04 जनवरी 2012

लेकिन ये मन तो किसी भी तरह शान्त ही नहीं होता

4 प्रश्न - मन तो किसी भी तरह शान्त नहीं होता ।
उत्तर -  प्रत्येक दिन थोडा थोडा भजन । सुमिरन । ध्यान अवश्य करना चाहिये । किसी भी दिन नागा नहीं जाना चाहिये । मन बालक व बन्दर के समान चंचल होता है । लगातार इधर उधर भागता रहता है । उसको बार बार खींचकर भजन व ध्यान में लगाते रहना चाहिये । इसी तरह 2-3 साल तक लगातार करते रहने पर देखोगे कि ह्रदय में अनिवर्चनीय आनन्द आने लगेगा । मन भी धीरे धीरे शान्त होने लग जाता है । पहले पहल भजन । सुमिरन । ध्यान नीरस लगता है । परन्तु औषधि सेवन के समान जबरदस्ती मन को श्री सदगुरू के भजन, ध्यान में निमग्र करना । यानी सदा लगाये रखना चाहिये । तब कहीं धीरे धीरे आनन्द का अनुभव होगा । विधार्थी परीक्षा में सफ़ल होने के लिये कितनी मेहनत करते हैं । तब परीक्षा का अच्छा परिणाम मिलता है । उसी प्रकार भक्ति का लाभ लेने के लिये कडी मेहनत तो करती ही पडेगी । इसके लिये आर्तभाव से या बडी श्रद्धा से श्री सदगुरू भगवान को पुकारते रहना चाहिये । ताकि वे दयाल हो जायं ।

5 प्रश्न - यह बडी आशाजनक बात है कि जिस विधार्थी ने परीक्षा में सफ़लता प्राप्त कर ली । वह आगे की पढाई मेहनत के साथ व उत्साह के साथ करता है । इसी तरह साधक अपनी साधना यानी भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में कुछ परतीति होने पर मन को पूर्ण श्रद्धा के साथ भजन ध्यान में नियमित लगायेगा । लेकिन कब कभी कभी खूब भजन । ध्यान करने पर भी निराशा आ जाती है । ऐसा लगता है कि इतना जप करने पर भी जब कुछ अनुभव नहीं हो रहा है । तो यह सब फ़िजूल है ।
उत्तर - नहीं नहीं । निराश होने की कोई बात नहीं है । कर्म का फ़ल तो अनिवार्य रूप से मिलना ही मिलना है । जबरदस्ती करो । श्रद्धा से करो । भाव से करो । कुभाव से करो । चाहे जैसे करो । करना अनिवार्य ही है । ऐसा करने से फ़ल अवश्य मिलेगा । कुछ दिन नियमित रूप से नियमानुसार करो । उसका फ़ल मिलेगा ही । भजन । सुमरन । ध्यान करने से मन को शान्ति मिलती है । शरीर को स्वास्थय लाभ होता है । और रोग रोज प्रति रोज राई राई घटता रहता है । शरीर को स्वस्थ रखने के लिये भी भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान अवश्यक करते रहना चाहिये ।

पहले पहल भजन । सुमरन । ध्यान करना । मानो मन के साथ युद्ध करने के समान है । चंचल मन को धीरे धीरे स्थिर कर श्री सदगुरू के पाद पदमों में लगान चाहिये । इस अभ्यास से कुछ दिन बाद सिर थोडा थोडा गर्म हो जाता है । इसलिये पहले पहल कुछ अधिक नहीं करना चाहिये । इस भजन, ध्यान को रोज नियमित थोडा थोडा करना चाहिये ।  रोज थोडा थोडा बढाते रहना चाहिये । कुछ दिन ऐसा करते रहने से जब ठीक ठीक ध्यान होने लग जाय । तो रोज 2-4 घण्टे 1 आसन पर बैठकर भजन, ध्यान अवश्य करें । ऐसा करने से कोई कष्ट नहीं होगा । तथा जैसे गाढी नींद के बाद शरीर और मन दोनों तरोताजा हो जाता है । ठीक उसी प्रकार ताजगी का अनुभव होगा । और ह्रदय में 1 आनन्द का प्रवाह बहने लग जाता है ।
साधना की प्रथम अवस्था में खाने पीने के सम्बन्ध में विशेष ध्यान रखना आवश्यक है । शरीर के साथ मन का बहुत नजदीकी सम्बन्ध होता है । खान पान में कमी के कारण स्वास्थय बिगड जाता है । फ़लस्वरूप भजन । सुमिरन । ध्यान । धारणा का अभ्यास बिगड जाता है । तभी तो खान पान के सम्बन्ध में इतने आचार विचार हैं । भोजन की वस्तुयें ऐसी होनी चाहिये । जो सहज ही सुपाच्य हों । और पुष्टिकर भी हों । उत्तेजक न हों । और ज्यादा खाना भी नहीं खाना चाहिये । उससे तमोगुण बढता है । भोजन आधा पेट करना । पानी 1 चौथाई पीना । पेट का 1 चौथाई भाग वायु आने जाने के लिये खाली रहना चाहिये ।
भजन । सुमिरन । ध्यान करना । कोई सरल बात नहीं है । किसी दिन खाना थोडा अधिक खा लेने से मन एकाग्र नहीं हो पाता है । काम । क्रोध । लोभ । मोह इत्यादि रिपुओं को दबाकर रखना पडता है । तब कहीं भजन । सुमिरन । ध्यान करना सम्भव होता है । इन रिपुओं में से 1 के भी सिर उठाने पर भजन । ध्यान नहीं हो पायेगा 


। खूब भजन । सुमिरन । ध्यान की साधना करनी चाहिये । गर्मी के दिन में अग्नि तापना सहज है । यानी चारों तरफ़ अग्नि जलाकर उसके बीच बैठना आसान है । परन्तु काम । क्रोध । लोभ । मोह और अहंकार को जीत कर रखना । उन्हें सिर न उठाने देना ही असली तपस्या ( साधना ) है ।
भजन । सुमिरन । ध्यान किये बिना मन स्थिर नहीं होता है । मन स्थिर न होने पर सोचो कि - मैं भजन, ध्यान करूंगा । ऐसा सोचने से भजन । सुमिरन । ध्यान फ़िर कभी नहीं होगा । भजन ध्यान बराबर करते रहने से मन में कृमश: सदभावनाओं के प्रभाव या संस्कार पडेंगे । असदभावनाओं को जैसे जैसे मन से निकालोगे । वैसे वैसे उसमें सदभावनाएं आती जायेंगी । भजन ध्यान करते करते कभी कभी light ज्योति दर्शन होता है । और भी आगे बढना होगा । फ़िर भी ये लक्षण अच्छे हैं । ऐसा होने पर समझना चाहिये कि ठीक ठीक रास्ते पर जा रहा हूं । मालिक तुम लोगों पर दया करके तुम लोगों के सारे अवगुण धो धोकर साफ़ कर देंगे । भक्ति भाव से और 1 मालिक पर पूर्ण निष्ठा, विश्वास रख कर करोगे । तो श्री सदगुरू भगवान की अपने अन्दर प्राप्ति हो जायेगी । और तुम्हें भक्ति मुक्ति प्राप्त हो जायेगी ।
6 प्रश्न - महाराज जी ! श्री सदगुरू भगवान में मन कैसे लगता है ?
उत्तर - साधु संग करने । सत्संग सुनते सुनते । भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान की साधना करते करते श्री सदगुरू भगवान में मन लगने लग जायेगा । उनका जीवन देख देखकर । उनके उपदेश सुन सुनकर । तदनुसार जीवन गढना होता है । पूर्ण श्रद्धा विश्वास के साथ मालिक में पूर्ण निष्ठा रखकर भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान की नियमित नियमानुसार साधना करते रहने से । तथा उनके सतसंग को सुनने । उनके ग्रन्थों को पढने । मन को सदा साधना में लगाये रहने से । निश्चित भक्ति लाभ मिलेगा ।

उनको पाने के लिये । उनको अन्दर में देखने के लिये । खूब साधना । भजन करना चाहिये । मालिक को पाने के लिये । दिल में तडप होना चाहिये । और उनको पुकारना चाहिये । मालिक के लिये सब कुछ त्याग करना पडेगा । कंचन । कामिनी । मान । प्रतिष्ठा । यश । सम्मान की थोडी भी आकांक्षा रहने पर काम नहीं बनेगा । श्री स्वामी जी महाराज समझाते हुए कहते हैं कि नाव का लंगर डालकर पतवार खेने से काम कैसे चलेगा । यानी नाव आगे कैसे बढेगी ? श्री स्वामी जी महाराज कहा करते थे कि - प्रतिष्ठा पाना सहज है । किन्तु छोडना बडा कठिन है । जो इन सबका त्याग कर सकता है । वही असली साधु है । ऐसा दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर भगवत प्राप्ति नहीं किया । तो मनुष्य जन्म पाना व्यर्थ है । शंकराचार्य जी ने कहा है कि -
मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुष संश्रय: । महापुरूष का संश्रय ( सहारा ) बडे भाग्यवान को ही प्राप्त होता है ।
7 प्रश्न - महाराज जी ! बहुतों का ऐसा विचार रहता है कि साधु लोगों के पास जाना ही यथेष्ट है । कुछ और सुनने या करने की आवश्यकता नहीं है ।
उत्तर - वैसी बात क्यों सुनते हो ? साधु सन्तों के पास सिर्फ़ जाने से नहीं होता । सरल भाव से उनसे अपने मन की शंका को पूछकर सदा समाधान करते रहना चाहिये । उनके क्रिया कलापों को । उनके भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान की साधना विधि को । खूब बारीकी से देख देखकर सीखना होगा । तथा उनके आज्ञा का पालन करते रहना होगा । अपने को उनके अनुरूप ढालना होगा । स्वयं कुछ न कर । सिर्फ़ साधु सन्तों के पास जाने से कुछ नहीं होगा । उनके कार्य कलापों को सीखना होगा । भक्ति मार्ग में साधु सन्तों के संग की बहुत विशेष 


आवश्यकता होती है । उनको देखने से । या उनकी अमृतमयी वाणी सुनने से । मन में धर्म भाव । भक्ति भाव । सदभाव । जागृत हो उठते हैं । और मन के संशय दूर हो जाते हैं । उनका भावमय पवित्र जीवन देखने से मन जितना प्रभावित होता है । 100 पुस्तकें पढने से भी उतना ज्ञान नहीं होता है । 1 शिष्य मेरे साथ श्री सदगुरू देव जी महाराज के पास आते थे । उस साथी को प्राय: भावावेश हुआ करता था । 1 दिन जब वे श्री सदगुरू देव जी महाराज के पास आये । तो कुछ समय बाद ही श्री सदगुरू देव जी महाराज ध्यान मग्न हो गये । उनके अधरों पर 1 दिव्य मुस्कान बिखर उठी । ऐसा प्रतीत हो रहा था । मानो आनन्द उसमें समा नहीं पा रहा था । यह देखकर जो साथी साथ आया था । वह कह पडा कि तुम लोगों का भावावेष देखकर मुझमें भाव के प्रति 1 प्रकार की अरूचि उत्पन्न हो गयी थी । तुम्हें जब भी भावावेश होता है । तो देखकर ऐसा लगता है कि जैसे तुम्हारे भीतर बहुत पीडा हो रही है । भगवान के नाम में क्या कभी पीडा होती है ? श्री सदगुरू देव की दया दृष्टि को देखकर ऐसा लगता है कि मानो उनके अन्दर का आनन्द छलक रहा है । यह देखकर मेरी आंखे खुल गईं ।
सन्तों महात्माओं के पास । या श्री सदगुरू देव भगवान के पास आये बिना । उनका यह भाव देखे बिना शिष्य के मन का संशय कभी भी दूर नहीं होता । यह हुआ । साधु संगत का फ़ल । किन्तु जानते हो । भक्ति का तत्त्व लाभ प्राप्त करने के लिये । खूब भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान की साधना करनी होगी । खूब श्रद्धा भाव बढाकर भजन ध्यान करना होगा ।

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