30 जून 2012

सभी 1 ही सच ? कहते हैं - इसी में सारा खेल है

कल ही अशोक जी से मेरी फ़ोन पर बात हो रही थी । तब अशोक ने कहा - अद्वैत का साहित्य पढ कर और अद्वैत से जुङे विभिन्न महात्माओं के सतसंग से मुझे इतना निचोङ तो समझ में आ गया कि - अजपा निर्वाणी नाम साधना ही प्रत्येक मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य है । और इसको सच्चे रूप से पाना भी । यानी सच्चे सतगुरु से । और राधा स्वामी पंथ । करोंदा हरियाणा का रामपाल । और जैथरा ( एटा उ.प्र ) के कोई अनुरागी जी आदि आदि से जगह जगह दीक्षा प्राप्त करके भी कुछ ही दिनों में ( पूर्व में अनुभवी होने से ) मुझे अहसास होने लगा कि नहीं अभी वो तलाश पूरी नहीं हुयी । जिसकी मुझे चाहत है । और जो अंतिम और शाश्वत सत्य है ।
तब महाराज ! एक दिन बेहद बैचेनी से मैं देर रात को बिस्तर पर बैठकर बच्चों की तरह रोने लगा । अनुराग सागर मेरे पास ही रखी हुयी थी । और मैं कह रहा था - तुम मुझे सच्चा मार्ग क्यों नहीं दिखाते । यदि 


वास्तव में कोई प्रभु है । फ़िर प्रकट क्यों नहीं होते । मैं कब से इस तलाश में पागल हुआ जा रहा हूँ आदि ।
अशोक जी ने बहुत प्रार्थना की । पर प्रभु प्रकट नहीं हुये । तो नहीं हुये । पर बैचेनी को जब तक चैन न मिल जाये । वह अपना असर दिखाती ही रहती है । सो अशोक अगले दिन नेट पर आफ़िस में सर्च करने लगे । और नेटावतार राजीव बाबा प्रकट हो गये ।
और तब अशोक जी ने अगली बार प्रभु से कुछ ऐसे प्रार्थना की - रब्ब जी ! तुसी बी कमाल के हो जी । ये कौन से बाबा से मिला दिया ? इसने तो मेरा बचा खुचा चैन भी छीन लिया । अब रात 4-4 बजे तक मैं ब्लाग ही पढता रहता हूँ ।
कुछ ऐसा ही संस्मरण मुझे बनारस के संजय की पत्नी ने सुनाया - गुरुजी ! ये भगवान वगवान को पता नहीं अक्ल है भी या नहीं ? मैंने देवी माँ से ( कुंवारे पर ) एक सीधा सच्चा ( अप्रत्यक्ष रूप से गुलाम ) पति माँगा था । और ये देखो । ये । मुझे क्या दे दिया ? ये तो कुछ ज्यादा ही सीधा है ।
मैंने कहा - गलती तुम्हारी है । आज के समय में कोई सीधा सच्चा आदमी होता है क्या ? तब भगवान बेचारा कहाँ से लाये । संजय दरअसल पैदा नहीं हुआ था । ये हङप्पा मोहन जोदङो की खुदाई में निकला था 


। और संग्रहालय से लाया गया है । इसीलिये थोङा ओल्ड माडल है । अब 7 जन्म तुम्हें इसी ओल्ड माडल से काम चलाना होगा । क्योंकि विवाह रस्म के समय तुम्हीं ने 7 जन्म साथ निभाने की कसम खायी थी । वो बेचारी हैरान रह गयी । उफ़ ! नासमझी में मैंने 7 जन्म के गारंटी कार्ड पर हस्ताक्षर कर दिये ।
O MY GOD ! WHERE ARE YOU ?
कुछ कुछ इसी तरह के संस्मरण अनुभव मुझे बहुत लोग बताते हैं - राजीव जी ! आप भी कमाल के बाबा हो । जब से हम आपके सम्पर्क में आये हैं । सपने में भी आप ही आते हो । लेकिन उस तरह । जिस तरह धुरंधर बालरों के सपने में भी सचिन तेंदुलकर चौके छक्के लगाता हुआ नजर आता है ।
खैर..ये सब तो दुनियाँदारी की बातें हैं । हमें इन पर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिये । और इहलोक परलोक सुधारने हेतु भक्ति सतसंग पर अधिक ध्यान देना चाहिये । इसलिये अशोक जी द्वारा भेजे आत्म ज्ञान के इन पदों पर जो विभिन्न सन्तों द्वारा रचित हैं । बात करते हैं ।
। श्री बावरी साहेब जी । पद -
सतगुरु से बिधि जानि कै जपिये अजपा जाप । कहैं बावरी नाम धुनि हर दम सुनिये आप ।
इसी में सारा खेल है मुक्ति भक्ति औ ज्ञान । कहैं बावरी जिन गहयो ते भे पुरुष महान ।
- बात एकदम सीधी सी है । स्वांसों में होते ( हर 4 सेकेंड में 1 नाम ) निर्वाणी अजपा ( यानी जो स्वयं हो रहा

है ) जाप की विधि सतगुरु से जानिये । और ये नाम ( जो ध्वनि रूप ही है ) ध्वनि हमेशा सुनिये । इसी में पूरा ज्ञान भक्ति और मुक्ति का रहस्यमय खेल छुपा हुआ है । बाबरी का कहना है । जिन्होंने इस ज्ञान को गृहण किया । वो पुरुष महान हुये ।
। श्री यारी साहेब जी । पद -
यारी नाम से कीजिये जियति होय कल्यान । यारी कह तब जाय खुलि राम नाम की तान ।
सब में ब्यापक औ बिलग सुर मुनि कीन्ह बयान । यारी कह सतगुरु बिना मिलत नहीं यह ज्ञान ।
- सन्त यारी साहेब का कहना है - आप मित्रता इसी निर्वाणी नाम ( ध्वनि रूप.. सो-हंग ) से करें । तो जीते

जी ही कल्याण है ।  इनका मतलब है । जैसा द्वैत भक्ति वाले चिल्लाते हैं । मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा । मरने के बाद तरोगे आदि । ऐसा कुछ नहीं । इसकी क्या गारंटी । मरने के बाद क्या होगा ? लेकिन इस नाम भक्ति में ऐसा नहीं है । ये जीते जी और तुरन्त ही परिणाम देना शुरू करता है । यानी जीते जी आपकी जानकारी में मुक्त होना अनुभव कराता है । लेकिन ये मित्रता तभी मानी जायेगी । जब ररंकार या अन्दर होते आसमानी शब्द या नाम की ( झींगुर जैसी ) झंकार बताये गये अभ्यास द्वारा प्रकट हो जाये । तब आपको उसका बोध होता है । जिसके बारे में देवताओं मुनियों ने कहा कि वही सब में व्याप्त है । और सबसे अलग भी । लेकिन बिना सतगुरु के यह ज्ञान किसी कीमत पर नहीं मिलता ।
। श्री मलिक मुहम्मद जी । चौपाई -


मलिक मुहम्मद नाम हमारा । जायस में भा जन्म हमारा ।
मुसलमान के गृह में जानो । बचन हमार सत्य सब मानो ।
संतन की संगति हम कीन्हा । राम भजन में तन मन दीन्हा ।
सतगुरु बिन कोइ भेद न पावै । पढ़ि सुनि के धीरज नहि आवै ।
- हमारा नाम मलिक मुहम्मद है । जायस स्थान पर मुसलमान के घर में जन्म हुआ । हमारा वचन सत्य जानना । मैंने सन्तों की संगति की । और राम ( ध्वनि रूप ररंकार ) के भजन में तन मन लगा दिया । लेकिन इस ज्ञान को सिर्फ़ पढ सुन कर शान्ति प्राप्त नहीं होती । इसे क्रियात्मक रूप में समय के सतगुरु से प्राप्त करना चाहिये ।
बरतन माँजौ पांचौं । अपने गुरु से भेद जानि कै इन से मन लै टांचौ ।
तब यह तुमको डरैं हमेशा राम नाम रंग राचौ । बालमीकि भागवति औ मानस श्री गीता को बांचौ ।
वेद शस्त्र उपनिषद सांगिता यही कहत हैं सांचौ । शान्त दीन बनि तन में घुसि कै राम सिया को जांचौ ।
नर तन सुफ़ल करौ जियतै में चन्द रोज का ढांचौ । मरना पैदा होना छूटै फेरि न जग में नाचौ ।
जो नहिं मानो सुर मुनि बानी मिलै न कौड़ी कांचौ । या से चेति क अजर अमर हो बरतन मांजौ पांचौ ।
- अलग अलग सन्तों ने अपने स्तर और भाव के अनुसार वाणियाँ कही हैं । 5 गिनती से जहाँ कहीं भाव आया है । वह 5 तत्व या 5 विकार - काम । क्रोध । लोभ । मोह । मद के लिये स्थिति अनुसार होता है । यहाँ मलिक का आशय 5 विकार - काम । क्रोध । लोभ । मोह । मद से है । इन्हीं विकारों को धोने की सलाह

दी है । किसी सच्चे गुरु से नाम का भेद लेकर जब तुम उसमें मन लगाते हो । तो ये विकार भयभीत होकर दुबक जाते हैं । यानी प्रभावित करना बन्द कर देते हैं । वाल्मीकि रामायण भागवत रामचरित मानस गीता वेद शास्त्र उपनिषद आदि सभी 1 ही सच ? कहते हैं । शान्त सहज होकर शरीर के अन्दर प्रविष्ट होकर राम ( ररंकार ध्वनि ) से सिया ( सुरति ) को जोङ दो । तो ये चन्द रोज के लिये मिला मनुष्य शरीर रूपी ढांचा आपका ये जीवन सफ़ल कर देगा । और आवागमन रूपी जन्म मरण का चक्कर छूट जायेगा । ये मनुष्य जो बन्दर की तरह नाचता रहता है । फ़िर नहीं नाचना होगा । अगर ये देवताओं ऋषियों मुनियों की बात आप नहीं मानते । तो कच्ची कौङी भी प्राप्त न होगी । इसलिये चेत के इन विकारों को धोते हुये अजर अमर होने के लिये ये निर्वाणी भजन करो ।

। श्री बीरू साहेब जी । पद -
बीरू पीजै नाम की, कह बीरू लो मान । चढ़ै अमल उतरै नहीं सुनो नाम की तान ।


सतगुरु बिन नहिं मिल सकै मुक्ति भक्ति का ज्ञान । बीरू कह मानो सही चारों युग परमान ।
- नानक साहब ने कहा है - नाम खुमारी नानका चढी रहे दिन रात । बोदा नशा शराब का उतर जाय प्रभात । कुछ कुछ ऐसे ही भाव में सन्त वीरू ने कहा है - ये चारों युग में सिद्ध है । सतगुरु शरण में जाये बिना भक्ति मुक्ति का ज्ञान नहीं मिलता । और ये ( सत ) नाम का नशा एक बार चढने के बाद उतरता नहीं । अतः इसी नाम रस का पान करो ।
। श्री दरिया साहब जी । ( मारवाड़ ) पद -
दरिया कह रंकार धुनि हर शै से सुनि लेहु । सतगुरु से बिधि जानि के सूरति शब्द पै देहु ।
सरनि तरनि औ मरनि सब जियतै ही लो जान । दरिया कह मानो बचन खुलि जाँय आँखी कान । 
- सन्त दरिया कहते हैं - सदगुरु से विधि जान के सुरति ( मन बुद्धि चित्त अहम ये चार छिद्र रूपी उपकरण

जब एक छिद्र हो जाता है । उसे सुरति कहते हैं ) को शब्द से लगाकर ररंकार ध्वनि को सुनो । और असली मरना तरना शरण ( क्या ) ये जीते जी ही जान लो ।
। श्री अंधे शाह जी । पद -
भक्तौं आवै जाय सो माया । चौरासी का चक्कर तब तक जब तक गर्भ बकाया । 
सतगुरु करो भजन बिधि जानो सोधन होवै काया । सारे चोर शाँति हवै बैठैं मन उनसे हटि आया । 
नाम के संग रंगै फिरि ढँग से मुद मंगल दरसाया । अमृत पिऔ सुनौ घट बाजा मधुर मधुर चटकाया ।
सुर मुनि मिलैं उछंग उठावैं जय जय कहि गुन गाया । नागिनि जागि लोक चौदह में सुख से तुम्हैं घुमाया ।
षट चक्कर तब चलैं दरस भै सातौं कमल फुलाया । अदभुद महक स्वरन से जारी रोम रोम पुलकाया । 


कंठ रुँधि जाय बोल न फूटै नैन नीर झरि लाया । हालै शीश बदन थरार्वै पलक भाँजि नहिं पाया ।
लय परकास नाम धुनि जारी हर शै से भन्नाया । सिया राम प्रिय श्याम रमा हरि सन्मुख में छबि छाया ।
तुरिया तीत दशा यह जानो सहज समाधि कहाया । अन्धे कहैं अन्त साकेतै चढ़ि सिंहासन धाया । 
- इसका अर्थ सरल अन्दाज में जानिये । आये जाये सो ( जीव ) माया । यानी आत्मा अचल है । जब तक मुक्त होकर आवागमन रूपी जन्म मरण का फ़ंदा नहीं छूटता । तब तक 84 ( लाख योनियाँ ) और नरक के समान गर्भवास करना ही होगा । सदगुरु द्वारा बतायी भजन विधि से शरीर का शोधन होता है । और काम क्रोध लोभ मोह मद ये चोर शान्त होकर बैठ जाते हैं । नाम के रंग में रंगने से मंगल होता है । शरीर के अन्दर होने वाली मधुर धुन ( बाजा ) सुनो । और अमृत पान करो । इससे कुण्डलिनी  ( नागिन ) जागृत होकर 14 लोकों में सुख से तुम्हें घुमाती है । 6 चक्रों के दर्शन होकर 7 कमल खिल उठते हैं ( जो वास्तव में सामान्य अवस्था में उल्टे और सिमटी पंखुरियों की अवस्था में है ) विभिन्न अदभुत सुगन्धों से रोम रोम पुलकित हो उठता है । ये इतनी आनन्दमय अवस्था है कि - भावावेश में गला रुंध जाता है । आँखों से आँसू झरने लगते हैं । नाम धुन की लय । और आत्मा का प्रकाश । अपलक स्थिति । शरीर में कंपन । और विभिन्न देवों के दर्शन । सहज समाधि की यह अवस्था तुरियातीत स्थिति ( स्वपन । नींद । जागृत से परे की चौथी अवस्था ) होती है ।

भेङ की खाल में छिपे भेङिये रूपी काल दूत

अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं - निर्वाणी साधना और द्वैत साधना में फ़र्क कैसे करें ? और भेङ की खाल में छिपे भेङिये रूपी काल दूत साधुओं को कैसे जानें ? आईये आज इसी महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करते हैं । सबसे पहली बात है कि आप दूसरों में दोष बाद में देखें । खुद अपना ही दोष जानें । जब द्वैत अद्वैत कुण्डलिनी मंत्र तंत्र हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई सभी धार्मिक मत एक स्वर में कहते हैं कि - SUPREME POWER सिर्फ़ 1 ही है । और उसके सिवा दूसरा कोई नहीं हैं । और तुम भी वही हो । ये अखिल सृष्टि प्रकृति आदि जो कुछ भी दृश्य अदृश्य है । सब उसी से है । फ़िर भी आप बहुत को या 2 को मानते हो । तो सबसे पहले दोष आपका ही है । जबकि आप भी वही हो । जो अज्ञान रूपी अहम 

वश खुद को " मैं " और अलग मान रहे हो । यदि सिर्फ़ इसी सिद्धांत को गहरायी से अटल होकर स्वीकार कर लो । तो फ़िर कोई काल दूत हो । या और कुछ । आपका कुछ नहीं बिगाङ सकते । और फ़िर किसी ज्ञान की भी आवश्यकता नहीं । लेकिन ? बिना आंतरिक परिवर्तन के दरअसल इस भाव में स्थिर होना बहुत कठिन ही नहीं असंभव है । और ये ज्ञान ( बोध ) पहचान परिवर्तन सिर्फ़ सदगुरु ( सदगुरु का अर्थ - सत्य प्रकाश या सत्य ज्ञान को जानने वाला ) द्वारा ही संभव है । अतः द्वैत ( लगभग ) मिथ्या होते हुये भी एक अकाटय और कठोर सत्य भी है । और आप मूल रूप से अमर अजर अविनाशी आत्मा होते हुये भी जन्म मरण के कष्टदायक जीवात्मा के रूप में आत्म बोध न होने तक बेहद पीङा और तंगी युक्त जिन्दगी के लिये विवश हो ।

इसलिये मूल रूप से द्वैत के काल दूतों की चर्चा करते हैं । जो आपको इस भीषण कष्ट से निकलने ही नहीं देते । और आप इन्हीं के चरणों में - महाराज महाराज स्वामी जी कहते हुये नतमस्तक होते जाते हो । और बङा आसान है । इस काल ( पुरुष ) और इसके कालदूतों को जानना समझना ।
लेकिन इससे पहले आप अपनी जीव स्थिति को जानिये । आप बहुत छोटे दायरे छोटी सोच में अल्प ज्ञान में माया ( मैडम ) की करतूत से बंधे हुये हो । इसलिये प्रथ्वी ( तत्व ) जल ( तत्व ) अग्नि ( तत्व ) वायु ( तत्व ) को भी तत्व रूप से न जानते हुये सिर्फ़ इनके स्थूल रूप से व्यवहार करते हो । पाँचवें आकाश ( तत्व ) से आपका कभी वास्ता नहीं पङता । और उच्च स्थितियों का सभी खेल आकाश से ही शुरू होता है । जो भी स्वर्ग आदि प्राप्तियाँ हैं । उनमें आकाश को तत्व रूप जानना होता है । और फ़िर उसके ऊपर भी ।

अब सबसे पहले तो ये समझिये कि इस त्रिलोकी सत्ता का राष्ट्रपति या सर्वेसर्वा ही काल पुरुष है । जो अपने 2 प्रत्यक्ष रूपों या अवतार राम ( 12 कला मर्यादा पुरुष ) श्रीकृष्ण ( 16 कला योगेश्वर ) द्वारा विभिन्न क्रीङायें करता है । जाहिर है । त्रिलोकी की इन 2 प्रत्यक्ष रूप शक्तियों से किसी जीव का ( असली ) मोक्ष ज्ञान रूपी भला न होता है । न कभी हो सकता है । क्योंकि खुद काल न ऐसा कर सकता है । न कभी करेगा । इसका तीसरा सिर्फ़ मृत्यु के समय प्रत्यक्ष हुआ रूप यमराय का है । उसमें तो ये अच्छे अच्छों के कच्छे गीले पीले कर देता है । ये तो सबको पता ही है । इसका  चौथा अदृश्य और सबसे दुष्ट रूप जीव का मन है । सिर्फ़ जिसके द्वारा ही ये जीवों को अपने जाल में फ़ँसाये रखता है ।

काल पुरुष के प्रमुख परिचय के बाद । इसकी बेहद शातिर पत्नी महा माया उर्फ़ अष्टांगी उर्फ़ आदि शक्ति उर्फ़ महादेवी उर्फ़ पहली औरत आदि आदि है । ये और भी बङी खिलाङिन है । सभी प्रमुख देवियाँ और छोटी बङी ऊँच नीच देवियाँ इसी का अंश हैं । इसी के अधीन हैं ।
इसके बाद खास तौर पर इन दोनों के 3 पुत्र बृह्मा विष्णु महेश आते हैं । इनमें मंझला विष्णु बङा खिलाङी है । इसकी पत्नी लक्ष्मी माया रूप है । इसने ( विष्णु ) ही माया रूप स्त्री का निर्माण किया है । जीव को अपने पिता के सिर्फ़ भोजन हेतु काल जाल में फ़ँसाये रखना ही इसका जैसे एकमात्र ध्येय है । बङा बृह्मा बुद्धि चातुर्य के मामले में कुछ मतिमन्द है । वह छोटे शंकर और मंझले विष्णु की सपोर्ट से काम चलाता है । और काफ़ी हद तक कामी प्रवृति का और डरपोक भी है । काल पुरुष और अष्टांगी का छोटा पुत्र शंकर अपने बङे भाईयों की अपेक्षाकृत समझदार है । और योग में शंकर की अच्छी दिलचस्पी रहती है । फ़िर भी कोई भी कर्मचारी अपने पद अनुसार ही कार्य करेगा । और फ़िर अष्टांगी के भयंकर होते ही ये तीनों थरथर कांपते हैं । अतः शंकर भी  घुमा फ़िराकर जीवों मनुष्यों को फ़ँसाये रखने का पिंजरा तैयार करता रहता है ।
और ये 5 ही प्रमुख है । बाकी सब इनके अधीनस्थ कर्मचारी ही हैं । इसी से आप समझ सकते हैं कि द्वैत पूजा या काल पूजा किसे कहते हैं ? आप जिसकी भी पूजा करते हैं । उसकी असलियत वास्तव में क्या है ?

अब आईये । इस लेख की सबसे महत्वपूर्ण बात जो काल दूतों के बारे में है । काल को जब इतने से भी तसल्ली नहीं हुयी । उसने सोचा । इसके बाबजूद भी मेरे द्वारा कष्ट पाया जीव सतगुरु को पुकारेगा । वे उस जीव की सुनेंगे । और जीव मेरे चंगुल से निकल जायेगा । तब उसने इसी आत्म ज्ञान में मिलावट करने हेतु कालदूतों का निर्माण किया । और उन्हें बेहतर प्रशिक्षित किया । ये ही आपका सबसे बङा नुकसान करते हैं । भृमित करते हैं । और ये संख्या में बहुत है । बल्कि संसार में ही फ़ैले हुये है ।
लेकिन इनके वैसे विस्तार में न जाकर मैं इनकी पोल खोल अन्दाज में बताता हूँ कि कैसे आप आसानी से इनकी परख कर सकते हैं ?
1 ये लोग भी कुछ कुछ रहस्यमय अन्दाज में काल निरंजन की बुराई (  ताकि आप इन पर विश्वास करें ) करेंगे । लेकिन घुमा फ़िराकर बात और मंत्र दीक्षा आदि उसी की  देंगे । जैसे - हरि ॐ तत्सत आदि ।

2 ये कबीर या किसी आत्म ज्ञानी सन्त की आङ और उसका नाम लेकर उपदेश प्रवचन करेंगे । पर वास्तविकता में उस सन्त की मूल वाणी से उसका दूर दूर तक वास्ता न होगा ।
3 जिस तरह मैं डंके की चोट पर काल निरंजन । उसकी पत्नी । और उसके तीनों पुत्रों की खुली आलोचना करता हूँ । ये कभी नहीं करेंगे । बल्कि घुमा फ़िराकर इन सबके नाम के आगे जी आदि आदर सूचक शब्द आदि लगाकर बारबार उनको भगवान आदि शब्दों से पुकारेंगे । अप्रत्यक्ष महत्व भी देंगे । क्योंकि ये ही इनके आका हैं ।
4 एक जो खास प्वाइंट है । मैंने जन जन को इन काल दूतों और काल पुरुष एण्ड फ़ैमिली की ढंग से पोल खोलने वाली किताब - अनुराग सागर.. को बार बार लोगों को पढने के लिये प्रेरित किया । ये लोग भूल कर भी उसका नाम कभी नहीं लेंगे । क्योंकि ये किताब 1 मिनट में इन सबकी मिट्टी पलीद कर देती है ।
5 ये कबीर वाणी की बार बार बात करेंगे । पर आपको कबीर साहित्य पढने को कभी प्रेरित न करेंगे । बल्कि उसके बजाय - भगवद गीता । देवी भागवत । पुराण । उपनिषदों । वेदों की बात बार बार करते हुये इसी

काल साहित्य ( जाल ) में उलझाये रखेंगे । लेकिन मूल कबीर वाणी पढते ही आपकी आँखें खुल जायेंगी कि असल मामला कितना अलग है । ये धूर्त कैसे सफ़ेद झूठ बोल रहे थे ??
6 ये सन्त मत या आत्म ज्ञान दीक्षा के नाम पर कोई घटिया सा वाणी नाम मंत्र दे देंगे । वास्तव में जिसकी वैल्यू कुण्डलिनी के द्वैत योग जितनी भी नहीं होती । निर्वाणी नाम में 1 अक्षर भी नहीं बोलना होता है । ये नाम आपकी सांस में निरंतर हो रहा है । और अजपा है । यानी इसे जपना बिलकुल नहीं होता । सिर्फ़ स्वांसों पर ध्यान लगाना होता है ।
7 ये सार शब्द या परमात्मा की कभी बात न करेंगे । और यदि कोई चालू काल दूत हुआ तो वो सिर्फ़ बात ही करेगा । मध्य मार्ग का रास्ता और आत्म प्रकाश कभी नहीं दिखा पायेगा


8 ये चिकने चुपङे आकर्षक भागवत कथा वाचकों के रूप में नरक का भय और स्वर्ग का लालच दिखाकर आपको फ़ँसायेंगे । और मुक्ति को इतना सरल बतायेंगे । जैसे मुक्ति कोई रसगुल्ला खाना हो । इनसे भागवत करा लो । बस हो गये मुक्त ?
9 इनमें एक और खास बात होती है । जो काल पुरुष से इन्हें शक्ति के रूप में मिली होती है । ये पास आने वाले जिज्ञासुओं को आसानी से कुछ अलौकिक मायावी अनुभव करा देते हैं । जिससे मनुष्य तेजी से इन पर विश्वास कर लेता है ।
10 इनका ज्ञान टाल मटोल टायप का होगा । जिससे न तो आपकी जिज्ञासा शान्त होगी । और न आत्मिक तसल्ली ही प्राप्त होगी । क्योंकि भेङिये का काम भेङ को खाना ही है ।
11 मैं फ़िर कहूँगा । अगर इन धूर्त दुष्टों की असलियत जाननी हो । तो सिर्फ़ 100 रुपये मूल्य की कबीर वाणी अनुराग सागर अवश्य पढें ।
--ooo--
व्यवधान आ गया । अभी और भी जुङेगा ।

26 जून 2012

सोचिये ऐसा कर्म फ़ल कब और क्यों बनता है ?


1 कुछ इंसानी फ़ोटो देखता हूँ । कहने को तो फ़ोटो हैं । चित्र ? पर मैं जानता हूँ । इन चित्रों के पीछे सत्य है । कई जन्मों पहले के कर्म । रंग । विचार । आज आकृति रूप होकर उभरे हैं । आप भी देखते होंगे - ऐसे फ़ोटो ?
2 एकाएक दया । घिन । भगवान के प्रति आक्रोश । अन्यायी भगवान आदि तमाम विचार आते होंगे । क्योंकि फ़ोटो ( या साक्षात ) आपको विचलित कर गया है । कहीं अन्दर तक झिंझोङ गया है - अरे  ! ऐसा भी होता है ।
3 फ़िर आप निश्चित हो जाते हैं - अरे ! अपने अपने कर्म हैं । जैसा किया है । भोगना ही होगा । दुनियाँ है । लेकिन यहाँ थोङा सा गलती आपसे हो रही है । क्योंकि जाने अनजाने ऐसे ही बहुत से कर्म आपके भी संचित हो रहे हैं । हो चुके हैं ।
4 बस आपको उनका पता नहीं है । ठीक उसी तरह । जिसकी जेब नोटों से भरी होती है । उसे जैसे कोई फ़िक्र ही नहीं होती । पर गरीब की जिन्दगी रोटी दाल का जुगाङ करते ही निकल जाती है । लेकिन एक दिन जेब का माल खर्च हो जाने पर सबको गरीब होना है ।
5 और ये धन तेजी से घट रहा है । आप भले ही मरते मरते काजू बादाम की मिठाई खाकर मरो । पर बस यहीं तक । फ़िर धन का बैलेंस शून्य 0 हो ही जायेगा । और ऐसा कोई रूप आकार लिये कोई स्थिति आपके सामने आयेगी ।
6 अगर नहीं । इसके प्रति आप निश्चित हैं । तो फ़िर गौर से सोचिये । इन्होंने आखिर ऐसा क्या किया ? जो ये फ़ल रूप हुआ । थोङा सा ही गौर करने पर आपको सम्मझ आ जायेगा  । किसी न किसी प्रकार का अभिमान ।
7  शरीर का अभिमान । सुन्दरता का अभिमान । धन का अभिमान । पद का अभिमान । जाति का कुल का अभिमान । ताकत का अभिमान । यौवन का अभिमान । अभिमानों की ये श्रंखला बेहद बङी है ।
8 और अभिमान का सीधा सा मतलब है । वही पदार्थ MATTER अपने अन्दर create करना । बस थोङा सा गहराई से सोचें । तो वही चित्र तो आपके अन्दर भी बन रहा है - घृणा । द्वेष । नफ़रत । लालच । तिरस्कार ।
9 इसीलिये सन्त मत में सम रहने को सर्वश्रेष्ठ माना गया है । और सम होने का मतलब ये भी नहीं है कि - आप ऐसे किसी लाचार जरूरत मन्द को देखकर चुपचाप निकल जाओ । बल्कि बहुत दया या बहुत दुखी भी होने के बजाय । एक डाक्टर की तरह उससे सहायक व्यवहार करो । ये श्रेष्ठ है ।
10 इसी को सफ़ल परमार्थ कहा गया है । और ऐसे फ़ोटो ( लोगों ) को देखकर आप लगभग भयभीत से हुये सचेत हो जाईये । चिंतन कीजिये । विचारकों की सहायता लीजिये । और सोचिये । ऐसा कर्म फ़ल कब और क्यों बनता है ? 
11 कहीं ऐसा तो नहीं ? ऐसा कोई कर्म फ़ल आपका बन चुका  हो । या बहुत से कर्म फ़ल अनजाने में बन रहे हो । इसलिये बङे सचेत होकर इंसानी जीवन जीना होता है । क्योंकि ये कर्म योनि है । छोटी सी गलती भयंकर सजा का रूप ले सकती है । 
12 यहाँ से उत्थान कर भगवान बन जाना भी संभव है । और पतन होने पर तुच्छ गन्दगी का कीङा भी । लाखों साल की स्वर्गिक सम्पदा और भोग भी हासिल हो सकता है । और ऐसा ही युगों के समान लगने वाला कष्टकारी और अपमान युक्त जीवन भी ।
13  पर अभी भी बहुत कुछ आपके हाथ में है । हालांकि जो कर्म हो चुका है । उसे किसी हालत में भुगते बिना नहीं बचा जा सकता - काया से जो पातक होई । बिन भुगते छूटे नहीं कोई । कोई न काहू सुख दुख कर दाता ।  निज कर कर्म भोग सब भ्राता ।
14 पर फ़िर भी  2 स्थितियाँ अभी भी हैं । एक गरीबी की स्थिति में रोग के कष्ट से पीङित बिना इलाज तङप तङप कर जीना । और दूसरी - धन होने पर उस रोग का समुचित इलाज  और दर्द निवारक दवाओं से दर्द से राहत ।
15 और इस धन का मतलब यही है । सत गुण द्वारा सत ऊर्जा ( द्वैत भक्ति में ) एकत्र कर धनी होना । योग द्वारा तम ( तामसिक गुणों ) का नाश करना । इस तरह कर्म फ़ल दुख तो देता है । पर सहनीय स्थिति में ।

16 जिस प्रकार कुत्ता बिल्ली आदि पशु जीव भी अपने पूर्व कर्म संस्कारों के आधार पर कोई दूध मलाई खाते हैं । और कोई टुकङे टुकङे को दर दर भटकते हैं । मार खाते हैं । कोई मखमली बिस्तर पर सोते हैं । और कोई गन्दी नाली में लोटते हैं ।
17 इसलिये बङी सावधानी से कर्म निर्माण के प्रति इंसान को सतर्क रहना चाहिये । क्योंकि चिङियाँ खेत चुग जायें । फ़िर पछताने से कुछ नहीं होगा । इसलिये कर्मों की इस फ़सल को सावधानी से बीजारोपण करें । और खाद पानी दें ।

22 जून 2012

मुझे नहीं लगता कि - कोई भगवान होता है ?

श्री सदगुरु महाराज की जय ! एक लेख जो मन में इधर उधर की घटा जोड़ को बुन कर सामने आया । प्रस्तुत कर दिया है । बाकी आप इसमें बहुत सी जगह कुछ जोड़ सकते हैं । हमारे एक मित्र हैं दिल्ली में । जिनका नाम है बंटी । अब मित्र हैं । तो जाहिर है । सप्ताह में एक बार 3-4 घंटे आराम से साथ गुजारते ही होंगे । अभी पिछले सप्ताह मिले । तो काफी परेशान से लग रहे थे । कारण पूछा । तो बोलने लगे । झाड़ने फिलासफी - जिंदगी इतनी मुश्किल होगी । सोचा न था । जब जिंदगी ही ऐसी है । तो मौत के बाद की हालत क्या होगी ?
मुझे नहीं लगता कि - कोई भगवान होता है ? एक आदमी अपने जीवन में कितनी ही कठिनाइयाँ झेलता है । उसके बाद भी नतीजा वही - ढाक के तीन पात । मेरे बहुत समझाने पर सीधा सीधा बताया कि - यार ! काम धाम ठीक नहीं चल रहा । इसलिए परेशान हूँ । तब मैंने कहा - सिर्फ एक ये ही लाइन है । जो मुझे समझ आयी । बाकी सब तो ऊपर से निकल
रहा था । दरअसल ये हमारा स्वभाव ही है कि जहाँ मन को थोड़ी ख़ुशी मिलती है । उस चीज से चिपक कर ही बैठना चाहता हैं । मन बहुत चालाक होता है । हमेशा उसके पीछे भागता है । जो हमारे पास नहीं होती । और जब हम उसे प्राप्त कर लेते हैं  ।तब यही मन किसी और अभिलाषा को मजबूत कर । हम पर सवार होकर । उसकी प्राप्ति के लिए हमें चाबुक मारता रहता है । और जब कोई चीज छूट जाती है । तब हमारा हाल भी बेचारे बंटी जी जैसा ही हो जाता है । बंटी जी की समस्या सुनकर हमारा मन भी कुप्पा हो गया । और सोचा । चलो आज ये पोंगा पंडित इन पर सुने सुनाये प्रवचन की वर्षा कर देते हैं । तब मैंने उन्हें एक कहानी ..हाँ कहानी भी कह सकते हैं सुनाई ।
बंटी भाई ! कभी तुमने कुम्हार को देखा है ? तब बेचारे ने कुम्हार के गधे जैसे ही मुँह लटकाकर कहा - 
नहीं..। कुम्हार बर्तन बनाने की प्रक्रिया में सबसे पहले एक ख़ास प्रकार की मिटटी का चयन करता है । "काली चिकनी मिटटी "  फिर मिटटी ढोकर अड्डे पर ले जाता है । उसे छोटे छोटे डलों में करके पानी डाल कर अपने पैरों से रौंदता है । जब वही मिटटी एकसार हो जाती है । तब वह आगे की प्रक्रिया के लिए तैयार हो जाती है । बंटी यार ! अब बता । अगली प्रक्रिया क्या है ? तब वो कहता है - तू कहानी चालु रख । एग्जाम टाइम बाद में । खैर ! अगली प्रक्रिया है । चक्करघिन्नी । अर्थात चाक । अब कुम्हार मिटटी को चाक पर चढ़ा कर एक आकार देता है । वह आकार कुम्हार की मर्जी और मिटटी की गुणवत्ता पर ही निर्भर करता है । उसने एक घड़ा बनाया । और साइड में धूप में रख दिया । और इस प्रकार मिटटी को कई और आकार दिए । और धुप में रख दिया । अब कुम्हार अपने बनाये बर्तनों को देखता है । और खुश होता है । अरे यह क्या..यह मटका आकार में थोडा गड़बड़ा गया । अरे ये क्या । कुम्हार तो मटके की पिटाई ही करने लगा । नहीं यार ! पिटाई नहीं । ये उसे आकार दे 
रहा है । हाँ ! अब ठीक है । अब सारे बर्तन धूप में सूखने के लिए रख दिए । एक दिन । दो दिन । तीन दिन । अरे यार ! सुख तो गए । अब क्या ? अब आता है - final process ! वो क्या है ? वो है । इनको भट्टी में तपाना । भट्टी से निकल कर इनमें मजबूती और निखार आयेगा । अब कुम्हार इन्हें भट्टी में रख कर भट्टी तपाता है । और यह क्रिया सप्ताह से लेकर एक पखवाड़े तक का समय मौसम अनुसार लेती है ।
लो बंटी भैया ! अब बताओ । बर्तन तो बाहर आ गए । क्या ये तैयार हैं ? अब बंटी का गुस्सा - यार मैं अपनी
परेशानी में मरा जा रहा हूँ । और तू कहानियाँ सुना सुना कर एग्जाम ले रहा है । तो सुन भाई ! अब बर्तन भी तेरी ही तरह एक और final एग्जाम से गुजरेंगे । कुम्हार एक एक बर्तन को उठाता है । जगह जगह से ठोकता है । कान लगा कर आवाजें सुनता है । किसी बर्तन का निरीक्षण करते हुए खुश होता है । और उन्हें अलग रख देता है । और किसी किसी में मायूस सा होकर उन्हें अलग रख देता है । पहले वाले बर्तन जिन पर कुम्हार खुश होता था । अब पूरी तरह से तैयार 
है । दूसरे किस्म के बर्तन में कुछ दुबारा भट्टी में जायेंगे । और बचे हुए बर्तन बेकार हो गए । और जो बेकार हो गए । वो पूरी तरह से बेकार हो गए । क्योंकि अब न वो वापिस मिटटी हो सकते हैं । और न बर्तन । तीसरा कोई रास्ता नहीं ।
देख भाई बंटी ! जिस तरह से इस मिटटी को तरह तरह की प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है । ठीक उसी तरह हमें भी इन्ही से गुजरना पड़ता है । हम दुःख से व्याकुल तो हो जाते है । परन्तु ये नहीं जानते कि इस दुख की प्रक्रिया से गुजर कर जो नई स्थिति बनती है । वह कितनी सुख कर है । परन्तु उसे भी आगे किसी और प्रक्रिया से होकर गुजरना है । ताकि उसमें और निखार आ सके । और यह प्रक्रिया अंत तक चलती ही रहती है ।
संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है । जो अपना वर्तमान रूप खोये बिना नया रूप धारण कर सके । आप अपने
आस पास की चीजों को ही लीजिये । जैसे - पलंग । मूल रूप लकड़ी का सपाट बोर्ड । प्रक्रिया काटना ठोकना । कीलें भेदना । चिपकाना । रंदा लगना । तब कही जाकर पलंग रूप लेना । मटके का तो उदाहरण प्रस्तुत ही है । इसी प्रकार आध्यात्मिक उन्नति के इच्छुक को भी अपना वर्तमान अहम भाव तोड़ कर नाम के मर्दन की विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है । तब जो रूप सामने आता है । तो वह गुरु में समां कर गुरु रूप ही होता है ।
अरे यार बंटी ! ये क्या । तेरी आँखों में आंसू । आंसू नहीं हैं । तेरी कहानी से मुझे एक हौंसला मिला है कि दुःख के एन आगे ही सुख प्रतीक्षा कर रहा है । देख बंटी ! अब न कहना कि - भगवान नहीं होता है । अब याद करके
उस आकार में टेढ़े मटके की पिटाई के समय की आवाज़ पर ध्यान दे । तेरी ही तरह रो रहा था - धब धब..हाय ! कितना दुःख है यहाँ । भगवान है कि नहीं.. धब धब । अरे मुर्ख ! जिस समय तू भगवान को दुहाई दे रहा था । उस समय तू खुद उस भगवान के हाथ में था । अगर उसका एक हाथ तुझे आकार दे रहा था । तेरी कमियों को दूर कर रहा था । तो दुसरा हाथ तेरी मदद के लिए अन्दर से तुझे थामे हुए भी था । अगर उसका तुझे अन्दर से सहारा न हो । तो मैं नहीं समझता कि तुझमे उसकी एक चोट मात्र भी बर्दाश्त करने की ताकत है ।
गुरु भी कुम्हार रूप में अगढ़ मिटटी को 
नाम के साथ मथ मथ कर अपने अनुसार एक नया रूप देता है ।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है । गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट । अंतर हाथ सहार दै । बाहर बाहै चोट ।
कुमति कीच चेला भरा । गुरु ज्ञान जल होय । जनम जनम का मोरचा । पल में डारे धोय ।
तीन लोक नौ खंड में । गुरु से बड़ा न कोई । करता करे न कर सके । गुरु करे सो होई ।
घड़ा बन जाने के बाद कुम्हार रूपी गुरु अपने प्रिय शिष्यों की परख भी करता है । उनका इम्तहान लेता है । यदि घड़ा कुम्हार के अनुसार टन टन करता ( अर्थात ज्ञान होने पर अभिमान भी
देखता है ) है । तो ठीक । वर्ना फिर चल बेटा भट्टी में ..। और जो बर्तन बेकार हो गए । जिन्हे गुरु ने नकार दिया । उनका तो न इस लोक में । न अन्य किसी लोक में कोई ठौर है । उन्होंने तो अपने ही हाथो अधोगति का वरन किया है ।
प्रस्तुति - अशोक कुमार दिल्ली से । आभार अशोक जी ।

16 जून 2012

Darling it's a computer not a husband


राम राम कहि जे जमुहाहीं । तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं ?
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा । कुल समेत जगु पावन कीन्हा ।
जो लोग राम राम कहकर जँभाई लेते हैं ( अर्थात आलस से भी जिनके मुँह से राम नाम का उच्चारण हो जाता है ) पापों के समूह ( कोई भी पाप ) उनके सामने नहीं आते । फिर इस गुह को तो स्वयं राम ने हृदय से लगा लिया । और कुल समेत इसे जगत पावन ( जगत को पवित्र करने वाला ) बना दिया ।


करम नास जलु सुरसरि परई । तेहि को कहहु सीस नहिं धरेई ।
उलटा नामु जपत जगु जाना । बालमीकि भए बृह्म समाना ???
कर्मनाशा नदी का जल गंगा में मिल जाता है । तब उसे कौन सिर पर धारण नहीं करता ? जगत जानता है कि उलटा नाम ( स्वांस में गूँजता अजपा महामंत्र ) जपकर वाल्मीकि बृह्म के समान हो गये ।
कपटी कायर कुमति कुजाती । लोक बेद बाहेर सब भाँती ।
राम कीन्ह आपन जबही तें । भयउ भुवन भूषन तबही तें । 
मैं कपटी । कायर । कुबुद्धि और कुजाति हूँ । और लोक वेद दोनों से सब प्रकार से बाहर हूँ । पर जबसे राम ने मुझे अपनाया है । तभी से मैं विश्व का भूषण हो गया । 
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई । जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ??
तुम्हरिहि कृपा तुम्हहि रघुनंदन । जानहिं भगत भगत उर चंदन ।
वही आपको जानता है । जिसे आप जना देते हैं । और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है । हे रघुनंदन ! हे भक्तों के हृदय को शीतल करने वाले चंदन । आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं ।
काम कोह मद मान न मोहा । लोभ न छोभ न राग न द्रोहा ?
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया । तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया ।
जिनके न तो - काम । क्रोध । मद । अभिमान । और मोह हैं । न लोभ है । न क्षोभ है । न राग है । न द्वेष है । और न कपट । दम्भ और माया ही है । हे रघुराज ! आप उनके हृदय में निवास कीजिए ।
सब के प्रिय सब के हितकारी । दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी ।
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी । जागत सोवत सरन तुम्हारी ।
जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं । जिन्हें दुख और सुख तथा प्रशंसा ( बड़ाई ) और गाली ( निंदा ) समान है । जो विचार कर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं । तथा जो जागते सोते आपकी ही शरण हैं ।
जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई । प्रिय परिवार सदन सुखदाई ।
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई । तेहि के हृदय रहहु रघुराई ।
जाति । पाँति । धन । धर्म । बड़ाई । प्यारा परिवार । और सुख देने वाला घर । सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किए रहता है । हे रघुनाथ ! आप उसके हृदय में रहिए ।
सरगु नरकु अपबरगु समाना । जहँ तहँ देख धरें धनु बाना ।
करम बचन मन राउर चेरा । राम करहु तेहि कें उर डेरा ।
स्वर्ग । नरक । और मोक्ष । जिसकी दृष्टि में समान हैं । क्योंकि वह जहाँ तहाँ ( सब जगह ) केवल धनुष बाण धारण किए आपको ही देखता है । और जो कर्म से । वचन से । और मन से आपका दास है । हे राम ! आप उसके हृदय में डेरा कीजिए ।
रामहि केवल प्रेमु पिआरा । जानि लेउ जो जान निहारा ।
सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि । जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि । 
राम को केवल प्रेम प्यारा है । जो जानने वाला हो ( जानना चाहता हो ) वह जान ले ।लक्ष्मण सीता और राम की ( अथवा लक्ष्मण और सीता राम की ) ऐसी सेवा करते हैं । जैसे अज्ञानी मनुष्य शरीर की करते हैं । 
बोले लखन मधुर मृदु बानी । ग्यान बिराग भगति रस सानी ।
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता । निज कृत करम भोग सबु भ्राता ।
तब लक्ष्मण ज्ञान । वैराग्य । और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले - हे भाई ! कोई किसी को सुख दुख का देने वाला नहीं है । सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं ।
जोग बियोग भोग भल मंदा । हित अनहित मध्यम भृम फंदा ।
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू । संपति बिपति करमु अरु कालू ।
संयोग ( मिलना )  वियोग ( बिछुड़ना )  भले बुरे भोग । शत्रु । मित्र । और उदासीन । ये सभी भृम के फंदे हैं । जन्म । मृत्यु । सम्पत्ति । विपत्ति । कर्म । और काल । जहाँ तक जगत के जंजाल हैं ।
धरनि धामु धनु पुर परिवारू । सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू ।
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं । मोह मूल परमारथु नाहीं ।
धरती । घर । धन । नगर । परिवार । स्वर्ग । और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं । जो देखने । सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं । इन सबका मूल मोह ( अज्ञान ) ही है । परमार्थतः ये नहीं हैं ।
सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ । जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जिय जोइ ? 
जैसे स्वपन में राजा भिखारी हो जाए या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इन्द्र हो जाए । तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है । वैसे ही इस दृश्य प्रपंच को हृदय से ऐसा ही जानना चाहिए ।
अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू । काहुहि बादि न देइअ दोसू ।
मोह निसा सबु सोवनिहारा । देखिअ सपन अनेक प्रकारा ??
ऐसा विचार कर क्रोध नहीं करना चाहिए । और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए । सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोने वाले हैं । और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वपन दिखाई देते हैं ।
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच बियोगी ।
जानिअ तबहिं जीव जग जागा । जब सब बिषय बिलास बिरागा ??
इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं । जो परमार्थी हैं । और प्रपंच ( मायिक जगत ) से छूटे हुए हैं । जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए । जब सम्पूर्ण भोग विलासों से वैराग हो जाये ।
होइ बिबेकु मोह भृम भागा । तब रघुनाथ चरन अनुरागा ।
सखा परम परमारथु एहू । मन क्रम बचन राम पद नेहू ।
विवेक होने पर मोह रूपी भृम भाग जाता है । तब ( अज्ञान का नाश होने पर )  रघुनाथ के चरणों में प्रेम होता है । हे सखा ! मन । वचन । और कर्म से राम के चरणों में प्रेम होना । यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ ( पुरुषार्थ ) है ।
धरमु न दूसर सत्य समाना । आगम निगम पुरान बखाना ?
संभावित कहुँ अपजस लाहू । मरन कोटि सम दारुन दाहू ।
वेद । शास्त्र और पुराणों में कहा गया है कि - सत्य के समान दूसरा धर्म नहीं है । प्रतिष्ठित पुरुष के लिए अपयश की प्राप्ति करोड़ों मृत्यु के समान भीषण संताप देने वाली है । हे तात ! मैं 
मेटि जाइ नहिं राम रजाई । कठिन करम गति कछु न बसाई ?
जासु नाम सुमिरत एक बारा । उतरहिं नर भव सिंधु अपारा ??
राम की आज्ञा मेटी नहीं जा सकती । कर्म की गति कठिन है । उस पर कुछ भी वश नहीं चलता ।1 बार जिनका नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भव सागर के पार उतर जाते हैं ? और जिन्होंने ( वामन  

07 जून 2012

काल चक्की में पिसता है जीव

मैं कर्मों के ( आंतरिक ) रूप स्पष्ट देखता हूँ । जब आप बुरा कर रहे होते हो । जब आप अच्छा कर रहे होते हो । उनका ( कर्म ) आकार निराधार छाया की भांति आपके ऊपर खङा होता है । और तब आप किसी प्रेत किसी दैवीय आवेश की भांति प्रेरित होकर कुछ भी सोचे बिना कर्म करते चले जाते हो । ऐसा आपने भी बहुत बार देखा होगा । पर आप में और मुझमें फ़र्क इतना है कि - मैं आंतरिक पदार्थ और उससे बनी आक्रुति को भी देखता हूँ । और जीव की उस समय की बाह्य स्थिति को भी । जबकि आप सिर्फ़ बाह्य स्थिति को ही देख पाते हैं । यदि आप उस तमाशे में सलंग्न नहीं हो । उसमें आपकी कोई भूमिका नहीं है । तब आप निश्चय ही जान जाते हो - यह पूरा झगङा बेकार का ही हो रहा है । यह कोई समझदारी नहीं है । यदि इसको ये बात समझ आ जाये । उसको वो बात समझ आ जाये । तो वास्तव में कोई गम्भीर बात ही नहीं है । दुनियाँ के सारे झगङे लङाईयाँ अज्ञान और नासमझी की ही उपज है । इतना तो साधारण इंसान भी तटस्थ होकर देखने से समझ लेता है । जब वह किसी झगङे को बाहर से देखता है । तमाशा देखने वाले तमाशा हो नहीं जाना । पर जैसा कि मैंने कहा - आप झूठे अहम रूपी शराब के नशे में डूबे हो । तब शराब का नशा असर करेगा ही । जो भी पदार्थ ( संस्कार ) आपके अन्दर कृमशः उभरता चला आ रहा है । वह अपनी रासायनिक क्रिया करेगा ही । इसलिये आप भले ही अभी अभी एकदम शान्त बैठे थे । लेकिन जैसे ही समय अनुसार पदार्थ ऊपर आया । और उससे जुङा ( संस्कार रूपी ) दूसरा जीव आया । झगङे और प्रेम की स्थिति बनने
लगी । इसी को परवशता कहते हैं । आप खूब जानते हैं । लङना अच्छी बात नहीं । ईर्ष्या राग द्वेष अच्छा नहीं । पर आप करने पर मजबूर हो जाते हैं । इसी को होनी कहा जाता है । जिसके आगे सभी वेवश होते हैं । अब भाग्यवश मेरी तरह आपको संस्कारों के आंतरिक यम आकार दिखाई देने लगे । तो आप समझ जायें कि - झगङा ये कर ही नहीं रहा । दुखी ये हो ही नहीं रहा । 33 करोङ वृतियाँ आवृत हुयी अपना पोषण प्राप्त कर रही हैं । जिनसे कभी सुदूर भूतकाल में ये जीव वासना के वशीभूत घोर अज्ञान वश आसक्त हुआ था । और अब समय आने पर उसका परिणाम फ़ल बन रहा है ।
इसी में सम होना कहा गया है । बिना विचारे जो करे । सो पाछे पछताय । काम बिगारे आपनो । जग में 
होत हँसाय । आप इंसानी स्तर पर इसका उपाय इतना ही कर सकते हैं कि बुरी परिभाषा में आने वाले कार्यों को करने से पहले 100 बार सोचें । उसको यथासंभव टालने की कोशिश ही करें ।
इसको और समझें । यदि आप कोई गलत चीज ( यहाँ पूर्व या पूर्व जन्म के संस्कार ) खा गये हैं । और वह नुकसान ( परिणाम ) करने लगी है । तो सचेत हो जायें । किसी डाक्टर ( गुरु ) से कोई औषधि ( ज्ञान ) लें । जिससे ये विषमता दूर हो । इसका और कोई इलाज नहीं है ।
फ़िर से ऊपर वाली बात पर आते हैं । आंतरिक दृष्टि रखने वाले ज्ञानियों को यहीं अफ़सोस होता है । किसी भी अच्छे बुरे भोग में इस बेचारे जीव ( आत्मा ) का कोई हाथ ही नहीं होता । समस्त इन्द्रियाँ और उनके देवता ही यह भोग भोगते हैं । और इन सबका भोग निचोङ काल रूपी मन भोगता है । ये जीव सिर्फ़ यह मानने भर से कि इस इन्द्रिय समूह से निर्मित ये शरीर मैं हूँ । और मैं ही मन रूप भी हूँ । ये भयानक व्याधियाँ उसे लग जाती हैं । मजा कोई और लेता है । सजा भोगता कोई और है । ये 33 करोङ देवता तुम्हारे ही आश्रित हैं । ये काल
रूप मन भी तुम्हारा गुलाम ही है । ये माया ( अष्टांगी ) तुम्हारी दासी है । पर तुम वासनाओं के जुये में हार कर 5 महाबली पांडवों ( शरीर ) की तरह दीन हीन हो गये हो । और बस तुम्हारी गलती इतनी ही थी कि दुष्ट ( हजारों ) कौरवों ( नीच वृतियों ) से प्रेरित होकर तुम जुये ( विषय वासनाओं ) में प्रवृत हो गये । और सब कुछ हार गये ।
यहाँ और भी समझें । वासनाओं से ( जिन्दगी के ) इस जुये में हार ही हार होनी है । जीतना कभी नहीं होगा । क्योंकि ये जुआ छल का जुआ है । दुष्ट देवता न जबरन तुमसे जुआ खिला रहे हैं । बल्कि मति भृष्ट कर पासे भी गलत फ़िंकवा रहे हैं । क्योंकि तुमने अपने बुद्धि विवेक को ताले में बन्द कर दिया है । अन्यथा पहले तो जुआ ही नहीं खेलते ।
जब इस जीव ( मनुष्य ) का निर्माण होकर इसकी शुरूआत हुयी थी । तब यह पूर्णतः शुद्ध  विवेकी था । आखों से अच्छा ही देखता था । देवता ( चक्षु ) ने इसे पाप संकृमित कर दिया । क्योंकि फ़िर वे वासनात्मक तृप्त नहीं होते । तब ये अच्छा बुरा दोनों देखने लगा । यही कान के साथ हुआ । और अच्छा बुरा दोनों सुनने लगा । फ़िर नाक । मुँह । जीभ । त्वचा । वाणी । मन । हाथ । पैर सभी इन्द्रियों को देवताओं ने दूषित कर दिया । और वे अच्छे बुरे दोनों ही कार्य करने लगे । अन्त में प्राण ( स्वांस ) बचा । इसमें देवताओं की प्रविष्टि नहीं थी । वे इसस थर थर कांपते थे । अतः देवता इसको संकृमित नहीं कर पाये । तब यही वो 1 मात्र उपाय था । जिससे जीव सत्य को जान सकता था । असली शान्ति और सुख को प्राप्त हो 
सकता था । चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोय । दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय । संसार रूपी चक्की के पाप पुण्य रूपी दो पाट हैं  अतः पापी हो । या पुण्यात्मा दोनों ही इसमें पिस रहे हैं ।
कबीर ने जब ये बात कही । तो काल पुरुष द्वारा नियुक्त काल दूत रूपी उनका विरोधी पुत्र कमाल बोला कि - चक्की के मानी ( बीच में लकङी कीली वाला स्थान ) से आ जाने वाले ( पुण्य से कुछ देर सुरक्षित स्थान पा जाने वाले । जैसे स्वर्ग । या 4 प्रकार की काल मुक्ति आदि आदि ) तो बच जाते हैं ।
तब कबीर ने कहा - कुछ ( समय ) देर के लिये । लेकिन जैसे ही फ़िर वो पाट के नीचे ( पुण्य समाप्त होने पर 84 में फ़ेंक दिये जाने पर ) आते हैं । इसी काल चक्की में पिसते हैं । इस काल चक्की से सिर्फ़ वही बचता है । जो
गुरु ज्ञान से चालाकी से काम लेता हुआ इस पाप पुण्य रूपी चक्की से छिटक कर अलग हो जाता है ।
साहेब ।
चलते चलते 1 मजेदार और अनुभूत बात याद आ गयी । आप कबीर पंथ के साधुओं में बैठें । तो वे अक्सर इस तरह कहते हैं - एक निरंजना ( काल पुरुष या त्रिदेव का पिता ) हतो ( था ) एक अधिया ( अष्टांगी या आध्या शक्ति या महादेवी ) हती ( थी ) दोनों ने विषय भोग करो ( किया ) और सृष्टि हुय ( हो ) गयी ।
मैं जब शुरू शुरू में सतसंग करता था । तो काल पुरुष और माया बङा बिघ्न डालते थे । जैसे ही जीव में चेतना जागृत होती । वह आत्मिक झंकृत होने लगता । कोई न कोई विघ्न आ जाता । क्योंकि काल मन रूप ही है । वह तर्क कुतर्क भी करने लगता । तब मुझे यकायक कबीर पंथियों का यही फ़ार्मूला याद आया । और जैसे ही किसी भी माध्यम से विघ्न होता । मैं कहता - अच्छा छोङो । ये सुनो । एक निरंजना ( काल पुरुष या त्रिदेव का पिता ) हतो ( था ) एक अधिया ( अष्टांगी या आध्या शक्ति या महादेवी ) हती ( थी ) दोनों ने विषय भोग करो..।
अब क्योंकि वहाँ अप्रत्यक्ष काल पुरु्ष ही होता था । सो वह घबरा जाता । और तुरन्त शान्त हो जाता । या दूसरे जीव के
रूप में आया विघ्न तुरन्त रफ़ूचक्कर हो जाता । मैंने पहले भी ये लिखा है - ये काल पुरुष मुझसे बहुत घबराता है । और इसकी पत्नी ( सृष्टि की पहली औरत ) अष्टांगी तो मुझसे 100 हाथ दूर भागती है । क्योंकि वो अच्छी तरह जानती हैं - राजीव बाबा अलग ही स्टायल का बाबा है । इसका कोई भरोसा नहीं । कब क्या हरकत कर दे ।