ॐ अथातो भक्ति जिज्ञासा - यह सुबह । यह वृक्षों में शांति । पक्षियों की चहचहाहट । या कि हवाओं का वृक्षों से गुजरना । पहाड़ों का सन्नाटा । या कि नदियां का पहाड़ों से उतरना । या सागरों में लहरों की हलचल, नाद । या आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट - यह सभी ॐकार है ।
ॐकार का अर्थ है - सार ध्वनि । समस्त ध्वनियों का सार । ॐकार कोई मंत्र नहीं । सभी छंदों में छिपी हुई आत्मा का नाम है । जहां भी गीत है । वहां ॐकार है । जहां भी वाणी है । वहां ॐकार है । जहां भी ध्वनि है । वहां ॐकार है । और यह सारा जगत ध्वनियों से भरा है । इस जगत की उत्पत्ति ध्वनि में है । इस जगत का जीवन ध्वनि में है । और इस जगत का विसर्जन भी ध्वनि में है । ॐ से सब पैदा हुआ । ॐ में सब जीता । ॐ में सब 1 दिन लीन हो जाता है । जो प्रारंभ है । वही अंत है । और जो प्रारंभ है । और अंत है । वही मध्य भी है । मध्य अन्यथा कैसे होगा ?
इंजील कहती है - प्रारंभ में ईश्वर था । और ईश्वर शब्द के साथ था । और ईश्वर शब्द था । और फिर उसी शब्द से सब निष्पन्न हुआ । वह ॐकार की ही चर्चा है । मैं बोलूं - तो ॐकार है । तुम सुनो । तो ॐकार है । हम मौन बैठें । तो ॐकार है । जंहा लयबद्धता है । वहीं ॐकार है । सन्नाटे में भी । स्मरण रखना । जहाँ कोई नाद नहीं पैदा होता । वहाँ भी छुपा हुआ नाद है । मौन का संगीत । शून्य का संगीत । जब तुम चुप हो । तब भी तो 1 गीत झरझर बहता है । जब वाणी निर्मित नहीं होती । तब भी तो सूक्ष्म में छंद बंधता है । अप्रकट है । अव्यक्त है । पर है तो सही । तो शून्य में भी और शब्द में भी ॐकार निमज्जित है । ॐकार ऐसा है जैसे सागर । हम ऐसे हैं । जैसे सागर की मछली ।
इस ओकार को समझना । इस ॐकार को ठीक से समझा नहीं गया है । लोग तो समझे कि 1 मंत्र है । दोहरा लिया । यह दोहराने की बात नहीं है । यह तो तुम्हारे भीतर जब छंदोबद्धता पैदा हो । तभी तुम समझोगे - ॐकार क्या है ? हिंदू होने से नहीं समझोगे । वेदपाठी होने से नहीं समझोगे । पूजा का थाल सजाकर ॐकार की रटन करने से नहीं समझोगे । जब तुम्हारे जीवन में उत्सव होगा । तब समझोगे । जब तुम्हारे जीवन में गान फूटेगा । तब समझोगे । जब तुम्हारे भीतर झरने बहेगे । तब समझोगे । ॐ से शुरुआत अदभुत है ।
अथातोभक्तिजिज्ञासा - उस ॐ में सब आ गया । अब आगे विस्तार होगा । जो जानते हैं । उनके लिए ॐ में सब कह दिया गया । जो नहीं जानते । उनके लिए बात फैलाकर कहनी होगी । अन्यथा शास्त्र पूरा हो गया ॐकार पर । ॐकार बनता है 3 ध्वनियों से - अ, उ, म । ये 3 मूल ध्वनिया है । शेष सभी ध्वनियां इन्हीं ध्वनियो के प्रकारातर से भेद हैं । यही असली त्रिवेणी है - अ, उ, म । यही त्रिमूर्ति है । यही शब्द ब्रह्म के 3 चेहरे हैं । सब शास्त्र अ, उ, म में समाहित हो गये । हिंदुओं के हों कि मुसलमानो के कि ईसाइयों के कि बौद्धों के कि जैनों के । भेद नहीं पड़ता । जो भी कहा गया है अब तक । और जो नहीं कहा गया । सब इन 3 ध्वनियों में समाहित हो गया है । ॐ कहा । तो सब कहा । ॐ जाना । तो सब जाना । इसलिए वेद घोषणा करते हैं कि जिसने ॐकार को जान लिया । उसे जानने को कुछ और शेष नहीं रहा । निश्चित ही यह उस ॐकार की बात नहीं है । जो तुम अपने पूजागृह में बैठकर दोहरा लेते हो । यह ॐकार तो तुम्हारे पूरे जीवन की सुगंध की तरह प्रकट होगा । तो समझोगे ।
तुम्हारे जीवन में बड़ी छंदहीनता है । तुम्हारा जीवन टूटा फूटा हुआ सितार है । जिसके तार या तो बहुत ढीले हैं । या बहुत कसे हैं । और जिस तार पर कैसे अंगुलियां रखें ? उसका शास्त्र ही तुम भूल गए हो । और जिस सितार को कैसे बजाएं ? कैसे निनादित करें ? उसकी भाषा ही तुम्हें नहीं आती । तुम सितार लिए बैठे हो । सितार में छिपा संगीत तुम्हारी प्रतीक्षा करता है । और जीवन बड़ी पीड़ा से भरा है । यह सारी पीड़ा रूपांतरित हो सकती है । तुम गाओ । तुम गुनगुनाओ । तुम्हारे भीतर की सरिता बहे । तुम नाचो । भक्ति जीवन का परम स्वीकार है । इसलिए शुभ ही है कि शांडिल्य अपने इस अपूर्व सूत्र ग्रंथ का उदघाटन ॐ से करते हैं । ठीक ही है । क्योंकि भक्ति जीवन में संगीत पैदा करने की विधि है । जिस दिन तुम संगीत पूर्ण हो जाओगे । जिस दिन तुम्हारे भीतर 1 भी स्वर ऐसा न रहेगा । जो व्याघात उत्पन्न करता है । जिस दिन तुम बेसुरे न रहोगे । उसी दिन प्रभु मिलन हो गया । प्रभु कहीं और थोड़े ही है - छंदबद्धता में है । लयबद्धता मे है । जिस दिन नृत्य पूरा हो उठेगा । गान मुखरित होगा । तुम्हारे भीतर का छंद जिस क्षण स्वच्छंद होगा । उसी क्षण परमात्मा से मिलन हो गया । इसलिए तो कहते हैं वेद कि - ॐ को जिन्होंने जान लिया । उन्हें जानने को कुछ शेष न रहा । यह शास्त्र में लिखे हुए ॐ की बात नहीं है । यह जीवन में अनुभव किए गए । अनुभूत छंद की बात है । गायत्री तुम्हारे भीतर छिपी है । भगवद गीता भी । कुरआन की आयते तुम्हारे भीतर मचल रही हैं । तङफ़ रही है - मुक्त करो । तुम्हारे भीतर बड़ा रुदन है । जैसे किसी वृक्ष मे हो । जिसके फूल नहीं खिले । जैसे किसी नदी में हो । चट्टानों के कारण जो बह न सकी । और सागर से मिल न सकी ।
जिस वृक्ष में फूल नहीं आते । उसकी पीड़ा जानते हो ? है और नहीं जैसा । जब तक फूल न आएं । और जब तक सुगंध छिपी है जो पड़ी प्राणों में । जड़ों से जो मुक्त होना चाहती है । जो पक्षी बनकर उड़ जाना चाहती है । आकाश में । जो पंख फैलाना चाहती है । जो पक्षी बनकर उड़ जाना चाहती है आकाश में । जो पंख फैलाना चाहती है । जो चांद तारो से बात करना चाहती है । बहुत दिन हो गये कारागृह में जड़ों की पड़े पड़े । जो छूट जाना चाहती है सब जंजीरों से । जब तक वह सुगंध फूलों से मुक्त न हो जाए । तब तक वृक्ष तृप्त कैसे हो ? तब तक कैसी तृप्ति, कैसा संतोष, कैसी शांति, कैसा आनंद ? तब तक वृक्ष उदास है । ऐसे ही वृक्ष तुम हो ।
तुम्हारे भीतर ॐकार पड़ा है - बंधन में । जंजीरों में । मुक्त करो उसे । गाओ । नाचो । ऐसे नाचो कि नाचने वाला मिट जाए । और नाच ही रह जाए । उस क्षण नाचो । ऐसे नाचो कि नाचने वाला मिट जाय । और नाच ही रह जाए । उस क्षण पहचान होगी ॐकार से । ऐसे गाओ कि गायक न बचे । गीत ही रह जाए । उस क्षण तुम भगवदगीता हो गये । जिस क्षण गाने वाला भीतर न हो । और गान अपनी सहज स्फुरणा से बहे । उस क्षण तुम कुरआन हो गये । उस दिन तुम्हारे भीतर परम काव्य का जन्म हुआ । उस दिन जीवन साधारण न रहा । असाधारण हुआ । उस दिन जीवन में दीप्ति आयी । आभा उपजी । इसलिए ॐ से प्रारंभ है ।
इस ॐ में इशारा है कि तुम अभी ऐसे वृक्ष हो । जिसके फूल नहीं खिले हैं । और बिना फूल खिले कोई संतुष्टि नहीं है । कोई परितोष नहीं है ।
ॐ अथातोभक्तिजिज्ञासा - और यह तुम्हें खयाल में आ जाए कि मेरे फूल अभी खिले नहीं कि मेरे फल अभी लगे नहीं कि मेरा वसंत आया नहीं है कि मैं जो गीत लेकर आया था । मैंने अभी गाया नहीं कि जो नाच मेरे पैरों में पड़ा है । मैंने घूंघरू भी नहीं बांधे । वह नाच अभी उन्मुक्त भी नहीं हुआ । यह तुम्हें समझ में आ जाए तो । अथातोभक्ति जिज्ञासा । फिर भक्ति की जिज्ञासा । उसके पहले भक्ति उसके पहले भक्ति की कोई जिज्ञासा नहीं हो सकती ।
भक्ति की जिज्ञासा का अर्थ ही यह है कि - मैं टूटा फूटा हूं अभी । मुझे जुड़ना है । मैं अधूरा अधूरा हूं अभी । मुझे पूरा होना है । कमियां हैं । सीमाएं हैं हजार मुझ पर । सब सीमाओं को तोड़कर बहना है । बूंद हूं अभी । और सागर होना है । अथातो भक्ति जिज्ञासा । तभी तो तुम जिज्ञासा में लगोगे ।
समझें । भक्ति अर्थात क्या ? 1 तत्व हमारे भीतर है । जिसको प्रीति कहें । यह जो तत्व हमारे भीतर है - प्रीति । इसी के आधार पर हम जीते हैं । चाहे हम गलत ही जीएं । तो भी हमारा आधार प्रीति ही होता है । कोई आदमी धन कमाने में लगा है । धन तो ऊपर की बात है । भीतर तो प्रीति से ही जी रहा है । धन से उसकी प्रीति है । कोई आदमी पद के पीछे पागल है । पद तो गौण है । प्रतिष्ठा की प्रीति है । जंहा भी खोजोगे । तो तुम प्रीति को ही पाओगे । कोई वेश्यालय चला गया है । और किसी ने किसी की हत्या कर दी । पापी में और पुण्यात्मा में । तुम 1 ही तत्व को 1 साथ पाओगे । वह तत्व प्रीति है । फिर प्रीति किससे लग गयी । उससे भेद पड़ता है । धन से लग गयी । तो तुम धनी होकर रह जाते हो । ठीकरे हो जाते हो । कागज के सड़े गले नोट होकर मरते हो । जिससे प्रीति लगी । वही हो जाओगे । यह बड़ा बुनियादी सत्य है । इसे हृदय में सम्हालकर रखना ।
प्रीति महंगा सौदा है । हर किसी से मत लगा लेना । जिससे लगायी वैसे ही हो जाओगे । वैसा होना हो । तो ही लगाना । प्रीति का अर्थ ही यही होता है कि - मैं यह होना चाहता हूं । राजनेता गांव में आया । और तुम भीड़ करके पहुंच गये । फूलमालाएं सजाकर । किस बात की खबर है ? तुम गहरे में चाहते हो कि मेरे पास भी पद हो । प्रतिष्ठा हो । इसलिए पद और प्रतिष्ठा की पूजा है । कोई फकीर गांव मे आया । और तुम पहुंच गये । उससे भी तुम्हारी प्रीति की खबर मिलती है कि तङफ रहे हो फकीर होने को कि कब होगा वह मुक्ति का क्षण । जब सब छोड़छाड़ जब किसी चीज पर मेरी कोई पकड़ न रह जाएगी । कोई संगीत सुनता है । तो धीरे धीरे उसकी चेतना में संगीत की छाया पड़ने लगती है ।
तुम जिससे प्रीति करोगे । वैसे हो जाओगे । जिनसे प्रीति करोगे । वैसे हो जाओगे । तो प्रीति का तत्व रूपातरकारी है । प्रीति का तत्व भीतरी रसायन है । और बिना प्रीति के कोई भी नहीं रह सकता । प्रीति ऐसी अनिवार्य है जैसे स्वांस । जैसे शरीर स्वांस से जीता । आत्मा प्रीति से जीती । इसलिए अगर तुम्हारे जीवन मे कोई प्रीति न हो । तो तुम आत्महत्या करने को उतारू हो जाओगे । या कभी तुम्हारी प्रीति का सेतु टूट जाए । तो आत्महत्या करने को उतारू हो जाओगे । घर में आग लग गयी । और सारा धन जल गया । और तुमने आत्महत्या कर ली । क्या तुम कह रहे हो ? तुम यह कहते हो । यह घर ही मैं था । यह मेरी प्रीति थी । अब यही न रहा । तो मेरे रहने का क्या अर्थ । तुम्हारी पत्नी मर गयी । और तुमने आत्महत्या कर ली । तुम क्या कह रहे हो ? तुम यह कह रहे हो । यह मेरी प्रीति का आधार था । जब मेरी प्रीति उजड़ गयी । मेरा संसार उजड़ गया । अब मेरे रहने में कोई सार नहीं । हम प्रीति के साथ अपना तादात्म्य कर लेते है ।
बिना प्रीति के कोई भी नहीं जी सकता । जीना संभव ही प्रीति के सहारे है । जैसे बिना स्वांस लिए शरीर नहीं रहेगा । वैसे बिना प्रीति के आत्मा नहीं टिकेगी । प्रीति है तो आत्मा टिकी रहती है । फिर प्रीति गलत से भी हो । तो भी आत्मा टिकी रहती है । मगर चाहिए । प्रीति तो चाहिए । गलत हो कि सही ।
फिर प्रीति के बहुत ढंग हैं । वे समझ लेने चाहिए । हम प्रेम कहते हैं । प्रेम का अर्थ होता है - उसके साथ । जो समतल है । तुमसे ऊपर 1 प्रीति है । जो तुम्हारी पत्नी में होती है । मित्रों में होती है । पति में होती है । भाई बहन में होती है । उस प्रीति को भी नहीं । तुमसे नीचे भी नहीं । तुम्हारे जैसा है । जिससे आलिंगन हो सकता है । उसको प्रेम कहते हैं । समतुल व्यक्तियों में प्रीति होती है । तो प्रेम कहते हैं ।
फिर 1 प्रीति होती है - माता पिता या गुरु में । उसे श्रद्धा कहते हैं । कोई तुमसे ऊपर है । प्रीति को पहाड़ चढ़ना पड़ता है । इसलिए श्रद्धा कठिन होती है । श्रद्धा मे दाव लगाना पड़ता है । श्रद्धा में चढ़ाई है । इसलिए बहुत कम लोगों मे वैसी प्रीति मिलेगी । जिसको श्रद्धा कहें । माता पिता से कौन प्रीति करता है । कर्तव्य निभाते हैं लोग । दिखाते हैं । उपचार । दिखाना पड़ता है । प्रीति कहाँ ? अपने से ऊपर प्रीति करने में पहाड़ चढ़ने की हिम्मत होनी चाहिए । और ध्यान रखना । तुम अपने से ऊपर, जितने ऊपर प्रीति करोगे । उतने ही तुम ऊपर जाने लगोगे । तुम्हारी चेतना ऊर्ध्वगामी होगी । इसलिए तो हमने श्रद्धा को बड़ा मूल्य दिया है सदियों से । क्योंकि श्रद्धा आदमी को बदलती है । अपने से पार ले जाती है । तुम्हारे हाथ तुमसे ऊपर की तरफ उठने लगते हैं । और तुम्हारे पैर किसी ऊर्ध्वगमन पर गतिमान होते है । तुम्हारी आंखें ऊंचे शिखरों से टकराती और चुनौती लेती हैं ।
जिसके जीवन मे श्रद्धा नहीं है । उसके जीवन में विकास नहीं है । विकास हो ही नहीं सकता । किसी को महावीर में श्रद्धा है । तो विकास होगा । किसी को बुद्ध में । तो क्राइस्ट में । तो श्रद्धा से विकास होता है । कृष्ण क्राइस्ट तो सब खूंटियां है । कहा तुमने अपनी श्रद्धा टांगी । यह बात गौण है । मगर श्रद्धा कहीं न कहीं टलना जरूर । यह बात बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि तुमने महावीर चुना कि मोहम्मद कि कृष्ण चुने कि क्राइस्ट । इसमें बहुत मूल्य नहीं है । मूल्य इस बात में है कि तुमने श्रद्धा का कोई पात्र चुना । तुमने कोई चुना । जो तुमसे पार है । तुमने कोई चुना । जो आकाश में है धवल शिखरों की भांति । उस चुनाव में ही यात्रा शुरू हो गयी । तुम्हारी आखें ऊपर उठने लगीं । तुमने जमीन पर गड़े गड़े चलना बंद कर दिया । तुमने जमीन पर सरकना बंद कर दिया । तुम्हारे पंख फड़फड़ाने लगे । आज नहीं । कल तुम उड़ोगे । क्योंकि जिससे श्रद्धा लग गयी है । उस तक जाना होगा । यात्रा कठिन होगी । तो भी जाना होगा । लाख कठिनाइयां होंगी । तो भी जाना होगा । प्रीति लग जाए । तो कठिनाइयों का पता नहीं चलता ।
तो 1 प्रीति है - श्रद्धा । अपने से ऊपर । वह ऊर्ध्वगामी है । 1 प्रीति है - प्रेम । अपने से समतुल । उससे तुम कहीं जाते आते नहीं । कोल्हू के बैल की तरह चक्कर काटते हो । पत्नी भी तुम जैसी । पति भी तुम जैसा । मित्र भी तुम जैसे । लोग अपने जैसे ही तो चुनते हैं । लोग अपने जैसो मे ही तो आकर्षित होते है । अपने से बड़े में आकर्षित होने में ही खतरा मालूम होता है । क्यों ? क्योंकि पहले तो किसी को अपने से बड़ा मानना अहंकार के प्रतिकूल है । किसी को गुरु मानना अहंकार के प्रतिकूल है । अहंकारी किसी को गुरु नहीं मान सकता । वह हजार बहाने खोजता है सिद्ध करने के कि - कोई गुरु है ही नहीं । अब कहां गुरु ? सतयुग मे होते थे । यह कलियुग है । अब कहाँ गुरु ? यह पंचम काल है । अब कहाँ गुरु ? सब कहानियां हैं । कपोल कल्पनाएं हैं । बचाता है अपने को । क्योंकि गुरु चुनने में ही तुमने 1 बात जाहिर कर दी कि अब तुम्हें चुनौती स्वीकार करनी पड़ेगी । तुम जहाँ हो । वहीं समाप्त नहीं हो सकते हो । ऊपर जाना है ।
इसलिए लोग अपने ही समान व्यक्तियो को चुनते हैं । उनके साथ कहीं जाना नहीं । यहीं झगड़ना है । पति पत्नी यहीं लड़ते रहेंगे । कोल्हू के बैल की तरह । रोज वही दोहराते रहेंगे । जो कल भी किया था । परसों भी किया था । कल भी करेंगे । परसों भी करेंगे । पूरा जन्म निकल जाएगा । और वही - पुनरुक्ति, पुनरुक्ति । नहीं कोई गति होती । हो नहीं सकती ।
तीसरा प्रेम है । प्रीति है । जिसे हम स्नेह कहते हैं । वह अपने से छोटों के प्रति । पुत्र, कन्यादिक या शिष्य । जो अपने से छोटे के प्रति होती है । अपने से छोटे के प्रति भी हम आसानी से राजी हो जाते हैं । सच तो यह है । हम बड़े आह्लादित होते हैं । इसलिए तो तुम आह्लादित होते हो । जब तुम्हारे घर में बेटा पैदा होता है । तुम्हारा आहाद क्या है ? तुम्हारा आह्लाद यही है कि इसकी तुलना में तुम बड़े हो गये ।
तुमने कहानी सुनी न । अकबर ने 1 लकीर खींच दी राजदरबार में आकर और कहा - इसे बिना छुए छोटी कर दो । कोई न कर सका । लेकिन बीरबल ने 1 बड़ी लकीर उसके नीचे खींच दी । उसे छुआ नहीं । छोटी हो गयी । छोटी लकीर खींच देता । तो बड़ी हो जाती । उसे छुए बिना ।
तुम अपने पुत्र में, पुत्रियों में इतना जो रस लेते हो उसका कारण क्या है ? चलो कोई तो है । जो तुम्हारी तरफ देखता है । और तुम्हें बड़ा मानता है । तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है ।
इसलिए शिष्य होना कठिन है । गुरु होना आसान मालूम पड़ता है ।
1 शिष्य गुरु के पास पहुंचा । उसने पूछा कि मुझे स्वीकार करेंगे ? मैं दीक्षित होने आया हूं । गुरु ने कहा - कठिन होगा मामला । यात्रा दुर्गम है । सम्हाल सकोगे ? पात्रता है ? पूछा उस युवा ने - क्या करना होगा ? ऐसी कौन सी कठिनाई है ? गुरु ने कहा - जो मैं कहूंगा । वही करना पड़ेगा । वर्षो तक तो जंगल से लकड़ी काटना । आश्रम के जानवरों को चरा आना । बुहारी लगाना । भोजन पकाना । इसमें ही लगना होगा । फिर जब पाऊंगा कि अब तुम्हारा समर्पण ठीक ठीक हुआ । तार ठीक ठीक बंधे । तब तुम्हारे ऊपर सत्य के प्रयोग शुरू होंगे । तब ध्यान और तप । उस युवक ने पूछा - यह तो बड़ी झंझट की बात है । कितने वर्ष लगेंगे ? यह जंगल जाना । लकड़ी काटना । भोजन बनाना । सफाई करना । जानवर चराना ? गुरु ने कहा - कुछ कहा नहीं जा सकता । निर्भर करता है कि कब तुम तैयार होओगे । जब तैयार हो जाओगे तभी । वर्ष भी लग सकते हैं । कभी कभी जन्म भी लग जाते है ।
उस युवक ने कहा - चलिए । यह तो जाने दीजिए । यह मुझे जंचता नहीं । गुरु होने में क्या करना पड़ता है ? तो उस गुरु ने कहा - गुरु होने में कुछ नहीं । जैसे मैं यहाँ बैठा हूं । ऐसे बैठ जाओ । और आशा देते रहो । तो उसने कहा - फिर ऐसा करिए । मुझे गुरु ही बना लीजिए । यह जंचता है ।
गुरु कौन नहीं बन जाना चाहता ? तुम भी कोई मौका नहीं खोते । जब गुरु बनने का मौका मिले । किसी को अगर तुम पा लो किसी हालत में कि सलाह की जरूरत है । तो तुम्हें चाहे सलाह देने योग्य पात्रता हो । या न हो । तुम जरूर देते हो । तुम चूकते नहीं मौका । कोई मिल भर जाए मुसीबत में । तुम उसकी गर्दन पकड़ लेते हो । तुम उसको सलाह पिलाने लगते हो । और ऐसी सलाहें । जो तुमने जीवन में खुद भी कभी स्वीकार नहीं कीं । जिन पर तुम कभी नहीं चले । जिन पर तुम कभी चलोगे भी नहीं । लेकिन किसी और ने तुम्हारी गर्दन पकड़कर तुम्हें पिला दी थीं । अब तुम किसी और के साथ बदला ले रहे हो ।
दुनिया में सलाहें इतनी दी जाती हैं । मगर लेता कौन ? कोई किसी की सलाह लेता है ? तुमने कभी किसी की ली ? और खयाल रखना । जिसने भी तुम्हारी असहाय अवस्था का मौका उठाकर सलाह दी है । उससे तुम नाराज हो । अभी भी नाराज हो । तुम उसे क्षमा नहीं कर पाए हो । क्योंकि तुम असमय में थे । और दूसरे ने फायदा उठा लिया । तुम्हारे घर में आग लग गयी थी । और कोई ज्ञानी तुमसे कहने लगा - क्या रखा है । यह संसार तो सब जल ही रहा है । सब जल ही जाएगा । सब पड़ा रह जाएगा । सब ठाठ पड़ा रह जाएगा । जब बांध चलेगा बंजारा । अरे, यहाँ रखा क्या है । यह बातें तो तुम्हें भी मालूम हैं । लेकिन तुम्हारा घर जल रहा है । और इन सज्जन को सलाह देने की सूझी है । तुम्हारी पत्नी मर गयी । और कोई कह रहा है कि आत्मा तो अमर है । तुम्हारी तबियत होती है कि इसको यहीं दुरुस्त कर दो । इस आदमी को । मेरी पत्नी मर गयी है । इसे ज्ञान सूझ रहा है । और तुम भलीभांति जानते हो कि इसकी पत्नी जब मरी थी । तब यह भी रो रहा था । और कल जब इसका बेटा मरेगा । तो फिर यह जार जार रोयेगा । तब तुम्हारे हाथ में 1 मौका होगा कि तुम भी बदला ले लोगे । तुम भी सलाह दे दोगे ।
सलाहें 1 दूसरे का अपमान हैं । सलाह का मतलब यह होता है । तुम सिद्ध कर रहे हो - मैं जानता हूं । तुम नहीं जानते । मैं ज्ञानी । तुम अज्ञानी । तुम मौका पाकर गुरु बन रहे हो । जांचना । अपने जीवन को जरा परखना । हर किसी को सलाह देने को तैयार हो । कोई सिगरेट पी रहा है । और तुम्हारे भीतर एकदम खुजलाहट होती है कि इसको सलाह दो कि सिगरेट पीना बुरा है । और तुम पान चबा रहे हो । मगर पान चबाना बात और ? लेकिन तुम सलाह देने का मौका नहीं छोड़ोगे । तुम्हारे बाप ने तुम्हें सलाह दी थी । और तुमने 1 न मानी । और वे ही सलाहें तुम अपने बेटों को पिला रहे हो । वे भी नहीं मानेगे । तुमने नहीं मानी थी । कौन मानता है सलाह । क्यों सलाहें नहीं मानी जातीं ? कारण है । देने वाला अहंकार का मजा लेता है । लेने वाले के अहंकार को चोट लगती है ।
तुम्हारे घर बेटे बेटियां पैदा हो जाते हैं । तुम बड़े खुश होते हो । तुमको यह असहाय प्राणी मिल गये । जिनको अब तुम जैसा चाहो । बनाओ । जहाँ चाहो - भेजो । जो आशा दो । इन्हें मानना ही पड़े ।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि - बच्चों के साथ सदियों में जो अत्याचार हुआ है । वैसा अत्याचार किसी के साथ कभी नहीं हुआ । गुलाम से गुलाम भी इतना गुलाम नहीं होता । जितने बच्चे तुम्हारे गुलाम हो जाते हैं । क्योंकि असहाय हैं । तुम पर निर्भर हैं । जी नहीं सकते तुम्हारे बिना । 1 छोटा सा बच्चा है । दूध नहीं मिले । सेवा नहीं मिले । सुरक्षा नहीं मिले । मर ही जाएगा । जी ही नहीं सकता । उसका जीवन दाव पर लगा है । तुम इस मौके को नहीं चूकते । तुम इस मौके का पूरा फायदा उठा लेते हो । पूरे से ज्यादा फायदा उठा लेते हो । हालांकि तुम कहते यही हो कि मुझे तुमसे प्रेम है । इसीलिए ऐसा कर रहा हूं । लेकिन अगर बहुत छानबीन करोगे । थोड़े सजग होओगे । तो पाओगे । अहंकार का रस ले रहे हो । और तो कोई तुम्हारी सुनता नहीं । तुम्हारे बेटे को तो सुननी ही पड़ती है । इसलिए कौन बेटा अपने बाप को माफ कर पाता है ? कोई बेटा अपने बाप को माफ नहीं कर पाता । और अगर मौका मिलेगा बुढ़ापे में । जब तुम बूढ़े हो जाओगे । और कमजोर हो जाओगे । असहाय हो जाओगे । बच्चे जैसे हो जाओगे । तब तुम्हारा बेटा तुमसे बदला लेगा । तब छोटी छोटी बातों में तुम दुत्कारे जाओगे । और तब तुम तड़फोगे । और तुम कहोगे - मैंने ऐसा क्या पाप किया ? मैंने तुझे बड़ा किया । मैंने अपना जीवन तेरे ऊपर लगाया । निछावर किया । और तू मुझसे बदला ले रहा है । यह कैसी अकृतज्ञता ? नहीं, लेकिन तुम जांच करना । गौर करना । तुमने अपने अहंकार को खूब उछाला होगा । इस बेटे में पड़े घाव अब तक हरे हैं ।
बच्चों के साथ हम बड़ा अमानवीय व्यवहार करते हैं । और यह कहते हम चले जाते हैं कि हमारा बड़ा स्नेह है ।
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