कबीर गुरु के भावते । दूरहि ते दीसन्त । तन छीना मन अनमना । जग से रूठ फिरन्त ।
कबीर गुरु सबको चहे । गुरु को चहे न कोय । जब लग आस शरीर की । तब लग दास न होय ।
प्रीति कर सुख लेने को । सो सुख गया हिराय । जैसे पाइ छछून्दरी । पकड़ि साँप पछिताय ।
कबीर विषधर बहु मिले । मणिधर मिला न कोय । विषधर को मणिधर मिले । विष तजि अमृत होय ।
सज्जन सों सज्जन मिले । होवे दो दो बात । गदहा सो गदहा मिले । खावे दो दो लात ।
तरुवर जड़ से काटिया । जबे सम्हारो जहाज । तारे पर बोरे नहीं । बांह गहे की लाज ।
मैं सोचों हित जानिके । कठिन भयो है काठ । ओछी संगत नीच की । सरि पर पाड़ी बाट ।
लकड़ी जल डूबे नहीं । कहो कहाँ की प्रीति । अपनी सीची जानि के । यही बड़न की रीति ।
साधू संगत परिहरे । करे विषय का संग । कूप खनी जल बावरे । त्याग दिया जल गंग ।
संगति ऐसी कीजिये । सरसा नर सो संग । लर लर लोई हेत है । तऊ न छौड़ रंग ।
तेल तिली सौ ऊपजे । सदा तेल को तेल । संगति को बेरो भयो । ताते नाम फुलेल ।
साधु संग गुरु भक्ति अरू । बढ़त बढ़त बढ़ि जाय । ओछी संगत खर शब्द रू । घटत घटत घटि जाय ।
संगत कीजै साधु की । होवे दिन दिन हेत । साकुट काली कामली । धोते होय न सेत ।
चर्चा करूँ तब चौहटे । ज्ञान करो तब दोय । ध्यान धरो तब एकिला । और न दूजा कोय ।
सन्त सुरसरी गंगा जल । आनि पखारा अंग । मैले से निरमल भये । साधू जन को संग ।
सतगुरु शब्द उलंघ के । जो सेवक कहूँ जाय । जहाँ जाय तहँ काल है । कह कबीर समझाय ।
सेवक सेवा में रहे । सेवक कहिये सोय । कह कबीर सेवा बिना । सेवक कभी न होय ।
अनराते सुख सोवना । राते नींद न आय । यों जल छूटी माछरी । तलफत रैन बिहाय ।
यह मन ताको दीजिये । सांचा सेवक होय । सिर ऊपर आरा सहे । तऊ न दूजा होय ।
गुरु आज्ञा माने नहीं । चले अटपटी चाल । लोक वेद दोनों गये । आये सिर पर काल ।
आशा करे बैकुण्ठ की । दुरमति तीनों काल । शुक्र कही बलि ना करी । ताते गयो पताल ।
द्वार धनी के पड़ि रहे । धका धनी का खाय । कबहुक धनी निवाजि है । जो दर छाड़ि न जाय ।
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