अपने से छोटे के प्रति जो प्रीति होती है । उसका नाम स्नेह है । मेरे देखे । अपने से छोटे के प्रति सच्ची प्रीति और ठीक प्रीति तभी होती है । जब अपने से बड़े के प्रति श्रद्धा हो । अन्यथा नहीं होती । अन्यथा झूठी होती है । जिस व्यक्ति के जीवन में अपने से बड़े के प्रति श्रद्धा है । सम्यक श्रद्धा है । उस व्यक्ति के जीवन में अपने से छोटे के प्रति सम्यक स्नेह होता है । और उस व्यक्ति के जीवन में 1 और क्रांति घटती है । अपने से सम के प्रति सम्यक प्रेम होता है । उसके जीवन मे प्रेम का छंद बंध जाता है । छोटे के प्रति सम्यक स्नेह होता है । धारा की तरह बहता है । उसका प्रेम बेशर्त । वह कोई शर्तबंदी नहीं करता कि तुम ऐसा करोगे । तो मैं तुम्हें प्रेम करूंगा कि तुम ऐसे होओगे । तो मैं तुम्हें प्रेम करूंगा । वह यह भी नहीं कहता कि बड़े होकर तुम इस तरह के व्यक्ति बनना कि मैं हिंदू हूं । तो तुम भी हिंदू होना कि मैं कम्यूनिस्ट हूं । तो तुम भी कम्युनिस्ट होना कि मैं ईसाई हूं । तो तुम भी ईसाई रहना कि मैं चाहता हूं कि तुम डाक्टर बनो कि इंजीनियर बनो । तो इंजीनियर ही बनना । नहीं, वह कोई आग्रह नहीं रखता । वह कहता है - मैंने तुम्हें प्रेम दिया । मैं प्रेम देकर आनंदित हुआ । तुमने मुझे हलका किया । जैसे बादल हलके हो जाते हैं भूमि पर बरसकर । ऐसा तुम पर बरसकर मैं हलका हुआ । मैं अनुगृहीत हूं । तुम्हें जो होना हो । तुम होना । मैं तुम्हें सहारा दूंगा । तुम जो होना चाहो उसमें । लेकिन तुम्हें कुछ खास बनाने की चेष्टा नहीं करूंगा । मैं कौन हूं ? तुम स्वतंत्र हो । तुम आत्मवान हो ।
मगर यह प्रेम यह स्नेह उसी में हो सकता है । जिसके जीवन में श्रद्धा हुई हो । और जिसने किसी गुरु का सत्संग किया हो । गुरु वही है । जो तुम्हें इतनी स्वतंत्रता दे कि तुम जो होना चाहो । तुम्हें साथ दे । सहारा दे । तुम्हें अपनी सारी संपदा को खोलकर रख दे कि चुन लो । और इतनी भी अपेक्षा न रखे कि तुम धन्यवाद देना । जब तुम किसी गुरु से मिल गए हो । तभी तुम इस योग्य हो सकोगे कि अपने से छोटे के प्रति स्नेह कर सको - सम्यक स्नेह । अन्यथा तुम्हारा स्नेह भी फांसी का फंदा होगा । और जब तुम अपने से बड़े के प्रति श्रद्धा कर सको । और अपने से छोटे के प्रति स्नेह कर सको । तो दोनों के मध्य में प्रेम की घटना घटती है । अन्यथा नहीं घटती । तभी तुम अपनी पत्नी को प्रेम कर सकोगे । अपने पति को प्रेम कर सकोगे । और उस प्रेम में बड़े फूल खिलेंगे । बड़ी सुगंध होगी । उस प्रेम में बड़े संगीत का जन्म होगा ।
यह प्रीति की 3 साधारण स्थितियां हैं । और जब यह तीनों सम्यक हो जाती हैं । जब इन तीनों के तार मिल जाते हैं । जब यह तीनों छंदोबद्ध हो जाती हैं । तब चौथी अवस्था - परम अवस्था पैदा होती है । उसका नाम भक्ति । अथातो भक्ति जिज्ञासा ।
जिसने स्नेह किया हो । जिसने प्रेम किया हो । जिसने श्रद्धा की हो । और जिसके तीनों के तार मिल गए हों । और तीनों के माध्यम से जिसके भीतर 1 अपूर्व आनंद की आभा जगी हो । वही व्यक्ति भक्ति करने में कुशल हो सकता है । भक्ति प्रीति की पराकाष्ठा है ।
भक्ति का अर्थ है - सर्वात्मा से प्रीति । छोटे से कर ली । समान से कर ली । बड़े से कर ली - अब सर्वात्मा से । अब परमेश्वर से ।
परमेश्वर कोई व्यक्ति नहीं है । खयाल रखना बारबार । अगर परमेश्वर व्यक्ति है तुम्हारी धारणा में । तो तुम जो करोगे । वह श्रद्धा होगी । फिर श्रद्धा में और भक्ति में कोई फर्क न रह जाएगा । फिर तो परमेश्वर भी 1 व्यक्ति हो गया । जैसे गुरु है । और ऊपर सही । बहुत ऊपर सही । मगर श्रद्धा ही रहेगी । श्रद्धा और भक्ति में भेद है ।
परमात्मा यानी सर्व । जिस दिन तुम्हारी प्रीति सब दिशाओं में अकारण बहने लगे - अहेतुक । वृक्षो को, पहाड़ों को, पत्थरों को, चांद तारों को, दृश्य को, अदृश्य को, यह समस्त को तुम्हारी प्रीति मिलने लगे । तुम इस सारे के प्रेम में पड़ जाओ । तुम्हारे प्रेम पर कोई सीमाएं न रह जाएं । उस दिन भक्ति । अथातो भक्ति जिज्ञासा । अब भक्ति की जिज्ञासा करें ।
सापरानुरक्ति: ईश्वरे - ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग का नाम भक्ति है ।
ऐसा हिंदी में जगह जगह अनुवाद किया जाता है । मूल ज्यादा साफ है । अनुवाद कहता है - ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग का नाम भक्ति है । मूल कहता है - सापरानुरक्ति: । परा । वह जो 3 प्रीतिया थीं । उनका नाम है अपरा - श्रद्धा, प्रेम, स्नेह । वे सांसारिक है । ध्यान रहे । श्रद्धा भी सांसारिक है । नास्तिक भी श्रद्धा कर सकता है । आखिर कम्युनिस्ट श्रद्धा करता ही है - कार्ल मार्क्स में और दास केपिटल में । नास्तिक भी श्रद्धा कर सकता है । उसके भी गुरु होते हैं । चार्वाक को मानने वाला चार्वाक में श्रद्धा करता है । एपीकुरास को मानने वाला एपीकुरस में श्रद्धा करता है । उसके भी गुरु हैं । उसके भी शास्त्र हैं । उसके भी सिद्धात हैं । उसके भी तीर्थ हैं । अगर मुसलमानों के लिए मक्का है । तो कम्युनिस्टों के लिए मास्को है । पर तीर्थ तो है ही । अगर किसी के लिए काबा है । तो किसी के लिए क्रेमलिन है । तीर्थ तो हैं ही । उसी भक्ति उसी पूजा उसी श्रद्धा से लोग मास्को जाते । जिस भक्ति, श्रद्धा और पूजा से लोग काशी जाते हैं । काबा जाते हैं । गिरनार जाते है ।
श्रद्धा सांसारिक है । जिससे हमने कुछ सीखा है । उसके प्रति श्रद्धा हो जाएगी । अगर तुमने किसी से चोरी सीखी है । तो वह तुम्हारा गुरु हो गया । और उससे श्रद्धा हो जाएगी । पापी भी श्रद्धा करता है । बुरा आदमी भी श्रद्धा करता है । आखिर जिससे कुछ सीखा है । वही गुरु हो जाता है । भक्ति श्रद्धा से भिन्न बात है ।
सूत्र कहता है - सापरानुरक्ति । यह तो अपरा हुई । यह तो इस जगत की बातें हुई - प्रेम । स्नेह । श्रद्धा । इनके पार भी 1 शुद्ध रूप है प्रीति का । उस रूप को परा अनुरक्ति, ऐसा शांडिल्य कहते है । उस परा अनुरक्ति का जो पात्र है - वही ईश्वर है ।
अब तुम यह मत समझना कि - कोई ईश्वर है । जिस पर तुम अपनी अनुरक्ति को ढालोगे । जिस पर तुम अपनी अनुरक्ति को केंद्रित करोगे । नहीं, अगर तुमने कोई ईश्वर मान लिया । और फिर उस पर अपनी अनुरक्ति को केंद्रि त किया । तो श्रद्धा हो गयी । जिस दिन तुम्हारी अनुरक्ति सभी पात्रों से मुक्त हो जाएगी । न स्नेह रही । न प्रेम रही । न श्रद्धा रही । जिस दिन तुम्हारी प्रीति शुद्ध प्रीति हो गयी । मात्र प्रीति हो गयी । तुम्हारे चित्त की सहज दशा हो गयी । उस दिन जिस तरफ तुम बहोगे । वही ईश्वर है । सब तरफ ईश्वर है ।
सापरानुरक्तिरीश्वरे । परा अनुरक्ति संपूर्ण होती है । बच्चे से प्रेम होता है । लेकिन इतना नहीं होता कि अगर मरने का वक्त आ जाए । और चुनाव करना पड़े कि दो में से कोई 1 ही जी सकता है । तुम या तुम्हारा बेटा । तो बहुत संभावना यह है कि तुम अपने को बचाओगे । तुम कहोगे - बेटे तो और भी पैदा हो सकते हैं । प्रेम था । लेकिन इतना नहीं था कि अपने को गंवा दो ।
पत्नी से प्रेम है । तुम कहते हो कि - तेरे बिना मर जाऊंगा । मगर अगर आज ऐसा मौका आ जाए कि 1 हत्यारा आ जाए । और कहे कि 2 में से कोई भी 1 मरने को तैयार हो जाओ । तो तुम अपनी पत्नी को कहोगे । क्या बैठी देख रही हो । तैयार हो । मैं तेरा स्वामी हूं । पति तो परमात्मा है । तू बैठी क्या देख रही है ? तब तुम मरने को राजी न होओगे । यह कहने की बातें हैं ।
फिर संपूर्ण अनुरक्ति का क्या अर्थ होता है ? संपूर्ण अनुरक्ति का अर्थ होता है - अब तुम अपने को छोड़ने को राजी हो । अपरा अनुरक्ति में तुम रहते हो । तुम्हारे रहते, सब ठीक । लेकिन अगर तुम्हें स्वयं को दाव लगाना पड़े । तो फिर तुम हट जाते हो । परा अनुरक्ति में तुम अपने को दाव पर लगा देते हो । तुम कहते हो - मैं तो बूंद हूं । जो सागर मे खो जाना चाहती है । मैं तो बीज हूं । जो भूमि में खो जाना चाहता है । तुम परमात्मा और अपने बीच परमात्मा को चुनते हो । सर्व को चुनते हो । तुम अपनी सारी सीमाएं छोड़कर छलांग लगा जाना चाहते हो ।
जब तक यह शीशे का घर है । तब तक ही पत्थर का डर है ।
हर आंगन जलता जंगल है । दरवाजे सांपों का पहरा ।
झरती रोशनियों में अब भी । लगता कहीं अंधेरा ठहरा ।
जब तक यह बालू का घर है । तब तक ही लहरों का डर है ।
हर खूंटी पर टंगा हुआ है । जख्म भरे मौसम का चेहरा ।
शोर सड़क पर थमा हुआ है । जब तक यह काजल का घर है ।
तब तक ही दर्पण का डर है । हर क्षण धरती टूट रही है ।
जर्रा जर्रा पिघल रहा है । चांद सूर्य को कोई अजगर ।
धीरे धीरे निगल रहा है । जब तक यह बारूदी घर है ।
तब तक चिनगारी का डर है ।
जब तक हमने शरीर के साथ अपने को 1 समझा है । तभी तक सब भय हैं - बीमारी के । बुढ़ापे के । मृत्यु के । जिसकी आखें सब जगह छिपे हुए परमात्मा को खोजने लगीं । जिसमें भक्ति की जिज्ञासा उठी । जिसने जानना चाहा है कि - जीवन का परम सार क्या है ? जीवन की परम बुनियाद क्या है ? जो जानना चाहता है कि - अब मैं तरंगों से नहीं । सागर से मिलना चाहता हूं । अब मैं अभिव्यक्ति से नहीं । अभिव्यक्तियों के भीतर जो छिपा है - अदृश्य । उसको जानना चाहता हूं । जिसने अपने भीतर देखा कि - 1 तो देह है । जो दिखायी पड़ती है । और 1 मैं हूं । जो दिखायी नहीं पड़ता ।
तुम आज तक किसी को दिखायी नहीं पड़े हो । इस पर तुमने कभी विचार किया ? न तुम्हारी पत्नी ने तुम्हें देखा । न तुम्हारे बेटे ने । न तुम्हारे मित्रों ने । न तुमने अपनी पत्नी को देखा है । जो देखा है । वह देह है । तुम अनदेखे रह गए हो । तुम जरा कभी बैठकर सोचना । तुम्हें आज तक किसी ने भी नहीं देखा । तुम्हारी आंखों में भी कोई आखें डाल दे । तो भी तुम्हें नहीं देख सकता । फिर भी तुम हो । आंखों से अलग । कानों से अलग । हाथ पैरों से अलग तुम हो । इस देह से अलग तुम हो । तुम भलीभांति जानते हो । वह तुम्हारा सहज अनुभव है कि मैं इससे पृथक हूं । तुम्हारा हाथ कट जाए । तो भी तुम नहीं कट जाते । तुम आखें बंद कर लो । तो भी भीतर तुम देखते हो । बिना आंख के देखते हो । तुम भीतर हो । तुम चैतन्य हो । तुम अदृश्य हो ।
जैसे तुम्हारे भीतर यह छोटा सा अदृश्य छिपा है । ऐसा ही इस सारे जगत के भीतर भी अदृश्य छिपा है । दृश्य दिखायी पड़ रहा है । अदृश्य से पहचान नहीं हो रही है ।
उस अदृश्य की प्रीति में पड़ जाने का नाम भक्ति है ।
फिर भय क्या ? दृश्य छिन जाएगा । तो छिन जाए । अगर दृश्य की कीमत पर विराट अदृश्य मिलता हो । यह क्षुद्र देह जाती हो । तो जाए । यह सस्ता सौदा है । अगर इस देह के जाने पर विराट से मिलन होता हो । प्रभु मिलन होता हो । तो कौन होगा पागल । जो इस देह के लिए रुकेगा ? मगर यह प्रतीति भीतर गहरी हो गयी हो तब । नहीं तो भक्ति की जिज्ञासा का क्षण नहीं आया अभी ।
दोपहरी तक पहुंचते पहुंचते । मुरझा जाता है जो । वह कैसा भोर है ?
क्या, कुल मिलाकर । जीवन का मुंह । मृत्यु की ओर है ।
ऐसा ही है । हम सब मरने की तरफ चल रहे हैं । जिस दिन तुम्हें यह दिखायी पड़ता है कि देर अबेर, आज नहीं कल, यह देह छूट ही जाएगी । यहा हम सब मरने को ही सन्नद्ध खड़े हैं । पंक्तिबद्ध खड़े हैं । कोई आज मर गया । कोई कल मरेगा । देर अबेर मैं भी मरूंगा । यहाँ मृत्यु घटने ही वाली है । इसके पहले अमृत से कुछ पहचान कर लें । अथातो भक्ति जिज्ञासा । इसके पहले कि देह छिन जाए । देह में जो बसा है । उससे पहचान कर लें । इसके पहले कि पिंजड़ा टूट जाए । पिंजड़े में जो पक्षी है । उससे पहचान कर लें । तो फिर पिंजड़ा रहे कि टूटे । कोई भेद नहीं पड़ता । अंतर की जिसे पहचान हो गयी । उसे सब तरफ भगवान की झलक मिलने लगती है । मगर पहली पहचान अपने भीतर है । जिसने स्वयं को नहीं जाना । वह उस परमात्मा को कभी भी नहीं जान सकेगा ।
मेरे पास लोग आते हैं । वे कहते है - परमात्मा को जानना है । मैं उनसे पूछता हूं । तुम स्वयं को जानते हो ? स्वयं को बिना जाने कैसे परमात्मा को जानोगे ? कण से तो पहचान करो । फिर विराट से करना । तत्संस्थस्यामृतत्वोपदेशात - ऐसा कहा है कि उनमें चित्त लग जाने से जीव अमरत्व को प्राप्त हो जाता है ।
उपदेशात का अर्थ होता है - जिन्होंने जाना । उन्होंने कहा है । उपदेश शब्द का अर्थ इतना ही नहीं होता कि - ऐसा कहा है । हर किसी की कही बात उपदेश नहीं होती । उपदेश किसकी बात को कहते हैं ? जिसने जाना हो । और उपदेश क्यों कहते हैं ? उपदेश शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है । जिसके पास बैठने से तुम भी जान लो - उप, देश । जिसके पास बैठने से तुम्हें भी जानना घटित हो जाए । जिसकी सन्निधि में तुम्हारे भीतर भी तरंगे उठने लगें । जिसके स्पर्श से तुम भी स्फुरित हो उठो । जिसके निकट आने से तुम्हारा दीया भी जल जाए । उसके वचन को उपदेश कहते हैं ।
तत्सस्थस्यामृतत्वोपदेशात - जिन्होंने जाना है । उन्होंने कहा है कि उसमें चित्त लग जाने से जीवन अमरत्व को प्राप्त हो जाता है । अनुवाद में थोड़े शब्द ज्यादा हो गए हैं । संस्कृत के सूत्र शब्दों के संबंध में बड़े वैज्ञानिक है । 1 शब्द का भी ज्यादा उपयोग नहीं करेंगे । अनुवाद ने जीव शब्द को बीच में डाल दिया । अनुवाद इतना ही होना चाहिए -जिन्होंने जाना । उन्होंने कहा - जो उसे पा लेते हैं । वे अमृत हो जाते हैं । उनकी मृत्यु मिट जाती है । उनके लिए मृत्यु मिट जाती है । उनका मृत्यु से संबंध विच्छिन्न हो जाता है । क्यों ? क्योंकि ईश्वर का अर्थ होता है - जीवन । वृक्ष आते हैं । और जाते हैं । लेकिन वृक्षों के भीतर जो छिपा जीवन है । वह सदा है । पात्र बदलते हैं । नाटक चलता है । हम नहीं थे । सब था । हम नहीं होंगे । फिर भी सब होगा । हमारे होने न होने से कुछ भेद नहीं पड़ता । जो है - है । हम तरंगें हैं । हम हो भी जाते हैं । नहीं भी हो जाते है । फिर भी इस अस्तित्व में न तो हमारे होने से कुछ जुड़ता है । और न हमारे न होने से कुछ घटता है । यह अस्तित्व उतना का उतना, जितना का जितना, जस का तस, वैसा का वैसा बना रहता है ।
सागर में लहर उठी । फिर लहर सो गयी । क्या तुम सोचते हो लहर के उठने से सागर में कुछ नया जुड़ गया था ? अब लहर के चले जाने से क्या सागर में कुछ कमी हो गयी ? न तो सागर में कुछ जुड़ा । न कुछ कमी हुई । सब वैसा का वैसा है ।
सत्य न तो घटता । न बढ़ता । बढ़े तो कहा से बढ़े । घटे तो कहां घटे । कैसे घटे ? सत्य तो जितना है उतना है । जिस दिन व्यक्ति अपने को लहर की तरह देखता है । और परमात्मा को सागर की तरह । अपने को तरंग की तरह । इससे ज्यादा नहीं । 1 रूप, 1 नाम । इससे ज्यादा नहीं । 1 भावभंगिमा, 1 मुखमुद्रा । इससे ज्यादा नहीं । उसके भीतर उठा हुआ 1 स्वप्न । इससे ज्यादा नहीं । अमृत से संबंध हो गया ।
तत्संस्थस्या - उसके साथ जो जुड़ गया । तत शब्द विचारणीय है । तत का अर्थ होता है - वह; दैट । ईश्वर को हम कोई व्यक्तिवाची नाम नहीं देते । क्योकि व्यक्तिवाची नाम देने से भ्रांतियां होती हैं । राम कहो । कृष्ण कहो । भ्रांति खड़ी होती है । क्योंकि यह भी तरंगें हैं । बड़ी तरंगें सही । मगर तरंगें हैं । उसकी तरंगें हैं । अवतार सही । मगर आज हैं । और कल नहीं हो जाएंगे । छोटी तरंग हो सागर में कि बड़ी तरंग हो । इससे क्या फर्क पड़ता है ? तरंग तरंग है । उसकी । तत । उसमें जो ठहर गया । उससे भिन्न अपने को जो नहीं मानता । उसका संबंध अमृत से हो जाता है, क्योंकि परमात्मा अमृत है ।
मगर यह प्रेम यह स्नेह उसी में हो सकता है । जिसके जीवन में श्रद्धा हुई हो । और जिसने किसी गुरु का सत्संग किया हो । गुरु वही है । जो तुम्हें इतनी स्वतंत्रता दे कि तुम जो होना चाहो । तुम्हें साथ दे । सहारा दे । तुम्हें अपनी सारी संपदा को खोलकर रख दे कि चुन लो । और इतनी भी अपेक्षा न रखे कि तुम धन्यवाद देना । जब तुम किसी गुरु से मिल गए हो । तभी तुम इस योग्य हो सकोगे कि अपने से छोटे के प्रति स्नेह कर सको - सम्यक स्नेह । अन्यथा तुम्हारा स्नेह भी फांसी का फंदा होगा । और जब तुम अपने से बड़े के प्रति श्रद्धा कर सको । और अपने से छोटे के प्रति स्नेह कर सको । तो दोनों के मध्य में प्रेम की घटना घटती है । अन्यथा नहीं घटती । तभी तुम अपनी पत्नी को प्रेम कर सकोगे । अपने पति को प्रेम कर सकोगे । और उस प्रेम में बड़े फूल खिलेंगे । बड़ी सुगंध होगी । उस प्रेम में बड़े संगीत का जन्म होगा ।
यह प्रीति की 3 साधारण स्थितियां हैं । और जब यह तीनों सम्यक हो जाती हैं । जब इन तीनों के तार मिल जाते हैं । जब यह तीनों छंदोबद्ध हो जाती हैं । तब चौथी अवस्था - परम अवस्था पैदा होती है । उसका नाम भक्ति । अथातो भक्ति जिज्ञासा ।
जिसने स्नेह किया हो । जिसने प्रेम किया हो । जिसने श्रद्धा की हो । और जिसके तीनों के तार मिल गए हों । और तीनों के माध्यम से जिसके भीतर 1 अपूर्व आनंद की आभा जगी हो । वही व्यक्ति भक्ति करने में कुशल हो सकता है । भक्ति प्रीति की पराकाष्ठा है ।
भक्ति का अर्थ है - सर्वात्मा से प्रीति । छोटे से कर ली । समान से कर ली । बड़े से कर ली - अब सर्वात्मा से । अब परमेश्वर से ।
परमेश्वर कोई व्यक्ति नहीं है । खयाल रखना बारबार । अगर परमेश्वर व्यक्ति है तुम्हारी धारणा में । तो तुम जो करोगे । वह श्रद्धा होगी । फिर श्रद्धा में और भक्ति में कोई फर्क न रह जाएगा । फिर तो परमेश्वर भी 1 व्यक्ति हो गया । जैसे गुरु है । और ऊपर सही । बहुत ऊपर सही । मगर श्रद्धा ही रहेगी । श्रद्धा और भक्ति में भेद है ।
परमात्मा यानी सर्व । जिस दिन तुम्हारी प्रीति सब दिशाओं में अकारण बहने लगे - अहेतुक । वृक्षो को, पहाड़ों को, पत्थरों को, चांद तारों को, दृश्य को, अदृश्य को, यह समस्त को तुम्हारी प्रीति मिलने लगे । तुम इस सारे के प्रेम में पड़ जाओ । तुम्हारे प्रेम पर कोई सीमाएं न रह जाएं । उस दिन भक्ति । अथातो भक्ति जिज्ञासा । अब भक्ति की जिज्ञासा करें ।
सापरानुरक्ति: ईश्वरे - ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग का नाम भक्ति है ।
ऐसा हिंदी में जगह जगह अनुवाद किया जाता है । मूल ज्यादा साफ है । अनुवाद कहता है - ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग का नाम भक्ति है । मूल कहता है - सापरानुरक्ति: । परा । वह जो 3 प्रीतिया थीं । उनका नाम है अपरा - श्रद्धा, प्रेम, स्नेह । वे सांसारिक है । ध्यान रहे । श्रद्धा भी सांसारिक है । नास्तिक भी श्रद्धा कर सकता है । आखिर कम्युनिस्ट श्रद्धा करता ही है - कार्ल मार्क्स में और दास केपिटल में । नास्तिक भी श्रद्धा कर सकता है । उसके भी गुरु होते हैं । चार्वाक को मानने वाला चार्वाक में श्रद्धा करता है । एपीकुरास को मानने वाला एपीकुरस में श्रद्धा करता है । उसके भी गुरु हैं । उसके भी शास्त्र हैं । उसके भी सिद्धात हैं । उसके भी तीर्थ हैं । अगर मुसलमानों के लिए मक्का है । तो कम्युनिस्टों के लिए मास्को है । पर तीर्थ तो है ही । अगर किसी के लिए काबा है । तो किसी के लिए क्रेमलिन है । तीर्थ तो हैं ही । उसी भक्ति उसी पूजा उसी श्रद्धा से लोग मास्को जाते । जिस भक्ति, श्रद्धा और पूजा से लोग काशी जाते हैं । काबा जाते हैं । गिरनार जाते है ।
श्रद्धा सांसारिक है । जिससे हमने कुछ सीखा है । उसके प्रति श्रद्धा हो जाएगी । अगर तुमने किसी से चोरी सीखी है । तो वह तुम्हारा गुरु हो गया । और उससे श्रद्धा हो जाएगी । पापी भी श्रद्धा करता है । बुरा आदमी भी श्रद्धा करता है । आखिर जिससे कुछ सीखा है । वही गुरु हो जाता है । भक्ति श्रद्धा से भिन्न बात है ।
सूत्र कहता है - सापरानुरक्ति । यह तो अपरा हुई । यह तो इस जगत की बातें हुई - प्रेम । स्नेह । श्रद्धा । इनके पार भी 1 शुद्ध रूप है प्रीति का । उस रूप को परा अनुरक्ति, ऐसा शांडिल्य कहते है । उस परा अनुरक्ति का जो पात्र है - वही ईश्वर है ।
अब तुम यह मत समझना कि - कोई ईश्वर है । जिस पर तुम अपनी अनुरक्ति को ढालोगे । जिस पर तुम अपनी अनुरक्ति को केंद्रित करोगे । नहीं, अगर तुमने कोई ईश्वर मान लिया । और फिर उस पर अपनी अनुरक्ति को केंद्रि त किया । तो श्रद्धा हो गयी । जिस दिन तुम्हारी अनुरक्ति सभी पात्रों से मुक्त हो जाएगी । न स्नेह रही । न प्रेम रही । न श्रद्धा रही । जिस दिन तुम्हारी प्रीति शुद्ध प्रीति हो गयी । मात्र प्रीति हो गयी । तुम्हारे चित्त की सहज दशा हो गयी । उस दिन जिस तरफ तुम बहोगे । वही ईश्वर है । सब तरफ ईश्वर है ।
सापरानुरक्तिरीश्वरे । परा अनुरक्ति संपूर्ण होती है । बच्चे से प्रेम होता है । लेकिन इतना नहीं होता कि अगर मरने का वक्त आ जाए । और चुनाव करना पड़े कि दो में से कोई 1 ही जी सकता है । तुम या तुम्हारा बेटा । तो बहुत संभावना यह है कि तुम अपने को बचाओगे । तुम कहोगे - बेटे तो और भी पैदा हो सकते हैं । प्रेम था । लेकिन इतना नहीं था कि अपने को गंवा दो ।
पत्नी से प्रेम है । तुम कहते हो कि - तेरे बिना मर जाऊंगा । मगर अगर आज ऐसा मौका आ जाए कि 1 हत्यारा आ जाए । और कहे कि 2 में से कोई भी 1 मरने को तैयार हो जाओ । तो तुम अपनी पत्नी को कहोगे । क्या बैठी देख रही हो । तैयार हो । मैं तेरा स्वामी हूं । पति तो परमात्मा है । तू बैठी क्या देख रही है ? तब तुम मरने को राजी न होओगे । यह कहने की बातें हैं ।
फिर संपूर्ण अनुरक्ति का क्या अर्थ होता है ? संपूर्ण अनुरक्ति का अर्थ होता है - अब तुम अपने को छोड़ने को राजी हो । अपरा अनुरक्ति में तुम रहते हो । तुम्हारे रहते, सब ठीक । लेकिन अगर तुम्हें स्वयं को दाव लगाना पड़े । तो फिर तुम हट जाते हो । परा अनुरक्ति में तुम अपने को दाव पर लगा देते हो । तुम कहते हो - मैं तो बूंद हूं । जो सागर मे खो जाना चाहती है । मैं तो बीज हूं । जो भूमि में खो जाना चाहता है । तुम परमात्मा और अपने बीच परमात्मा को चुनते हो । सर्व को चुनते हो । तुम अपनी सारी सीमाएं छोड़कर छलांग लगा जाना चाहते हो ।
जब तक यह शीशे का घर है । तब तक ही पत्थर का डर है ।
हर आंगन जलता जंगल है । दरवाजे सांपों का पहरा ।
झरती रोशनियों में अब भी । लगता कहीं अंधेरा ठहरा ।
जब तक यह बालू का घर है । तब तक ही लहरों का डर है ।
हर खूंटी पर टंगा हुआ है । जख्म भरे मौसम का चेहरा ।
शोर सड़क पर थमा हुआ है । जब तक यह काजल का घर है ।
तब तक ही दर्पण का डर है । हर क्षण धरती टूट रही है ।
जर्रा जर्रा पिघल रहा है । चांद सूर्य को कोई अजगर ।
धीरे धीरे निगल रहा है । जब तक यह बारूदी घर है ।
तब तक चिनगारी का डर है ।
जब तक हमने शरीर के साथ अपने को 1 समझा है । तभी तक सब भय हैं - बीमारी के । बुढ़ापे के । मृत्यु के । जिसकी आखें सब जगह छिपे हुए परमात्मा को खोजने लगीं । जिसमें भक्ति की जिज्ञासा उठी । जिसने जानना चाहा है कि - जीवन का परम सार क्या है ? जीवन की परम बुनियाद क्या है ? जो जानना चाहता है कि - अब मैं तरंगों से नहीं । सागर से मिलना चाहता हूं । अब मैं अभिव्यक्ति से नहीं । अभिव्यक्तियों के भीतर जो छिपा है - अदृश्य । उसको जानना चाहता हूं । जिसने अपने भीतर देखा कि - 1 तो देह है । जो दिखायी पड़ती है । और 1 मैं हूं । जो दिखायी नहीं पड़ता ।
तुम आज तक किसी को दिखायी नहीं पड़े हो । इस पर तुमने कभी विचार किया ? न तुम्हारी पत्नी ने तुम्हें देखा । न तुम्हारे बेटे ने । न तुम्हारे मित्रों ने । न तुमने अपनी पत्नी को देखा है । जो देखा है । वह देह है । तुम अनदेखे रह गए हो । तुम जरा कभी बैठकर सोचना । तुम्हें आज तक किसी ने भी नहीं देखा । तुम्हारी आंखों में भी कोई आखें डाल दे । तो भी तुम्हें नहीं देख सकता । फिर भी तुम हो । आंखों से अलग । कानों से अलग । हाथ पैरों से अलग तुम हो । इस देह से अलग तुम हो । तुम भलीभांति जानते हो । वह तुम्हारा सहज अनुभव है कि मैं इससे पृथक हूं । तुम्हारा हाथ कट जाए । तो भी तुम नहीं कट जाते । तुम आखें बंद कर लो । तो भी भीतर तुम देखते हो । बिना आंख के देखते हो । तुम भीतर हो । तुम चैतन्य हो । तुम अदृश्य हो ।
जैसे तुम्हारे भीतर यह छोटा सा अदृश्य छिपा है । ऐसा ही इस सारे जगत के भीतर भी अदृश्य छिपा है । दृश्य दिखायी पड़ रहा है । अदृश्य से पहचान नहीं हो रही है ।
उस अदृश्य की प्रीति में पड़ जाने का नाम भक्ति है ।
फिर भय क्या ? दृश्य छिन जाएगा । तो छिन जाए । अगर दृश्य की कीमत पर विराट अदृश्य मिलता हो । यह क्षुद्र देह जाती हो । तो जाए । यह सस्ता सौदा है । अगर इस देह के जाने पर विराट से मिलन होता हो । प्रभु मिलन होता हो । तो कौन होगा पागल । जो इस देह के लिए रुकेगा ? मगर यह प्रतीति भीतर गहरी हो गयी हो तब । नहीं तो भक्ति की जिज्ञासा का क्षण नहीं आया अभी ।
दोपहरी तक पहुंचते पहुंचते । मुरझा जाता है जो । वह कैसा भोर है ?
क्या, कुल मिलाकर । जीवन का मुंह । मृत्यु की ओर है ।
ऐसा ही है । हम सब मरने की तरफ चल रहे हैं । जिस दिन तुम्हें यह दिखायी पड़ता है कि देर अबेर, आज नहीं कल, यह देह छूट ही जाएगी । यहा हम सब मरने को ही सन्नद्ध खड़े हैं । पंक्तिबद्ध खड़े हैं । कोई आज मर गया । कोई कल मरेगा । देर अबेर मैं भी मरूंगा । यहाँ मृत्यु घटने ही वाली है । इसके पहले अमृत से कुछ पहचान कर लें । अथातो भक्ति जिज्ञासा । इसके पहले कि देह छिन जाए । देह में जो बसा है । उससे पहचान कर लें । इसके पहले कि पिंजड़ा टूट जाए । पिंजड़े में जो पक्षी है । उससे पहचान कर लें । तो फिर पिंजड़ा रहे कि टूटे । कोई भेद नहीं पड़ता । अंतर की जिसे पहचान हो गयी । उसे सब तरफ भगवान की झलक मिलने लगती है । मगर पहली पहचान अपने भीतर है । जिसने स्वयं को नहीं जाना । वह उस परमात्मा को कभी भी नहीं जान सकेगा ।
मेरे पास लोग आते हैं । वे कहते है - परमात्मा को जानना है । मैं उनसे पूछता हूं । तुम स्वयं को जानते हो ? स्वयं को बिना जाने कैसे परमात्मा को जानोगे ? कण से तो पहचान करो । फिर विराट से करना । तत्संस्थस्यामृतत्वोपदेशात - ऐसा कहा है कि उनमें चित्त लग जाने से जीव अमरत्व को प्राप्त हो जाता है ।
उपदेशात का अर्थ होता है - जिन्होंने जाना । उन्होंने कहा है । उपदेश शब्द का अर्थ इतना ही नहीं होता कि - ऐसा कहा है । हर किसी की कही बात उपदेश नहीं होती । उपदेश किसकी बात को कहते हैं ? जिसने जाना हो । और उपदेश क्यों कहते हैं ? उपदेश शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है । जिसके पास बैठने से तुम भी जान लो - उप, देश । जिसके पास बैठने से तुम्हें भी जानना घटित हो जाए । जिसकी सन्निधि में तुम्हारे भीतर भी तरंगे उठने लगें । जिसके स्पर्श से तुम भी स्फुरित हो उठो । जिसके निकट आने से तुम्हारा दीया भी जल जाए । उसके वचन को उपदेश कहते हैं ।
तत्सस्थस्यामृतत्वोपदेशात - जिन्होंने जाना है । उन्होंने कहा है कि उसमें चित्त लग जाने से जीवन अमरत्व को प्राप्त हो जाता है । अनुवाद में थोड़े शब्द ज्यादा हो गए हैं । संस्कृत के सूत्र शब्दों के संबंध में बड़े वैज्ञानिक है । 1 शब्द का भी ज्यादा उपयोग नहीं करेंगे । अनुवाद ने जीव शब्द को बीच में डाल दिया । अनुवाद इतना ही होना चाहिए -जिन्होंने जाना । उन्होंने कहा - जो उसे पा लेते हैं । वे अमृत हो जाते हैं । उनकी मृत्यु मिट जाती है । उनके लिए मृत्यु मिट जाती है । उनका मृत्यु से संबंध विच्छिन्न हो जाता है । क्यों ? क्योंकि ईश्वर का अर्थ होता है - जीवन । वृक्ष आते हैं । और जाते हैं । लेकिन वृक्षों के भीतर जो छिपा जीवन है । वह सदा है । पात्र बदलते हैं । नाटक चलता है । हम नहीं थे । सब था । हम नहीं होंगे । फिर भी सब होगा । हमारे होने न होने से कुछ भेद नहीं पड़ता । जो है - है । हम तरंगें हैं । हम हो भी जाते हैं । नहीं भी हो जाते है । फिर भी इस अस्तित्व में न तो हमारे होने से कुछ जुड़ता है । और न हमारे न होने से कुछ घटता है । यह अस्तित्व उतना का उतना, जितना का जितना, जस का तस, वैसा का वैसा बना रहता है ।
सागर में लहर उठी । फिर लहर सो गयी । क्या तुम सोचते हो लहर के उठने से सागर में कुछ नया जुड़ गया था ? अब लहर के चले जाने से क्या सागर में कुछ कमी हो गयी ? न तो सागर में कुछ जुड़ा । न कुछ कमी हुई । सब वैसा का वैसा है ।
सत्य न तो घटता । न बढ़ता । बढ़े तो कहा से बढ़े । घटे तो कहां घटे । कैसे घटे ? सत्य तो जितना है उतना है । जिस दिन व्यक्ति अपने को लहर की तरह देखता है । और परमात्मा को सागर की तरह । अपने को तरंग की तरह । इससे ज्यादा नहीं । 1 रूप, 1 नाम । इससे ज्यादा नहीं । 1 भावभंगिमा, 1 मुखमुद्रा । इससे ज्यादा नहीं । उसके भीतर उठा हुआ 1 स्वप्न । इससे ज्यादा नहीं । अमृत से संबंध हो गया ।
तत्संस्थस्या - उसके साथ जो जुड़ गया । तत शब्द विचारणीय है । तत का अर्थ होता है - वह; दैट । ईश्वर को हम कोई व्यक्तिवाची नाम नहीं देते । क्योकि व्यक्तिवाची नाम देने से भ्रांतियां होती हैं । राम कहो । कृष्ण कहो । भ्रांति खड़ी होती है । क्योंकि यह भी तरंगें हैं । बड़ी तरंगें सही । मगर तरंगें हैं । उसकी तरंगें हैं । अवतार सही । मगर आज हैं । और कल नहीं हो जाएंगे । छोटी तरंग हो सागर में कि बड़ी तरंग हो । इससे क्या फर्क पड़ता है ? तरंग तरंग है । उसकी । तत । उसमें जो ठहर गया । उससे भिन्न अपने को जो नहीं मानता । उसका संबंध अमृत से हो जाता है, क्योंकि परमात्मा अमृत है ।
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