1 नकारात्मक मन हमेशा अहंकारी होता है । यह है अंतस सत्ता की अशुद्ध अवस्था । तुम अनुभव करते हो - मैं को । लेकिन तुम " मैं " का अनुभव गलत कारणों से करते हो । जरा ध्यान देना । अहंकार " नहीं " पर पलता है । जब कभी तुम कहते हो - नहीं । अहंकार उठ खडा होता है । जब कभी तुम हां कहते हो । अहंकार नहीं उठ सकता । क्योंकि अहंकार संघर्ष चाहता है । अहंकार चाहता है - चुनौती । अहंकार स्वयं को किसी के विरुद्ध रख देना चाहता है । किसी चीज के विरुद्ध । यह अकेला नहीं बना रह सकता है । इसे द्वैत चाहिए । 1 अहंकारी हमेशा संघर्ष की तलाश में रहता है । किसी के साथ । किसी चीज के साथ । किसी परिस्थिति के साथ का संघर्ष । वह हमेशा किसी चीज को खोज रहा है न कहने को । जीतने को । उसे विजित करने को ।
अहंकार हिंसक होता है । और " नहीं " 1 सूक्ष्मतम हिंसा है । जब तुम साधारण चीजों के प्रति भी नहीं कहते हो । वहां भी अहंकार उठ खडा होता है ।
1 छोटा बच्चा मां से कहता है - क्या मैं बाहर खेलने जा सकता हूं ? और वह कहती है - नहीं । कुछ बड़ी उलझन न थी । लेकिन जब मां कहती है - नहीं । तो वह अनुभव करती है कि - वह कुछ है ।
तुम रेलवे स्टेशन पर जाते हो । और तुम टिकट के लिए पूछते हो । क्लर्क तुम्हारी तरफ बिलकुल नहीं देखता । वह काम करता जाता है । चाहे कोई काम न भी हो । वह कह रहा है - नहीं । ठहरो । वह अनुभव करता है कि वह कुछ है । वह कोई है । इसलिए दफ्तरों में हर कहीं, तुम नहीं सुनोगे । हां बहुत कम है । बहुत दुर्लभ । 1 साधारण क्लर्क किसी को नहीं कह सकता है । तुम कौन हो ? इसका महत्व नहीं । वह शक्तिशाली महसूस करता है ।
नहीं कह देना तुम्हें ताकत की अनुभूति देता है । इसे याद रखना । जब तक यह बिलकुल आवश्यक ही न हो । हरगिज नहीं मत कहना । अगर यह बिलकुल आवश्यक भी हो । तो इसे इतने स्वीकारात्मक ढंग से कहो कि - अहंकार खड़ा न हो । तुम ऐसा कह सकते हो । नहीं भी इस ढंग से कहा जा सकता है कि यह हां की भांति लगता है । तुम इस ढंग से ही कह सकते हो कि यह नहीं की भांति लगता है । यह बात भाव भंगिमा पर निर्भर करती है । अभिवृत्ति पर निर्भर करती है ।
इसे खयाल में लेना । खोजियों को इसे सतत याद रखना पड़ता है कि तुम्हें सतत हां की सुवास में रहना होता है । आस्थावान ऐसा ही होता है । वह हाँ कहता है । जब नहीं की भी आवश्यकता हो । वह कहता है - हां । वह नहीं देखता कि जीवन में कोई प्रतिरोध है । वह स्वीकार करता है । वह अपने शरीर के प्रति हां कहता है । वह मन के प्रति हां कहता है । प्रत्येक के प्रति हां कहता है । वह संपूर्ण अस्तित्व के प्रति हां कहता है । जब तुम निरपेक्ष ही कहते हो बिना किन्हीं शर्तों के । तब परम खिलावट घटित होती है । तब अचानक अहंकार गिर जाता है । वह खड़ा नहीं रह सकता । इसे नकार के सहारे चाहिए होते हैं । नकारात्मक दृष्टिकोण अहंकार निर्मित करता है । विधायक दृष्टिकोण के साथ अहंकार गिर जाता है । और तब अस्तित्व शुद्ध होता है ।
संस्कृत में 2 शब्द हैं मैं के लिए - अहंकार और अस्मिता । इनका अनुवाद करना कठिन है । अहंकार मैं का गलत बोध है । जो नहीं कहने से चला आता है । अस्मिता सम्यक बोध है - मैं का । जो हाँ कहने से आता है । दोनों " मैं " हैं । 1 अशुद्ध है । नहीं अशुद्धता है । तुम नकारते हो । नष्ट करते हो । नहीं ध्वंसात्मक है । यह 1 बहुत सूक्ष्म विध्वंस है । इसका प्रयोग हरगिज मत करना । जितना तुमसे हो सके । इसे गिरा देना । जब कभी तुम सजग होओ । इसका उपयोग मत करना । आसपास का कोई मार्ग ढूंढने की कोशिश करो । अगर तुम्हें इसे कहना भी पड़े । तो इस ढंग से कहो कि इसकी प्रतीति हां की भांति हो । धीरे धीरे तुम्हारा तालमेल बैठ जायेगा । और हां द्वारा बहुत शुद्धता तुम्हारी ओर आती तुम अनुभव करोगे ।
फिर है - अस्मिता । अस्मिता अहकार विहीन अहं है । किसी के विरुद्ध मैं होने की अनुभूति नहीं होती । यह मात्र अनुभव करना है स्वयं का । स्वयं को किसी के विरुद्ध रखे बिना । यह तो तुम्हारे समग्र अकेलेपन को अनुभव करना है । और समग्र अकेलापन एक शुद्धतम अवस्था है । जब हम कहते हैं - मैं हूं । तो मैं अहंकार है । हूं है अस्मिता । वहां बस अनुभूति है हूं-पन की । इसके साथ कोई मैं नहीं जुड़ा । मात्र अस्तित्व को, होने को अनुभव करना । ही सुंदर है । नहीं असुंदर है ।
असंप्रज्ञात समाधि में, सारी मानसिक क्रिया की समाप्ति होती है । और मन केवल अप्रकट संस्कारों को धारण किये रहता है ।
संप्रज्ञात समाधि है - पहला चरण । इसमें अंतर्निहित है - सम्यक तर्क । सम्यक विचारणा । आनंद की अवस्था । आनंद की झलक । और हूं-पन की अनुभूति । शुद्ध सरल अस्तित्व । जिसमें कोई अहंकार न हो । यह संप्रज्ञात समाधि की ओर ले जाता है । पहला चरण है - शुद्धता । दूसरा है - तिरोहित होना । शुद्धतम भी अशुद्ध है । क्योंकि यह है । मैं असत है । हूं भी असत है । यह मैं से बेहतर है । लेकिन उच्चतर संभावना वहां होती है । जब हूं भी तिरोहित हो जाता है । केवल अहंकार ही नहीं । लेकिन अस्मिता भी । तुम अशुद्ध हो । फिर तुम शुद्ध बन जाते हो । लेकिन यदि तुम अनुभव करने लगो - मैं शुद्ध हूं । तो शुद्धता स्वयं अशुद्धता बन चुकी होती है । उसे भी तिरोहित होना है ।
शुद्धता का तिरोहित होना असंप्रज्ञात समाधि है । अशुद्धता का तिरोहित होना संप्रज्ञात समाधि है । शुद्धता का तिरोहित होना असंप्रज्ञात है । शुद्धता का भी तिरोहित हो जाना असंप्रज्ञात समाधि है । पहली अवस्था में विचार तिरोहित हो जाते हैं । दूसरी अवस्था में विचारणा, विचार करना भी तिरोहित हो जाता है । पहली अवस्था में कांटे छंट जाते हैं । दूसरी अवस्था में फूल भी तिरोहित हो जाते हैं । जब " नहीं " मिट जाता है पहली अवस्था में । तो " हां " बना रहता है । दूसरी अवस्था में हां भी मिट जाता है । क्योंकि हां भी नहीं के साथ संबंधित है ।
तुम हां को कैसे बनाये रख सकते हो - बिना नहीं के ? वे साथ साथ हैं । तुम उन्हें अलग नहीं कर सकते । अगर नहीं तिरोहित हो जाता है । तो तुम हां कैसे कह सकते हो ? गहन तल पर हां नहीं को नहीं कह रहा है । यह निषेध है निषेध का । 1 सूक्ष्म नहीं बना रहता है । जब तुम कहते हो - हां । तो क्या कर रहे हो तुम ? तुम नहीं तो नहीं कह रहे हो । लेकिन भीतर नहीं खड़ा है । तुम इसे बाहर नहीं ला रहे । यह अप्रकट है । तुम्हारी हां कोई अर्थ नहीं रख सकती । अगर तुम्हारे भीतर कोई नहीं न हो । क्या अर्थ होगा इसका ? यह अर्थहीन होगी । हां का तो अर्थ बनता है केवल नहीं के कारण । नहीं का अर्थ बनता है हां के कारण । वे द्वैत हैं । संप्रज्ञात समाधि में नहीं गिर जाता है । वह सब जो गलत है । गिर जाता है । असंप्रज्ञात समाधि में हां गिर चुका होता है । सब जो सम्यक है । सब जो शुद्ध है । वह भी गिर जाता है । संप्रज्ञात समाधि में तुम गिरा देते हो शैतान को । असंप्रज्ञात समाधि में तुम ईश्वर को भी छोड़ देते हो । क्योंकि बिना शैतान के भगवान कैसे अस्तित्व रख सकता है ? वे 1 ही सिक्के के 2 पहलू हैं ।
सारी क्रिया समाप्त हो जाती है । हां भी 1 क्रिया है । और क्रिया 1 तनाव है । कुछ हुआ जा रहा है । यह सुंदर भी हो सकता है । किंतु फिर भी कुछ हो तो रहा है । और 1 समय के बाद सुंदर भी असुंदर हो जाता है । 1 समय के बाद तुम फूलों से भी ऊब जाते हो । कुछ समय के बाद क्रिया, बहुत सूक्ष्म और शुद्ध हो । तो भी तुम्हें 1 तनाव देती है । यह 1 चिंता बन जाती है ।
असंप्रज्ञात समाधि में सारी मानसिक क्रिया की समाप्ति होती है । और मन केवल अप्रकट संस्कारों को धारण किये रहता है । किंतु फिर भी, यही ध्येय नहीं है । क्योंकि क्या होगा उन सब प्रभावों का, विचारों का जिन्हें तुमने अतीत में इकट्ठा किया है ? अनेक अनेक जन्मों को तुमने जिया है । अभिनीत किया है । प्रतिक्रिया की है । तुमने बहुत सारी चीजें की हैं । बहुत सी नहीं की हैं । क्या होगा उनका ? चेतन मन शुद्ध हो चुका है । चेतन मन ने शुद्धता की किया को भी गिरा दिया है । किंतु अचेतन बड़ा है । और वहां तुम सारे बीजों को वहन करते हो । सारी रूपरेखाओं को । वे तुम्हारे भीतर हैं ।
वृक्ष मिट चुका है । तुम संपूर्णतया काट चुके हो वृक्ष को । पर बीज जो गिर चुके हैं । वे धरती पर पड़े हुए हैं । वे फूटेंगे । जब उनका मौसम आयेगा । तुम्हारी 1 और जिंदगी होगी । तुम फिर पैदा होओगे । निस्संदेह तुम्हारी गुणवत्ता अब भिन्न होगी । किंतु तुम फिर पैदा होओगे । क्योंकि वे बीज अब भी जले नहीं हैं ।
तुमने उसे काट दिया है । जो व्यक्त हुआ था । उस चीज को काट देना सरल है । जिसकी अभिव्यक्ति हुई हो । सारे वृक्षों को काट देना आसान होता है । तुम बगीचे में जा सकते हो । और सारे लॉन को, घास को पूरी तरह उखाड़ सकते हो । तुम हर चीज को नष्ट कर सकते हो । पर 2 सप्ताह के भीतर ही घास फिर से बढ़ जायेगी । क्योंकि तुमने केवल उसे उखाड़ा था । जो प्रकट हुआ था । जो बीज मिट्टी में पड़े हुए हैं । उन्हें तुमने अब तक छुआ नहीं है । यही करना होता है तीसरी अवस्था में ।
असंप्रज्ञात समाधि अब भी सबीज है । बीजों सहित है । और विधियां मौजूद हैं उन बीजों को जलाने की । अग्रि निर्मित करने की । वह अग्रि जिसकी चर्चा हेराक्लतु करते हैं कि अग्रि कैसे निर्मित करें ? और अचेतन बीजों को जला दें । जब वे भी मिट जाते । तब भूमि नितांत शुद्ध होती है । कुछ भी नहीं उदित हो सकता इसमें से । फिर कोई जन्म नहीं । कोई मृत्यु नहीं । तब सारा चक्र तुम्हारे लिए थम जाता है । तुम चक्र के बाहर गिर चुके होते हो । और समाज से बाहर निकल आना कारगर न होगा । जब तक कि तुम भवचक्र से ही बाहर न आ जाओ । तब तुम 1 संपूर्ण समाप्ति बनते हो ।
बुद्ध संपूर्ण रूप से अलग हुए हैं । संपूर्ण समाप्ति हैं । महावीर पतंजलि संपूर्ण समाप्ति हैं । वे व्यवस्था या समाज से बाहर नहीं हुए हैं । वे जीवन और मृत्यु के चक्कर से ही बाहर हो गये हैं । पर तभी यह घटता है । जब सारे बीज जल गये हों । अंतिम है निर्बीज समाधि - बीजरहित । असंप्रज्ञात समाधि में मानसिक क्रिया की समाप्ति होती है । और मन केवल अप्रकट संस्कारों को धारण किये रहता है ।
विदेहियो और प्रकृतिलयों को असंप्रज्ञात समाधि उपलब्ध होती है । क्योंकि अपने पिछले जन्म में उन्होने अपने शरीरों के साथ तादात्म्य बनाना समाप्त कर दिया था । वे फिर जन्म लेते हैं । क्योंकि इच्छा के बीज बने रहते हैं ।
बुद्ध भी जन्म लेते हैं । अपने पिछले जन्म में वे असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध हो चुके थे । लेकिन बीज मौजूद थे । उन्हें 1 बार और आना ही था । महावीर भी जन्म लेते हैं । बीज उन्हें ले आते हैं । लेकिन यह अंतिम जन्म ही होता है । असंप्रज्ञात समाधि के पश्चात केवल 1 जीवन संभव है । लेकिन तब जीवन की गुणवत्ता संपूर्णतया भिन्न होगी । क्योंकि यह व्यक्ति देह के साथ तादात्थ नहीं बनायेगा । और इस व्यक्ति को वस्तुत: कुछ करना नहीं होता । क्योंकि मन की क्रिया समाप्त हो चुकी है । तो क्या करेगा वह ? इस जिंदगी की ही जरूरत किसलिए है ? उसे तो बस उन बीजों को व्यक्त होने देना है । और वह साक्षी बना रहेगा । यही है - अग्रि ।
1 व्यक्ति आया । और बुद्ध पर थूक दिया । वह क्रोध में था । बुद्ध ने अपना चेहरा पोंछा । और पूछा - तुम्हें और क्या कहना है ?' वह आदमी नहीं समझ सका । वह सचमुच क्रोध में था । लाल पीला हुआ जा रहा था । वह तो समझ ही न सका कि बुद्ध क्या कह रहे थे । और सारी बात ही इतनी बेतुकी थी । क्योंकि बुद्ध ने प्रतिक्रिया नहीं की थी । वह आदमी बिलकुल असमंजस में पड़ गया कि क्या करे । क्या कहे । वह चला गया । सारी रात वह सो नहीं सका । कैसे सो सकते हो तुम । जब किसी का अपमान कर दो । और प्रतिक्रिया ही न मिले ? तब तुम्हारा अपमान तुम्हारे पास वापस चला आता है । तुमने तीर फेंक दिया है । पर इसे प्रवेश नहीं मिला है । यह वापस आ जाता है । कोई आश्रय न पा यह वापस स्रोत तक लौट आता है । उसने बुद्ध का अपमान किया । किंतु अपमान वहां कोई आश्रय न पा सकता था । तो यह कहां जायेगा ? यह वास्तविक मालिक तक आ पहुंचता है ।
सारी रात वह व्यग्रता से बेचैन रहा था । वह विश्वास नहीं कर सकता था उस पर । जो घटित हुआ । और फिर उसने पछताना शुरू कर दिया । यह अनुभव करना कि वह गलत था कि उसने अच्छा नहीं किया । अगली सुबह बहुत जल्दी वह गया । और उसने क्षमा मांगी । बुद्ध बोले - इसके लिए चिंता मत करो । अतीत में जरूर मैंने तुम्हारे साथ कुछ बुरा किया है । अब हिसाब पूरा हो गया है । और मैं प्रतिक्रिया करने वाला नहीं । वरना यही बारबार होता रहेगा । खत्म हुई बात । मैं प्रतिक्रियात्मक नहीं हुआ । क्योंकि यह बीज कहीं था । इसे समाप्त होना ही था । अब मेरा हिसाब तुम्हारे साथ समाप्त हुआ ।
इस जीवन में कोई विदेह - जो जान लेता है कि वह देह नहीं है । जो असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध हो चुका है । संसार में आता है मात्र हिसाब किताब बंद करने को ही । उसका सारा जीवन समाप्त हो रहे हिसाबों से बना होता है । लाखों जन्म । ढेरों संबंध । बहुत सारे उलझाव और वादे हर चीज को समाप्त हो जाने देना है ।
ऐसा घटित हुआ कि बुद्ध 1 गांव में आये । सारा गांव एकत्रित हुआ । वे उत्सुक थे उन्हें सुनने को । यह 1 दुर्लभ अवसर था । राजधानियां भी सतत बुद्ध को आमंत्रित करती रहती थीं । और वे नहीं पहुंचते थे । किंतु वे इस गांव में आये । जो जरा मार्ग से हटकर था । और बिना किसी निमंत्रण के आये । क्योंकि ग्रामबासी कभी साहस न जुटा सकते थे । उनके पास जाने और उन्हें गांव में आने के लिए कहने का । यह थोड़ी सी झोपड़ियों वाला 1 छोटा सा गांव था । और बुद्ध बगैर किसी निमंत्रण के ही आ गये थे । सारा गांव उत्तेजना से प्रज्वलित था । और वे वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे । और बोल नहीं रहे थे ।
कुछ लोग कहने लगे - आप अब किसके लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं ? सब लोग है यहां । सारा गांव यहां है । आप आरंभ करें । बुद्ध बोले - पर मुझे प्रतीक्षा करनी है । क्योंकि मैं किसी के लिए यहां आया हूं । जो यहां नहीं है । 1 वचन पूरा करना है । 1 हिसाब पूरा करना है । मैं उसी के लिए प्रतीक्षा कर रहा हूं । फिर 1 युवती आयी । तो बुद्ध ने प्रवचन आरंभ किया । उनके बोलने के बाद लोग पूछने लगे - क्या आप इसी युवती की प्रतीक्षा कर रहे थे ? यह युवती तो अछूत है । सबसे नीच जाति की । कोई सोच तक न सकता था कि बुद्ध उसकी प्रतीक्षा कर सकते थे । वे बोले - हां, मैं उसकी प्रतीक्षा कर रहा था । जब मैं आ रहा था । वह मुझे राह में मिली । और वह बोली - जरा प्रतीक्षा कीजिएगा । मैं दूसरे शहर किसी काम से जा रही हूं । पर मैं जल्दी आऊंगी । और पिछले जन्मों में कहीं मैंने उसे वचन दिया था कि जब मैं संबोधि को उपलब्ध हो जाऊं । तो मैं आऊंगा । और जो कुछ मुझे घटा । उस बारे में उसे बताऊंगा । वह हिसाब पूरा करना ही था । वह वचन मुझ पर लटक रहा था । और यदि मैं इसे पूरा नहीं कर सकता । तो मुझे फिर आना होता ।
विदेह या प्रकृतिलय - दोनों शब्द सुंदर हैं । विदेह का अर्थ है वह । जो देह विहीनता में जीता है । जब तुम असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध होते हो । तो देह तो होती है । लेकिन तुम देह शून्य होते हो । तुम अब देह नहीं रहे । देह निवास स्थान बन जाती है । तुमने तादात्म्य नहीं बनाया । ये 2 शब्द सुंदर हैं - विदेह और प्रकृति लय । विदेह का अर्थ है - वह जो जानता है कि वह देह नहीं है । ध्यान रहे । जो जानता है । विश्वास ही नहीं करता है । प्रकृति लय वह है । जो जानता है कि वह शरीर नहीं है । अब वह प्रकृति नहीं रहा ।
देह भौतिक से संबंध रखती है । 1 बार तुम्हारा पदार्थ के साथ, बाह्य के साथ तादात्म्य टूट जाता है । तो तुम्हारा प्रकृति से संबंध विसर्जित हो जाता है । वह व्यक्ति जो इस अवस्था को उपलब्ध हो जाता है । जहां वह अब देह नहीं रहता । जो उस अवस्था को प्राप्त करता है । जिसमें अब वह अभिव्यक्त न रहा । प्रकृति न रहा । तब उसका प्रकृति से नाता समाप्त हो जाता है । उसके लिए अब कोई संसार नहीं । उसका अब कोई तादात्म्य नहीं है । वह इसका साक्षी बन गया है । ऐसा व्यक्ति भी कम से कम 1 बार पुनर्जन्म लेता है । क्योंकि उसे बहुत सारे हिसाब समाप्त करने होते हैं । बहुत वचन पूरे करने हैं । बहुत सारे कर्म गिरा देने हैं ।
ऐसा हुआ कि बुद्ध का चचेरा भाई देवदत्त उनके विरुद्ध था । उसने उन्हें मारने का बहुत तरीकों से प्रयत्न किया । बुद्ध ध्यान करते 1 वृक्ष के नीचे रुके थे । उसने पहाड़ से 1 विशाल चट्टान नीचे लुड़का दी । चट्टान चली आ रही थी । हर कोई भाग खड़ा हुआ । बुद्ध वहीं बने रहे वृक्ष के नीचे बैठे हुए । यह खतरनाक था । और वह चट्टान आयी उन तक । बस छूकर निकल गयी । आनंद ने उनसे पूछा - आप भी क्यों नहीं भागे । जब हम सब भाग खड़े हुए थे ? काफी समय था ।
बुद्ध बोले - तुम्हारे लिए काफी समय है । मेरा समय समाप्त है । और देवदत्त को यह करना ही था । पिछले किसी समय का, किसी जीवन का कोई कर्म था । मैंने उसे दी होगी कोई पीड़ा । कोई व्यथा, कोई चिंता । इसे पूरा होना ही था । यदि मैं बच निकलूं । यदि मैं कुछ करूं । तो फिर 1 नया जीवन अनुक्रम शुरू हो जाये ।
1 टिप्पणी:
मैं तो केवल सोम से शनिवार परम पूज्य सुधांशु जी महाराज जी को सुनता हूँ. संस्कार चेनल पर प्रातः ८:५० पर. मैं अपने आप को इस बात के लिए गलत पाता हूँ कि इन्हें मैंने इतने बर्षो पहले क्यों नहीं देख सुन नहीं पाया. फिर एक बात याद आती है जो महापुरषों ने कही है कि सत्संग बढे ही भाग्य से मिलता है. और इस ब्लॉग पर भी.
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