उन्होंने यात्रा साहस के साथ रुक रुक कर जारी रखी । अंततः कई दिनों की यात्रा के बाद वे 1 ऊँचे पठार पर पहुंचे । अदभुत नज़ारा था । वनस्पति का नामोनिशान नहीं । दूर दूर तक छोटी छोटी हरी घास के सपाट टीलों का विस्तार । और उसके पार हिमाच्छादित पर्वत श्रृंगमाला के छोर पर ग्लेशियर से टप टप टपकता हुआ पानी की बूंदों से बहता मन्दाकिनी का स्रोत ।
वहां की मोहक ताज़ी हवा । और मन्दाकिनी के चमकते पानी का कलरव । हिम से ढंके शिखरों का मनमोहक
दृश्य । और एक सर्व व्याप्त निस्तब्धता । पलक झपकते ही उनकी सारी थकान मिट गई । 1 गहरा आत्म बोध उन्हें मंत्रमुग्ध कर 1 गहरी तंद्रा में ले गया ।
फ़िर शंकर बोले - वत्स ! मैंने तुम्हें जीवन । मृत्यु । और मोक्ष का ज्ञान दिया । मैंने तुम्हें द्वैत 2 और अद्वैत 1 की अवधारणा से परिचित कराया । माया के गुण समझाये । आत्मा के किसी भी अवस्था में नष्ट न होने की प्रकृति के बारे में विस्तार से बताया । सांख्य । मीमांसा । दर्शन । और वेदांत की शिक्षा दी । और अब वक्त आ गया कि - तुम परम बृह्म की निकटता का अनुभव करो । अगर तुम 1 अखंड मौन से व्याप्त हो । कोई अनोखी शक्ति का तुम्हारे नश्वर शरीर में संचार हो रहा है । किसी अलौकिक आनंद से भावविभोर हो रहे हो । तो तुम बृह्म के सानिध्य में हो ।
इन गंभीर शब्दों के साथ शंकर मौन हो गए । उन्होंने अपने चारों और देखा । और अत्यन्त संतोष से पाया कि सभी शिष्य उनके साथ पूर्ण सामंजस्य में थे । वे सभी बृह्म की उपस्थिति का अनुभव कर रहे थे ।
उन्होंने कहा - वत्स ! हम 1 अनोखे अनुभव से गुज़र रहे हैं । ये स्थान अत्यन्त पावन और सुख प्रदान करने वाला है । 5 तत्वों के अनोखे संगम से यहाँ अदभुत उर्जा का संचार हो रहा है । जो भी व्यक्ति यहाँ होगा । वह बृह्म की नज़दीकी का अनुभव करे बगैर नही रह सकता ।
फिर कुछ सोच कर उन्होंने कहा - बच्चों ! यह हमारे लिये अत्यन्त ही स्वार्थ पूर्ण होगा कि हम सम्पूर्ण जगत के साथ इस अनुभव को न बांटे । लेकिन साधारण लोगों को आसानी से 1 अमूर्त अनुभव के लिए इस तरह की खतरनाक और मुश्किल यात्रा करने के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता है । इसलिये हम यहाँ पर 1 मंदिर का निर्माण करेंगे । और जन साधारण को यहाँ के आराध्य देव की असाधारण शक्तियाँ का बखान करेंगे । केवल ऐसा करने से ही आम व्यक्ति 1 कठिन यात्रा करने को प्रेरित हो पायेगा । जो भी हो । यहाँ आने से वह भी इस अलौकिक अनुभव से लाभ अर्जित कर सकेगा । इस तरह केदारनाथ मंदिर शंकराचार्य के निर्देश पर बनाया गया । जो बाद में 1 भव्य मन्दिर में तब्दील हो गया ।
1 बार आदि शंकराचार्य अपने शिष्यों के साथ हिमालय पर गये । उनका निवास 1 उच्च पर्वत शिखर पर बहती मंदाकिनी के किनारे था । वहाँ से बर्फ से ढँकी हिमालय पर्वतमाला का अप्रतिम दृश्य बिना किसी बाधा के दिखता था । क्योंकि शंकर जन्म से जिज्ञासु थे । लिहाज़ा उन्होंने सोचा कि वे मंदाकिनी के उदगम का पता लगायेंगे । वह अपने शिष्यों के साथ जरूरत का सामान लेकर मन्दाकिनी के मूल स्थान का पता लगाने के लिये निकल पड़े । यात्रा नदी के किनारे किनारे शुरू हुयी । उन्होंने मन्दाकिनी को अनेक विस्मयकारी रूपों में देखा । नदी कही सौम्य शांत बहती थी । और कहीं उफनती रौद्र शेरनी के तरह हिंसक । ये सिलसिला कई दिनों तक चला । तब वे 1 ऐसे स्थान पर पहुंचे । जहाँ नदी के किनारे चलना सम्भव न था ।
यहाँ नदी 2 विशाल चट्टानों के बीच बह रही थी । मानो सदियों के बहाव ने उन चट्टानों को बीचों बीच से काट दिया हो । अब नदी के किनारे चलना सम्भव न था । शंकर ने तय किया के वे 1 चक्करदार मार्ग से चट्टानों को पार कर नदी के किनारे पहुंचेंगे । परन्तु ये काम आसान न था । क्योंकि चट्टान के चारों तरफ़ बहुत घना जंगल था ।
कोई और चारा न देख उन्होंने जंगल में प्रवेश किया । जंगल बेहद घना होने के कारण उनका आगे बढ़ना मुश्किल हो रहा था । जगह जगह टहनियों को काट छांट कर आगे बढ़ना पड़ता था । काफी देर चलने के बाद वे अचानक 1 खुले स्थान पर आ गये । यह 1 विचित्र जगह थी । 1 बड़ा सा घेरा हरी मखमल से घास और चारों तरफ़ घना जंगल । खुले स्थान के बीचों बीच 1 नाला बह रहा था । लेकिन पानी शीशे की तरह पारदर्शी । दल अब थक कर चूर हो गया । शंकर ने उन्हें वहीं आराम करने को कहा । जल्द ही कुछ शिष्यों ने आसपास के वृक्षों से फल, कंदमूल इत्यादि इकठ्ठा कर भोजन किया । तथा नाले से पानी पीने के बाद वहीं विश्राम करने लगे । शंकर
ने गौर किया कि नाले के साथ साथ वे जंगल से आसानी से बाहर निकल सकते हैं । कुछ देर विश्राम के बाद । जब वे चलने जो हुये । तो उन्होंने देखा । 1 महाकाय रीछ एकदम नाले के साथ निकलने वाले रास्ते पर खड़ा है ।
भालू के असामान्य बङे आकार से शंकर आश्चर्यचकित रह गये । जबकि उनके शिष्य भयभीत हो गये । कुछ देर सोच विचार के बाद शंकर ने भयभीत शिष्यों को देखा । और उन्हें अपने पीछे आने का इशारा किया । फ़िर वे शांत भाव से धीरे धीरे भालू के पास से गुजर गये । उनके पीछे पीछे डरे हुए शिष्य भी निकल गये । जब सबके सब भालू के पास से गुज़र गये ।
तो भालू ज़ोर से बोला - हे महान आचार्य ! तुम सफल भी होओगे । और असफल भी ।
भालू की बात सुनकर सब आश्चर्य चकित रह गये । शंकराचार्य ने मुड कर देखा । और बोले - आप ऐसा क्यों कह रहे हैं ? महान रीछ ।
वह बोला - हे आचार्य ! तुम ज्ञानी हो । और तीक्ष्ण दृष्टि रखते हो । तुमने मेरे अप्राकृतिक आकार को देखा । और जल्दी से निष्कर्ष निकाला कि - मैं कोई साधारण भालू नहीं हूँ । तुमने मेरे भावों को पढ़ा । और ठीक अंदाज़ा
लगाया कि मैं कोई नुकसान पहुँचाने का इरादा नहीं रखता । तुम बेवजह के जिज्ञासु भी नहीं हो । इसलिए मेरी उपस्थित से सर्वथा उदासीन रहे । मेरी यहाँ उपस्थिति का तुम्हारे उद्देश्य से कोई सरोकार नहीं । इसलिए तुमने मुझे नज़र अन्दाज़ कर दिया । तुम्हारा यही गुण । यानी अपने लक्ष्य पर पूर्ण दृष्टि तुम्हें सफल बनायेगा । लेकिन विचित्र और असामान्य परिस्थिति को विस्तार से न जानने की तुम्हारी उदासीनता अंततः तुम्हे असफल भी कर देगी ।
ऐसा कहकर भालू मुडा़ । और अदृश्य हो गया । आदि शंकर कुछ देर विचारमग्न और विस्मित से भालू को जाता देखते रहे । फिर आगे बढ़ गये । जल्द ही उन्हें नदी का किनारा मिल गया । लेकिन अब मार्ग अत्यधिक दुर्गम और चुनौतीपूर्ण चढाई वाला था । अब उनकी गति बहुत ही धीमी तथा थकान से कमर तोड़ने वाली हो गई थी । लेकिन उन्होंने यात्रा साहस के साथ रुक रुक कर जारी रखी । अंततः कई दिनों की यात्रा के बाद वे 1 ऊँचे पठार पर पहुंचे । अदभुत नज़ारा था । वनस्पति का नामोनिशान नहीं । दूर दूर तक छोटी छोटी हरी घास के सपाट टीलों का विस्तार । और उसके पार हिमाच्छादित पर्वत श्रृंगमाला के छोर पर ग्लेशियर से टप टप टपकता हुआ पानी की बूंदों से बहता मन्दाकिनी का स्रोत ।
वहां की मोहक ताज़ी हवा । और मन्दाकिनी के चमकते पानी का कलरव । हिम से ढंके शिखरों का मनमोहक
दृश्य । और एक सर्व व्याप्त निस्तब्धता । पलक झपकते ही उनकी सारी थकान मिट गई । 1 गहरा आत्म बोध उन्हें मंत्रमुग्ध कर 1 गहरी तंद्रा में ले गया ।
फ़िर शंकर बोले - वत्स ! मैंने तुम्हें जीवन । मृत्यु । और मोक्ष का ज्ञान दिया । मैंने तुम्हें द्वैत 2 और अद्वैत 1 की अवधारणा से परिचित कराया । माया के गुण समझाये । आत्मा के किसी भी अवस्था में नष्ट न होने की प्रकृति के बारे में विस्तार से बताया । सांख्य । मीमांसा । दर्शन । और वेदांत की शिक्षा दी । और अब वक्त आ गया कि - तुम परम बृह्म की निकटता का अनुभव करो । अगर तुम 1 अखंड मौन से व्याप्त हो । कोई अनोखी शक्ति का तुम्हारे नश्वर शरीर में संचार हो रहा है । किसी अलौकिक आनंद से भावविभोर हो रहे हो । तो तुम बृह्म के सानिध्य में हो ।
इन गंभीर शब्दों के साथ शंकर मौन हो गए । उन्होंने अपने चारों और देखा । और अत्यन्त संतोष से पाया कि सभी शिष्य उनके साथ पूर्ण सामंजस्य में थे । वे सभी बृह्म की उपस्थिति का अनुभव कर रहे थे ।
उन्होंने कहा - वत्स ! हम 1 अनोखे अनुभव से गुज़र रहे हैं । ये स्थान अत्यन्त पावन और सुख प्रदान करने वाला है । 5 तत्वों के अनोखे संगम से यहाँ अदभुत उर्जा का संचार हो रहा है । जो भी व्यक्ति यहाँ होगा । वह बृह्म की नज़दीकी का अनुभव करे बगैर नही रह सकता ।
फिर कुछ सोच कर उन्होंने कहा - बच्चों ! यह हमारे लिये अत्यन्त ही स्वार्थ पूर्ण होगा कि हम सम्पूर्ण जगत के साथ इस अनुभव को न बांटे । लेकिन साधारण लोगों को आसानी से 1 अमूर्त अनुभव के लिए इस तरह की खतरनाक और मुश्किल यात्रा करने के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता है । इसलिये हम यहाँ पर 1 मंदिर का निर्माण करेंगे । और जन साधारण को यहाँ के आराध्य देव की असाधारण शक्तियाँ का बखान करेंगे । केवल ऐसा करने से ही आम व्यक्ति 1 कठिन यात्रा करने को प्रेरित हो पायेगा । जो भी हो । यहाँ आने से वह भी इस अलौकिक अनुभव से लाभ अर्जित कर सकेगा । इस तरह केदारनाथ मंदिर शंकराचार्य के निर्देश पर बनाया गया । जो बाद में 1 भव्य मन्दिर में तब्दील हो गया ।
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