राजीव भाई को ... हार्दिक बधाई । एक सच्चे गुरु से जुड़ने । और निज ज्ञान को । हम जैसे अभी तक निगुरों में बाँटने की । इसके साथ ही कोटिश: प्रणाम । ज्ञात हो द्वैत और अद्वैत में भेद की बात आप बताते हैं । पर मुझे तो इनमें कोई विशेष अन्तर दिखाई नहीं देता । द्वैत ( संसार ) में भी चमचागिरी करने वाले फलीभूत हो रहे हैं । और अद्वैत ( परमात्मा के राज ) में भी भक्ति का ही बोलबाला है । इसी तरह यहाँ भी दलालों के माध्यम से सब काम सुगमता से निपट जाते हैं । और वहां पर भी गुरुओं का ही साम्राज्य है ।
कृपा करके द्वैत और अद्वैत में इन समानताओं के अलावा कोई भेद हो । तो बताने की कृपा करेंगे ।
बहुत पहले अपनी तुच्छ समझ से गुरु के सम्बन्ध में कुछ विचार एक डायरी में मैंने कलमबंद किये थे । उसके कुछ अंश आपको भेज रहा हूँ । कृपया नीर क्षीर विवेक द्वारा मुझे अच्छी तरह समझाने का यत्न करेंगे । क्योंकि मन की गांठे इतनी आसानी से नहीं टूटती । पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार से हैं ।
तुम कहते हो । गुरु बिन ज्ञान नहीं । वे कहते हैं । हम स्वयं अपने गुरु हैं ।
आपमें से कौन सत्य कहता है ? कौन झूठ बोलता है ?
सच सिर्फ इतना है कि ज्ञान का सूर्य अहंकार के आवरण से ढका है ।
समर्पित कर दो अपने अहं को । किसी एक के चरणों में ।
उस एक को । चाहे तुम गुरु कहो । पुरषोत्तम कहो । या अंधकार को भगाने वाला सूर्य कहो ।
आवरण यदि हटा सकोगे । जिस किसी भी युक्ति से । तो पा जाओगे सूर्य को । ज्ञान के सूर्य को ।
मेरे एक परम मित्र थे । जो विचार धारा से साम्यवादी थे । और ईश्वर के अस्तित्व में उनका कोई विश्वास नहीं था । उनसे इस बारे में कई बार बहस भी होती थी । पर एक बात जो उनकी मुझे बहुत आकर्षित करती थी । वह ये कि अर्थशास्त्र के अच्छे ज्ञाता और नगर के प्रभावी व्यक्ति होते हुए भी उनमे गर्व का लेश मात्र भी कभी देखा नहीं गया । अब वे दिवंगत हो चुके । पर उनकी स्मृतियाँ अभी भी ताज़ी है । और उनके जीवन से मैंने ये जाना कि भले और सफल व्यक्तित्व के लिए ईश्वर वादी होना कोई जरुरी नहीं । इस सम्बन्ध में भी आपका मार्गदर्शन चाहूँगा । आशा है । आप मुझे निराश नहीं करेंगे । और मेरी जिज्ञासाओं का समुचित समाधान करेंगे ।
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UP में एक बङी मजेदार कहावत है - दे मढी में आग बाबा दूर भये । इसका मतलब होता है कि कहीं पर दस बीस
व्यक्ति प्रेम से बातचीत कर रहे थे । तब किसी एक व्यक्ति ने कोई ऐसी बात छेङ दी । जिससे विवाद होने लगा । घमासान विवाद । और ये शुरू कराने वाला व्यक्ति पल्ला झाङकर खिसक गया । एक अन्य अर्थ में किसी व्यक्ति द्वारा कोई कार्य छेङ दिया गया । यानी उसमें दूसरों को उलझा दिया । और खुद नौ दो ग्यारह हुये ।
कुछ कुछ ऐसे ही होते हैं । आप सभी के प्रश्न । जिनका सामना मुझे प्रारम्भ से ही करना पङ रहा है । सोचिये एक बात । युगों युगों से जिस पर अरबों खरबों लोगों द्वारा निरन्तर शोध हो रहा है । तपस्या हो रही हैं । धार्मिक साहित्य का विविधता से पूर्ण भण्डार भरा पङा है । उसके बारे में कोई ठोस निर्णयात्मक अन्दाज में बात कहने से पहले । कोई तर्क रखने से पहले । उसके तुलनात्मक आपकी निजी योग्यता क्या है ? इस पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है । आपका जीव स्तर । और ईश्वर का ईश स्तर । क्या तुलना हो सकती है ? कविता में चन्द्रमा को चन्दा मामा कहा जाता है । जन मानस बहुत समय तक कहता रहा - बुङिया
चरखा कात रही है । बैज्ञानिकों ने उसे जानकारियों सहित उपग्रह बताया ।
आज कोई बिज्ञान से अपरिचित व्यक्ति चन्द्रमा के बारे में कोई तथ्य बताये । उसकी बात का कोई महत्व होगा ? लेकिन अगर कोई बैज्ञानिक मौजूद तथ्यों से विपरीत भी कोई असंभव सी बात कहे । तो उसकी बात पर सभी गौर करेंगे । क्योंकि उसे बात कहने का अधिकार प्राप्त है । उसके शोध जानकारियों उपलब्धियों का इतिहास है ।
इसलिये मुझे बहुत हँसी आती है । जब अपनी ही कालोनी को भी ठीक से न जानने वाले विश्व के बारे में बङे विश्वास से बताते हैं । अपने ही घर को न संभाल पाने वाले । समाज को देश को संभालने का नारा देते हैं । आप अपने ही घर की बिजली ( बिज्ञान ) तक खराब होने पर ठीक नहीं कर पाते । और परमात्मा के ज्ञान बिज्ञान को जानने का दावा करते हैं । जिसमें अच्छे अच्छे धुरंधर सिर पटक कर चले गये । हाँ हमारे पास इसका एक समृद्ध इतिहास मौजूद न होता । ये प्रश्न आपने आदि मानव युग में किया होता । फ़िर कोई दिक्कत की बात नहीं थी । सोचिये । ये धर्म बिज्ञान क्यों लिखा गया है ?
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समर्पित कर दो अपने अहं को । किसी एक के चरणों में - किसके चरणों में करोगे ? कोई जान पहचान ? कोई नाम पता ठिकाना ? चलिये । आगरा में बहुत सी नामालूम सी बैंक खुली हैं । जो चार साल में पैसा दुगना करती हैं । जबकि स्थापित विश्वसनीय बैंक आठ साल में । डाल दीजिये । इसी में से किसी
एक में धन । डाल सकते हैं ? बहुत सी भाग भी चुकी हैं । लोग लुट कर हाय हाय कर रहे हैं । ऐसा कई बार हो चुका है । फ़िर भी खुद ही गर्दन कटवाने पहुँच जाते हैं ।
ऐसे ही आप जैसे कवि ह्रदय कोमल ह्रदय जब शरीरान्त के बाद काल कसाई के हाथों में पङते हैं । और वह तप्त शिला पर आपका चबैना भूनता है । तब चिल्लाते हैं - हमने तो तुझे ही समर्पण किया था । और वह एक ही बात कहता है - किस आधार पर ? उसके पीछे कोई ठोस वजह थी । कोई जानकारी थी ? या अन्धा समर्पण । मनमुखी समर्पण । ठीक यही बात ( जब रास्ते में जीवात्मा भूख प्यास और कष्ट की बात कहता है ) यमदूत भी कहते हैं - जो कुछ दान पुण्य़ करने का दावा करते हो । उसका कोई बिज्ञान था । या अपने मन से ही धर्मात्मा
बन गये थे । बन गये थे । तो अब पता करो । वो सब कहाँ गया । यहाँ कोई लिखा पढी है ही नहीं उसकी । तेरा कोई खाता ही नहीं ।
सोचिये - आप मामूली सी 50 पैसे की टाफ़ी बच्चे को दिलवाते समय अच्छी बुरी सोचते हैं । आपकी पत्नी 2 रुपये का बैंगन खरीदते समय 50 उलट पलट निरीक्षण करती है । आपका नादान बच्चा भी दुकान में अपने लिये बङिया का चुनाव लर लेता है । इस हिसाब से भगवान और भक्ति की कीमत 50 पैसे भी नहीं मानी आपने । रद्दी के भाव भी तो नहीं कह सकता । वो भी 8 रुपया किलो है आजकल ।
खैर चलिये । अगले मेल तक चुन लीजिये । किसी एक को ? जिसको समर्पण करना चाहे ? मुझे सिर्फ़ उसका नाम बताईये । मैं आपको उसका प्रमाणित बायो डाटा बताऊँगा । समर्पण तो दूर । उसका नाम लेते भी कंपकंपी आ जायेगी ।
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और अद्वैत ( परमात्मा के राज ) में भी भक्ति का ही बोलबाला है - ये आपकी मिथ्या धारणा मात्र है । सच तो यह है । आप भक्ति शब्द का अर्थ भी नहीं जानते । आपने विभक्त शब्द सुना है । इसका मतलव होता है - अलग । जुदा । तब भक्त का सीधा अर्थ हुआ - जुङा हुआ । कनेक्टिड । यहीं पर योग और सहज योग का अन्तर भी समझ लें । द्वैत योग में प्राप्ति ( योग ) का मतलब होता है । ऊर्जा शक्ति का अपने योग और क्षमता अनुसार संग्रह कर लेना । जैसे विभिन्न उपयोग की बैटरी चार्ज करके ऊर्जा का संग्रह कर लेना । अब क्षमता का अर्थ है । जितनी ज्यादा और बङी बैटरी आप लेने की क्षमता रखते हैं । और फ़िर चार्ज करने की । यही कुण्डलिनी या द्वैत योग है ।
जबकि अद्वैत या सहज योग का मतलब है । उस अक्षय ऊर्जा स्रोत से ही कनेक्ट हो जाना । जिसके द्वारा ही सर्वत्र ऊर्जा का निरन्तर वितरण हो रहा है । और जाहिर है । द्वैत हो या अद्वैत । ऊर्जा की प्राप्ति बिना गुरु ( ज्ञान ) के नहीं हो सकती । और बाद में उसका उपयोग भी । यहाँ गुरु का अर्थ किसी व्यक्ति विशेष से करने के बजाय ज्ञान से करें । क्योंकि किसी भी ऊर्जा के उपयोग दुरुपयोग हेतु भी ज्ञान अति आवश्यक है ।
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इसी तरह यहाँ भी दलालों के माध्यम से सब काम सुगमता से निपट जाते हैं - एक स्थापित सत्य है कि आँखों
पर जिस रंग का चश्मा पहन लो । दुनियाँ वैसी ही नजर आने लगती है । दलालों की उत्पत्ति किसने की ? उनको पोषण कौन देता है ? दलाल शब्द वैश्यावृति के लिये बहुत प्रसिद्ध है । और जाहिर है । इसको नीचता की उपाधि मिली है । लेकिन फ़िर जो इनके माध्यम से वैश्या के पास जाते हैं । वो कौन होते हैं ? नाली के कीङे ।
लेकिन ये लिखते समय भी आपने परिपक्वता का परिचय नहीं दिया । दलाल - क्या वो मुफ़्त में कार्य करवायेगा ? दलाल - क्या वो नियम के विपरीत कार्य करवा सकता है ? अब बात वहीं आ जाती हैं । आप दलाल को अतिरिक्त फ़ीस दे रहें हैं । कार्य की नियम अनुसार फ़ीस दे रहें हैं । और फ़िर भी कार्य नियम से ही हो रहा है । तेरी सत्ता ( मर्जी ) के बिना । हिले ना पत्ता । खिले ना एक हू फ़ूल । हे मंगल मूल ।
तो आपको मेहनत और अतिरिक्त धन ( दलाल को ) तो फ़िर भी देना पङा । फ़िर सुगमता किस बात की ? मुझे बङी हैरानी और अफ़सोस भी है । जब भारतवर्ष का 60 वर्षीय व्यक्ति ऐसी नासमझी की बात कहता है - इसी तरह यहाँ भी दलालों के माध्यम से सब काम सुगमता से निपट जाते हैं । और वहां पर भी गुरुओं का ही साम्राज्य है । कृपा करके द्वैत और अद्वैत में इन समानताओं के अलावा कोई भेद हो । तो बताने की कृपा करेंगे ।
क्या जानते हैं । आप वहाँ के बारे में ? क्या अनुभव है आपको । इस बात के पीछे क्या आधार है ? क्या आपके 60
वर्षीय जीवन में सूर्य एक मिनट भी अपनी डयूटी से टस से मस हुआ ? चन्द्र । मंगल आदि बृह्माण्डीय गतिविधियों में कोई मनमानी देखी । नदियाँ । वृक्ष । सागर । प्रथ्वी भयभीत से कितनी मुस्तैदी से डयूटी कर रहे हैं । इतना सख्त नियम है उसका कि महा शक्तियाँ भी अवज्ञा की सोच कर ही थरथरा उठती हैं । और ये तब है । जब उसे किसी से कोई मतलब नहीं । और उसके दर्शन ( इन महाशक्तियों को ) तक इनको कभी नहीं होते । फ़िर आपकी बात का कोई आधार ही नहीं । उसकी वजह सिर्फ़ अज्ञानता ही है ।
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कृपा करके द्वैत और अद्वैत में इन समानताओं के अलावा कोई भेद हो । तो बताने की कृपा करेंगे - बात वही है । आपने तो सिर्फ़ एक लाइन लिख दी । लेकिन लिखते समय तनिक भी विचार करने की आवश्यकता नहीं समझी । चलिये । मैं उलट कर आपसे पूछता हूँ । मेरे सभी ब्लाग्स में क्या लिखा है ? क्या आपने उसको ठीक से पढा है ? ध्यान रहे । ये प्रश्न मैं 60 वर्ष के व्यक्ति से कर रहा हूँ । अगले मेल में खास खास बिन्दु बतायें ।
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ईश्वर के अस्तित्व में उनका कोई विश्वास नहीं था । उनसे इस बारे में कई बार बहस भी होती थी । पर एक बात जो उनकी मुझे बहुत आकर्षित करती थी । वह ये कि अर्थशास्त्र के अच्छे ज्ञाता और नगर के प्रभावी व्यक्ति होते हुए भी उनमे गर्व का लेश मात्र भी कभी देखा नहीं गया - गौर से देखिये ।
अपने ही इन शव्दों को । मुझे बहुत हँसी आयी । ये इंसान सर्वोच्च अहंकारियों में से एक थे । और आप उनके अनुसरण कर्ता । एक साम्यवादी होना । वर्गीय अहंकार । साम्यवाद कोई स्थापित सिद्धांत नहीं । कोई ऐसा श्रेष्ठ समूह संगठन भी नहीं । जिसने उच्च विचार धारा का इतिहास रचा हो । कोई क्रांति की हो । कोई कीर्तिमान बनाया हो । मेरे निजी विचार से साम्यवाद एक खोखली सोच मात्र है । सच तो ये है । समाज में बहुत दूर की बात । देश में और भी दूर । एक घर में साम्यवाद नहीं चल सकता । कभी नहीं । नेवर । क्यों ? देखिये अपने आसपास । और मंथन करिये ।
लेकिन छोङिये । ये बहुत छोटा सा अहंकार था । अपने ही शब्द फ़िर से देखें - अर्थशास्त्र के अच्छे ज्ञाता । जाहिर है । आप उन्हें करीब से जानते थे । तब आप ये लिखते कि - ईश्वर विषय के अच्छे ज्ञाता । होने के बाबजूद - ईश्वर के अस्तित्व में उनका कोई विश्वास नहीं था । तब बात विचारणीय थी । लेकिन
इस मामले में तो वे 0 बटा 0 थे । अगर कुछ % होते । तो वो महत्वपूर्ण तथ्य आपको बताते । और आपने निश्चय ही इसी मेल में उन्हें लिखा भी होता । अरबों धर्म बैज्ञानिकों के प्रमाणित शोध को उस स्थिति में नकारना । जबकि खुद को उसकी A B C D भी नहीं मालूम । विनमृता की गजब परिभाषा है ।
मुझसे बहुत से लोग कहते हैं कि - वह बहुत सज्जन है । विनमृ है । मैं कहता हूँ । किसी पर अहसान कर रहे हैं । झगङा करना । पंगा लेना । उनके बस की बात ही नहीं है । तब आप ही विनमृ हो जायेंगे । रास्ता चलते ऐसे विनमृ लोगों की पत्नी बहन बेटियों को देखकर अराजक तत्व अश्लील फ़िकरे कसते हैं । ऊल जुलूल हरकतें करते हैं । बहन बेटी अपमानित होकर रह जाती है । और विनमृ सिर झुकाये चले जाते हैं । जैसे पता ही न हो । इतने ज्यादा विनमृ हैं ? बताईये किस काम की ऐसी विनमृता ? इसलिये हर चीज समय अनुसार आवश्यक है । अहंकार । झगङा । शान्ति । सज्जनता । विनमृता । सभी उपयोगी हैं ।
कृपा करके द्वैत और अद्वैत में इन समानताओं के अलावा कोई भेद हो । तो बताने की कृपा करेंगे ।
बहुत पहले अपनी तुच्छ समझ से गुरु के सम्बन्ध में कुछ विचार एक डायरी में मैंने कलमबंद किये थे । उसके कुछ अंश आपको भेज रहा हूँ । कृपया नीर क्षीर विवेक द्वारा मुझे अच्छी तरह समझाने का यत्न करेंगे । क्योंकि मन की गांठे इतनी आसानी से नहीं टूटती । पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार से हैं ।
तुम कहते हो । गुरु बिन ज्ञान नहीं । वे कहते हैं । हम स्वयं अपने गुरु हैं ।
आपमें से कौन सत्य कहता है ? कौन झूठ बोलता है ?
सच सिर्फ इतना है कि ज्ञान का सूर्य अहंकार के आवरण से ढका है ।
समर्पित कर दो अपने अहं को । किसी एक के चरणों में ।
उस एक को । चाहे तुम गुरु कहो । पुरषोत्तम कहो । या अंधकार को भगाने वाला सूर्य कहो ।
आवरण यदि हटा सकोगे । जिस किसी भी युक्ति से । तो पा जाओगे सूर्य को । ज्ञान के सूर्य को ।
मेरे एक परम मित्र थे । जो विचार धारा से साम्यवादी थे । और ईश्वर के अस्तित्व में उनका कोई विश्वास नहीं था । उनसे इस बारे में कई बार बहस भी होती थी । पर एक बात जो उनकी मुझे बहुत आकर्षित करती थी । वह ये कि अर्थशास्त्र के अच्छे ज्ञाता और नगर के प्रभावी व्यक्ति होते हुए भी उनमे गर्व का लेश मात्र भी कभी देखा नहीं गया । अब वे दिवंगत हो चुके । पर उनकी स्मृतियाँ अभी भी ताज़ी है । और उनके जीवन से मैंने ये जाना कि भले और सफल व्यक्तित्व के लिए ईश्वर वादी होना कोई जरुरी नहीं । इस सम्बन्ध में भी आपका मार्गदर्शन चाहूँगा । आशा है । आप मुझे निराश नहीं करेंगे । और मेरी जिज्ञासाओं का समुचित समाधान करेंगे ।
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UP में एक बङी मजेदार कहावत है - दे मढी में आग बाबा दूर भये । इसका मतलब होता है कि कहीं पर दस बीस
व्यक्ति प्रेम से बातचीत कर रहे थे । तब किसी एक व्यक्ति ने कोई ऐसी बात छेङ दी । जिससे विवाद होने लगा । घमासान विवाद । और ये शुरू कराने वाला व्यक्ति पल्ला झाङकर खिसक गया । एक अन्य अर्थ में किसी व्यक्ति द्वारा कोई कार्य छेङ दिया गया । यानी उसमें दूसरों को उलझा दिया । और खुद नौ दो ग्यारह हुये ।
कुछ कुछ ऐसे ही होते हैं । आप सभी के प्रश्न । जिनका सामना मुझे प्रारम्भ से ही करना पङ रहा है । सोचिये एक बात । युगों युगों से जिस पर अरबों खरबों लोगों द्वारा निरन्तर शोध हो रहा है । तपस्या हो रही हैं । धार्मिक साहित्य का विविधता से पूर्ण भण्डार भरा पङा है । उसके बारे में कोई ठोस निर्णयात्मक अन्दाज में बात कहने से पहले । कोई तर्क रखने से पहले । उसके तुलनात्मक आपकी निजी योग्यता क्या है ? इस पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है । आपका जीव स्तर । और ईश्वर का ईश स्तर । क्या तुलना हो सकती है ? कविता में चन्द्रमा को चन्दा मामा कहा जाता है । जन मानस बहुत समय तक कहता रहा - बुङिया
चरखा कात रही है । बैज्ञानिकों ने उसे जानकारियों सहित उपग्रह बताया ।
आज कोई बिज्ञान से अपरिचित व्यक्ति चन्द्रमा के बारे में कोई तथ्य बताये । उसकी बात का कोई महत्व होगा ? लेकिन अगर कोई बैज्ञानिक मौजूद तथ्यों से विपरीत भी कोई असंभव सी बात कहे । तो उसकी बात पर सभी गौर करेंगे । क्योंकि उसे बात कहने का अधिकार प्राप्त है । उसके शोध जानकारियों उपलब्धियों का इतिहास है ।
इसलिये मुझे बहुत हँसी आती है । जब अपनी ही कालोनी को भी ठीक से न जानने वाले विश्व के बारे में बङे विश्वास से बताते हैं । अपने ही घर को न संभाल पाने वाले । समाज को देश को संभालने का नारा देते हैं । आप अपने ही घर की बिजली ( बिज्ञान ) तक खराब होने पर ठीक नहीं कर पाते । और परमात्मा के ज्ञान बिज्ञान को जानने का दावा करते हैं । जिसमें अच्छे अच्छे धुरंधर सिर पटक कर चले गये । हाँ हमारे पास इसका एक समृद्ध इतिहास मौजूद न होता । ये प्रश्न आपने आदि मानव युग में किया होता । फ़िर कोई दिक्कत की बात नहीं थी । सोचिये । ये धर्म बिज्ञान क्यों लिखा गया है ?
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समर्पित कर दो अपने अहं को । किसी एक के चरणों में - किसके चरणों में करोगे ? कोई जान पहचान ? कोई नाम पता ठिकाना ? चलिये । आगरा में बहुत सी नामालूम सी बैंक खुली हैं । जो चार साल में पैसा दुगना करती हैं । जबकि स्थापित विश्वसनीय बैंक आठ साल में । डाल दीजिये । इसी में से किसी
एक में धन । डाल सकते हैं ? बहुत सी भाग भी चुकी हैं । लोग लुट कर हाय हाय कर रहे हैं । ऐसा कई बार हो चुका है । फ़िर भी खुद ही गर्दन कटवाने पहुँच जाते हैं ।
ऐसे ही आप जैसे कवि ह्रदय कोमल ह्रदय जब शरीरान्त के बाद काल कसाई के हाथों में पङते हैं । और वह तप्त शिला पर आपका चबैना भूनता है । तब चिल्लाते हैं - हमने तो तुझे ही समर्पण किया था । और वह एक ही बात कहता है - किस आधार पर ? उसके पीछे कोई ठोस वजह थी । कोई जानकारी थी ? या अन्धा समर्पण । मनमुखी समर्पण । ठीक यही बात ( जब रास्ते में जीवात्मा भूख प्यास और कष्ट की बात कहता है ) यमदूत भी कहते हैं - जो कुछ दान पुण्य़ करने का दावा करते हो । उसका कोई बिज्ञान था । या अपने मन से ही धर्मात्मा
बन गये थे । बन गये थे । तो अब पता करो । वो सब कहाँ गया । यहाँ कोई लिखा पढी है ही नहीं उसकी । तेरा कोई खाता ही नहीं ।
सोचिये - आप मामूली सी 50 पैसे की टाफ़ी बच्चे को दिलवाते समय अच्छी बुरी सोचते हैं । आपकी पत्नी 2 रुपये का बैंगन खरीदते समय 50 उलट पलट निरीक्षण करती है । आपका नादान बच्चा भी दुकान में अपने लिये बङिया का चुनाव लर लेता है । इस हिसाब से भगवान और भक्ति की कीमत 50 पैसे भी नहीं मानी आपने । रद्दी के भाव भी तो नहीं कह सकता । वो भी 8 रुपया किलो है आजकल ।
खैर चलिये । अगले मेल तक चुन लीजिये । किसी एक को ? जिसको समर्पण करना चाहे ? मुझे सिर्फ़ उसका नाम बताईये । मैं आपको उसका प्रमाणित बायो डाटा बताऊँगा । समर्पण तो दूर । उसका नाम लेते भी कंपकंपी आ जायेगी ।
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और अद्वैत ( परमात्मा के राज ) में भी भक्ति का ही बोलबाला है - ये आपकी मिथ्या धारणा मात्र है । सच तो यह है । आप भक्ति शब्द का अर्थ भी नहीं जानते । आपने विभक्त शब्द सुना है । इसका मतलव होता है - अलग । जुदा । तब भक्त का सीधा अर्थ हुआ - जुङा हुआ । कनेक्टिड । यहीं पर योग और सहज योग का अन्तर भी समझ लें । द्वैत योग में प्राप्ति ( योग ) का मतलब होता है । ऊर्जा शक्ति का अपने योग और क्षमता अनुसार संग्रह कर लेना । जैसे विभिन्न उपयोग की बैटरी चार्ज करके ऊर्जा का संग्रह कर लेना । अब क्षमता का अर्थ है । जितनी ज्यादा और बङी बैटरी आप लेने की क्षमता रखते हैं । और फ़िर चार्ज करने की । यही कुण्डलिनी या द्वैत योग है ।
जबकि अद्वैत या सहज योग का मतलब है । उस अक्षय ऊर्जा स्रोत से ही कनेक्ट हो जाना । जिसके द्वारा ही सर्वत्र ऊर्जा का निरन्तर वितरण हो रहा है । और जाहिर है । द्वैत हो या अद्वैत । ऊर्जा की प्राप्ति बिना गुरु ( ज्ञान ) के नहीं हो सकती । और बाद में उसका उपयोग भी । यहाँ गुरु का अर्थ किसी व्यक्ति विशेष से करने के बजाय ज्ञान से करें । क्योंकि किसी भी ऊर्जा के उपयोग दुरुपयोग हेतु भी ज्ञान अति आवश्यक है ।
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इसी तरह यहाँ भी दलालों के माध्यम से सब काम सुगमता से निपट जाते हैं - एक स्थापित सत्य है कि आँखों
पर जिस रंग का चश्मा पहन लो । दुनियाँ वैसी ही नजर आने लगती है । दलालों की उत्पत्ति किसने की ? उनको पोषण कौन देता है ? दलाल शब्द वैश्यावृति के लिये बहुत प्रसिद्ध है । और जाहिर है । इसको नीचता की उपाधि मिली है । लेकिन फ़िर जो इनके माध्यम से वैश्या के पास जाते हैं । वो कौन होते हैं ? नाली के कीङे ।
लेकिन ये लिखते समय भी आपने परिपक्वता का परिचय नहीं दिया । दलाल - क्या वो मुफ़्त में कार्य करवायेगा ? दलाल - क्या वो नियम के विपरीत कार्य करवा सकता है ? अब बात वहीं आ जाती हैं । आप दलाल को अतिरिक्त फ़ीस दे रहें हैं । कार्य की नियम अनुसार फ़ीस दे रहें हैं । और फ़िर भी कार्य नियम से ही हो रहा है । तेरी सत्ता ( मर्जी ) के बिना । हिले ना पत्ता । खिले ना एक हू फ़ूल । हे मंगल मूल ।
तो आपको मेहनत और अतिरिक्त धन ( दलाल को ) तो फ़िर भी देना पङा । फ़िर सुगमता किस बात की ? मुझे बङी हैरानी और अफ़सोस भी है । जब भारतवर्ष का 60 वर्षीय व्यक्ति ऐसी नासमझी की बात कहता है - इसी तरह यहाँ भी दलालों के माध्यम से सब काम सुगमता से निपट जाते हैं । और वहां पर भी गुरुओं का ही साम्राज्य है । कृपा करके द्वैत और अद्वैत में इन समानताओं के अलावा कोई भेद हो । तो बताने की कृपा करेंगे ।
क्या जानते हैं । आप वहाँ के बारे में ? क्या अनुभव है आपको । इस बात के पीछे क्या आधार है ? क्या आपके 60
वर्षीय जीवन में सूर्य एक मिनट भी अपनी डयूटी से टस से मस हुआ ? चन्द्र । मंगल आदि बृह्माण्डीय गतिविधियों में कोई मनमानी देखी । नदियाँ । वृक्ष । सागर । प्रथ्वी भयभीत से कितनी मुस्तैदी से डयूटी कर रहे हैं । इतना सख्त नियम है उसका कि महा शक्तियाँ भी अवज्ञा की सोच कर ही थरथरा उठती हैं । और ये तब है । जब उसे किसी से कोई मतलब नहीं । और उसके दर्शन ( इन महाशक्तियों को ) तक इनको कभी नहीं होते । फ़िर आपकी बात का कोई आधार ही नहीं । उसकी वजह सिर्फ़ अज्ञानता ही है ।
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कृपा करके द्वैत और अद्वैत में इन समानताओं के अलावा कोई भेद हो । तो बताने की कृपा करेंगे - बात वही है । आपने तो सिर्फ़ एक लाइन लिख दी । लेकिन लिखते समय तनिक भी विचार करने की आवश्यकता नहीं समझी । चलिये । मैं उलट कर आपसे पूछता हूँ । मेरे सभी ब्लाग्स में क्या लिखा है ? क्या आपने उसको ठीक से पढा है ? ध्यान रहे । ये प्रश्न मैं 60 वर्ष के व्यक्ति से कर रहा हूँ । अगले मेल में खास खास बिन्दु बतायें ।
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ईश्वर के अस्तित्व में उनका कोई विश्वास नहीं था । उनसे इस बारे में कई बार बहस भी होती थी । पर एक बात जो उनकी मुझे बहुत आकर्षित करती थी । वह ये कि अर्थशास्त्र के अच्छे ज्ञाता और नगर के प्रभावी व्यक्ति होते हुए भी उनमे गर्व का लेश मात्र भी कभी देखा नहीं गया - गौर से देखिये ।
अपने ही इन शव्दों को । मुझे बहुत हँसी आयी । ये इंसान सर्वोच्च अहंकारियों में से एक थे । और आप उनके अनुसरण कर्ता । एक साम्यवादी होना । वर्गीय अहंकार । साम्यवाद कोई स्थापित सिद्धांत नहीं । कोई ऐसा श्रेष्ठ समूह संगठन भी नहीं । जिसने उच्च विचार धारा का इतिहास रचा हो । कोई क्रांति की हो । कोई कीर्तिमान बनाया हो । मेरे निजी विचार से साम्यवाद एक खोखली सोच मात्र है । सच तो ये है । समाज में बहुत दूर की बात । देश में और भी दूर । एक घर में साम्यवाद नहीं चल सकता । कभी नहीं । नेवर । क्यों ? देखिये अपने आसपास । और मंथन करिये ।
लेकिन छोङिये । ये बहुत छोटा सा अहंकार था । अपने ही शब्द फ़िर से देखें - अर्थशास्त्र के अच्छे ज्ञाता । जाहिर है । आप उन्हें करीब से जानते थे । तब आप ये लिखते कि - ईश्वर विषय के अच्छे ज्ञाता । होने के बाबजूद - ईश्वर के अस्तित्व में उनका कोई विश्वास नहीं था । तब बात विचारणीय थी । लेकिन
इस मामले में तो वे 0 बटा 0 थे । अगर कुछ % होते । तो वो महत्वपूर्ण तथ्य आपको बताते । और आपने निश्चय ही इसी मेल में उन्हें लिखा भी होता । अरबों धर्म बैज्ञानिकों के प्रमाणित शोध को उस स्थिति में नकारना । जबकि खुद को उसकी A B C D भी नहीं मालूम । विनमृता की गजब परिभाषा है ।
मुझसे बहुत से लोग कहते हैं कि - वह बहुत सज्जन है । विनमृ है । मैं कहता हूँ । किसी पर अहसान कर रहे हैं । झगङा करना । पंगा लेना । उनके बस की बात ही नहीं है । तब आप ही विनमृ हो जायेंगे । रास्ता चलते ऐसे विनमृ लोगों की पत्नी बहन बेटियों को देखकर अराजक तत्व अश्लील फ़िकरे कसते हैं । ऊल जुलूल हरकतें करते हैं । बहन बेटी अपमानित होकर रह जाती है । और विनमृ सिर झुकाये चले जाते हैं । जैसे पता ही न हो । इतने ज्यादा विनमृ हैं ? बताईये किस काम की ऐसी विनमृता ? इसलिये हर चीज समय अनुसार आवश्यक है । अहंकार । झगङा । शान्ति । सज्जनता । विनमृता । सभी उपयोगी हैं ।