जड भरत के नाम से एक महान संत हुये हैं । पूर्वजन्म में जब ये एक ऋषि थे । एक हिरन के बच्चे में इनकी गहरी आसक्ति हो गयी थी । जिसके कारण इनको हिरण की योनि में जन्म लेना पङा । पूर्वजन्म में जब ये ऋषि थे । इनके आश्रम के निकट ही बाघ के भय से भागती एक गर्भिणी मृगी ने एक शिशु को जन्म दिया और उसी अवस्था में नवजात शिशु को छोङकर भाग गयी । ऋषि ने दया कर उस बच्चे को पाल लिया । और अधिक से अधिक उसकी देखभाल करने लगे । इसी तरह कुछ समय बाद उनका अंत आ गया । पर उनका पूरा ध्यान उस हिरण के बच्चे में ही रहा कि इसकी देखभाल किस तरह होगी ? और इसी चिन्ता में उनके प्राण पखेरू उङ गये । हिरण के बच्चे में आसक्ति होने से ही उनको यही योनि प्राप्त हुयी ।..जहाँ आसा तहाँ वासा । यही है खेल तमाशा ??
लेकिन पूर्वजन्म के ग्यानी होने की वजह से वो शीघ्र ही जान गये कि हिरण के बच्चे में घोर आसक्ति रखकर उन्होने भारी गलती की है । जो इस योनि में उन्हें आना पङा । अतः ग्यानियों वाला आचरण अपनाते हुये उन्होनें खाना पीना छोङ दिया । क्योंकि अब इस देह से छुटकारा पाने का यही एकमात्र तरीका था । फ़िर प्यास से अत्यन्त व्याकुल होने पर । जब वह निकट के सरोवर में जल पीने गये । तो कमजोरी के कारण वहीं गिर पङे । और उनका देहान्त हो गया । फ़िर इनका जन्म मनुष्य योनि में हुआ । क्योंकि इनको हरदम याद रहा कि मैं एक मनुष्य ही था । दूसरे जन्म में भरत जी एक अच्छे परिवार में पैदा हुये थे । और बेहद हष्टपुष्ट शरीर के मालिक थे । लेकिन संसार के किसी काम में इनकी कोई रुचि नहीं थी । जबकि घरवाले चाहते थे कि ये काम में रुचि लें ।
एक दो बार घरवालों ने जबरन इनका मन संसार के कामों में लगाना चाहा । पर भरत जी से वो कार्य बिगङ ही गया । तब हारकर इनके पिता ने इन्हें खेती की रखवाली पर लगा दिया । भरत जी ने वह कार्य भी ठीक से नहीं किया । और सारी फ़सल चिङियों को चुगा देते थे ।
वे खेत की रखवाली के वजाय कहते । राम की चिरैया । राम का खेत । चुग लो चिरैया । भर भर पेट । तब घरवालों ने ये सोचकर कि इसका सुधरना मुश्किल है । इन्हें मार पीटकर घर से निकाल दिया । भरत जी यों ही रास्ते आदि में मस्ती में पङे रहते थे ।
उन्हीं दिनों की बात हैं । एक दिन राजा रहूगण पालकी में बैठकर काली देवी को मनुष्य की बलि चङाने जा रहा था । तभी रास्ते में अचानक एक कहार की तबियत खराब हो गयी । और वह पालकी उठाने में असमर्थ हो गया ।
तब दूसरे आदमी की तलाश में राजा के कर्मचारियों की नजर भरत जी पर गयी । और उन्हें राजा की पालकी उठाने का आदेश दे दिया गया । भरत जी ने बिना किसी प्रतिवाद के वह बात मान ली । और पालकी उठा के चलने लगे । परन्तु एक तो वह शरीर के मोटे थे । दूसरी बात वो चलते समय चींटियों को बचाकर चल रहे थे । और रास्ते में जहाँ चींटियों का झुन्ड आता था । भरत जी कूद जाते थे । इससे पालकी डगमगा जाती थी । इस पर राजा ने बिगङकर कहा । कौन मूरख है । जो पालकी को ढंग से नहीं चला रहा है ? सेवकों ने तत्काल उत्तर दिया । महाराज ये नया कहार गङबङ कर रहा है । दुबारा फ़िर ऐसा ही हुआ । तो राजा ने पालकी से उतरकर भरत जी के चांटा मार दिया ।
भरत जी ने कहा । राजा तू मुझे कभी चांटा नहीं मार सकता । ये तो तूने मेरे स्थूल शरीर को चांटा मारा है ?? और ये मैं नहीं हूँ ?? राजा ये उत्तर सुनकर चकित रह गया । खैर..किसी तरह पालकी देवी के मन्दिर पहुँची । और होनी की बात वहाँ भी बलि हेतु लाये गये युवक की तबियत बिगङ गयी । और बलि के नियमानुसार अस्वस्थ इंसान की बलि नहीं दी जा सकती थी । तब फ़िर लोगों का ध्यान भरत जी की और गया । और इन्हीं की बलि चङाने का निश्चय हुआ ।
भरत जी ने अब भी कोई प्रतिवाद नहीं किया । और इनको स्नान आदि कराके फ़ूल आदि के हार पहना के बलि स्थल पर लाकर खङा कर दिया गया । लेकिन जैसे ही राजा ने खडग ( कटार ) उठाकर बलि देनी चाही । काली देवी तत्काल प्रकट हो गयी । और बोली । मूर्ख राजा । तू ये क्या करने जा रहा है ?? ये महान शक्ति है । तेरा तो सर्वनाश होगा ही । मैं भी रसातल को चली जाऊँगी । राजा ये दृश्य देखकर थरथर काँपने लगा । और भरत जी के पैरों पर गिरकर रोने लगा ।
चौथे महल पुरुष एक स्वामी । जीव अंश वह अंतरजामी । ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखराशी । करम प्रधान विश्व रचि राखा । जो जस करे सो तस फ़ल चाखा । पसु पक्षी सुर नर असुर । जलचर कीट पतंग । सबही उतपति करम की । सहजो नाना रंग । धनवन्ते सब ही दुखी । निर्धन है दुख रूप । साध सुखी सहजो कहे । पायो भेद अनूप ।
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