बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि। महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर
बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किए तिलक गुन गन बस करनी
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हिय होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू
उघरहिं बिमल बिलोचन हिय के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहं जो जेहि खानिक
जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान। कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा
अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करे जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहु बेद न आन उपाऊ॥
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥५॥
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥३॥
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहु कि कागा॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई
भलो भलाइहि पे लहइ लहइ निचाइहि नीचु। सुधा सराहिअ अमरता गरल सराहिअ मीचु
उधरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू
किएहु कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी
आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
सीय राममय सब जग जानी। करउ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी
बिधुबदनी सब भांति संवारी। सोह न बसन बिना बर नारी
धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
जो अपने अवगुन सब कहऊ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊ॥
ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महु जानिहहिं सयाने॥
एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥
कबि न होउ नहिं चतुर कहावउ। मति अनुरूप राम गुन गावउ॥
सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना
कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥
महाबीर बिनवउ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासी मुकुति हेतु उपदेसू
महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ
जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू
सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय संग भवानी
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को
सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥
समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी
को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना
नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
नाम जीह जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीह जपि जानहिं तेऊ
साधक नाम जपहिं लय लाए। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाए
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी
राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥
चहू चतुर कहु नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा
चहु जुग चहु श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ
सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहु किए मन मीन
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरे मत बड़ नामु दुहू ते। किए जेहिं जुग निज बस निज बूते॥
उभय अगम जुग सुगम नाम ते। कहेउ नामु बड़ ब्रह्म राम ते॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनंद रासी
निरगुन ते एहि भांति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
कहउ नामु बड़ राम ते निज बिचार अनुसार
नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥
राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ॥
नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥
राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं
ब्रह्म राम ते नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महं लिय महेस जिय जानि
नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी
नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू
ध्रुव सगलानि जपेउ हरि नाऊं। पायउ अचल अनूपम ठाऊ॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई
चहु जुग तीनि काल तिहु लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
भाय कुभाय अनख आलसहू। नाम जपत मंगल दिसि दसहू॥
नाना भांति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा
चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजे तनु नहिं संसारा
मन करि विषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौ एहिं सर परई
अति खल जे बिषई बग कागा। एहिं सर निकट न जाहिं अभागा॥
आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई
गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला
सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही। राम सुकृपा बिलोकहिं जेही
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई
जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई
काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
सादर मज्जन पान किए ते। मिटहिं पाप परिताप हिए ते
राम नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा
संतत जपत एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा
नारि बिरह दुखु लहेउ अपारा। भयहु रोषु रन रावनु मारा
जपत उमा संग संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि
जैसे मिटे मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहं जो जेहि खानिक
जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान। कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा
अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करे जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहु बेद न आन उपाऊ॥
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥५॥
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥३॥
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहु कि कागा॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई
भलो भलाइहि पे लहइ लहइ निचाइहि नीचु। सुधा सराहिअ अमरता गरल सराहिअ मीचु
उधरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू
किएहु कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी
आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
सीय राममय सब जग जानी। करउ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी
बिधुबदनी सब भांति संवारी। सोह न बसन बिना बर नारी
धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
जो अपने अवगुन सब कहऊ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊ॥
ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महु जानिहहिं सयाने॥
एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥
कबि न होउ नहिं चतुर कहावउ। मति अनुरूप राम गुन गावउ॥
सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना
कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥
महाबीर बिनवउ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासी मुकुति हेतु उपदेसू
महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ
जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू
सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय संग भवानी
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को
सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥
समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी
को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना
नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
नाम जीह जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीह जपि जानहिं तेऊ
साधक नाम जपहिं लय लाए। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाए
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी
राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥
चहू चतुर कहु नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा
चहु जुग चहु श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ
सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहु किए मन मीन
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरे मत बड़ नामु दुहू ते। किए जेहिं जुग निज बस निज बूते॥
उभय अगम जुग सुगम नाम ते। कहेउ नामु बड़ ब्रह्म राम ते॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनंद रासी
निरगुन ते एहि भांति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
कहउ नामु बड़ राम ते निज बिचार अनुसार
नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥
राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ॥
नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥
राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं
ब्रह्म राम ते नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महं लिय महेस जिय जानि
नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी
नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू
ध्रुव सगलानि जपेउ हरि नाऊं। पायउ अचल अनूपम ठाऊ॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई
चहु जुग तीनि काल तिहु लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
भाय कुभाय अनख आलसहू। नाम जपत मंगल दिसि दसहू॥
नाना भांति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा
चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजे तनु नहिं संसारा
मन करि विषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौ एहिं सर परई
अति खल जे बिषई बग कागा। एहिं सर निकट न जाहिं अभागा॥
आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई
गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला
सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही। राम सुकृपा बिलोकहिं जेही
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई
जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई
काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
सादर मज्जन पान किए ते। मिटहिं पाप परिताप हिए ते
राम नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा
संतत जपत एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा
नारि बिरह दुखु लहेउ अपारा। भयहु रोषु रन रावनु मारा
जपत उमा संग संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि
जैसे मिटे मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद
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