सत्यज - शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है । सिर्फ त्याग नहीं । सम्यक त्याग । क्योंकि त्याग तो कभी कभी कोई हठ में भी कर देता है । जिद में भी कर देता है । कभी कभी तो अहंकार में भी कर देता है । तुम जाते हो न किसी के पास दान लेने । तो पहले उसके अहंकार को खूब फुसलाते हो कि आप महादानी । आपके बिना क्या संसार में धर्म रहेगा । खूब हवा भरते हो । जब देखते हो कि फुग्गा काफी फैल गया है । तब तुम बताते हो कि 1 मंदिर बन रहा है । अब आपकी सहायता की जरूरत है । वह जो आदमी 1 रुपया देता । शायद 100 रुपये दे । तुमने खूब फूला दिया है । लेकिन दान आ रहा है । वह सम्यक त्याग नहीं है । वह तो अहंकार का हिस्सा है । अहंकार से कहीं सम्यक त्याग हो सकता है ? मैंने सुना है कि 1 राजनीतिज्ञ अफ्रीका के 1 जंगल में शिकार खेलने गया । और पकड़ लिया गया । जिन्होंने पकड़ लिया । वे थे नरभक्षी कबीले के लोग । वे जल्दी उत्सुक थे उसको खा जाने को । कढाए चढ़ा दिए गये । लेकिन वह जो उनका प्रधान था । वह उसकी खूब प्रशंसा कर रहा है । और देर हुई जा रही है । ढोल बजने लगे । और लोग तैयार हैं कि अब भोजन का मौका
आया जा रहा है । और ऐसा सुस्वाद भोजन बहुत दिन से मिला नहीं था । देर होने लगी । तो 1 ने आकर कहा अपने प्रधान को कि - इतनी देर क्यों करवा रहे हो ? उसने कहा कि - तुम ठहरो । यह राजनीतिज्ञ है । मैं जानता हूं । पहले इसको फूला लेने दो । जरा इसकी प्रशंसा कर लेने दो । जरा फूलकर कुप्पा हो जाए । तो ज्यादा लोगों का पेट भरेगा । नहीं तो वह ऐसे ही दुबला पतला है । ठहरो थोड़ा । मैं जानता हूं राजनीतिज्ञ को । पहले उसके दिमाग को खूब फूला दो । तुम्हारा अहंकार कभी कभी त्याग के लिए भी तैयार हो जाता है । तुमने देखा न । कभी अगर त्यागी की शोभायात्रा निकलती है कि जैन मुनि आए । शोभायात्रा निकल रही है । राह के किनारे खड़े होकर तुम्हें भी देखकर मन में उठता है - ऐसा सौभाग्य अपना कब होगा ? जब अपनी भी शोभायात्रा निकले । 1 दफे मन में सपना उठता है कि हम भी इसी तरह सब छोड़छाड़ कर । रखा भी क्या है संसार में ? शोभायात्रा निकलवा लें । लोग उपवास कर लेते हैं - 8-8 10-10 दिन के । क्योंकि 10 दिन के उपवास के बाद प्रशंसा होती है । सम्मान मिलता है । मित्र प्रियजन, पड़ोसी
पूछने आते हैं - सुख दुख । सेवा के लिए आते हैं । बड़ा काम कर लिया । छोटे छोटे बच्चे भी अगर घर में उपवास की महिमा हो । तो उपवास करने को तैयार हो जाते हैं । सम्मान मिलता है । अगर अहंकार को सम्मान मिल रहा हो । तो त्याग सत्यता नहीं है । फिर वही पुराना रोग जारी है । कोई क्रांति नहीं घटती । क्रांति के लिए भी हमारे पास 2 शब्द हैं - क्रांति । और संक्रांति । तो जो क्रांति जबर्दस्ती हो जाए । किसी मूढ़ता वश हो जाए । आग्रह पूर्वक हठ पूर्वक हो जाए - वह क्रांति । लेकिन जब कोई क्रांति जीवन के बोध से निकलती है । तो - संक्रांति । सहज निकलती है । तो - संक्रांति । संत्यज का अर्थ होता है - सम्यक रूपेण बोधपूर्वक छोड़ दो । किसी कारण से मत छोड़ो । व्यर्थ है । इसलिए छोड़ दो । धन को इसलिए मत छोड़ो कि धन छोड़ने से गौरव मिलेगा । त्यागी की महिमा होगी । या स्वर्ग मिलेगा । या पुण्य मिलेगा । और पुण्य को भंजा लेंगे भविष्य में । तो फिर सम्यक त्याग न हुआ । असम्यक हो गया । इसलिए छोड़ दो कि - देख लिया । कुछ भी नहीं है । तुम 1 पत्थर लिए चलते थे सोचकर कि हीरा है । फिर मिल गया कोई पारखी । उसने कहा - पागल हो ? यह पत्थर है । हीरा नहीं । 1 जौहरी मरा । उसका बेटा छोटा था । उसकी पत्नी ने कहा कि - तू अपने पिता के मित्र 1 दूसरे जौहरी के पास चला जा । हमारे पास बहुत से हीरे जवाहरात तिजोरी में रखे हैं । वह उनको बिकवा देगा । तो हमारे लिए पर्याप्त हैं । वह जौहरी बोला - मैं खुद आता हूं । वह आया । उसने तिजोरी खोली । 1 नजर डाली । उसने कहा - तिजोरी बंद रखो । अभी बाजार भाव ठीक नहीं । जैसे ही बाजार भाव ठीक होंगे । बेच देंगे । और तब तक कृपा
करके बेटे को मेरे पास भेज दो । ताकि वह थोड़ा जौहरी का काम सीखने लगे । वर्ष बीता । 2 वर्ष बीते । बार बार स्त्री ने पुछवाया कि - बाजार भाव कब ठीक होंगे । उसने कहा - जरा ठहरो । 3 वर्ष बीत जाने पर उसने कहा कि - ठीक, अब मैं आता हूं । बाजार भाव ठीक हैं । 3 वर्ष में उसने बेटे को तैयार कर दिया । परख आ गई बेटे को । वे दोनों आए । तिजोरी खोली । बेटे ने अंदर झांककर देखा । हंसा । उठाकर पोटली को बाहर कचरे घर में फेंक आया । मां चिल्लाने लगी कि - पागल, यह क्या कर रहा है । तेरा होश तो नहीं खो गया ? उसने कहा कि - होश नहीं । अब मैं समझता हूं कि मेरे पिता के मित्र ने क्या किया । अगर उस दिन वे इनको कहते कि ये कंकड़ पत्थर हैं । तो हम भरोसा नहीं कर सकते थे । हम सोचते कि शायद यह आदमी धोखा दे रहा है । अब तो मैं खुद ही जानता हूं कि ये कंकड़ पत्थर हैं । इन 3 साल के अनुभव ने मुझे सिखा दिया कि हीरा क्या है । ये हीरे नहीं हैं । हम धोखे में पड़े थे । यह सम्यक त्याग हुआ । बोधपूर्वक हुआ । जब तक तुम त्याग किसी चीज को पाने के लिए करते हो । वह त्याग नहीं - सौदा है । सम्यक त्याग नहीं । सम्यक त्याग तभी है । जब किसी चीज की व्यर्थता दिखाई पड़ गई । अब तुम किसी के लिए थोड़े ही छोड़ते हो । सुबह तुम घर का कचरा झाड़ बुहार कर कचरे घर में फेंक आते हो । तो अखबार में खबर थोड़े ही करवाते हो कि आज फिर कचरे का त्याग कर दिया । वह सम्यक त्याग है । जिस दिन कचरे की तरह चीजें तुम छोड़ देते हो । उस दिन सम्यक त्याग, बोध पूर्वक जानकर कि ऐसा है ही नहीं ।
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गुरुनानक तीर्थाटन करते हुए मक्का शरीफ पधारे । रात हो गई थी । अतः वे समीप ही 1 वृक्ष के नीचे सो गए । सबेरे उठे । तो उन्होंने अपने चारों ओर बहुत सारे मुल्लाओं को खड़ा पाया । उनमें से 1 ने नानक देव को उठा देख डांटकर पूछा - कौन हो जी तुम ? जो खुदा पाक के घर की ओर पांव किए सो रहे हो ?
बात यह थी कि नानक देव के पैर जिस ओर थे । उस ओर काबा था । नानक देव ने उत्तर दिया - जी, मैं 1 मुसाफिर हूं । गलती हो गई । आप इन पैरों को उस ओर कर दें । जिस ओर खुदा का घर नहीं हो ।
यह सुनते ही उस मुल्ला ने गुस्से से पैर खींचकर दूसरी ओर कर दिए । किंतु सबको यह देख आश्चर्य हुआ कि उनके पैर अब जिस दिशा की ओर किए गए थे । काबा भी उसी तरफ है । वह मुल्ला तो आगबबूला हो उठा । और उसने उनके पैर तीसरी दिशा की ओर कर दिए । किंतु यह देख वह दंग रह गया कि काबा भी उसी दिशा की ओर है । सभी मुल्लाओं को लगा कि यह व्यक्ति जरूर ही कोई जादूगर होगा । वे उन्हें काजी के पास ले गए । और उससे सारा वृत्तांत कह सुनाया । काजी ने नानकदेव से प्रश्न किया - तुम कौन हो । हिंदू या मुसलमान ?
जी ! मैं तो 5 तत्वों का पुतला हूं - उत्तर मिला ।
- फिर तुम्हारे हाथ में पुस्तक कैसे है ?
- यह तो मेरा भोजन है । इसे पढ़ने से मेरी भूख मिटती है ।
इन उत्तरों से ही काजी जान गया कि यह साधारण व्यक्ति नहीं । बल्कि कोई दिव्य महापुरुष है । उसने उनका आदर किया । और उन्हें तख्त पर बिठाया ।
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